इलाहाबाद हमेशा से अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब,संस्कृति और अपनी शेरी व अदबी फ़िज़ा के लिए मशहूर रहा है.शायरी इलाहाबाद के दिल धडकन और रूह की तरह बस्ती है. पुराने ज़माने से लेकर मौजूदा दौर तक बहुत से शायरों ने अपनी शायरी के ज़रिये इलाहाबाद की फ़िज़ा को खुशनुमा बनाये रखा और अपनी गज़लों व नज्मों के ज़रिये शायरी को बुलंदी बख्शी लेकिन बहुत कम शायर ऐसे हैं जिन्होंने अपनी शायरी के गुलदस्ते में ज़िंदगी के तमाम रंगों के फूलों को समेटा और महकाया. इस लिहाज़ से अगर मौजूदा दौर के शायरों का ज़ायज़ा लिया जाये तो जो नाम मेरे जेहन में सबसे पहले आता है वह हैं अज़ीज़ इलाहाबादी, जिनका पिछले 18 सितम्बर 2011 को इन्तेकाल हो गया.अज़ीज़ इलाहाबादी की पैदाइश 1935 में हुई थी. उनके वालिद का नाम जनाब अब्दुल हमीद खान है. अज़ीज़ साहब की चार किताबें छप चुकीं हैं. इन किताबों के नाम- गज़ल का सुहाग, गांव से शहर तक, गज़ल संसार और नुरुल हुदा है.
अज़ीज़ इलाहाबादी ने मुख्तलिफ अस्नाफे सुखन को अपनी शायरी के दायरे में लिया है.उनका शेरी सरमाया गज़लों,नज्मों,हम्द,नात,सलाम,मनकबत,कतआत, गीतों, दोहों वगैरह से मालामत है, लेकिन यहाँ पर मुझे उनकी गज़लों का जायजा लेना मकसूद है. गज़ल शायरी की एक हरदिल अज़ीज़ और मकबूलतरीन सिंफ है. जिसने यह साबित करके अपने मुखालफीन के ज़बान बंद कर दी कि उसका दायरा सिर्फ हुस्न-इश्क की बातें करने तक महदूद नहीं बल्कि ज़िंदगी के हर पहलू और दुनिया के हर मज़मून को समेट लेने की वुसअत और सलाहियत इसके अंदर मौज़ूद है. इसकी ताज़ा मिसाल अज़ीज़ इलाहाबादी की ग़ज़लें हैं, जो महबूब की जुल्फों से अटखेलियां करते, लबो रुखसार की बातें करते हुए, मरमरीं जिस्म की मदहोश कर देने वाली खुशबू से मुअत्तर होकर जामो सुबू के नग्में गाते रिन्दों के दरमयान अपनी मौजूदगी दर्ज करात हुए शहर की गलियों और सड़कों का गहराई से जायजा लेते हुए गांव के तरफ मुड जाती हैं जहाँ वह ताज़ा हवा और पुरसुकून माहौल में सांस लेती है और फिर खेतों-खलिहानों के दरमियान से गुजरकर, पनघट पर अपनी मौजूदगी का अहसाह दिलाते हुए गांव की गोरी पायल और गागर तक पहुँच जाती है. इस तरह हम देखते हैं कि अज़ीज़ इलाहाबादी के ग़ज़लें गांव से लेकर शहर तक के हुस्नो-जमाल का दीदार कराने के साथ-साथ ज़िंदगी के मौजूदा मसायल की ऐसी नंगी तस्वीर दिखाती जिसे हम देखते हुए भी कभी-कभी नहीं देख पाते.
अज़ीज़ इलाहाबादी की गज़लगोयी के बारे में पदमश्री बेकल उत्साही अपनी राय कुछ इस तरह ज़ाहिर करते हैं-'यह काफी ज़हीन उम्दा और नोकपलक के मालिक हैं. रवायत के साथ जिद्दत की डगर अपना लेते हैं और साफ-सुथरे अशआर निकालने का ज़ज्बा रखते है. बहरहाल लफ़्ज़ों के परखने का हुनर और गज़ल कहने का फन जानते हैं.'
