शनिवार, 16 अगस्त 2025

रूबाई को नहीं मिली ख़ास अहमीयत

                                                                     - डॉ. अमीर हमज़ा

                                             


 

तमाम मुबाहिसा और तन्क़ीद के बावजूद बहुत से ऐसे शायर सामने आए हैं, जिन्होंने अपनी शिनाख़्त रुबाई की शायरी के तौर पर बनाई है। चन्द मशहूर शायर ऐसे भी हुए कि उनका असल मैदान सुखन कुछ और था साथ ही रुबाई पर भी तवज्जो सर्फ की। तो वहां भी रुबाई ने तरक्की पाई। जदीदियत के दौर में भी चन्द ऐसे शोरा थे जो ख़ामोशी से रुबाई की जानिब अपनी तवज्जो मरकूज किए रहे। इसके बाद ग़ज़लों के साथ रुबाई कशीर शोरा के यहां नजर आती है। फिर भी यह कहा जाता है कि रुबाई उमूमी तौर पर जगह नहीं बना पाई। इसकी वजह साफ है कि हमारे यहां ग़ज़ल की इतनी ज्यादा तरबियत हुई कि यहां के शोरा ग़ज़ल के फ्रेम में इज़हार के आदि हो चुके हैं। रुबाई के फ्रेम में जब कुछ कहना चाहते है तो अक्सर यह मजबूरी के शिकार हो जाते हैं। बहुत ही कम वसी रुबाइयां निकल कर आती हैं जो रुबाई के सामने मेयार पर उतरती हैं और ग़़ज़़ल के मुकाबले में नज़्म के शायरों ने रुबाई पर बेहतर काम किया है। मिसाल के तौर पर ‘अनीस’, ‘दबीर’, जोश व फिराकश् को देख सकते हैं। अनीस व दबीर मरसिया के अच्छे शायर थे। उनके यहां आप अच्छी रुबाइयां इसलिए पाते हैं, क्योंकि रुबाई में एक मुख्तसर नज़्म की मुकम्मल खुसूसियत पाई जाती है। जबकि ग़ज़ल के दो मिसरों की रुबाई के चारों मिसरों तक फैलाया और खुसूसी तौर पर तीसरी मिसरे को गुरेज के तौर पर लाना ग़ज़ल के शायरों के लिए बहुत मुश्किल होता है। ऐसे में अक्सर महसूस होता है कि एक ही मौजू पर रुबाई की बियत में है। ऐसी रुबाई भी कसरत से मिलती है। जिनके पहले मिसरे को आखिरी और आखिरी को पहला मिसरा किए जाने पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसे में रुबाई की रूह खत्म हो जाती है और वह बस रुबाई के चार मिसरे बनकर रह जाते हैं। 

