शनिवार, 14 दिसंबर 2024

 शोध करने वालों के लिए ख़ास किताब

                                                - अशोक अंजुम

           


                           

  यूं तो इम्तियाज अहमद गाज़ी के ख़ुद के लेखन के साथ-साथ अनेक पुस्तकें उनके संपादन में निकली हैं। अब उनकी एक नई किताब ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ नाम से प्रकाशित हुई है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है प्रस्तुत पुस्तक में इलाहाबाद की 106 उन प्रतिष्ठित हस्तियों का परिचय है, जिन्होंने वर्तमान में इलाहाबाद को एक विशेष पहचान दी। पुस्तक में संग्रहीत इलाहाबादी वे विशिष्ट व्यक्तित्व हैं जिनका या तो जन्म इलाहाबाद में हुआ है या जिनका कार्यस्थल इलाहाबाद रहा है। श्री गाज़ी ने किताब की भूमिका में स्पष्ट कर दिया है के 21 वीं शताब्दी से पहले के महत्वपूर्ण इलाहाबादी लोगों के बारे में पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है, अतः इस किताब में सिर्फ़ उन लोगों को शामिल किया गया है जो 21वीं शताब्दी में हैं, या रहे हैं। जिन लोगों का निधन सन् 2000 से पहले हो चुका है उनको इस पुस्तक में नहीं रखा गया है।

 इम्तियाज अहमद गाज़ी स्वयं एक साहित्यकार हैं, विशेष रुप से उर्दू शायरी में अपना एक विशेष मुकाम रखते हैं, इसलिए लग सकता है कि इन्होंने इलाहाबाद के साहित्यकारों पर ही पुस्तक को केंद्रित रखा होगा, लेकिन वे साहित्यकार के साथ-साथ एक समर्थ पत्रकार भी हैं। इसलिए साहित्य के साथ संगीत, रंगमंच, चिकित्सा, फ़िल्म, खेल, पत्रकारिता, राजनीति आदि क्षेत्रों से चुने हुए विशिष्ट लोगों को भी इस पुस्तक में संजोया है। पुस्तक में साहित्यकारों की बात की जाए तो लक्ष्मीकांत वर्मा, अमरकांत, डॉ. जगदीश गुप्त, शम्सुर्रहमान फारुकी, सैयद अक़ील रिज़वी, डॉ मोहन अवस्थी, मार्कंडेय, नरेश मिश्र, अजीत पुष्कल, कैलाश गौतम, रामनरेश त्रिपाठी, दूधनाथ सिंह, हरीश चंद्र पांडे, डॉ ज़मीर अहसन, नीलकांत, फ़ज़्ले हसनैन, अली अहमद फातमी, श्रीप्रकाश मिश्र, नासिरा शर्मा, रमाशंकर श्रीवास्तव, यश मालवीय, रविनंदन सिंह, डॉ. नायाब बलियावी आदि के नाम आते हैं। कानून की दुनिया से न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त, न्यायमूर्ति गिरिधर मालवीय, वी.सी. मिश्र और एस.एम.ए. काज़मी आदि और राजनीति से केसरीनाथ त्रिपाठी, डॉ. नरेंद्र कुमार सिंह गौर, कुंवर रेवती रमन सिंह, श्यामाचरण गुप्ता, अनुग्रह नारायण सिंह आदि। शिक्षा जगत से डॉ जगन्नाथ पाठक, लाल बहादुर वर्मा। फिल्म जगत से अमिताभ बच्चन, समाज सेवा से स्वामी हरिचौतन्य ब्रह्मचारी, सरदार अजीत सिंह पप्पू, लक्ष्मी अवस्थी आदि हैं। चिकित्सा जगत से पद्मश्री डॉ राज बवेजा, डॉ. कृष्णा मुखर्जी, डॉ. एस एम सिंह, डॉ .तारिक महमूद, डॉ पीयूष दीक्षित, डॉ प्रकाश खेतान, डॉ राजीव सिंह वगैरह। संगीत की दुनिया से रवि शंकर, मनोज कुमार गुप्ता, डॉ. रंजना त्रिपाठी आदि। पत्रकारिता की दुनिया से वी. एस. दत्ता, सुशील कुमार तिवारी, धनंजय चोपड़ा, प्रेम शंकर दीक्षित, मुनेश्वर मिश्र, रामनरेश त्रिपाठी, मानवेंद्र प्रताप सिंह, शरद द्विवेदी आदि। रंगमंच से अतुल यदुवंशी, डॉ अनीता गोपेश और मूंछ नृत्य के लिए गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करा चुके राजेंद्र कुमार तिवारी उर्फ़ ‘दुकान जी’ हैं।

  खेल जगत की बात करें तो क्रिकेट से मोहम्मद कैफ, उबैद कमाल और यश दयाल, शतरंज से पी.के चट्टोपाध्याय, स्क्वैश से दिलीप कुमार त्रिपाठी, वालीबॉल से प्रभात कुमार राय, बैडमिंटन से अभिन्न श्याम गुप्ता, हॉकी से पुष्पा श्रीवास्तव, दानिश मुज्तबा, जिमनास्टिक से आशीष कुमार आदि हस्ताक्षर हैं। किताब को हर लिहाज से संपूर्ण तो नहीं कहा जा सकता, कुछ नाम छूट गए, शायर भाग-2 में इसकी पूर्ति संभव हो। लेखक ने बहुत ही श्रमसाध्य कार्य किया है, इसमें दो राय नहीं। इलाहाबाद पर शोध करने वालों के लिए यह पुस्तक निश्चित रूप से यह नायाब तोहफ़ा है। 

 अंत में किताब की भूमिका के अंतर्गत नासिरा शर्मा जी के शब्दों में कहूंगा कि- ‘इम्तियाज गाज़ी साहब खुद शायर हैं इसलिए उनके दिल में दूसरे लिखने वालों के लिए आदर और सम्मान है। क्योंकि वह पत्रकार भी हैं और संस्थापक ‘गुफ़्तगू’ हैं, तो पत्रकारिता भी उनके मिज़ाज में मौजूद है, जिसकी वजह से उन्होंने इस काम का बीड़ा उठाया। मुझे विश्वास है कि जल्द ही भविष्य में वह इलाहाबाद पर एक और अंदाज़ से कुछ नयी और ज़रूरी किताब सामने लाएंगे। मेरी शुभकामनाएं हमेशा की तरह इस बार भी उनके साथ हैं। 240 पेज की इस सजिल्द पुस्तक को गुफ्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 500 रुपये है।


इफ़को की सफलता के सूत्रधार की जीवनी

                                                         - अजीत शर्मा ‘आकाश’

         


                                     

  किसी लेखक द्वारा व्यक्ति विशेष के जीवन वृत्तान्त के साहित्यिक लेखन को जीवनी (बायोग्राफी) कहा जाता है। जीवनी में उस व्यक्ति विशेष के जीवन की वास्तविक कहानी होती है, जिससे पाठक को परिचित कराया जाता है। यह प्रामाणिक तथा सम्यक जानकारी पर आधारित होती है। इसमें उस व्यक्ति के गुण दोषमय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है। ‘संघर्ष का सुख’ शीर्षक पुस्तक उर्वरक उद्योग की ख्यातिलब्घ सहकारी संस्था ‘इफ़को’ की सफलता के सूत्रधार डॉ. उदय शंकर अवस्थी के जीवन कर्म पर केन्द्रित है, जिसके लेखक अभिषेक सौरभ हैं। इस पुस्तक में लेखक ने अवस्थी के निजी और पेशेवर जीवन को लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है, जिसके अंतर्गत अवस्थी के जीवन की सभी छोटी-बड़ी घटनाओं एवं उनके संघर्षों का विस्तारपूर्वक चित्रण करते हुए उनके विषय में यथासम्भव सभी तथ्यों की जानकारी प्रदान की है। पुस्तक को सथनी से बनारस, मंज़िल की तलाश, सहकारिता के संग, इफ़को की कमान, इक्कीसवीं सदी, सशक्त सहकारिता का नया अध्याय, सहकारिता के शिखर पर इफ़को, नैनो उर्वरक, ज़माने से आगे, अनुभव एवं उपसंहार-इन 11 खण्डों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक खण्ड में अनेक उप खण्ड भी हैं। इसमें बताया गया है कि अवस्थी अपनी जीवन-यात्रा के दौरान सम्मुख आयी चुनौतियों का निर्भीकतापूर्वक सामना करते हुए किस प्रकार अपने कर्तव्य पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते रहे हैं। राजीव गांधी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक 9 प्रधानमंत्रियों तथा 36 मंत्रियों के शासन में सार्वजनिक क्षेत्र के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं एक कुशल प्रबंधक के रूप में अवस्थी ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता का प्रदर्शन किया है। वे 41 वर्ष की उम्र में भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे कम उम्र के सीएमडी बने। उनके विषय में बताया गया है कि वह जब एक बार कुछ करने का मन बना लेते हैं, तो चाहे परिस्थितियां कैसी भी विकट क्यों न हों, वे कभी पीछे नहीं हटते हैं। अपने कार्य-व्यवहार में उन्होंने सदैव सभी के प्रति पूर्ण निष्पक्षता एवं सद्व्यवहार का परिचय प्रदान किया। अपनी जानकारी एवं कुशल नेतृत्व क्षमता के बल पर वह कॉरपोरेट जगत में लीडर बने। अवस्थी के जीवन की अनेक उपलब्धियां हैं, जिनमें से प्रमुखतम उपलब्धि यह है कि उन्होंने 01 अगस्त, 2021 को विश्व का पहला नैनो उर्वरक ‘इफ़को नैनो-डीएपी (तरल)’ प्रस्तुत किया तथा 20 अक्टूबर, 2022 को पूरे विश्व के लिए इस क्रान्तिकारी उत्पाद का व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन प्रारम्भ किया।

   अवस्थी के एक भाषण में व्यक्त किये गये विचारों से उनका जीवन-दर्शन एवं जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि का परिचय प्राप्त होता है। इस भाषण के कुछ उल्लेखनीय अंश हैं- ‘‘एक साल बीतता है, दूसरा साल शुरू होता है। इस बीतने और शुरू होने के बीच एक कड़ी होती है। और वह कड़ी होती है हम लोगों का संकल्प, हमारा प्रयास, और लगातार उस संकल्प पर काम करने की इच्छा। यह इच्छाशक्ति ही है जो किसी देश को, किसी समाज को और किसी संस्था को ऊँचाई की तरफ़ ले जाती है। हमें सदैव सजग रहना है। हमें हर समय अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करते रहना है।......... हमारे सामने चुनौतियां और अवसर दोनों हैं।’’

 ‘राग दरबारी’ के रचनाकार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध कथाकार पद्मभूषण श्रीलाल शुक्ल जी अवस्थी के श्वसुर थे, जिनके 40 वर्षों के सान्निध्य से वह अत्यन्त प्रभावित रहे। अवस्थी को साहित्य एवं कला के प्रति भी अत्यन्त अनुराग था। उनके प्रयासों से इफ़को बोर्ड द्वारा श्रीलाल शुक्ल की स्मृति में 2011 में ‘श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ़को साहित्य सम्मान’ की स्थापना की गयी। यह सम्मान प्रति वर्ष हिन्दी के एक ऐसे लेखक को दिया जाता है जिसकी रचनाओं में ग्रामीण और कृषि जीवन का चित्रण किया गया हो। इसमें पुरस्कार के तहत ग्यारह लाख रुपये की सम्मान राशि, प्रशस्ति-पत्र और स्मृति चिह्न प्रदान किया जाता है। पुस्तक के विषय में यह भी कहना है कि पुस्तक में जीवनीकार ने कुछ अन्य पक्ष को नज़रअन्दाज़ किया है, जिससे उसके चरित्र में कृत्रिमता सी परिलक्षित होती है। इसके अतिरिक्त कुछ अनावश्यक घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करने से भी पाठक को कहीं-कहीं बोझिलता एवं उबाऊपन की अनुभूति होने लगने लगती है। जीवनीकार द्वारा यदि इन तथ्यों को दृष्टिगत रखा गया होता, तो पुस्तक में और अधिक रोचकता एवं स्वाभाविकता परिलक्षित होती। आशा है कि आगामी संस्करण में इन पक्षों पर भी ध्यान दिया जाएगा।

  पुस्तक के मध्य में उनके जीवन से सम्बन्धित अनेक फ़ोटो हैं, जिनमें राजीव गांधी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक अनेक राजनेताओं तथा माननीय राज्यपाल, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति, एवं अनेक मंत्रियों द्वारा तथा सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मानित एवं पुरस्कृत किये जाते हुए दर्शाया गया है। राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मुद्रण, गेटअप एवं साज-सज्जा अत्यन्त उच्च कोटि की है। 294 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 795 रूपये है।


 वर्तमान सामाजिक परिवेश की कहानियां


लेखक प्रमोद दुबे के कहानी-संग्रह ‘घोंसला’ में सामाजिक परिवेश से जुड़ी 44 कहानियां संग्रहीत हैं, जिनके माध्यम से विविध स्थितियों, परिस्थितियों एवं सामाजिक विसंगतियों का यथार्थ का चित्रण करने का प्रयास किया गया है। इनकी विषय वस्तु में सामाजिक कुरीतियों, गिरते हुए मानव मूल्यों एवं बिगड़ते हुए वर्तमान परिवेश को दर्शाने का प्रयास किया गया है और सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त अनेक विसंगतियों को पाठक के समक्ष लाने की चेष्टा की गयी है। एक अच्छे समाज के निर्माण हेतु कहानीकार द्वारा किया गया प्रयास इनमें परिलक्षित होता है।