अज़ीज़ इलाहाबादी का रिश्ता गांव और शहर दोनों से रहा है, वह खुद लिखते हैं,'मेरी ज़िंदगी दो हिस्सों में तकसीम है, एक शहर से और दूसरी गांव से मुताल्लिक'. इस तरह उन्होंने गांव और शहर दोनों की ज़िंदगी और रहन-सहन को करीब से देखा और क़ुबूल किया. उनकी गज़लों में गांव और शहर दोनों की सच्ची तस्वीर नज़र आती है. शहर की नुमाइशी ज़िंदगी और इंसानी खुदगर्जी को वह पसंद नहीं करते. उनकी ग़ज़लें शहर की कशमकश भरी ज़िंदगी, तरक्की के नाम पर छलावा, मुहब्बत ने नाम पर फरेब,उलझन, परेशानी की तल्ख़ हकीकात पेश करती है-
दुश्मनी, दोस्ती की शक्ल में है,
उसकी जानिब से घात बाक़ी है,
इस अहदे तरक्की में, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के
परदे पे नए चेहरे दिखलाये गए आखिर
दौरे हाज़िर में सब ही फ़रिश्ते मिले
कोई मिलता नहीं आदमी की तरह
शहर के मुक़ाबले गांव की ज़िंदगी को वह ज़्यादा पसंद करते हैं, जहाँ पुरसुकून माहौल है, खेतों की हरियाली, खलिहानों का सुहाना मंज़र है, सादगी है और सबसे बढ़कर इंसानियत, मुहब्बत और अपनापन है. हालंकि अज़ीज़ साहब की गज़लों में मौजूदा गांव की तस्वीर नहीं बनती, लेकिन वह माजी के गांव की भरपूर तर्जुमानी करती हैं.
कड़वा-कड़वा शहर का लहजा
गांव में अपनापन बाक़ी है,
पेड़ के फल नए मौसम में रसीले होंगे
फूल सरसों के तेरे नाम से पीले होंगे
रौनकें शहर की वह छोड़कर क्यों आएगा
गांव के रस्ते बरसात में गीले होंगे
फागुन आया,सरसों फूली,होली नाचे खेतों में
साजन गोरी को मारे,रंग भरी पिचकारी भी.
डॉ. अहमद लारी अज़ीज़ इलाहाबादी की गांव की शायरी के बारे में लिखते हैं,'मेरे ख्याल से इनका सबसे अहम कारनामा यह है कि इन्होंने गज़ल का रिश्ता गांव की ज़िंदगी से जोड़ा है और इसमें गांव की गोरी के रूप में अनूप,पनघट,सखियों की छेड़छाड़,खेतों की हरियाली,गेंहूँ की बालियों की सुनहरी रंगत,गांव के लोगों की फितरी सादगी और मासूमियत और उनके दुःख-सुख को इन्तेहाई दिलकश अंदाज़ में पेश किया है.' अज़ीज़ साहब की शायरी मौजूदा दौर की शायरी है. उन्होंने समाज के हर तबके की ज़िंदगी का बारीकी से जायजा लिया है, चाहे वह ज़मीदारों,ठेकेदारों और अमीरों की सहूलियत से भरी ज़िंदगी हो या गरीबों की भूख और लाचारी से भरा जीवन, कोई भी पहलू अज़ीज़ साहब से छुटा नहीं है-
ज़मीन बेचकर अपनी वह मज़बूरी में रहते हैं
ज़मीदारों के बेटे हैं जो कालोनी में रहते हैं
तडपती भूख सुलगती है प्यास की शिद्दत
किसी गरीब से पूछो कि ज़िंदगी क्या है
अज़ीज़ इलाहाबादी का कमाल यह है की वह सिर्फ अपने महबूब के हुस्न या लबो रुखसार को ही नहीं देखते बल्कि गांव से लेकर शहर तक की इंसानी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं पर गहरी निगाह रखते हैं. अहदे हाज़िर में मशीनी इस्तेमाल से जहाँ तरक्की की राहें आसान हुईं हैं और तरह-तरह की सहूलियात और फ़वायद हासिल हुए हैं वहीँ इसमें कई तरह के नुक्सानात भी सामने आयए हैं जिनका ज़िक्र अज़ीज़ साहब की गज़लों में मिलता है-
भूख प्यास और बढ़ गई
हाथ जब मशीन हो गए