 रुबाई के मुतआलिक अजहान में भी पियोस्त कर दिया गया है। इसके मौजुआत मख्सूस हैं और इस्लाह नफ्स व तसव्वुफ के मौजुआत ज्यादा बढरते जाते है लेकिन क्या ऐसा ही है हमें तो नहीं लगता है बल्कि यह तो एक ऐसी सिन्फ सुखन रही है, जिसे मकतूबाती हैसियत भी हासिल रही है। जो ग़ालिब के यहां भी नजर आती है। फारसी के शायरों पर नज़र डालें तो ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी, फरीदुद्दीन अतार, मौलवी जलालुद्दीन इराकी, किरमानी शाह, नियामतुल्लाह वगैरह ने इरफानी व अखलाकी रुबाइयां कही हैं। रूदकी, अमीर मअनी, अनवरी ख्वाजा, सआदी वगैरह इश्किया मदहिया,व अखलाकी सूफियाना रुबाइयां कही हैं। ऐसे में उर्दू में रिवायत कहां से आ गई कि रुबाई में ज्यादातर तसव्वुफ अख्लाक की बातें की जाती है। इन मौजुआत को तय कर देने में रुबाई के साथ कुछ अच्छा नहीं हुआ बल्कि नाकदीन व मुहत्तीन ने उर्दू रुबाई के साथ एक किस्म का सौतेला बरताव किया कि रुबाई का फन अलग है तो उसके मौजुआत भी अलग हों। इस से ऐसा हुआ कि मौजुआत सिमट कर रह गए और नुकसान ये हुआ कि कोई भी शायर जो रुबाई कहने पर कादिर है, इसकी तरबियतख्वाह किसी भी माहौल में हुई हो वह अखलाकी व सूफियाना रुबाई कहने की कोशिश करता है। क्या मौजू के लिहाज से ये अन्साफ या दरुस्त हो सकता है ? बिल्कुल भी नही लेकिन अब अक्सर देखने को मिल रहा है कि शायर का तअल्लुक और तसव्वुफ का दूर-दूर का न हो और वह तालिमात तसव्वुफ से वाकिफ भी न हो फिर भी अपनी रुबाईयों में इसको शामिल करने की कोशिश में रहता है। आखिर ऐसा इसलिए कि इसके जहन में यह बात बैठा दी गई है की रुबाई के अहम मौजुआत यही हैं, लेकिन जब रुबाईयों के मजमूए का मुतआला करेंगे तो आप चौंक जाएंगे की कई ऐसी मजमूए हैं, जिनमें हम्द है न ही नात व मनकब। शायद ऐसा इसलिए हुआ कि किसी आलोचक ने लिख दिया होगा कि रुबाई का तअल्लुक खानकाह और मजामीन खानकाह से ज्यादा है तो बाद के भी सारे नाक़दीनकारों पर यकीनन असर पड़ा और मौजुआत सिमट कर रह गए।

 उर्दू रुबाई के विषय की बात की जाए तो माज़ी से लेकर आज तक इसमें इस्लाही मजामीन बा-कसरत बढ़ते गए हैं। शायर का तअल्लुक किसी भी गिरोह से हो, लेकिन जब रुबाई के लिए कलम संभालता है तो वह खुद को उसमें ढालने की भरपूर कोशिश करता है। इसी तरीके से हर एक के यहां जिं़दगी और मौत के मजामीन मिल जाएंगे। अब तो रुबाईयों का चलन बहुत ही कम हो गया बल्कि, अब तो तसव्वुफ के पैमाने में भी पेश करने वाला कोई रुबाई गो नही रहा। 

 फलसफा ज़िन्दगी को जिस उम्दा वह तरीके से अनीस व दबीर ने पेश किया है बाद में यकीनन वह क़ाबिले-तारीफ़ है। इन्हीं की रिवायत को हाली और अकबर ने आगे बढ़ाया। यहां सोचने की बात यह है कि हाली का मैदान अकबर से बिल्कुल अलग हैं और अकबर संजीदा के साथ तन्ज-मजाह के भी हामिल हैं। लेकिन रुबाई में दोनों एक ही रंग में नजर आते हैं। और दोनों इस्लाही रुबाई कहते हैं। उर्दू में रुबाई को नई शिनाख्त देने में जोश और फिराक का किरदार बहुत अहम है। फिराक के मजामीन महदूद रहे हैं। लेकिन इन्होंने रुबाई के लिए वह दरीचा लाकर दिया जो रुबाई की रिवायत में तसव्वुर भी नही किया जा सकता था। जोश ने उर्दू रुबाई को मौजुआत से मालामाल किया, यहां तक उन्होंने क़सीदा के मौजुआत को भी रुबाई में कलमबंद किया। जोश के रग-रग रुबाइयां बसी हुई है। वह अपनी हर फिक्र सोच को रुबाई के पैकर में ढालने का हुनर रखते हैं। उनके कामयाब होने की वजह यह भी थी कि वह मशरकी शेरी क़ायनात से वाक़िफ़ थे। ख़य्याम का उन्होंने नकल नहीं किया है बल्कि अपनी रुबायों को उनकी नज़र किया है, जिससे समझ सकते हैं कि उन्होंने खुद को एक अलमदार के तौर पर पेश करने की कोशिश की है। उन्होंने इस्लाही व सूफियाना रुबाई की जानिब तवज्जो नही की। बल्कि वह जिस बागी जहन के मालिक थे उसी बगियाना तेवर में रुबाइयां कही हैं। जिसे उर्दू को खातिर ख्वाह फायदा हुआ। अलबत्ता उनके कुछ नजरियात यक़ीनन मजहब इस्लाम के खिलाफ़ थे, लेकिन उनकी जो रुबाइयां फितरत निगारी शबाब और इन्कलाब के मौजुआत पर है, उनका कोई सानी नहीं है। 