 गद्य की अन्य विधाओं की भांति हिन्दी कहानी भी आधुनिक युग की देन है। साहित्य की इस रोचक विधा में अधिकतर पाठकों की रूचि होती है। कारण यह कि रूचिकर कथानक, अच्छे संवाद एवं आसपास के ही पात्र एवं उनका चरित्र चित्रण उन्हें भाता है। इसके अतिरिक्त कहानी एक ही बैठक में पढ़ ली जाती है, जबकि उपन्यास, आख्यानों एवं महाकाव्यों को पढ़ने के लिए अधिक समय की आवश्यकता होती है। लेकिन एक कुशल कहानीकार अपनी कहानी में पात्रों के माध्यम से वह सब कुछ कह जाता है, जो पाठक के मन को आनन्दित करता है। वह पाठकों को अपनी कहानी के साथ निरन्तर बांधे रखता है। संग्रह की भूमिका के अन्तर्गत लेखक का यह कथन कि ‘‘मुझे कहानी लेखन की विधा नहीं आती है।’’ उसे एक रचनाकार के दायित्व से मुक्त नहीं कर देता है। वास्तविकता तो यह है कि महान से महान रचनाकार को भी प्रारम्भ में लेखन विधा नहीं आती है, किन्तु समर्पित होकर स्वाध्याय तथा मनन-चिन्तन द्वारा अपनी विधा में अधिकाधिक ज्ञान अर्जित कर एक दिन वह महान रचनाकार बन जाता है।

 ‘घोंसला’ संग्रह की कहानियां विविध मनोभाव लिए हुए हैं, जिनमें मानवीय संवेदनाओं को स्पर्श करने का प्रयास किया गया है। कुछ कहानियां घटना प्रधान एवं चरित्र प्रधान हैं, तो कुछ वातावरण प्रधान एवं भाव प्रधान हैं। कहानियों के पात्र देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार निर्मित किये गये हैं। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘घोंसला’ पक्षियों और पर्यावरण की चिन्ता को लेकर लिखी गयी है। संग्रह की कहानियां आज के परिवेश तथा वातावरण की हैं जिनका कथानक रिश्तों में भ्रम, ज़िंदगी की कश्मकश, अत्यधिक महत्वाकांक्षा, परम्परागत वैवाहिक संस्था की कमियां, प्रेम विवाह का अनिश्चित भविष्य, अशिक्षा, जातिवाद और अन्तहीन संघर्ष जैसे विषयों को अपने में समेटे हुए हैं। विषयवस्तु समसायिक होने के कारण रूचिकर प्रतीत होती है। कुल मिलाकर सामाजिक विषयों को उठाने एवं समाज को जागृत करने के उद्देश्य से लिखी गयी ये कहानियाँ सराहनीय कही जायेंगी। संग्रह को पढ़ा जा सकता है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित 112 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150 रूपये है।

सृजनात्मकता को उजागर करती कविताएं


डॉ. मधुबाला सिन्हा के ‘ढाई बूंद’ कविता-संग्रह में 41 रचनाएं सम्मिलित हैं, जिन में प्रमुख रूप से प्रेम के उदात्त मनोभावों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए वर्तमान सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को उभारने की चेष्टा की है। संग्रह की कविताएं सामान्य स्तर की हैं। वर्ण्य विषय की दृष्टि से इन रचनाओं में श्रृंगार एवं प्रणय, वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियों तथा संवेदनाओं, सामाजिक यथार्थ एवं सामाजिक सरोकार, स्त्री के भीतर की कोमल भावनाएँ, तथा आम आदमी की व्यथा आदि को स्पर्श करते हुए दुख-दर्द एवं विषाद को भी समेटने का प्रयास किया गया है। रचनाओं में यत्र-तत्र जीवन में बिखरे हुए अन्य अनेक रंग भी सामने आते हैं। संग्रह की अधिकतर रचनाएँ संयोग एवं वियोग श्रृंगार विषयक हैं। 

 कविताओं में प्रेम के विभिन्न पक्षों, संबंधों, विसंगतियों तथा व्यक्त और अव्यक्त प्रेम की अभिव्यक्तियों का चित्रण किया गया है तथा वे समय एवं व्यक्ति के द्वन्द्व को उकेरती हुई समाज से संवाद एवं संघर्ष करती सी प्रतीत होती हैं। संग्रह की कुछ कविताओं के अंश प्रस्तुत हैं-दिल की बात/बहुत निराली/भरा हुआ/तो कभी है खाली (‘दिल’)। और मैं भी तो बह ही रही हूँ/नदी की तरह/जन्म जन्मांतर से (‘नदी’)। बिखरे दरके टूटे-फूटे/बदरंग लम्हों में/फिर से/जान भरना चाहती हूँ (‘जीना चाहती हूँ’)। साँप और सीढ़ी का खेल/खेल रही है/जिंदगी (‘खेल’)। बेटी/रात की रानी है/सुबह की मखमली हवा है/गुनगुनी धूप है/जाड़े की (‘बेटी’)। यह जो हम सब झेल रहे हैं/इसी को जीवन कहते हैं क्या (‘जीवन’)। रचनाओं में अधिकतर सरल एवं सहज शब्दों का प्रयोग किया गया है, किन्तु कहीं-कहीं भाषा एवं व्याकरण एवं वर्तनीगत अशुद्धियाँ परिलक्षित होती हैं। यथा, ख़्यालात, उष्मा, काट लिया कितने काले दिन, शोहरत की लालच, छलनामयी जीवन, सम्वेदनशीलता तथा तुम्हें के साथ तेरा का प्रयोग किया जाना आदि। अनेक स्थानों पर ‘न’ के स्थान पर ‘ना’ का प्रयोग किया गया है। कहा जा सकता है कि संकलन की रचनाएँ मनोभावों को व्यक्त करने में काफ़ी हद तक सफल रही हैं। महिला लेखन के क्षेत्र में कवयित्री का यह प्रयास स्वागत योग्य तथा सृजनशीलता सराहनीय है। सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 104 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 250 रूपये है।

लोकप्रिय फ़िल्म अभिनेत्री साधना की दास्तान



सुविख्यात लेखक प्रबोध कुमार गोविल से हिंदी जगत भली-भांति परिचित है। उपन्यास, कहानी संग्रह, संस्मरण एवं लघुकथाओं आदि की उनकी अनेक पुस्तकें पाठकों के समक्ष आ चुकी हैं। ‘‘ज़बाने यार मनतुर्की’’ सन 1960 के दशक की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं विलक्षण प्रतिभाशाली फ़िल्म अभिनेत्री साधना की फ़िल्मी अभिनय-यात्रा एवं जीवन संघर्षों से पाठकों को परिचित कराने वाली उनकी एक अनूठी पुस्तक है। लेखक प्रबोध कुमार गोविल के अनुसार साधना की जीवनी सिंधी और अंग्रेज़ी भाषा में पहले प्रकाशित हुई थी, जिसके विषय में साधना ने कहा था- मैंने शोहरत, दौलत और चाहत हिन्दी से पाई है, मुझे अच्छा लगेगा अगर मेरी कहानी हिन्दी में आए। वर्ष 2015 में उनकी मृत्यु के पांच साल बाद उनकी ये इच्छा पूर्ण करने के लिए यह पुस्तक लिखी गयी। पुस्तक का शीर्षक ‘‘ज़बाने यार मनतुर्की’’ एक फ़ारसी कहावत ‘‘ज़बाने यारे मनतुर्की ओ मनतुर्की नमी दानम’’ का एक अंश है, जिसका अर्थ है, ‘‘मेरे दोस्त की ज़बान तुर्की है और में तुर्की ज़बान जानता नहीं’’। शीर्षक से यह ध्वनित होता है कि साधना के जीवन एवं उसके मनोभावों को उनके दर्शक, प्रशंसक तथा फ़िल्मी दुनिया के लोग समझ नहीं पाये।

 कथावस्तु के अनुसार पुस्तक को 19 शीर्षकों में विभक्त किया गया है, जिनके माध्यम से उनकी सम्पूर्ण कहानी कही गयी है। साधना (1941-2015) का पूरा नाम साधना शिवदासानी था। वर्ष 1960 में उनकी पहली ही फिल्म ‘लव इन शिमला’ सुपरहिट हुई। फ़िल्मों का यह दौर नरगिस और मधुबाला की लोकप्रियता के उतार का दौर था। वर्ष 1960 का फ़िल्मी दशक एक प्रकार से साधना के ही नाम था। ख़ूबसूरत और प्रतिभाशाली अभिनेत्री साधना के अभिनय की अवधि लगभग पन्द्रह साल रही। पुस्तक बताती है कि कोई लोकप्रिय कलाकार चोटी का फिल्मस्टार ऐसे ही नहीं बन जाता, बल्कि इसके लिए प्रतिभा, लगन और ज़ुनून की ज़रूरत होती है। वह नयी पीढ़ी की फ़ैशन आइकॉन बन गयीं। उनका केश विन्यास ‘साधना कट’ हेयर स्टाइल के रूप में शहर-शहर, बस्ती-बस्ती, गली-गली और घर-घर में लोकप्रिय हो गया। दरअसल साधना का माथा बहुत चौड़ा था उसे कवर किया गया बालों से, उस स्टाइल का नाम ही पड़ गया “साधना कट”। फ़िल्मों में पहना गया उनका चूड़ीदार पायजामा भी देश भर का फ़ैशन बन गया। साधना को थायरॉयड की बीमारी हो गयी थी, जिसके कारण वह अपने गले में बँधी पट्टी को छिपाने के लिए वह गले में दुपट्टा बाँध लेती थी। उस दौर की लड़कियों ने इसे भी फैशन के रूप में लिया था। साधना की मेकअप आर्टिस्ट पंडरी जुकर का साधना के बारे में कहना था, कि उन्हें मेकअप की ज़रूरत कहाँ थी ? वो तो वैसे ही दमकती थीं।

 पुस्तक में लिखा है कि अपनी सफल फ़िल्मों में साधना ने हिन्दी और उर्दू के मेल से उपजी एक ऐसी तहज़ीब का माहौल बनाया, जिसे अपने बोलने-चालने, पहनने-ओढ़ने में नयी पीढ़ी दिल से अपनाने लगी। संवाद अदायगी में उनकी आवाज़ का उतार-चढ़ाव, वाक्यों पर ज़ोर देने का तरीका भी उनकी पहचान बना। लेकिन, साधना का शुरुआती समय जितना शानदार था उनका अन्तिम समय उतना ही दुःख भरा था। पति आरके नय्यर की मृत्यु के बाद वह जिस घर में रहती थीं उस पर कोर्ट केस हो गया था। लम्बे संघर्ष के बीच 25 दिसंबर 2015 को साधना का निधन हो गया था। एक्ट्रेस के अंतिम संस्कार में भी कम ही लोग पहुंचे थे।

 सम्पूर्ण उपन्यास अत्यन्त सधी हुई एवं प्रवाहमयी भाषा एवं रोचक शैली में लिखा गया है। पढ़ते समय पाठकों के समक्ष साधना के जीवन से जुड़ी हर एक घटना सामने आती-जाती रहती है और पाठक उसमें डूब-सा जाता है। जिज्ञासा एवं कौतूहलवश वह एक के बाद दूसरा पन्ना पढ़ता जाता है। पुस्तक का मुद्रण एवं अन्य तकनीकी पक्ष उच्चकोटि का है। कवर पृष्ठ आकर्षक है। बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा प्रकाशित 144 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150 रुपये है।


 समाज और ज़िन्दगी की शायरी


 शुजाउद्दीन शाहिद के काव्य संग्रह ‘सौग़ात मोहब्बत की’ में उनकी ग़ज़लों के अलावा कुछ कविताएं और मुक्तक संकलित हैं, जो समाज की आज की स्थिति को दर्शाती हैं। रचनाओं का वर्ण्य विषय प्रमुखतः आज के जीवन की आपाधापी एवं भाग-दौड़, सामाजिक विसंगतियाँ, अन्तर्मन की पीड़ाएं एवं आज के सरोकार आदि हैं। साथ ही, प्रेम तथा श्रृंगार विषयक रचनाएं भी हैं। शायर की सोच से जुड़ी हुई शायरी अपने अन्दर और बाहर के दर्द को बयां करती है। इस काव्य संग्रह में रचनाकार ने वर्तमान युग की विसंगतियों को सामने लाने का प्रयास किया है। संग्रह की रचनाओं में वर्तमान युग की विसंगतियों एवं सामाजिक विडम्बनाओं को उकेरने का प्रयास किया गया है। जीवन में व्याप्त संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। श्रृंगार एवं प्रेम विषयक रचनाएं शायर के अन्तर्मन के भावों को प्रकट करती हैं। ग़ज़लों के कुछ उल्लेखनीय शेर प्रस्तुत हैं -‘बोलकर झूठ बच गये हम भी/ काम अपने ये सियासत आई।, ‘सुलगती आग का एहसास तो है/ धुआं क्यों जिस्म से उठता नहीं है।’, ‘एक ही घर में रहें बरसों मुलाकात न हो/ लोग इस शहर में ऐसे भी जिया करते हैं।’ कविताओं एवं नज़्मों में भी ज़िन्दगी के बारे में शायर की सोच उजागर होती है। कुछ प्रमुख अंश इस प्रकार हैं -‘ कतार बस की ट्रेनों में भीड़ क्या कहिये/ तुम्हारा शहर अजब सा शहर है क्या कहिये।’ (तुम्हारा शहर), ‘कितने चेहरे हैं मुस्कुराहट के/ मुस्कुराहट है रूह की ख़ुशबू।’ (मुस्कान)

ग़ज़ल-व्याकरण की दृष्टि से कुछ ग़ज़लों में ऐबे तनाफ़ुर, ऐबे शुतुरगुरबा के अतिरिक्त कहीं-कहीं क़ाफ़िया दोष तथा भरती के शब्द जैसे दोष हैं। वर्तनीगत एवं प्रूफ़ सम्बन्धी अशुद्धियों की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। फिर भी, कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि काव्य संग्रह की रचनाएं सराहनीय हैं। पुस्तक पठनीय है। परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई द्वारा प्रकाशित 104 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 125 रुपये मात्र है।


(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2023 अंक में प्रकाशित )


गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

  अज़ीम देशभक्त थे शौकतउल्लाह अंसारी

                                           - सरवत महमूद खान 

                                   