अज़ीज़ साहब ने अपनी गज़लों में मौजूदा वक्त में दम तोड़ती हुयी इंसानियत, खत्म होती मुहब्बत,झूठी हमदर्दी और बिखरी हुई पुरानी कद्रों को बड़े ही पुरअसर अंदाज़ में पेश किया है-
यह अहदे सफीराने तरक्की की थकन है
या सिलसिला-ए-दैर-ओ-हरम टूट रहे हैं
लिबास पहने है हर जिस्म शख्सियत का मगर
मिला न कोई भी इंसानियत के पैकर में
अपनी शायरी के ज़रिये वह इनसानों को अपनी बुनियादी कदरों को बरकरार रखने और ज़िंदगी की हकीकत को पहचानने पर जोर देते हैं. उनके मुताबिक इनसानियत से दूर रहकर दुनियावी तरक्की से कोई फायदा नहीं होने वाला. इस झूठी तरक्की और वक्ती चकाचौंध के पसेपर्दा अँधेरे के सिवा कुछ भी नहीं-
तुम्हारे पास उजाला नहीं अँधेरा है
किसी को रौशनी-ए-अफताब क्या दोगे,
अज़ीज़ अहले हुनर क़ैद हैं अँधेरे में
यह दौर, दौर-ए-तबाही है रौशनी क्या है
इस तरह अज़ीज़ साहब की शायरी माजी,हाल और मुस्तकबिल ( भूत,वर्तमान तथा भविष्य) की झलक नज़र आती है. उन्होंने जहाँ-जहाँ मौजूदा दौर के तमाम मसायल को अपनी गज़लों में शामिल किया वहीँ वह शानदार माजी की कद्रों को भी अपनी गज़लों के ज़रिय पेश किया है.डॉ. सय्यद शमीम गौहर उनकी जमालियाती शायरी के बारे में लिखते हैं, 'हुस्ने जानां की तशरीह, जुल्फों की तफसीर,सीनये सोजाँ की रूदाद,ज़ख्मे जिगर और चश्मेतर की तर्जुमानी से अज़ीज़ इलाहाबादी का तर्जे सुखन चमकता-दमकता नज़र आता है. ज़ायकए हुस्न और हुस्नेजन की लतीफ़ सरगोशियाँ इन्हें हमेशा गुदगुदाती रहीं, दर्दो कर्ब और यादों की खराशों से वह कभी घबराते नहीं और न ही हसरतो यास के दीवानापन से परेशान होते हैं बल्कि इन नेमतों को अज़ीज़ जानते सीने सेलगाते हुए ज़ज्बये तख्य्युलात का इज़हार करते हैं.'
ज़बान के ऐतबार से अज़ीज़ इलाहाबादी की ग़ज़लें आमफहम हैं. उन्होंने गांव और शहर की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बोली जाने वाली आम आदमी की ज़बान को गज़लों में इस्तेमाल किया है जिसमें हिंदी और उर्दू के सादे और आसान अलफ़ाज़ का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने निहायत सादगी और कामयाबी के साथ अपनी बात कही है. उनकी गज़लों में ऐसे अल्फाज़ भी कसरत के साथ नज़र आते हैं जो गज़ल के मिजाज़ के ऐतबार से मुनासिब नहीं रखते और आमतौर पर शह लतीफ़ की ज़हनी सतह पर गिरन गुजारते हैं, जैसे- अंगनाई,पथरन,कथरी, हटीले,टाट,छप्पर,चितवन,चौकड़ी,पैवंद,नवीन,कड़ी,छैल-छबीली,उपटन,गागर,कटोरा आदि, लेकिन अज़ीज़ साहब जो गज़ल की नजाकत और लताफत के साथ उसके फन से भी बखूबी वाकिफ हैं, वह लफ़्ज़ों को परखने और उसके इस्तेमाल करने का हुनर भी जानते हैं और यही हुनर उनको मकबूल व मुनफरिद करता है.गरजकि अज़ीज़ इलाहाबादी कि गज़लिया शायरी ज़मीन से जुडी खालिस हिन्दुस्तानी शायरी है जो न सिर्फ हुस्नो जमालियात और कैफो निशात की तर्जुमान है बल्कि एक ऐसा आईना भी है जिसमें इंसानी समाज और दुनियावी रिवाज़ की सच्ची तस्वीर नजर आती है, एक ऐसी तस्वीर जो क़ारी के ख्वाबीदा जेहन को झिंझोड कर कुछ देर के लिए बदार करने की कुवत रखती है.