 उर्दू में रुबाई की मजबूत रिवायत होने के बावजूद अब भी अदबी महफिलों में रुबाई पर बात करते हुए अजहनियत का एहसास होता है। फन से लेकर तनकीद व तजुर्बा तक रुबाई  में बहुत ही कुछ लिखा जा रहा है। यूनिवर्सिटियों में काम हो रहे हैं। अब वैसी कोई बात नहीं रही जैसा की पिछली सदी की आखिरी दहाइयों में थी कि न रुबाईगो शोरा थे और न ही रुबाई पर कुछ लिखा जा रहा था।

  यह बात हक़ीक़त है कि रुबाई तहक़ीक़ व तनक़ीद की दुनिया में सलाम सन्देलवी और फरमान फतेहपुरी के बाद रुक सी गई थी। इस फन पर बिल्कुल भी बात नहीं हो रही थी। जदीदियत के दौर में  अगरचे शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी खुद रुबाईयां कह रहे थे। लेकिन उस वक़्त भी जितना फिक्शन और नज़्म व गजल पर लिखा गया, वह किसी और सिरन्फ को नसीब नहीं हुआ। लेकिन फिर भी इस बीच जितनी भी किताबें मंज़रे-आम पर आई सब ने मक़बूलियत हासिल की। इस बीच कई किताबें ऐसी आई जिनका तअल्लुक सिर्फ़ फन रुबाई से था। इनमें सिर्फ रुबाई की बहसों को जेरे बहस लाया गया था। मिसाल के तौर पर सैयद वहीद अशरफ, नावक हमजापुरी। इसी दरमियान मौजूआई सतह पर दो अहम किताबें भी मंजरे-आम पर आयीं, जिनमें से एक उर्दू रुबाई में तसव्वुर की रिवायत डॉ. सलमा किबरी की और दूसरी किताब डॉ. याहिया की। उर्दू रुबाई हिंदुस्तानी तहज़ीब की यह दोनों किताबें मौजुआती सतह पर सामने आती हैं, लेकिन जिस तरह से दीगर असनाफ में पूरे एक अहद के तख्लीककारों की खिदमात का एतराफ किया गया है, जैसे आज़ादी के बाद उर्दू अफसाना, नावल, ग़ज़ल और शायरी वगैरह ऐसा कुछ रुबाई के साथ देखने को नहीं मिलता है। बल्कि इस किस्म की किताब शुरू में ही सलाम सुंदेल्वी और फरमान फतेहपुरी की थी, जिनमें रुबाई फन के साथ रुबाई गो शोरा पर असर अंदाज तहरीरें हैं। बाद में ऐसी कोई किताब मजारे आम पर नहीं आई। अभी हाल में ही खुशबू परवीन की ‘बयां रुबाई’ मंजरेआम पर आई है। जिसमे गुजिश्ता पचास बरस के शोअरा पर तजुर्बाती गुफ्तगू शामिल है। आज भी रुबाई के मुतालिक यह हालत है की मजमूए साया हो जाते हैं और कहीं पर गुफ्तगू भी नहीं होती है। ऐसे में तखलीक कार इस सिन्फ की आबयारी कैसे कर सकते हैं। जबकि फिंक्शन और ग़ज़ल, नज़्म पर तासुराती व तबसिराती के साथ फलसफियाना मजामीन की कसरत देखते हैं। 

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित )


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