शौकतउल्लाह अंसारी

  डॉ. शाह शौकतउल्लाह अंसारी का शुमार ग़ाज़ीपुर के ऐसे लोगों में होता है, जिन्होंन उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद भी अपना जीवन देश को आज़ाद कराने और देश के साथ जिले को विकसित कराने में लगा दिया। आज़ादी के बाद तुर्की के काउंसलर नियुक्त किये गये थे, फिर वियतनाम भेजा गया था। इसके बाद सूडान के राजदूत बनाये गये। उन्हे अंतरराष्ट्रीय कमीशन के चेयरमैन भी बनाया गया था। बाद में उन्हें उड़ीसा का राज्यपाल बनाया गया था, जीवन के अंतिम पल तक इसी पद पर कार्यरत थे। इन्होंने अंतिम दम तक हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए काम किया है। जिसकी वजह से पूरे देश में इनकी एक अलग पहचान है। वे शिष्ट, सदाचारी और अमनपसंद व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी दानशीलता के किस्से शहर में मशहूर है। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए इनको कई बार जेल जाना पड़ा था।

 डॉ. शौकत का जन्म 1908 में ग़ाज़ीपुर शहर के मियांपुर मुहल्ले में हुआ था। आप के वालिद अमजदुल्लाह अंसारी का शुमार गाजीपुर शहर के बहुत ही सम्मानित लोगों में होता था। इन्होंने अपने पुत्र शौकतउल्लाह को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए पेरिस (फ्रांस) भेज था। जहां से शिक्षा पूरी करके लौटने के बाद वे स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में शामिल हो गए। उन दिनों इनका पूरा ख़ानदान पहले से ही स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका में शामिल था। आप डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी (अध्यक्ष इंडियन नेशनल कांग्रेस 1927 ई) के भांजे थे। अपने बहुमुखी प्रतिभा एवं शीर्ष नेताओं से घनिष्ठ संबंध के कारण आपकी गणना वरिष्ठ नेताओं में होने लगी। मुस्लिम राष्ट्रवादी नेताओं में आपका शुमार किया जाता था।

  आपकी शादी 25 सितंबर 1936 को जोहरा अंसारी ( पुत्री नवाब असगर यार जंग) से हुई थी। जोहर अंसारी डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी की भतीजी थीं। हिन्दू-मुस्लिम एकता को कायम रखने और फिरकापरस्सती को खत्म करने के लिए उन्होंने ‘आल इंडिया मुस्लिम मजलिस’ का गठन किया। पंडित जवाहरलाल नेहरु से इनकी बहुत घनिष्ठता थी। नेहरू जी उन्हे अपने मंत्रिमंडल में शामिल करना चाहते थे। इसलिए रसड़ा लोकसभा क्षेत्र से 1957 में कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया। उस समय इस लोकसभा सीट में गाजीपुर जनपद की दो विधानसभाओं कासिमाबाद और मुहम्मदाबाद का क्षेत्र भी शामिल था। इस चुनाव में डॉ. शौकत सरजू पाण्डेय (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ) से चुनाव हार गए थे। डॉ. शौकत ने धर्म-निरपेक्षता की एक मिसाल छोडी थी। कहा जाता है कि चुनाव प्रचार के दौरान जुमा की नमाज का वक़्त हो गया था, सहयोगीयों ने सुझाव दिया कि जुमे की नमाज भी अदा कर लीजिए साथ ही मस्जिद से लोगों वोट देने की अपील भी कर दीजिए। इस पर डॉ. शौकत ने कहा कि नमाज तो वह ज़रूर अदा करेंगे, लेकिन वोट की अपील नही करेंगे क्योंकि यह धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत के अनुरूप नहीं है।

 डॉ. शौकत वर्ष 1960 में वियतनाम और फिर सूडान के राजदूत बनाए गए और वहां से वापसी के बाद सन 1966 में उड़ीसा के राज्यपाल नियुक्त किए गए। 26 दिसम्बर 1972 को आपका दिल्ली में इंतिक़ाल हो गया था। जामिया मिल्लिया इस्लामिया की कब्रिस्तान में आपको सुपुर्दे-खाक किया गया था। इनके बडे पुत्र डॉ. वहजत मुख्तार अंसारी लंदन में रहते है, जबकि मंझले पुत्र सतवत मुख्तार अंसारी और छोटे पुत्र तलअत मुख्तार अंसारी अमेरिका के निवासी हैं। गाजीपुर में उनके निवास स्थान ‘शौकत मंजिल’ (मुहल्ला-मियांपुरा शहर गाजीपुर ) को उनकी पत्नी और लड़कों ने मदरसा दीनीया को दान कर दिया था, जो आज भी उन्ही के नाम से मन्सूब है।

( गृफ़तगू के जुलाई-सितम्बर 2023 अंक में प्रकाशित)


बुधवार, 11 दिसंबर 2024

कैंसर के मरीजों की सवो में तल्लीन डॉ. बी. पॉल थैलाथ

                                         - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

       

डॉ. बी. पॉल थैलाथ।

                                  

 कैंसर बीमारी का नाम सुनते ही धड़कन बढ़ जाती है। दिल से यही आवाज़ निकलती है कि खुदा यह बीमारी किसी दुश्मन को भी न दे। दूसरी ओर ऐसी बीमारियों से लोगों को निजात दिलाने के लिए दिन-रात काम करते हैं पद्मश्री डॉ. बी. पॉल थैलाथ। इलाहाबाद के जिस कमला नेहरु अस्पताल में दाखिल होते ही मरीजों को देखकर शरीर सिहर उठता है, उसी अस्पताल में रोजाना ही डॉ. पॉल कई दर्जन मरीजों की जांच करके उनका इलाज करते हैं। उन्हें समझाते हैं, सांत्वना देते हैं और मरीजों के तीमारदारों को समझाते हैं कि कैसे कैंसर जैसी बीमारी से बचा जा सकता है। प्रतिदिन डॉ. पॉल का ऐसे ही बीतता है, लेकिन वो जरा भी पीछे नहीं हटते हैं। लोगों की सेवा में लगे रहते हैं। इसके साथ-साथ सामाजिक कार्यों के जरिए भी समय-समय पर लोगों को इस बीमारी से बचने के टिप्स देने वाली एक्टिविटी में शामिल होते हैं। डॉ. पॉल के मुताबिक सर्वाधिक कैंसर बीमारी होने का कारण अनियमित दिनचर्या और खान-पान है। तंबाकू का सेवन बंद करके, खान-पान सही करने के साथ दिनचर्या सही करके इस बीमारी से काफी हद तक बचा जा सकता है। डॉ. पॉल के मुताबिक बच्चेदानी में कैंसर का कारण महिलाओं की कम उम्र में शादी होना है। इसका ध्यान रखकर महिलाएं इस बीमारी से काफी हद तक बच सकती हैं। डॉ. पॉल की चिकित्सा सेवा को देखते हुए इन्हें ‘पद्मश्री’ से नवाजा जा चुका है।

 डॉ. पॉल का जन्म 18 सितंबर 1952 को कोच्ची, केरल में हुआ है। प्रारंभिक शिक्षा से लेकर हाईस्कूल और इंटरमीडिएट तक की शिक्षा इन्होंने त्रिवेंद्रम में हासिल किया है। इसके बाद इनका चयन एम.बी.बी.एस. के लिए हो गया। चंड़ीगढ़ मेडिकल कॉलेज से आपने एम.बी.बी.एस.  का कोर्स पूरा किया। इसी कॉलेज से इन्होंने एम.डी. भी किया है। चंडीगढ़ पीजीआई से आपने रेडियो थैरेपी और ओनकॉलोजी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया है। मैनचेस्टर, इंग्लैंड के क्रिस्टी हॉस्पीटल, होल्ट एण्ड रेडियम इंस्टीट्यूट और रेडियम इंस्टीट्यूट से आपने एडवांस प्रशिक्षण लिया है। कई जगहों पर चिकित्सा सेवा करने के बाद इनकी नियुक्ति वर्ष 1985 में इलाहाबाद स्थित कमला नेहरु मेडिकल कॉलेज में हो गई। तभी से ये इसी कॉलेज में सेवारत हैं। कमला नेहरु हास्पीटल के अलावा ये रीजनल कैंसर सेंटर के रीजनल डायरेक्टर और कैंसर केयर सेंटर के चेयरमैन हैं। साथ ही पॉल हैरिस फेलो रोटरी इंटरनेशनल का भी संचालन करते हैं। इसके जरिए लोगों की सेवा करते हैं और उन्हें सही मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। कैंसर पर आधारित 75 से अधिक साइंटिफिक जरनल नेशनल और इंटरनेशनल स्तर पर प्रकाशित हो चुके हैं। इस पर काफी गंभीरता से कार्य कर रहे हैं।

 वर्ष 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों इन्हें कैंसर केयर ऑफ इंडिया की तरफ से लाइफ टाइम अचीवमेंट एवार्ड प्रदान किया गया था। वर्ष 2002 में इंटरनेशनल फ्रेंडशिप सोसायटी की तरफ से इन्हें ‘राष्टीय गौरव एवार्ड’ और वर्ष 2007 में तत्कालीन राष्टपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम द्वारा इन्हें पद्मश्री से नवाजा जा चुका है। इसी तरह वर्ष 2016 में वर्ल्ड मेडिकल काउंसिल द्वारा इन्हें ‘एक्सीलेंस एवार्ड’ प्रदान किया जा चुका है।

  डॉ. पॉल के मुताबिक भारत में 58 फीसदी पुरुषों के मुंह, गले और फेफड़े में कैंसर होने का कारण धूम्रपान है। इसको लेकर जागरुकता फैलायी जा रही है, जिसका सकारात्मक असर भी सामने आने लगा है। युवा पीढ़ी अपेक्षाकृत धूम्रपान से दूर हो रही है। इनका कहना है कि लगभग 20 वर्ष पहले तक भारत की 37 फीसदी महिलाओं की बच्चेदानी में कैंसर होता था। 18 वर्ष से कम उम्र की बच्चियां जब मां बनती हैं, तो उनकी बच्चेदानी में कैंसर होने का ख़तरा बढ़ जाता है। इसको लेकर जागरुकता फैलायी गई। जिसका असर यह हुआ है कि अब भारत में मात्र 18 फीसदी महिलाओं की बच्चेदानी में कैंसर की शिकायतें आ रही हैं। डॉ. पाल का यह भी कहना है कि पंद्रह वर्ष पहले तक स्तन कैंसर के मामले में भारत तीसरे स्थान पर था और अब पहले स्थान पर आ गया है। महिलाओं द्वारा स्तनपान न कराने की वजह से ही यह बढ़ोत्तरी हुई है।

(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2023 अंक में प्रकाशित )


रविवार, 8 दिसंबर 2024

 गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2023 अंक में



धनंजय कुमार विशेषांक

4. संपादकीय  (अमेरिका में रहते हुए भी पूरी तरह भारतीय)

5-9. धनंजय कुमार का परिचय

10. कहीं ये न समझो, मैं हूं तुमसे दूर - कैलाश गौतम

11-12. धनंजय कुमार की ग़ज़लें अपने वक़्त का आईना- यश मालवीय

13-14. ग़ज़लों के रूप में मंज़रेआम पर फ़ायज़ - तलब जौनपुरी

15-16. बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी धनंजय कुमार- अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’

17. धनंजय कुमार की शायरी में जीवन का यथार्थ- डॉ. मधुबाला सिन्हा

18-19. कविताओं में चिंतन के विभिन्न सोपान - डॉ. शैलेष गुप्त ‘चीर’

20-21 साहित्यकार धनंजय कुमार की ग़ज़लें - शगुफ़्ता रहमान ‘सोना’

22-24. इंटरव्यू: धनंजय कुमार

25-33. धनंजय कुमार की क्षणिकाएं

34-90. धनंजय कुमार की कविताएं

91-154. धनंजय कुमार की ग़ज़लें

155-164. धनंजय कुमार के मुक्तक

165-175. धनंजय कुमार के संगम

176-182. तब्सेरा  (21वीं सदी के इलाहाबादी, संघर्ष का सुख, घोंसला, ढाई बूंद, ज़बाने यार मनतुर्की,  सौग़ात मोहब्बत की)

183-185. उर्दू अदब  (चराग़-ए-अश्क-ए-अज़ा, आओ छू लें चांद सितारे, हर्फ़-हर्फ़ आईना)

186-187. गुलशन-ए-इलाहाबाद (डॉ. बी. पॉल)

188-189. ग़ाज़ीपुर के वीर (डॉ. शौकतउल्भ्लाह अंसारी)

190-194. अदबी ख़बरें






शनिवार, 7 दिसंबर 2024

   एहसास का ज़खीरा ‘खलिश’

                                    - डॉ. वारिस अंसारी

                                       


 

कोई भी अदीब जब अदब (साहित्य) के सागर में गोता लगाता है तो वह कुछ न कुछ हासिल करके ही बाहर निकलता है। सबके अपने ख़्याल होते हैं। वक़्त की तरह अदीब का ज़ेहन भी नई तखलीक करने की कोशिश में रहता है और यही कोशिश उसे उसकी मंज़िल तक ले जाती है। दौरे हाज़िर में इसी तरह की कोशिश और मेहनत की बदौलत नई नस्ल की तखलीककार नाज़नीन अली नाज़ का नाम है, जो आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। नाज़नीन अली नाज़ का अदब से गहरा रिश्ता है। इन्होंने अपनी मेहनत से कई अदबी अवार्ड भी हासिल किए हैं। वह नस्री (गद्य) और शेरी (पद्य) दोनों विधा में महारत रखती हैं। इस वक़्त उनका नॉवेल ‘खलिश’ मेरे हाथ में है, जिसका मैंने पूरा मुताअला किया। निहायत ही सादा और आसान ज़बान में बहुत ही खूबसूरत नॉवेल है, जिसमें लफ्जों का बरताव बड़े सलीके से किया गया है। नावेल को इतने दिलचस्प अंदाज़ में लिखा गया है की पढ़ने वालों पर बोझ नहीं लगता और क़ारी (पाठक) एहसास के सागर में डूबता चला जाता है। 