सायमा नदीम
3/6, अटाला,तुलसी कोलोनी, इलाहबाद, मोबाईल: 9336273768
अज़ीज़ इलाहाबादी ने मुख्तलिफ अस्नाफे सुखन को अपनी शायरी के दायरे में लिया है.उनका शेरी सरमाया गज़लों,नज्मों,हम्द,नात,सलाम,मनकबत,कतआत, गीतों, दोहों वगैरह से मालामत है, लेकिन यहाँ पर मुझे उनकी गज़लों का जायजा लेना मकसूद है. गज़ल शायरी की एक हरदिल अज़ीज़ और मकबूलतरीन सिंफ है. जिसने यह साबित करके अपने मुखालफीन के ज़बान बंद कर दी कि उसका दायरा सिर्फ हुस्न-इश्क की बातें करने तक महदूद नहीं बल्कि ज़िंदगी के हर पहलू और दुनिया के हर मज़मून को समेट लेने की वुसअत और सलाहियत इसके अंदर मौज़ूद है. इसकी ताज़ा मिसाल अज़ीज़ इलाहाबादी की ग़ज़लें हैं, जो महबूब की जुल्फों से अटखेलियां करते, लबो रुखसार की बातें करते हुए, मरमरीं जिस्म की मदहोश कर देने वाली खुशबू से मुअत्तर होकर जामो सुबू के नग्में गाते रिन्दों के दरमयान अपनी मौजूदगी दर्ज करात हुए शहर की गलियों और सड़कों का गहराई से जायजा लेते हुए गांव के तरफ मुड जाती हैं जहाँ वह ताज़ा हवा और पुरसुकून माहौल में सांस लेती है और फिर खेतों-खलिहानों के दरमियान से गुजरकर, पनघट पर अपनी मौजूदगी का अहसाह दिलाते हुए गांव की गोरी पायल और गागर तक पहुँच जाती है. इस तरह हम देखते हैं कि अज़ीज़ इलाहाबादी के ग़ज़लें गांव से लेकर शहर तक के हुस्नो-जमाल का दीदार कराने के साथ-साथ ज़िंदगी के मौजूदा मसायल की ऐसी नंगी तस्वीर दिखाती जिसे हम देखते हुए भी कभी-कभी नहीं देख पाते.
अज़ीज़ इलाहाबादी की गज़लगोयी के बारे में पदमश्री बेकल उत्साही अपनी राय कुछ इस तरह ज़ाहिर करते हैं-'यह काफी ज़हीन उम्दा और नोकपलक के मालिक हैं. रवायत के साथ जिद्दत की डगर अपना लेते हैं और साफ-सुथरे अशआर निकालने का ज़ज्बा रखते है. बहरहाल लफ़्ज़ों के परखने का हुनर और गज़ल कहने का फन जानते हैं.'
