शनिवार, 12 मई 2012

रोज़ एक शायर में आज - खुर्शीद जहां


ग़ज़ल को अपने मैं रंगे हिनाई देती हूं।
मैं बाजगश्त हूं हर सू सुनाई देती  हूं।
नहीं जो मिलती है तस्वीर से मेरी सूरत,
क्यों अपने अक्स के बाहर दिखाई देती हूं।
अगर है कोई कयाफ़ा शनास महफि़ल में,
बतायें उसको मैं कैसी दिखाई देती हूं।
रगों में दौड़ती हैं उसके लम्स की खुश्बू,
कहां मैं इसकी किसी को सफ़ाई देती हूं।
हूं साथ ले के चलो रौशनी के परचम को,
मैं तीरगी को शबे ग़म दिखाई देती हूं।
मुसीबतों में ऐ ‘खुर्शीद’ है शबे जुल्मत,
वो तन्हा ज़ात है जिसकी दुहाई देती हूं।
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बहुत कुर्बत है लेकिन फासला है।
हमारे दौर को ये मसअला है।
हक़ीक़त से नही कोई भी रिश्ता,
यहां रिश्ते निभाना मशग़ला है।
करे हैं जंग हम जुल्म-ए-फ़लक से,
हमारे दिल में कैसा हौसला है।
जो मांगे हक़ उसे सूली पर चढ़ा दो,
मेरे मुंसिफ़ का ऐसा फ़ैसला है।
किनारा छू नहीं सकती हैं मौज़ें,
लब-ए-साहिल बला का ज़लज़ला है।
नयी तहज़ीब को समझायें कैसे,
अज़ब पेश-ए-नज़र ये मरहला है।
नहीं हूं दहर में ‘खुर्शीद’ तन्हा,
मेरे हमराह ग़म का काफि़ला है।
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मैं क्या हूं ये मेरे खुदा जानता है।
हक़ीक़त तो सिर्फ़ आईना जानता है।
जो करता है बातें मोहब्बत की पूछो,
मोहब्बत का क्या फ़लसफा जानता है।
अयां उसपे राज़-ए-सहने गुलिस्तां,
गुलों की वो सारी अदा जानता है।
किताबों में है दास्तान-ए-शहीदां,
मगर वाकि़या कर्बला जानता है।
ज़माना तो पीता है ‘खुर्शीद’ लेकिन,
हक़ीक़त की मय पारसा जानता है।
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