   इस कहानी के अहम किरदार जीशान और रश्मि की पाक मोहब्बत को लव-जिहाद का नाम देकर उन्हें मौत की आगोश में सुला दिया जाता है और ज़ालिम इसे धर्म व समाज की हिफाज़त का नाम देते हैं। इस तरह कितनी मासूम मोहब्बतें मौत का शिकार हो रही हैं। नाज़नीन अली नाज़ ने यही दर्द ‘खलिश’ में लोगों के सामने उजागर किया है। पूरी नॉवेल को नाज़नीन ने चार हिस्सों में तकसीम किया है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, इसके किरदार भी अपनी पहचान बदलते रहते हैं। इस तरह नाज़नीन ने समाजी मसाइल की तस्वीर पेश की है और उनका हल भी सवालिया अंदाज़ में किरदारों के तर्ज़े अमल को भी पेश किया। उनके सवाल सुनने में तो बड़े आम से लगते हैं, मगर सवालों की खूबी ये है क़ारी उन्हीं में अपने जवाब भी तलाश कर सकता है। 

   किताब की कम्पोजिंग अल्फ्रेड कंप्यूटर इलाहाबाद ने कम्पोज किया है, जिसकी स्कर्ट लाइन प्रिंटर्स प्रयागराज से छपाई हुई है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन हरवारा, धूमनगंज प्रयागराज से प्रकाशित किया गया है। खूबसूरत सरे-वर्क और हार्ड जिल्द के साथ 152 पेज की किताब में अच्छे किस्म के काग़ज़ का इस्तेमाल किया गया है। जिसकी कीमत 200 रुपए है। उम्मीद करता हूं कि नाज़नीन अली नाज़ का ये नावेल खलिश समाज और अदब में नुमाया मुकाम हासिल करेगा।


अदब की नुमाया किताब ‘हर्फ हर्फ खुशबू’



 सरफराज़ हुसैन फ़राज़ पीपल सानवी (मुरादाबाद) आज किसी तअरुफ़ (परिचय) के मोहताज नहीं हैं। यूं तो शायरी खुदादाद सलाहियत का नाम है, लेकिन खुदा उन्हीं को कामयाबी करता है जो अपने काम के लिए कोशा रहते हैं। फ़राज़ की शायरी पढ़ कर कहीं भी ऐसा महसूस नहीं होता कि उन्होंने कहीं कोताही की है। बल्कि हर शे’र उनके जिंदादिली की गवाही देता नज़र आ रहा है। वह खुदा की ज़ात पर यकीन रखने वाले एक कामिल शाइर की सफ में हैं। उनकी ग़ज़लों में उस्तादाना झलक है। उन्होंने अपनी शायरी में इश्क-मोहब्बत के साथ-साथ रोज़मर्रा के मसाइल भी बयान किए हैं। उनकी शायरी में शगुफ्तगी, शीरी-बयानी, आसान अल्फाज़ और पढ़ने में रवानी है, जिससे क़ारी (पाठक) का मज़ा दोबाला हो जाता है। उनकी शायरी में मोहब्बत की कशिश भी है और ज़़माने के लिए पैगाम भी। कुल मिलाकर वह उम्दा किस्म की शायरी करते हैं जो कि उर्दू अदब के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है। आइए उनके कुछ खूबसूरत अशआर मुलाहिज़ा करते चलें-‘खिलता गुल मुरझा गया है, क्या हुआ, कैसे हुआ/कुछ तो बोलो बात क्या है ,क्या हुआ, कैसे हुआ।’,‘खून से लाल हैं अखबार खुदा खैर करे/सब हैं कातिल के तरफदार खुदा खैर करे।’, मैं भूल जाऊंगा जामो शराब की बातें/तुम्हारी आंखों की थोड़ी अता ज़रूरी है।’, ‘अपनी हर बात बता देता है पागल उनको/दिल ही कुछ ऐसा है नादान खुदा खैर करे।’ 

 मज़कूरा बाला अशआर उनकी शायराना हैसियत और अदबी दिलचस्पी की गम्माजी के लिए काफी हैं। बाकी पूरा दीवान ‘हर्फ हर्फ खुशबू’ पढ़ने लायक है। उनकी शायरी पढ़ कर नई नस्ल के शायर अदबी फायदा हासिल कर सकते हैं और अपने खयालात को भी वसीअ (बड़ा) कर सकते हैं। हार्ड जिल्द के साथ उनके दीवान में 320 पेज हैं। किताब को रोशन प्रिंटर्स देहली से किताबत करा कर एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस लाल कुआं देहली से शाया (प्रकाशित) किया गया है। किताब की कीमत सिर्फ 500 रुपए है।


  समाज का आईना ‘मुकद्दस यादें’



 यादें तो गुज़रे हुए दौर की होती हैं लेकिन जब ये यादें किसी शायर/ ाायरा से मंसूब (संबद्ध) हो जाएं तो तो उन यादों की पूरी कैफियत, पूरा रूप ही बदल जाता है। हिंदी का एक मशहूर मुहावरा है ‘जहां न जाए रवि वहां जाए कवि।’ इसी मुहावरा को अमली जामा पहनाया है मशहूर शायर व समाजी कारकुन डॉ. शबाना रफीक ने अपनी किताब ‘मुकद्दस यादें में। मुकद्दस यादें उनकी नज़्मों का मजमूआ(संग्रह) है। जिसमें कुछ नज़्में बाबहर (छंद युक्त) और कुछ आज़ाद (छंद मुक्त) हैं। उन्होंने इस किताब में गुज़रे हुए ज़माने को भी याद किया है और वक़्त के हालात को भी महसूस किया है और खूबसूरत मुस्तकबिल की ख्वाहिशमंद भी हैं। उनकी शायरी आसान और शीरीं ज़बान में है, जिसे आसानी के साथ पढ़ कर महसूस किया जा सकता है। ‘शीदाने वतन’, ‘ख्वाहिश’, ‘वक़्त की आवाज़’, ‘नया जहां’, ‘मां’ तमाम ऐसी नज्में हैं, जिनमें उन्होंने समाजी एकता को बढ़ाने की आरज़ू की है और साथ ही साथ वह खौफ, दहशत, मायूसी, बेइमानी के सख़्त खिलाफ भी हैं। वह मुल्क से मोहब्बत करने वाली वतन-परस्त शायरा हैं।  आइए उनकी वतन से मोहब्बत की एक झलक देखते हैं-‘अपने तिरंगे की इज़्ज़त बचा लीजिए/ मुल्क फिर सोने की चिड़िया बना दीजिए/मिटा कर बेवजह नफरतों को दिलों से/इंसानियत से दुनिया सजा दीजिए/घर में पूजा करें या सजदा करें/घर के बाहर खुद को हिंदोस्तानी बना लीजिए।’ 

 उनके अशआर किस बहर में हैं ये तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन उनके ख़्यालात में किस कदर मुल्क की इज़्ज़त है, मुल्क के सर बुलंदी की तमन्ना है वह काबिले-तारीफ है। अल्लाह उनके जज़्बात सलामत रखे। इस किताब की एक बहुत बड़ी खूबी ये भी है कि ये हिंदी और उर्दू दोनों रसमुल खत में है, जिसे डॉ. शबाना ने अपनी मां को समर्पित किया है। हार्ड और खूब सूरत जिल्द व उम्दा किस्म के काग़ज़ पर सजाया गया है। किताब की कंपोजिंग छपाई घर ब्रह्म नगर कानपुर से हुई और रोशनी पब्लिकेशंस 110/138 बी, जवाहर नगर कानपुर से प्रकाशित हुई। 118 पेज के इस किताब की कीमत सिर्फ 200 रुपए हैं।


( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )


शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

मुनव्वर राना के आंसुओं से तामीर हुआ एक जलमहल

                                                           - यश मालवीय

                           


 

  जनाब मुनव्वर राना को कई रूपों, कई रंगों, कई शक्लों और कई खुशबुओं में देखने-सुनने, गुनने और महसूस करने के मौके मिलते रहे हैं। ‘मुहाजिरनामा’ उनमें सबसे अलहदा, सबसे जुदा एक ऐसा शाहकार है, जिसे खुश्क आंखों से पढ़ा ही नहीं जा सकता। आंखें नम होती हैं तो होती चली जाती हैं, हालांकि की नींद की नदी सूख जाती है। रात और काली लगने लगती है। बेचैनी की करवटें, सूखता हलक, लबों की तरह कांपता थरथराता दिल, तकलीफ़ का उमड़ता समुंदर, टूटी कश्ती सा समय, दिशाओं में उड़ती रेत, धूल के बगूले, चितकबरा आसमान, धुंध में डूबे मंदिर और मस्जिद के गुंबद, कुहरों में खोती सच्चाई, असवाद में डूबी घाटियां, फूलों के उतरे चेहरे, कहीं नहीं पहुंचाती सड़कें, अंतहीन गलियां, मज़हब की कटी-बंटी तहरीरें, धुंधली तस्वीरें, चटख होते ज़ख़्मों का ज़खीरा, गुलाम होकर भी आज़ाद होने का वहम, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान यानी दोनों देशों का बेपनाह दर्द, हिस्सों में तक्सीम ज़िन्दगी, जे़ह्न से धड़धड़ाती हुई ट्रेन का गुजरना, घायल परिन्दे, चश्मे की टूटी कमानी, खाली रखा पानी का घड़ा, कम वाट के बल्ब के इर्द-गिर्द जाला पूरती मकड़ी, खिलौनों के लिए मचलता बचपन, मुफ़लिसी के दुपट्टे ओढ़े जवानी, बूढ़ी आंखों का मोतियाबिंद, रास्तों पर दौड़ता 440 वोल्ट का करंट, टुकड़े-टुकड़े पहाड़, खून में डूबी हरियाली, फूट-फूटकर रोती ऋतुएं, झरनों के पपड़ाए-सूखे होंठ, सियासत के कैबरे अथवा आइटम सांग, खिड़कियों दरवाजों के टूटे पल्ले, बुझे चूल्हे, रसोई से बाहर खेलती आग, झुलसते बादल, क्या-क्या नहीं कौंध जाता है मन में। बहुत पहले बचपन में पढ़ा ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित डाक्टर राही मासूम रज़ा का लेख। जी हां ! मैं भारतीय मुसलमान बोल रहा हूं। नए सिरे से जैसे जिन्दा हो जा रहा है। यह बात गर्व से अपने आप को हिन्दू मानने वाली समूची कौम के लिए बेहद शर्मनाक है। अपने ही मुल्क में शरणार्थी होने की पीड़ा से बढ़कर दूसरी कोई पीड़ा और क्या हो सकती है। मुनव्वर राना ने वास्तव में एक जेनुइन मुसलमान की आवाज़ अपनी संपूर्ण छटपटाहट और बेकली के साथ ‘मुहाजिरनामा’ मे पेश की है। यह उनके आंसुओं से तामीर हुआ एक ऐसा जलमहल कि दिल और दिमाग उसी में डूबते-उतराने लगते हैं।

 मैं उनके गद्य का भी गहरा शैदाई हूं। भूमिका के तौर पर लिखे अपने मास्टर पीस ‘हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह’ में वह लिखते हैं।

 इबादत का रिश्ता मज़हब से नहीं रूह से होता है। इसीलिए तो चिड़ियां लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं करतीं। सब की आवाज़ें एक लय और एक सुर में ढ़ल जाती हैं। वह दरख़्तों को अपना मुल्क समझती हैं, और मुल्क को इबादतगाह।

 या फिर तारीख वह सूदखोर साहूकार है जो सूद-ब्याज के साथ अपना कर्ज़ वसूल कर लेती है। या फिर गुर्बत चोंचलों से पनाह मांगती है। वह भी पत्थर में भगवान ढूंढ़ लेती है, वह किसी भी अंगोछे को जानमाज बना लेती है।

 खुद मुनव्वर के लिए, उनकी शायरी के लिए उनका अपना लिख गद्य बहुत बड़ी चुनौती है। उनके इन वाक्यांशों पर स्वनामधन्य बड़े-बड़े शायरों के दीवान निछावर किये जा सकते हैं। आज तक हम हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए यह मुश्किल पेश आती रही है कि महादेवी वर्मा जी पद्यकार बड़ी हैं या गद्यकार। मुनव्वर को पढ़ते हुए भी मुझे बारहा यह लगता है कि गद्य में वह अपने आपको समूचा उड़ेल देते हैं, शायरी में जैसे कुछ थोड़ा सा उनके अपने पास बचा रह जाता है, हालांकि अपने दिल को भीगे अंगरखे की तरह निचोड़ कर देने में वह यहां भी कोई कोताही नहीं बरतते, मसलन-

    जहां पर बैठकर बरसों किसी की राह देखी थी

    हम स्टेशन के रस्ते पे वो पुलिया छोड़ आए हैं।

  

    बसी थी जिसमें खुशबू मेरी अम्मी की जवानी की,

    वो चादर छोड़ आए हैं वो तकिया छोड़ आए हैं।

 

    मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं।

    तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।

    

   सुना है अब फ़क़त उन्वान है वो इक कहानी का,

    हवेली में जो हम पीतल का घंटा छोड़ आए हैं।

   

    कई शहतूत के पत्तों पे ये तारीख़ लिक्खी है,

    कि हम रेशम उठा लाए हैं कीड़ा छोड़ आए हैं।

   

   वो ख़त जिस पर तेरे होठों ने अपना नाम लिक्खा था,

   तेरे काढ़े हुए तकिये पर रक्खा छोड़ आए हैं।

आंसुओं की स्याही से लिखी यह इबारतें कभी मिट नहीं सकतीं। इनमें अपने समय की सांसें हैं, एक सहता सहता सा अनसहता सा दर्द है और एक ऐसी कराह है, जिसमें करूणा का संगीत बहता है। कहीं-कहीं प्रार्थना के स्वर सुनाई देते हैं, सबेरे की अजान जैसे भटके हुए मुसाफ़िर को रास्ता दिखाती है। 