अज़ीज़ इलाहाबादी का रिश्ता गांव और शहर दोनों से रहा है, वह खुद लिखते हैं,'मेरी ज़िंदगी दो हिस्सों में तकसीम है, एक शहर से और दूसरी गांव से मुताल्लिक'. इस तरह उन्होंने गांव और शहर दोनों की ज़िंदगी और रहन-सहन को करीब से देखा और क़ुबूल किया. उनकी गज़लों में गांव और शहर दोनों की सच्ची तस्वीर नज़र आती है. शहर की नुमाइशी ज़िंदगी और इंसानी खुदगर्जी को वह पसंद नहीं करते. उनकी ग़ज़लें शहर की कशमकश भरी ज़िंदगी, तरक्की के नाम पर छलावा, मुहब्बत ने नाम पर फरेब,उलझन, परेशानी की तल्ख़ हकीकात पेश करती है-
दुश्मनी, दोस्ती की शक्ल में है,
उसकी जानिब से घात बाक़ी है,
इस अहदे तरक्की में, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के
परदे पे नए चेहरे दिखलाये गए आखिर
दौरे हाज़िर में सब ही फ़रिश्ते मिले
कोई मिलता नहीं आदमी की तरह
शहर के मुक़ाबले गांव की ज़िंदगी को वह ज़्यादा पसंद करते हैं, जहाँ पुरसुकून माहौल है, खेतों की हरियाली, खलिहानों का सुहाना मंज़र है, सादगी है और सबसे बढ़कर इंसानियत, मुहब्बत और अपनापन है. हालंकि अज़ीज़ साहब की गज़लों में मौजूदा गांव की तस्वीर नहीं बनती, लेकिन वह माजी के गांव की भरपूर तर्जुमानी करती हैं.
कड़वा-कड़वा शहर का लहजा
गांव में अपनापन बाक़ी है,
पेड़ के फल नए मौसम में रसीले होंगे
फूल सरसों के तेरे नाम से पीले होंगे
रौनकें शहर की वह छोड़कर क्यों आएगा
गांव के रस्ते बरसात में गीले होंगे
फागुन आया,सरसों फूली,होली नाचे खेतों में
साजन गोरी को मारे,रंग भरी पिचकारी भी.
डॉ. अहमद लारी अज़ीज़ इलाहाबादी की गांव की शायरी के बारे में लिखते हैं,'मेरे ख्याल से इनका सबसे अहम कारनामा यह है कि इन्होंने गज़ल का रिश्ता गांव की ज़िंदगी से जोड़ा है और इसमें गांव की गोरी के रूप में अनूप,पनघट,सखियों की छेड़छाड़,खेतों की हरियाली,गेंहूँ की बालियों की सुनहरी रंगत,गांव के लोगों की फितरी सादगी और मासूमियत और उनके दुःख-सुख को इन्तेहाई दिलकश अंदाज़ में पेश किया है.' अज़ीज़ साहब की शायरी मौजूदा दौर की शायरी है. उन्होंने समाज के हर तबके की ज़िंदगी का बारीकी से जायजा लिया है, चाहे वह ज़मीदारों,ठेकेदारों और अमीरों की सहूलियत से भरी ज़िंदगी हो या गरीबों की भूख और लाचारी से भरा जीवन, कोई भी पहलू अज़ीज़ साहब से छुटा नहीं है-
ज़मीन बेचकर अपनी वह मज़बूरी में रहते हैं
ज़मीदारों के बेटे हैं जो कालोनी में रहते हैं
तडपती भूख सुलगती है प्यास की शिद्दत
किसी गरीब से पूछो कि ज़िंदगी क्या है
अज़ीज़ इलाहाबादी का कमाल यह है की वह सिर्फ अपने महबूब के हुस्न या लबो रुखसार को ही नहीं देखते बल्कि गांव से लेकर शहर तक की इंसानी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं पर गहरी निगाह रखते हैं. अहदे हाज़िर में मशीनी इस्तेमाल से जहाँ तरक्की की राहें आसान हुईं हैं और तरह-तरह की सहूलियात और फ़वायद हासिल हुए हैं वहीँ इसमें कई तरह के नुक्सानात भी सामने आयए हैं जिनका ज़िक्र अज़ीज़ साहब की गज़लों में मिलता है-
भूख प्यास और बढ़ गई
हाथ जब मशीन हो गए
