बुधवार, 13 अगस्त 2025

बेहतरीन शायरी का नमूना ‘मरकज़े नूर’

                                                                  - साहिर दाऊद नगरी

                                                          


 

‘मरकजे़ नूर’ नामक किताब के शायर हकीम ज़ियाउद्दीन इलाहाबादी की है। इनके इंतिक़ाल के बाद डॉ. इमादुल इस्लाम और हकीम रेशादुल इस्लाम ने मिलकर इसका संकलन किया और प्रकाशित कराया है। हकीम ज़ियाउर्रहमान ज़िया फरीदी का संबंध मेडिकल और हिकमत और उर्दू अदब से रहा है। आप को अंग्रेज़ी ज़्ाुबान का अधिक ज्ञान नहीं था, लेकिन इस ज़्ाुबान को अपनी ज़रूरत के हिसाब से इस्तेमाल किया। आप की शायरी में पाई जाने वाली अवामी बेदारी, क़ौम के उज्जवल भविष्य की आहट अपने ऊरुज की दिशा में अग्रसर देखी जा सकती है। इनकी शायरी की ख़ासियत जानने के लिए ये अशआर काफी हैं -

अल्लाह से दुआ है हर वक़्त ज़िया की, 

हो जाये क़ौम सारी खुश काम रफ़्ता-रफ़्ता।

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गुज़र रही है जो मुझ पर तुम्हें ख़बर क्या है,

मेरे मज़ाके तमन्ना से तुम कहाँ वाक़िफ़।

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जुनूने इश्क़ में हर वक़्त हूं मैं अपने मरकज़ पर,

फक़त होशे जुनूँ रखती है अब दीवानगी मेरी।

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नहीं उज्रे तकसीर इस दिल को कोई,

मगर हक़ बजानिब सज़ा चाहता है।

हकीम ज़ियाउद्दीन का लिखने का अंदाज़ अपनी तरह का वाहिद तरहदार है। इश्क़िया मिजाज़ और हुस्न पसंद तबीअत का मतलब यह हर्गिज़ नहीं कि संसार के रंग का असल सबब क़रार दिये गये जिंसी इम्तियाज़ात की तश्हीर की जाये। हकीम ज़िया इन्सानी मूल्यों के कद्रदाँ और उनकी पासदारी के मजबूत मुहाफिज़ थे। इन्होंने हिकमत के सहारे अवाम के दिलों में न सिर्फ जगह बनाई बल्कि उनका किरदार उनकी तश्रीह व तफसीर (व्याख्या) था। मौलाना व हकीम और डॉ. की सूरत में एक मानव सेवा के जुनून से भरे शख़्स ने अपनी नेकी सच्चाई, हमदर्दी, खुलूस और मुहब्बत से अपने पराये के दिलों को मुसख्ख़र किया हुआ था। उनके पास से कोई शख़्स मायूस होकर नहीं लौटता था किसी भी जे़हन और ज़ौक और मेयार का शख़्स उन से मिलता, मुहब्बत और इख़्लास का प्रतीक बने दिखते। वैसे भी उनके जीवन का अंदाज़ शरीअत के अहकाम की तबलीग़ एवं प्रसार का और डॉक्टर होने के नाते दिल में भलाई का जज़्बा लिये हुए थे।

एहसास मेरे साहिबे दरमाँ का देखिये

जो दर्द ही को बाइसे तसक़ीं बना गया

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कूएं क़ातिल में सितम की बारिशें होने लगीं

बैठने पाये न जे़रे साया दीवार हम

हकीम ज़ियाउद्दीन इलाहाबादी मरहूम को ज़िया फरीदी के नाम से भी कम शोहरत न मिली बल्कि हक़ीक़त जानंे तो कुछ लोग उन्हें ज़िया फरीदी और कुछ हकीम ज़िया के नाम से पुकारा करते थे। इस किताब के बारे में डॉ. मुहम्मद सलीम, शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी, प्रोफेसर अब्दुल हक़, अली अहमद फातिमी, डॉ. शफक़त आज़मी, अख़्तरुल वासे, शबनम हमीद, शमीम हनफ़ी, अजय मालवीय, डॉ. मुहम्मद इलयास आज़मी, रफ़ीक़ एजाज़ी, मुनव्वर राणा, डॉ. सालिहा सिद्दीक़ी, मुहम्मद अब्दुल क़दीर और शाकिर हुसैन तिश्ना प्रतिक्रिया व्यक्त की है, जिसमें शायर की ख़ासियत का बखूबी जिक्र किया है। किताब हकीम ज़ियाउद्दीन एडवांसमेंट एजूकेशनल वेलफेयर सूसायटी इलाहाबाद (प्रयागराज) के द्वारा अपलाइड बुक्स से प्रकाशित कराई गई है। 160 पेज की सजिल्द किताब की कीमत 300 रुपये है।


(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित )


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