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )


गुरुवार, 5 दिसंबर 2024

असाधारण लोगों को किताब में सहेजना ख़ास काम

‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ के विमोचन के अवसर पर बोले केरल के राज्यपाल

डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में लोगों का हुआ सम्मान

‘21वीं सदी के इलाहाबादी, भाग-2’ का विमोचन करते अतिथि।

प्रयागराज। असाधारण लोगों को एक किताब में सहेजना बहुत ही महत्वपूर्ण काम है। इससे अपने शहर और समाज को समझा और परखा जा सकता है। यह काम डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने अपनी किताब ‘21वीं सदी के इलाहाबादी, भाग-2’ में कर दिखाया है। किताब में प्रयागराज के बहुत विशिष्ट 126 लोगों को शामिल करके बहुत अच्छा काम किया गया है। यह बात 10 मार्च को गुफ़्तगू की ओर करैलाबाग स्थित बेनहर स्कूल में आयोजित कार्यक्रम के दौरान केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद ख़ान ने कही। कार्यक्रम के दौरान जहां ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ किताब का विमोचन किया गया, वहीं इसमें शामिल सभी लोगों को सम्मानित भी किया गया।

लोगों को संबोधित करते केरल के राज्यपाल महामहिम आरिफ़ मोहम्मद ख़ान।

अपने वक्तव्य में महामहिम राज्यपाल ने कहा कि यह शहर आदिकाल से ही बहुत महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता आंदोलन में भी इसका ख़ास योगदान रहा है। आंदोलनकारियों का प्रमुख केंद्र रहा है इलाहाबाद। उन्होंने कहा कि आमतौर पर जो लोग असाधारण कार्य करते हैं, उन्हें खोजकर भारत सरकार पद्म पुरस्कार से नवाजती है। मगर, प्रयागराज के डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने व्यक्तिगत तौर पर असाधारण व्यक्तियों को खोजकर किताब में शामिल कर लिया है। यह कार्य हमेशा याद रखा जाएगा। 


डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


डॉ. कमलजीत सिंह को सम्मानित करते केरल के राज्यपाल महामहिम आरिफ़ मोहम्मद ख़ान।

श्री आरिफ मोहम्मद खा़न ने कहा कि भारत की संस्कृति प्राचीन है, यहां के लोग हमेशा से अपनी संस्कृति से जुड़े रहे हैं, जबकि यूनान और मिस्र जैसे देश के लोगों ने अपनी संस्कृति को भुला दिया है। अपनी संस्कृति को भूलना या छोड़ना उचित नहीं होता। इस किताब में जिन लोगों को सहेज दिया गया है, उनके जरिए एक तरह से संस्कृति को भी सहेजने का काम किया गया है।

डॉ. उमर मुस्तफ़ा हसन को सम्मानित करते केरल के राज्यपाल महामहिम आरिफ़ मोहम्मद ख़ान।

किताब के लेखक डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि मेरी हमेशा से कोशिश रही है अपने शहर के असाधारण लोगों को उनके काम के आधार पर किताब में शामिल किया जाए। मैंने मार्च 2023 से इस किताब पर काम शुरू किया था, जो अब जाकर पूरा हुआ। लोगों की जानकारी एकत्र करने के बाद एक-एक आदमी से मिलना एक कठिन काम है। भाग-1 और भाग-2 के बाद अगर आवश्यकता हुई तो भाग-3 पर भी काम किया जाएगा।


पं. गिरिजाशंकर शास़्त्री को सम्मनित करते केरल के राज्यपाल महामहिम आरिफ़ मोहम्मद ख़ान।


वरिष्ठ पत्रकार प्रताप सोमवंशी ने कहा कि यह एक महत्वपूर्ण कार्य है। इलाहाबाद समृद्ध लोगों का शहर रहा है, यहां पद्मश्री डॉ. राज बवेजा जैसी लोग भी मौजूद हैं। डॉ. राजीव सिंह ने  डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और टीम गुफ्तगू के इस कार्य की सराहना करते हुए कहा कि ऐसे कार्य होेते रहना चाहिए। अतहर ज़िया ने अपने वक्तव्य में इलाहाबाद के विरासत का जिक्र किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता पद्मश्री डॉ. राज बवेजा और संचालन शैलेंद्र जय ने किया।

अली हुसैन ग़ाज़ी को गोद में लिये महामहिम आरिफ़ मोहम्मद ख़ान।


नरेश कुमार महरानी, प्रभाशंकर शर्मा, डॉ. वीरेंद्र तिवारी, अर्चना जायसवाल, नीना मोहन श्रीवास्तव, उत्कर्ष मालवीय, अनिल मानव, शिवाजी यादव, धीरेंद्र सिंह नागा, कमल किशोर, दयाशंकर प्रसाद, असफर जमाल, हकीम रेशादुल इस्लाम आदि प्रमुख रूप से मौजूद रहे। 


 

मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

                                                              

समर की शायरी में परिपक्वता की झलक

                                     - अजीत शर्मा ‘आकाश’

 


                                    

‘मोहब्बत का समर’ शायर डॉ. इम्तियाज़ ‘समर’ की ग़ज़लों का संग्रह है। पुस्तक की ग़ज़लें पाठकों को प्रभावित करने में सक्षम है। कथ्य एवं शिल्प दोंनों की दृष्टि से शायरी में परिपक्वता झलकती है। शायरी के तमाम ख़ूबसूरत पहलू पाठकों के समक्ष उजागर होते हैं।   ग़ज़ल आज के दौर की अत्यन्त लोकप्रिय विधा है। दो मिसरों में पूरी बात समेट लेने का हुनर इसी विधा के पास है। हर शायर का अपना एक अलग अंदाज़ और रंग होता है, जिससे उसकी विशेष पहचान बनती है। अपने इस गज़ल-संग्रह के माध्यम से डॉ. इम्तियाज़ ‘समर’ संजीदा और ग़ज़ल-विधा की पर्याप्त जानकारी रखने वाले ग़ज़लकार रूप में पाठकों के समक्ष आते हैं। संकलन की रचनाएं ग़ज़ल की कसौटी पर खरी उतरती हैं। ग़ज़ल का बह्र में होना ही उसकी मूलभूत शर्त होती है, जिसे शायर ने बख़ूबी निभाया है। संग्रह की ग़ज़लों में विषयवस्तु की दृष्टि से विविधता है। शायर ने इनमें ज़िन्दगी के सभी रंगों को समेटने का प्रयास किया है। जीवन के अनुभव और संत्रास भी ग़ज़लों में दिखायी देते हैं। आज का दौर शायर को चिन्तित करता है। अच्छे-बुरे हालात, रिश्तों का निर्वाह, मानवीय संवेदनाएं, आम आदमी की पीड़ा-इन सबका ज़िक्र ग़ज़लों में किया गया है। इनके अतिरिक्त प्यार, मुहब्बत की भावनाओं को उजागर करती हुई ग़ज़लें भी हैं। कहा जा सकता है कि बड़ी सादगी और सच्चाई के साथ स्वाभाविकता से जीवन के सभी पहलुओं को स्पर्श करने का प्रयास किया गया हैं। 

ग़ज़ल संग्रह के कुछ उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं मुहब्बत की बात करते हुए अशआर- ‘मचलने लगा है दिल अब ख़ुशी से/मोहब्बत हमें हो गयी है किसी से।’ कितनी ख़ुशियों ने दिल पे दस्तक दी/इक तुम्हारे क़रीब आने से।’ आज के सियासी हालात का चित्रण-‘मुक़द्दर के सिकन्दर हो गये हैं/जो दरिया थे समन्दर हो गये हैं।’ आज के दौर का इंसान-‘बिक गया इंसाफ़ सिक्कों के एवज़/मुंसिफ़ों के लब पे ताले पड़ गये।’ आम आदमी का चित्रण-‘कांधों पे अपने टाट का बिस्तर लिये हुए/देखो वो जा ररहा है कोई घर लिये हुए।’ मशक्क़्त ख़ूब करता है, लहू दिन भर जलाता है/कहीं तब जाके इस महंगाई में वो घर चलाता है।“      ग़ज़लों में कहीं-कहीं कुछ दोष भी दृष्टिगत होते हैं।, यथा- ऐबे-तनाफ़ुर (स्वरदोष-मिसरे में किसी शब्द के अंतिम अक्षर की उसके बाद वाले शब्द के पहले अक्षर से समानता), तक़ाबुले रदीफ़ (मतले के अलावा किसी शे’र के दोनों मिसरों का अन्त समान स्वर पर होना) आदि। कुछ ग़ज़लों में भरती के शब्द भी आये हैं। इसके अतिरिक्त पुस्तक में रह गयी प्रूफ़ सम्बन्धी त्रुटियों के कारण कुछ स्थानों पर व्याकरण एवं वर्तनीगत अशुद्धियाँ भी परिलक्षित होती हैं, यथा- बेहीसी, मुशिफ, पुछिए, ऊर्दू, दिजिए, ख़्याल, रूत्बा आदि। पुस्तक का मुद्रण एवं गेट अप अच्छा है। कवर पृष्ठ आकर्षक है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘मोहब्बत का समर” पठनीय एवं सराहनीय ग़ज़ल संग्रह है। 128 पृष्ठों की इस पुस्तक को गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, जिसका मूल्य रू0 200/- मात्र है।   


 उदय प्रताप के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का झरोखा



कई दशकों से हिन्दी काव्यमंच के अग्रगण्य और सफलतम कवि 91 वर्षीय शब्द साधक उदय प्रताप सिंह को अभिनंदित कर उन्हें जन्मशती सम्मान प्रदान किये जाने के अवसर पर ‘इटावा हिन्दी सेवा निधि’ द्वारा ‘उदय उमंग’ पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। इसके माध्यम से उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। कविवर उदय प्रताप सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जनपद के गढ़िया ग्राम के चौधरी परिवार में 18 मई, 1932 को हुआ। उनका जीवन पहले एक अध्यापक, बाद में प्राचार्य के रूप में प्रारम्भ हुआ। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव जी को उनका विद्यार्थी होने का गौरव प्राप्त है। उन्हीं के निवेदन एवं अनुरोध पर उदय प्रताप जी ने वर्ष 1989 एवं 1991 में दो बार मैनपुरी से लोकसभा चुनाव लड़ कर भारी बहुमत से विजय प्राप्त की। लोकसभा के पश्चात् वे राज्यसभा के सम्मानित सदस्य रहे। इसके बावजूद अपने साहित्यकार और कवि के ऊपर उन्होंने राजनीति को कभी हावी नहीं होने दिया। उदय प्रताप सिंह अंग्रेजी के प्राध्यापक थे, किन्तु हिन्दी में काव्य-रचना की। वह आज भी हिन्दी काव्य मंचों की शोभा हैं। कवि सम्मेलनों के मंचों पर उनकी गरिमायी उपस्थिति सफलता की एक आश्वस्ति मानी जाती रही है। उदय प्रताप ने हिन्दी कविता की वाचिक परम्परा को समृद्ध किया है। 

‘उदय उमंग’ में गोपालदास नीरज, बेकल उत्साही, बालकवि बैरागी, सोम ठाकुर, मुनव्वर राणा, डॉ. रमाकांत शर्मा जैसे स्वनामधन्य एवं मूर्धन्य कवियों तथा साहित्यकारों के संस्मरणात्मक आलेख संग्रहीत हैं, जो उनके जीवन, कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हें। कविवर बेकल उत्साही ने उन्हें अनूठा रचनाकार तथा अछूती सोच का व्यक्ति बताया है। स्वनामधन्य कविवर गोपालदास नीरज ने उन्हें एक समन्वयवादी विचारक बताया है, तो सोम ठाकुर उन्हें भाव पुरूष कहते हैं। मैनपुरी जनपद के निवासी कवि एवं साहित्यकार डॉ. रमाकांत शर्मा ने उन्हें ‘हमारी माटी के अक्षय वट’ कहते हुए अपने संस्मरणात्मक आलेख में उदय प्रताप का सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व दर्शाया है। आलेख में उन्होंने बताया है कि वे अपने छात्र जीवन में उदय प्रताप जी के निकट सानिध्य में रहे हैं तथा उन्हें निकट से देखा एवं समझा है। कविवर उदय प्रताप सिंह का अंग्रेज़ी, हिन्दी एवं उर्दू का ज्ञान अद्भुत है। उन्होंने साहित्य का गहन अध्ययन किया है। उनकी साहित्यिक एवं प्रेरक कविताएं श्रोताओं को सम्मोहित कर लेने की सामर्थ्य रखती हैं। अपने विचारों एवं लेखन में कविवर उदय प्रताप सिंह सदैव समाजवादी, समन्वयवादी तथा प्रगतिशील विचारधारा के पोषक रहे। उनका सदैव मानना रहा है कि कवि जनता का होता है, किसी सरकार का नहीं होता। भाव पक्ष की दृष्टि से उनकी कविताएँ साम्प्रदायिक सद्भाव को पोषित करती हैं। उनकी कविताओं के विषय आमजन के सरोकारों से सीधे जुड़े होते हैं। कविताओं में मानवीय संवेदना के जीवन्त चित्र उपलब्ध होते हैं।