अज़ीज़ साहब ने अपनी गज़लों में मौजूदा वक्त में दम तोड़ती हुयी इंसानियत, खत्म होती मुहब्बत,झूठी हमदर्दी और बिखरी हुई पुरानी कद्रों को बड़े ही पुरअसर अंदाज़ में पेश किया है-
यह अहदे सफीराने तरक्की की थकन है
या सिलसिला-ए-दैर-ओ-हरम टूट रहे हैं
लिबास पहने है हर जिस्म शख्सियत का मगर
मिला न कोई भी इंसानियत के पैकर में
अपनी शायरी के ज़रिये वह इनसानों को अपनी बुनियादी कदरों को बरकरार रखने और ज़िंदगी की हकीकत को पहचानने पर जोर देते हैं. उनके मुताबिक इनसानियत से दूर रहकर दुनियावी तरक्की से कोई फायदा नहीं होने वाला. इस झूठी तरक्की और वक्ती चकाचौंध के पसेपर्दा अँधेरे के सिवा कुछ भी नहीं-
तुम्हारे पास उजाला नहीं अँधेरा है
किसी को रौशनी-ए-अफताब क्या दोगे,
अज़ीज़ अहले हुनर क़ैद हैं अँधेरे में
यह दौर, दौर-ए-तबाही है रौशनी क्या है
इस तरह अज़ीज़ साहब की शायरी माजी,हाल और मुस्तकबिल ( भूत,वर्तमान तथा भविष्य) की झलक नज़र आती है. उन्होंने जहाँ-जहाँ मौजूदा दौर के तमाम मसायल को अपनी गज़लों में शामिल किया वहीँ वह शानदार माजी की कद्रों को भी अपनी गज़लों के ज़रिय पेश किया है.डॉ. सय्यद शमीम गौहर उनकी जमालियाती शायरी के बारे में लिखते हैं, 'हुस्ने जानां की तशरीह, जुल्फों की तफसीर,सीनये सोजाँ की रूदाद,ज़ख्मे जिगर और चश्मेतर की तर्जुमानी से अज़ीज़ इलाहाबादी का तर्जे सुखन चमकता-दमकता नज़र आता है. ज़ायकए हुस्न और हुस्नेजन की लतीफ़ सरगोशियाँ इन्हें हमेशा गुदगुदाती रहीं, दर्दो कर्ब और यादों की खराशों से वह कभी घबराते नहीं और न ही हसरतो यास के दीवानापन से परेशान होते हैं बल्कि इन नेमतों को अज़ीज़ जानते सीने सेलगाते हुए ज़ज्बये तख्य्युलात का इज़हार करते हैं.'
ज़बान के ऐतबार से अज़ीज़ इलाहाबादी की ग़ज़लें आमफहम हैं. उन्होंने गांव और शहर की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बोली जाने वाली आम आदमी की ज़बान को गज़लों में इस्तेमाल किया है जिसमें हिंदी और उर्दू के सादे और आसान अलफ़ाज़ का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने निहायत सादगी और कामयाबी के साथ अपनी बात कही है. उनकी गज़लों में ऐसे अल्फाज़ भी कसरत के साथ नज़र आते हैं जो गज़ल के मिजाज़ के ऐतबार से मुनासिब नहीं रखते और आमतौर पर शह लतीफ़ की ज़हनी सतह पर गिरन गुजारते हैं, जैसे- अंगनाई,पथरन,कथरी, हटीले,टाट,छप्पर,चितवन,चौकड़ी,पैवंद,नवीन,कड़ी,छैल-छबीली,उपटन,गागर,कटोरा आदि, लेकिन अज़ीज़ साहब जो गज़ल की नजाकत और लताफत के साथ उसके फन से भी बखूबी वाकिफ हैं, वह लफ़्ज़ों को परखने और उसके इस्तेमाल करने का हुनर भी जानते हैं और यही हुनर उनको मकबूल व मुनफरिद करता है.गरजकि अज़ीज़ इलाहाबादी कि गज़लिया शायरी ज़मीन से जुडी खालिस हिन्दुस्तानी शायरी है जो न सिर्फ हुस्नो जमालियात और कैफो निशात की तर्जुमान है बल्कि एक ऐसा आईना भी है जिसमें इंसानी समाज और दुनियावी रिवाज़ की सच्ची तस्वीर नजर आती है, एक ऐसी तस्वीर जो क़ारी के ख्वाबीदा जेहन को झिंझोड कर कुछ देर के लिए बदार करने की कुवत रखती है.
सायमा नदीम
3/6, अटाला,तुलसी कोलोनी, इलाहबाद, मोबाईल: 9336273768
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