 पुस्तक के काव्य खण्ड के अन्तर्गत उनकी ग़ज़लों एवं छन्दों के साथ ही बांच के देख, पत्तियाँ, चिड़िया बैठ गई, चांदनी, शिशु जी की स्मृति में, होली, भुजबन्धन ढीले कर दो, उमर ख़ैयाम हो जाए, मयख़ाने नहीं आए शीर्षक कविताएं सम्मिलित हैं, जो यह दर्शाती हैं कि काव्य के शिल्प पक्ष पर उनकी कितनी गहरी पकड़ है। आज भी वे अपने चिन्तन, लेखन के प्रति समर्पित हं् तथा हिन्दी साहित्य की सेवा में निरन्तररत हैं। उनकी कविताओं के कुछ अंश प्रस्तुत हैं -‘अब उसकी मुहब्बत का हम कैसे यकीं कर लें/मौसम के मुताबिक़ जो ईमान बदलता है।’, ‘मोबाइलों के दौर के आशिक को क्या पता/रखते थे कैसे ख़त में कलेजा निकाल के।’, ‘न तेरा है न मेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है/नही समझी गई यह बात तो नुक़सान सबका है।’, ‘जो आनन्द अमीरी में है, उससे अधिक फ़क़ीरी में/ दरबारों में सर ऊँचा कर पाते हैं हम लैसे लोग।’ श्रृंगार का छन्द- काले घुँघराले केश घेरे नवनीत मुख/बादलों में चादहवीं क चाँद लगती थी वह/यौवन की नदी का उफ़ान बाँधे देहयष्टि/तोड़ती हुई-सी तटबाँध लगती थी वह।’

 पुस्तक का प्रकाशन अत्यन्त सराहनीय कार्य है, किन्तु हिन्दी की साहित्यिक संस्था द्वारा प्रकाशित होने के बावजूद पुस्तक में यत्र-तत्र शब्दों की वर्तनीगत अशुद्धियां हैं, जो खटकती हैं, यथा- स्वस्थ्य पृ.-11, कवियत्रियों पृ.-15, आशिर्वाद पृ.-19, आश्वस्ती पृ.-47 आदि। अनुस्वार सम्बन्धी त्रुटियों की अनेक स्थानों पर हैं। इसके अतिरिक्त प्रूफ़ रीडिंग में पुस्तक के सम्पादक द्वारा अत्यन्त असावधानी बरती गयी है, जिसके कारण अनेक अशु़द्धयाँ रह गयी हैं। बावजूद इसके इस प्रकार की पुस्तकों का प्रकाशन अत्यन्त सराहनीय कार्य है। ‘उदय उमंग’ पुस्तक इटावा हिन्दी सेवा निधि, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित की गयी है, जिसके सम्पादक डॉ. कुश चतुर्वेदी हैं।


पठनीय एवं संग्रहणीय श्रेष्ठ कहानी-संग्रह 



डॉ. विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार एवं यशपाल पुरस्कार से सम्मानित, राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश एवं अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत कुशल कथा-शिल्पी राम नगीना मौर्य की नवीनतम कथा-कृति ‘आगे से फटा जूता’ अपने समय के सच का बयान करती हुई नयी भाव-भूमि, तथा नए तेवर की कहानियों का संग्रह है। राम नगीना मौर्य अत्यन्त संवेदनशील एवं चिन्तनशील आधुनिक कथाकार अपनी एक अलग पहचान बना चुके हैं। पुस्तक के प्रारम्भ में ‘अपनी बात’ के अन्तर्गत लेखक ने पूर्व प्रकाशित अपने कहानी संग्रहों की समीक्षाओं के अंशों तथा पाठकों की प्रतिक्रियाओं को सविस्तार उद्धृत किया है, जिनके माध्यम से इनकी कथागत विशेषताएं परिलक्षित होती हैं। उनका ‘आगे से फटा जूता’ श्रेष्ठ कहानी-संग्रह बन पड़ा है। पुस्तक में ‘ग्राहक देवता’, ‘पंचराहे पर’, ‘लिखने का सुख’, ’सांझ-सवेरा’, ‘उठ ! मेरी जान’, ‘ढाक के वही तीन पात’, ‘ग्राहक की दुविधा’, ‘ऑफ स्प्रिंग्स’, ‘गड्ढा’, ‘परसोना नॉन ग्राटा’ तथा आगे से फटा जूता’ शीर्षकों से उनकी 11 यथार्थपरक कहानियां सम्मिलित हैं। इन कहानियों में वर्तमान समय की विसंगतियों तथा सामाजिक एवं राजनीतिक विद्रूपताओं तथा विडम्बनाओं को चित्रित करने का सफल प्रयास किया गया है। कहानियां रुचिकर और प्रासंगिक है, जिनके माध्यम से मध्य वर्ग के लोगों का संत्रास एवं ऊहापोह खुलकर सामने आता है। 

 प्रस्तुत संग्रह का नामकरण ‘आगे से फटा जूता’ कहानी के आधार पर किया गया है। लेखक ने अपनी इस कहानी की रचना-प्रक्रिया की चर्चा भी विस्तारपूर्वक एवं रोचक ढंग से की है। प्रथम दृष्ट्या ऐसा प्रतीत होता है कि यह किसी दीन-हीन व्यक्ति अथवा लेखक की कहानी होगी, किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है। इस कहानी में एक नया प्रयोग करते हुए एक सेमीनार हॉल में आये प्रतिभागियों के जूतों की आपस में बातचीत करायी गयी है, जिसके माध्यम से कथाकार ने समाज का आइना प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। एक नवीन कथा शैली पाठकों के समक्ष उजागर होती है। संवादों की दृष्टि से भी कहानियों में अच्छे प्रयोग किये गये हैं। पात्रों की संवाद शैली अद्भुत है। कहानी की आवश्यकतानुसार संवादों में चुटिलता एवं रोचकता का भी समावेश रहता है, जो पात्रों में निरन्तर जीवन्तता बनाये रखते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आगे से फटा जूता कहानी संग्रह के माध्यम से राम नगीना मौर्य अत्यन्त सफल कथाकार के रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित होते हैं। बहरहाल, कहानियों का यह श्रेष्ठ संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है। नये कहानी लेखकों के लिए यह अत्यन्त प्रेरक सिद्ध हो सकता है। रश्मि प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित 132 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 220/- रूपये है।


पठनीय एवं सरहनीय ग़ज़ल संग्रह


 
 क़ुर्बान ‘आतिश’के ग़ज़ल संग्रह ‘सुलगता हुआ सहरा’ में उनकी 116 ग़ज़लें संकलित हैं। कथ्य एवं शिल्प, दोनों ही दृष्टियों से संग्रह की ग़ज़लें श्रेष्ठ एवं सराहनीय हैं। संग्रह की ग़ज़लें शिल्प की कसौटी पर खरी उतरती हैं। ग़ज़ल की मुलभूत पहचान इसकी छन्दबद्धता और लयात्मकता है। ग़ज़ल कहने के बहुत से क़ायदे-क़ानून तथा ऐब-हुनर हैं जिनके बारे में शायर को अच्छी जानकारी है तथा शायर ने इनको ध्यान में रखा है। शायर ने बह्र-विधान के बारे में सतर्कता और सावधानी का परिचय दिया है। यही कारण है कि लेखन में सरलता, सहजता तथा रवानी परिलक्षित होती है। ग़ज़लें कथ्य की दृष्टि से भी सराहनीय हैं। आज के समाज और उसके बदलते परिवेश के प्रति गहरी चिंता जाहिर करते हुए शायर ने सामाजिक तथा राजनीतिक विसंगतियों पर प्रहार किया है। साथ ही एक ऐसी ख़ूबसूरत और हसीन दुनिया की तलाश करने की कोशिश की है, जहां इंसानियत, प्रेम और सच्चाई हो। जहां इंसान एक दूसरे का संगी-साथी हो और एक दूसरे के सुख-दुख का सहभागी बने। शायर एक ओर सामाजिक विसंगतियों को लेकर चिंतित हैं, वहीं आज की स्वार्थपरक राजनीति से भी खिन्न भी दिखाई पड़ता है। संग्रह के माध्यम से रचनाकार ने ग़ज़लों को बहुत ही सशक्त और आम आदमी से जुड़ा हुआ बना दिया है। आज के नेताओं की सियासत और उनकी स्वार्थपरता को कुछ इस तरह व्यंजित किया है-‘जिस घड़ी धुंध सोच लेती है/सुब्ह का जिस्म नोच लेती है।’,ःतेरी फ़रियाद क्या सुनेगा वह/आसमां पर दिमाग़ है जिसका।’, ‘तीरगी और फैलती ही गई/उसने कंदील वह जलाई है।’, ‘वो हवा बह रही है हर जानिब/एक दहशत बनी है हर जानिब।’ आज के आदमी की स्वार्थवृत्ति का चित्रण-‘मिलते हैं हर क़दम पर अब बैर करने वाले/क्या उठ गये जहाँ से सब ख़ैर करने वाले।’ समाज में व्याप्त शोषण और अन्याय -‘यह मुझसे आज कैसी आज़माइश हो रही है/शिकस्ता जिस्म पर पत्थर की बारिश हो रही है।’   

    संकलन की ग़ज़लों में कहीं-कहीं ऐबे तनाफ़ुर, ऐबे शुतुरगुर्बा जैसे कुछ सामान्य दोष भी रह गये हैं।, कहीं-कहीं भर्ती के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। प्रूफ़ रीडिंग तथा भाषा-व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियाँ भी हैं, यथा-स्तिम, प्याम, ख्याल हूकूमत आशीकी, करिशमा आदि। कुल मिलाकर, शायर की रचनाधर्मिता एवं सृजनात्मकता की दृष्टि से ग़ज़ल संग्रह पठनीय एवं सराहनीय है। 144 पृष्ठों की यह पुस्तक को मंत्री मण्डल सचिवालय (राज्य भाषा विभाग) बिहार के अनुदान से प्रकाशित की गयी है, जिसका मूल्य 225 रुपये है।

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रहस्यवाद की छाया से युक्त रचनाएं



‘अपने शून्य पटल से’ पुस्तक में रचनाकार स्व. बालकृष्ण लाल श्रीवास्तव की 53 काव्य रचनाएं सम्मिलित हैं, जिन्हें रमेश चन्द्र श्रीवास्तव ‘रचश्री’द्वारा संकलित एवं सम्पादित किया गया है। यह पुस्तक एक प्रकार से रचनाकार को श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत की गयी है। पुस्तक में लेखक के लगभग सभी सगे-संबन्धियों, नाते-रिश्तेदारों द्वारा उनके भूमिका आलेखों द्वारा भावपूर्ण स्मरण किया गया है। भूमिका आलेख संक्षिप्त एवं विस्तृत, दोनों ही स्वरूपों में लिखे गये हैं, जिनके माध्यम से उनके व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए उन्हें अपनी ओर से भाव-पुष्प अर्पित किये गये हैं। पुस्तक के अन्त के पृष्ठों में सभी परिवारीजनों के फ़ोटो भी हैं। काव्य रचनाओं के वर्ण्य विषय के अन्तर्गत प्रेम, हास्य, करूणा के भाव सम्मिलित हैं। कुछ रचनाओं के माध्यम से दहेज, तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों एवं दुनिया के छल-छद्म पर प्रहार भी किया गया है। कहीं-कहीं व्यंग्य भी है। इनके अतिरिक्त प्रकृति-प्रेम तथा हृदयगत अन्य भावनाओं का निरूपण भी रचनाओं में दृष्टिगत होता है। पुस्तक में प्रमुख रूप से अध्यात्म एवं ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था के भावों से युक्त रचनाओं को स्थान प्रदान किया गया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अध्यात्मप्रेमी एवं ईश्वरवादी पाठकों के लिए यह पुस्तक रुचिकर लगेगी।

कुछ रचनाओं के अंशः- ‘प्रेम सम्बन्धी अवधारणा- एक एहसास है, दिल के जो पास है/हम सभी प्रेम कहते हैं उसकोमगर/जानते ही नहीं उसमें क्या खास है (एक एहसास है)।  उनकी यादों के पल दो पल, इतनी तेजी से आते हैं/ तन को रोमांचित कर देते, मन को विह्वल कर जाते हैं (यादों के पल)। इनके अतिरिक्त सिन्दूरः दहेज, संसार, प्रीति के दीप, उसी का वजूद, वहाँ क्यों होती प्रज्ञा मौन, पथ पाएगा कभी भटकता आदि काव्य रचनाएं भी उल्लेखनीय कही जा सकती हैं। निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा द्वारा 116 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 350 रुपये है।

( गुफ़्तगू के अप्रैज-जून 2023 अंक में प्रकाशित  )

सोमवार, 2 दिसंबर 2024

 स्वतंत्रता आंदोलन के सिपाही फरीदुल हक़ अंसारी 

                                                         - सरवत महमूद खां 

                                      

 सोशलिस्ट आन्दोलन के संस्थापक और स्वतंत्रता संग्राम के मशहूर सिपाही फरीदुल हक अंसारी का जन्म एक जुलाई सन 1895 ई. को युसुफपूर मुहम्मदाबाद में हुआ था। आप के पिता निज़ामुल हक़ अंसारी युसुफपूर मुहम्मदाबाद के प्रतिष्ठित काजी परिवार के सदस्य थे। काजी निज़ामुल हक़ की गणना गाजीपुर कांग्रेस के संस्थापक सदस्य के रूप मे की जाती है। फरीदुल हक अंसारी का परिवार ग़ाज़ीपुर का रईस जमीन्दार और सम्पन्न परिवार था, लेकिन वह इस आरामपसंद नहीं थे और विलासिता से काफी दूर ही रहे।


फरीदुल हक अंसारी


  फरीदुल की प्रारम्भिक शिक्षा स्टीफेंस स्कूल के बाद अलीगढ विश्वविद्यालय से हुई। इस के बाद उच्च शिक्षा के लिए लंदन चले गए। लंदन से वार-एट-ला की डिग्री हासिल की। लंदन में पढ़ाई के दौरान वह जवाहरलाल नेहरू के सहपाठी थे और वहीं से नेहरू जी से घनिष्ठता हो गई थी। सन् 1925 में लंदन से वापसी पर अपने सगे मामू ड़ॉ. मुख्तार अहमद अंसारी की कोठी नम्बर-1, दरियागंज, देहली में रहकर वकालत शुरू कर दी। दिल्ली के रेन्ट कंट्रोल एक्ट के चयन समिति के सदस्य बनाये गये। जिसके कारण सभी सरकारी सुविधायें मिलने लगीं। मगर देश प्रेम की भावना के कारण अस्वीकार कर दिया। देशद्रोह के एक मुकदमे में अपने मुवक्किल को सजा से मुक्त न करा सके, जिससे दुखी होकर सदा के लिए वकालत छोड़ दिए।

  सन 1920 में कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बने। सन 1927 में साइमन कमीशन का खुलकर विरोध किया। 17 मई 1922 को पटना में आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में हुए सम्मेलन में उसमें भाग लिया। सन 1927 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य एवं 1929-30 मंे दिल्ली कांग्रेस कमेटी के सचिव बनाये गये। सन 1938 में दिल्ली कांग्रेस कमेटी के आरगनाइजर बनाये गये। फरीदुल हक़ अंसारी, स्वामी सहजानन्द सरस्वती के विचारों से प्रभावित होकर 23 अक्टूबर 1938 को अपने गृह नगर मुहम्मदाबाद में किसान सम्मेल शामिल हुए। यहां संबोधित करने के लिए नरेंद्र देव व सहजानन्द सरस्वती को आमंत्रित किया गया था। कांग्रेस पार्टी में समाजवादी विचार धारा के पोषक थे। इसी वजह से उनकी जो ज़मीन और बाग़ान काश्तकारों से उपयोग था, उसे बांट दिया। जिसके लिए पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने धन्यावाद दिया था। 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के कारण इन्हें जेल भेज दिया गया था। इसी प्रकार 1942 में जनक्रांति में शामिल होने पर छह माह की कारावास की सजा हुई। इनको फिरोजपुर जेल भेजा गया। इसी समय माता एवं पत्नी का देहांत हो गया, लेकिन इस मार्मिक घटना से भी विचलित नही हुए लेकिन यह दर्द उन्हे जीवन भर सालता रहा। सन् 1945-46 में युसुफपुर लौट आए। 1946 में संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश ) में धारा सभा (विधानसभा) का चुनाव होना था। मुस्लिम बहुल क्षेत्र होने के कारण पंडित नेहरू ने उन्हे गाजीपुर जिला कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया, लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस की हार के कारण इस्तीफा दे दिया और साथ ही उ. प्र कांग्रेस कार्यकारिणी से भी इस्तीफा दे दिया। 

 आप गांधी जी के उस विचार से सहमत थे कि आजादी मिलने के बाद कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। अपने इसी विचार और अक्खड़ स्वभाव से कांग्रेस से संबंध विच्छेद कर बाद में आजीवन सोशलिस्ट विचारधारा के साथ रहे। यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति व कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख मार्शल टीटो के निमंत्रण पर भारत से समाजवादियों का प्रतिनिधिमंडल 1952 में आप ही के नेतृत्व में यूगोस्लाविया गया था। इस प्रतिनिधिमंडल में कर्पूरी ठाकुर, बांके बिहारी दास,  शांति नारायण नाईक और मधु दंडवते शामिल थे। पंडित नेहरू बहुत चाहते थे कि आप कांग्रेस में लौट आएं, लेकिन फरीदुलहक इसके लिए तैयार नहीं हुए। आपका घनिष्ठतम संबंध नेता जी सुभाष चन्द्र बोस एवं किसान नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती से थे। 1940-41 में जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस गाजीपुर आये थे तो स्वामी सहजा सहजानन्द सरस्वती के साथ आप भी नेता जी से मिले थे। इसके पूर्व भी 1938 में आपकी एक गुप्त भेंट पटना में नेता जी सुभाषचंद्र बोस से हुई थी। आप राज्यसभा के दो बार ( 3 अप्रैल1958 से 2 अप्रैल 1964  एवं  3 अप्रैल 1964 से 4 अप्रैल 1966 तक) सांसद रहे। 4 अप्रैल 1966 को 70 वर्ष की आयु में बम्बई के एक अस्पताल में इंतिकाल हो गया।  उनकी अन्तिम इच्छा थी कि उन्हे उनके आबाई कब्रिस्तान युसुफपुर में दफन किया जाय, इसलिए बम्बई से उनके पार्थिव शरीर को फौजी हवाई जहाज से गाजीपुर लाया गया। उनके पार्थिव शरीर के साथ बम्बई से उनके शिष्य और आस्था रखनेवाले चन्द्रशेखर बलिया (जो बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने ) सेवक के रूप में आये थे। उन्हें उनके पैतृक कब्रिस्तान कोटीया (युसुफपुर )में दफनाया गया।


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )

रविवार, 1 दिसंबर 2024

कार्य क्षेत्र को ही जीवन मान लेना व्यक्ति की सबसे बड़ी नादानी: डॉ. अखिलेश निगम ‘अखिल’ 


अखिलेश निगम ‘अखिल’


शिव मंगल सिंह सम्मान (पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर जी द्वारा वर्ष-1996 में प्रदत्त), राष्ट्रपति का पुलिस पदक (पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा वर्ष-2015 में प्रदत्त),  पुलिस महानिदेशक उत्तर प्रदेश द्वारा प्रशंसा चिह्न (वर्ष-2023), साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, साहित्य गौरवसम्मान, सुमित्रानन्दन पन्त सम्मान, डॉ. विद्या निवास मिश्र सम्मान और विभिन्न साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा 150 से अधिक सम्मानों से विभूषित, लोकप्रिय कवि, शायर एवं कहानीकार डॉ. अखिलेश निगम ‘अखिल’ का जन्म  05 अगस्त, 1966 ग्राम हसनपुर खेवली, लखनऊ में हुआ है। एम. काम., एल.एल.बी. एवं आई.सी.डब्लू.ए. की परीक्षा पास करने के बाद आपका चयन पुलिस सेवा (आइ पी एस) के पद पर हुआ। वर्तमान में आप डी.आई.जी. (आर्थिक अपराध शाखा) के पद लखनऊ में कार्यरत हैं। हिन्दी के प्रति अत्यधिक प्रेम की वजह से आपने, नौकरी करते हुए, हिंदी में स्नातकोत्तर उपाधि तथा अंततः हिंदी में डाक्टरेट (पीएचडी) की उपाधि प्राप्त की है। ‘अभिलाषा’, ‘उत्तर देगा कौन?’, ‘गजलें अखिल की’, ‘अखिल दोहा सतसई’, ‘गिरगिट’,‘ललित निबंध और डॉ. रघुवीर सिंह’ और ‘भाव कलश’ आदि नाम से आपकी पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। लखनऊ स्थित कार्यालय में पहुंचकर अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे विस्तृत बात की है। प्रस्तुत उस बातचीत के प्रमुख अंश -

सवाल: वर्तमान समय में ग़ज़ल का क्या भविष्य है,  और ग़ज़लों की विषय वस्तु पर आपका क्या दृष्टिकोण है?

जवाब: पहले ग़ज़ल का कथ्य बहुत सीमित था, ग़ज़ल में सिर्फ़ श्रंृगार की ही बात होती थी। मगर, वर्तमान समय में जीवन के सभी पहलुओं पर ग़ज़ल में बात होती है। आज की ग़ज़लें, व्यक्तिगत, सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों तथा पर्यावरण संबंधित समस्याओं को उजागर करती हुई उनका समाधान भी प्रस्तुत कर रही हैं। ग़ज़लें अब एक पक्षीय न होकर बहुपक्षीय हो गई हैं। ग़ज़लें अब व्यक्ति और समाज दोनों से जुड़ रही हैं। हालांकि उर्दू ग़ज़लों में सामाजिक विषयों पर कम काम हुआ है। हिन्दी की तरह ही, उर्दू ग़ज़लों में भी, धीरे-धीरे विभिन्न सामाजिक विषयों का समावेश हो रहा है। मेरी ग़ज़ल कृति ‘ग़ज़लें अखिल की’ में कुल 101 ग़ज़लों में से केवल 8-10 ग़ज़लें ही रोमांटिक हैं, बाकी सभी, सामाजिक विषयों से संबंधित हैं। जहां शरीर, मन और आत्मा का एकाकार होता है, वहीं से साहित्य की शुरूआत होती है। बात न्याय की ही होनी चाहिए। दिनों-दिन ग़ज़लों का भविष्य मुझे निरंतर निखरता हुआ ही दिखता है।


सवाल: साहित्य में आपका रुझान कब, क्यों और कैसे हुआ ?

जवाब: मुझे बचपन से ही साहित्य अध्ययन एवं सृजन का शौक रहा है। उम्र के साथ-साथ यह शौक भी बढ़ता गया। विद्यार्थी काल में राजकीय इंटर कालेज की वार्षिक पत्रिका में मेरी  कविता छपी, जिससे साहित्य के प्रति मेरे इस आकर्षण को और बल मिला। पढाई के दौरान, कविताओं में रुचि होने के कारण बहुत सी कविताएं मुझे कंठस्थ थी। अतः मेरा चयन, कालेज की अंत्याक्षरी टीम के कैप्टन के पद पर भी हुआ। शुरूआती दौर में कविताएं लिखने के दौरान ही मेरी लेखनी मुझे गजलों की तरफ मोड़ने लगी। वर्ष-2003 में मेरी मुलाकात प्रसिद्ध शायर डॉ. मिर्जा हसन ‘नासिर’ जी से हुई। उनसे कई बार की मुलाकातों ने मेरे अंदर के ग़ज़लकार को परिष्कृत कर बाहर निकाला और मेरी ग़ज़ल लेखन यात्रा वर्ष-2004 से प्रारंभ हो गई जो कविता, कहानी लेखन  के साथ-साथ फलती फूलती रही। मेरी पहली पुस्तक ‘अभिलाषा’ है, जो कि छंदबद्ध गीत, कविता और ग़ज़ल पर आधारित है तथा ‘उत्तर देगा कौन ?’ जो नई कविताओं पर आधारित है, वर्ष-2006 में प्रकाशित हुई। तत्पश्चात वर्ष-2015 में ‘अखिल दोहा सतसई’ दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष मेरा कहानी-संग्रह ‘गिरगिट’ भी प्रकाशित हुआ। ग़ज़ल लेखन यात्रा वर्ष-2004 से प्रारंभ तो हुई पर मेरे ग़ज़लों का संग्रह ‘ग़ज़लें अखिल की’ वर्ष-2022 में ही प्रकाशित हो पाया। 

सवाल: पुलिस सेवा में रहते हुए, आप अदब के लिए समय कैसे निकालते हैं?

जवाब: कार्य क्षेत्र को ही जीवन मान लेना व्यक्ति की सबसे बड़ी नादानी है और यही अहंकार का कारण है। मैं जीवन से जुड़े हर दायित्व एवं कर्तव्य के लिए आवश्यक समय निकालकर उनमें संतुलन बनाए रखता हूं। यह जीवन रंगमंच है, मैं यहां कार्यालय में डी आई जी का रोल, घर परिवार में परिवार के सदस्य/मुखिया  के रूप में, मित्रों के साथ मित्र के रूप में, तथा रिक्त समय एवं साहित्यिक गोष्ठियों के समय में साहित्यकार का रोल निभाते हुए, सबको उपयुक्त समय देते हुए आवश्यक संतुलन बरकरार रखता हूं। आजकल व्यक्ति का मोटो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ से परिवर्तित होकर ‘कुटुम्ब कैव वसुधा’ में हो गया है। अपनी असीमित आकंक्षाओं एवं लालसा में फँसा हुआ मनुष्य, पूरा जीवन इन्हीं को हासिल करने में बिता देता है और यही उसके तनाव का कारण है।


अखिलेश निगम ‘अखिल’(बीच में) से बात करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’(दाएं) साथ में इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी (बाएं) 

सवाल: ऐसा माना जाता है कि पुलिस बहुत ही कठोर होती है, साहित्य सृजन कोमल हृदय वालों लोगों का काम है। इस बारे में आपका क्या मानना है?

जवाब: जितनी भी नदियां हैं सभी पहाड़ों से निकलती है। तरल की उत्पत्ति कठोरता से हुई है। सरसों का तेल कठोर सरसों से, बेल का जूस कठोर बेल से ही तरल रूप में प्राप्त होता है। तरल से तरल की उत्पत्ति नहीं दिखाई देती। साहित्य की संरचना, कल्पना, भाव और यथार्थ के मिश्रण से होती है। हां, इनके अनुपात, समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। जब व्यक्ति अन्य कार्यक्षेत्र में है तो उसको कविता या कहानी के लिए प्लाट ढूंढना पड़ता है। लेकिन पुलिस अधिकारी के पास कविता, कहानी का प्लाट स्वयं आता है। पुलिस के पास लोग अपनी अपनी समस्याएं लेकर आते हैं। हर समस्या, कहानी, कविता या ग़ज़ल का, प्लाट हो सकती है। जिस समय व्यक्ति आता है उस समय उसके दिल में दर्द, मस्तिष्क में झंझावात और वाणी मूक होती है। चाह कर भी वह कुछ बोल नहीं पाता है। सामने बैठा व्यक्ति यदि संवेदनशील है तो यही उसके सृजन के लिए एक प्लाट होता है। मेरी अपनी बहुत सी कहानी कविता के प्लाट इसी तरह से तैयार हुए हैं।

सवाल: साहित्य पुलिस के लिए किस-प्रकार मददगार साबित हो सकता है?

जवाब: उत्तम साहित्य पुलिस विभाग के किसी भी कर्मचारी या अधिकारी को अच्छा इंसान बनने की प्रेरणा देता है। जिससे वह आम आदमी की समस्याओं को अच्छी तरह से समझ कर उनके निवारण का सम्यक प्रयास कर सकता है।

सवाल: वर्तमान समय के सबसे महत्वपूर्ण शायर आप किन्हें मानते हैं?

जवाब: मेरी दृष्टि में बशीर बद्र की रचनाएं वर्तमान समय की रचनाओं में सबसे ऊपर आती हैं। राहत इंदौरी और दुष्यंत कुमार जी की रचनाओं का भी मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। हालांकि मंचीय कविताएं कुछ अलग तरह की होती हैं।

सवाल: गुफ़्तगू पत्रिका को तकरीबन आप शुरू से देख रहे हैं, क्या कहना चाहेंगे इसके बारे में ?

जवाब: ग़ज़लों के संबंध में ‘गुफ्तगु’ भारत की उत्कृष्ट पत्रिकाओं में से एक है जो व्यक्ति समाज और राष्ट्र की विभिन्न प्रकार की समस्याओं तथा उनके सम्यक समाधान को साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत करती है। यह पत्रिका मानवीय दृष्टिकोण, सर्वधर्म समभाव को आगे बढ़ाती हुए साहित्य को एक नई ऊंचाई पर ले जाती है। मनमोहक पठन सामग्री के लगातार प्रकाशन हेतु ‘गुफ्तुगु’ पत्रिका के संपादक मंडल बधाई के पात्र हैं। जहां तक पत्रिका के कलेवर की बात है तो काव्य जगत की अन्य विधाओं को भी अगर सम्मिलित किया जाए तो यह बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।

सवाल: नई पीढ़ी तो कविता या शेर को सोशल मीडिया पर पब्लिश करके वाह-वाही पा लेने को ही कामयाबी मानती है, आप इसे किस रूप में देखते हैं?

जवाब: सोशल मीडिया की अपनी सीमा है एवं प्रयोग का भी एक दायरा है। हर चीज को केवल सोशल मीडिया पर प्रकाशित करना उचित नहीं हो सकता है। सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया का स्थान नहीं ले सकता है। प्रिंट मीडिया का कोई विकल्प नहीं है। नई पीढ़ी में पठनीयता की कमी उनको अधूरा ज्ञान देती है तथा ज्ञान की संपूर्णता में बाधक सिद्ध होती है। सोशल मीडिया की अपनी लक्ष्मण रेखा है उससे आगे वह नहीं जा सकती है।

सवाल: आजकल आपका कौन-सा सृजन-कार्य और अध्ययन चल रहा है?

जवाब: आजकल मेरे कहानी-संग्रह गिरगिट का चार भाषाओं (बांग्ला, असमिया, उड़िया एवं कन्नड़) में अनुवाद चल रहा है। कन्नड़ और बांग्ला भाषा में अनुवाद प्रकाशित भी हो चुके हैं।

सवाल: शायरी के लिए उस्ताद का होना, कितना जरूरी मानते हैं आप?

जवाब: जीवन का कोई भी क्षेत्र हो यदि उस क्षेत्र में पारंगत और सही पथप्रदर्शक/उस्ताद मिल जाय तो ज्ञानार्जन करना और उसमें पारंगत होना आसान हो जाता है। मार्ग सरल और सुगम हो जाता है। स्वाध्याय से भी मंजिल प्राप्त हो सकती है परंतु रास्ता कठिन, श्रमसाध्य और मंजिल अक्सर अस्पष्ट होती है। उस्ताद के मामले में मैं बड़ा भाग्यशाली रहा हूं। ग़ज़ल लेखन में, लखनऊ के डॉ. मिर्जा हसन ‘नासिर’ साहब मेरे उस्ताद रहे है। ग़ज़ल का व्याकरण सीखने के लिए मैं उनके घर अनेक बार गया। उनके सानिध्य में मैने ग़ज़ल की बारीकियां सीखी। उनके निरंतर मार्ग दर्शन ने मेरी ग़ज़लों के स्तर को निखारा।

सवाल: साहित्य के क्षेत्र में आने वाले नये लोगों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे? 

जवाब: नई पीढ़ी से मैं यह कहना चाहूंगा कि वर्तमान समय में व्यक्ति और सामाजिक समस्याओं एवं विसंगतियों को केन्द्र में रखते हुए, यथार्थ की भूमि पर साहित्य सृजन करना, साहित्य तथा समाज को नई दिशा देगा। ख्याली पुलाव के आधार पर किए गए सृजन की उपादेयता संदेहशील है।

(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )

शनिवार, 30 नवंबर 2024

 नई कविता के प्रवर्तक हैं डॉ. जगदीश गुप्त

घर में ही लगता था बड़े साहित्यकारों का जमघट

बेटे विभु ने बचपन से ही देखी है साहित्य मंडली

                                      - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 नई कविता के प्रवर्तकों में शामिल डॉ. जगदीश गुप्त हिन्दी साहित्य के प्रमुख लोगों में शामिल हैं, जिनकी वजह से समाज की प्रमुख धारा में साहित्य बना रहा है। नये लोगों को भी डॉ. गुप्त की वजह काफी प्रोत्साहन मिलता रहा है। उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में जन्मे डॉ. गुप्त का कर्मस्थल इलाहाबाद ही रहा है। इंटरमीडिएट की पढ़ाई करने के लिए हरदोई से यहां आए और फिर यहीं के होकर रह गए। पहले महादेवी वर्मा से जुड़े और फिर ये सिलसिला बढ़ता चल गया। बचपन में ही पिताजी का देहांत हो गया था। इसलिए पढ़ाई का खर्च भी खुद ही निकालना था। इस खर्च को पूरा करने के ये कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों की किताबों का कवर पेज भी डिजाइन किया करते थे, शुरूआत महादेवी वर्मा की किताब से हुई थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अध्यापन कार्य से जुड़ने के बाद गृहस्थ जीवन में जुड़ गए। शादी हुई और फिर परिवार बढ़ा। तीन बेटियों के बाद तीन बेटों का जन्म हुआ। तीन बेटियों के बाद सबसे बेटे विभु गुप्त का जन्म हुआ। विभु ने अपने पिता और उनके मित्रों को देखा है, उनका आना-जाना और साथ में घुलना-मिलना बचपन से ही रहा था।

डॉ. जगदीश गुप्त

प्रतिष्ठित कवि होने के कारण अक्सर ही डॉ. जगदीश गुप्त के घर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, फ़िराक़ गोरखपुरी, दुष्यंत कुमार, सुमित्रानंदन पंत, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, विष्णुकांत शास्त्री, श्रीनारायण चतुर्वेदी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रामकुमार वर्मा, विजय देव नारायण शाही आदि साहित्यकारों को आना-जाना लगा रहता था। अक्सर ही डॉ. गुप्त के घर काव्य गोष्ठियों हुआ करती थीं, तब उस समय के प्रतिष्ठित और युवा कवियों का जमावड़ा होता था। साहित्यिक प्रतिष्ठा और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अध्यापन कार्य के साथ-साथ डॉ. जगदीश गुप्त अपने सभी छह बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का भी विशेष ध्यान रखते थे। अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से कभी विमुख नहीं हुए।

महादेवी वर्मा से बैठे हुए डॉ. जगदीश गुप्त

विभु गुप्त ने स्नातक करने के बाद फोटोग्राफी में डिप्लोमा किया और इसके बाद अख़बारों में फोटोग्राफर हो गए। पहले ‘अमृत प्रभात’ अख़बार और उसके बाद ‘राष्टीय सहारा’ में बतौर फोटोग्राफर नौकरी करते हुए रिटायर हुए हैं। रिटायरमेंट के बाद से ही विभु अपने पिता के लेखन और पेंटिंग को संजोने में जुटे हुए हैं। इन्होंने वेबसाइट बनाकर अपने पिता के लगभग सभी लेखन और पेंटिंग को इस वेबसाइट पर अपलोड कर दिया है। वर्ष 2018 में इन्होंने ूूूण्रंहकपेीहनचजण्बवउ नाम से वेबसाइट बनाई है। इसमें डॉ. गुप्त की सारी चीज़े अपलोड करने में जुटे हुए हैं। डॉ. अटल बिहारी वाजपेयी की पुस्तक ‘मेरी 51 कविताएं’ की भूमिका भी डॉ. गुप्त ने ही लिखी है।

 विभु बताते हैं कि पिताजी खुद तो हमलोगों को नहीं पढ़ाते थे, लेकिन हम भाई-बहनों की पढ़ाई पर पूरा ध्यान रखते थे। किसकी पढ़ाई कैसी चल रही है, कैसे पढ़ाई करनी चाहिए आदि-आदि का ध्यान रखते थे। साथ ही उस ज़माने में भी ट्यूशन लगा दिया था। डॉ. जगदीश गुप्त के निर्देशन में हरिशंकर मिश्र शोध कार्य करते थे। हरिशंकर ही डॉ. गुप्त के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे। बाद में हरिशंकर मिश्र लखनउ यूनिवर्सिटी में हिन्दी के विभागाध्यक्ष भी हुए थे। विभु बताते हैं कि हम भाई बहनों की पढ़ाई पर अपना कोई विचार नहीं थोपते थे, जिसकी रुचि जिस क्षेत्र में हो उसे उसी क्षेत्र में आगे बढ़ाने के हिमायती थे। यही वजह है कि विभु अपनी रुचि अनुसार फोटोग्राफर बने।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से भारत-भारती सम्मान प्राप्त करते डॉ. जगदीश गुप्त। 


 विभु बताते हैं कि जब मैं कोई अच्छी तस्वीर खींचकर लाता था तो वे उसकी प्रशंसा भी करते थे। डॉ. गुप्त कवि होने के साथ बहुत ही अच्छा पेंटिंग और स्केच बनाते थे। उनके पास हमेशा काले स्याही वाली कलम होती थी। रास्ता चलते जब कोई अच्छी चीज़ देखते थे तो छोटे-छोटे कार्ड पर उसका रेखाचित्र बना लेते थे, जिस तरह आजकल लोग मोबाइल से फोटो खींच लेते हैं। 

विभु बताते हैं कि डॉ. जगदीश का पोेता जिसे वे ‘वासु’ नाम से बुलाते थे, उसी को केदिं्रत करते हुए एक किताब ‘वासुनामा’ लिखा है। वासु के बहाने उन्होंने बच्चों को केंद्रित यह किताब लिखी गई है, जिसका शीघ्र ही विभु गुप्ता प्रकाशन कराने जा रहे हैं। आदिकाल की मूर्तियों को एकत्र करने का भी डॉ. गुप्त को बहुत शौक़ रहा है। एक विशाल संग्रह उन्होंने अपने घर में किया था, जिसे विभु गुप्ता ने बहुत ही संजोकर रखा है।

भारत भूषण वार्ष्णेय, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़़ाज़ी और विभु गुप्त

डॉ. गुप्त को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की तरफ से भारत-भारती पुरस्कार मिला था, यह पुरस्कार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने हाथ से दिया था। मध्य प्रदेश हिन्दी संस्थान की तरफ से मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार के अलावा तमाम सम्मान से इन्हें नवाजा गया था। इनके निधन होने पर पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भी घर आये थे। डॉ. गुप्त एक सफल चित्रकार भी थे, इसलिए उन्होंने चित्रमय काव्य की परम्परा को पुनर्जीवित किया। हिंदी काव्यधारा में महादेवी जी ने चित्र और काव्य का जो अंतः सम्बंध स्थापित किया उसका अगला विकास गुप्त जी की कविताओं मे दिखाई देता है। इनकी 28 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। 



( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित )


गुरुवार, 28 नवंबर 2024

 गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में



4. संपादकीय-स्तरीय साहित्य सामने आना चाहिए

5-7. उर्दू वर्तन एवं उच्चारण में हमज़ा का महत्व - अमीर हमज़ा

9-10. मुनव्वर के आंसुओं से तैयार हुआ एक जलमहल - यश मालवीय

11-19. ग़ज़लें: आर.डी.एन.श्रीवास्तव, सरफ़राज़ अशहर, तलब जौनपुरी, वीरेंद्र खरे अकेला, शमा फ़िरोज., राहिब मैत्रेय, अरविन्द असर, मंजुला शरण मनु, शगुफ़्ता रहमान सोना, डॉ. शबाना रफ़ीक़, प्रवीण परीक ‘अंशु’, अरविंद अवस्थी, विवके चतुर्वेदी, डॉ. सोनिया गुप्ता, पंकज सिद्धार्थ, शादाब शब्बीरी, मुकेश सिंघानिया, आबिद बरेलवी,

20, दोहा- राज जौनपुरी

21-26. कविताएं: यश मालवीय, अमर राग, डॉ. प्रकाश खेतान, डॉ. प्रमिला वर्मा, खेमकरण सोमान, डॉ. मधुबाला सिन्हा, केदारनाथ सविता, डॉ. नरेश सागर

27-30. इंटरव्यू: अखिलेश निगम अखिल

31-35. चौपाल: कविता के नाम पर लतीफ़ेबाजी और बतकही करने वालों को कवि कहना चाहिए ? 

36-40. तब्सेरा: मोहब्बत का समर, उदय उमंग, आगे फटा जूता, सुलगता हुआ सहरा, अपने शून्य पटल से

41-43. उर्दू अदब: खलिस, हर्फ-हर्फ खुश्बू, मुकद्दस यादें

44-45. गुलशन-ए-इलाहाबाद: असद क़ासिम

46-47. ग़ाज़ीपुर के वीर:फ़रीदुल हक़ अंसारी

48-52. अदबी ख़बरें 

53-84. परिशिष्ट-1  निहाल चंद्र शिवहरे

55. अपने परिवेश की कविताएं- डॉ. दामोदर खड़से

56 कविताओं की भाषा रोचक, सहज और प्रवाही - साकेत सुमन चतुर्वेदी

57. मौलिकताओं के चितेरे: निहाल चंद्र शिवहरे - डॉ. रामशंकर भारती

58. निहाल चंद्र शिवहरे के काव्य में पर्यावरण चेतना - डॉ. मिथिलेश दीक्षित

59-84. निहाल चंद्र शिवहरे की कविताएं

85-115. परिशिष्ट-2: ख़ान हसनैन आक़िब

86-88. प्रेम और मानवीय संवेदना से भरपूर सम्मिश्रण - अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’

89-90. इश्क़-मोहब्बत से भरपूर अशआर - डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

91-93. शायरी में ज़िन्दगी का हर रंग नुमाया - अनिल मानव

94-95. सशक्त संदेश संग प्रवाहित होती कविताएं - नीना मोहन श्रीवास्तव

96-115. ख़ान हसनैन आक़िब की ग़ज़लें

116-144. परिशिष्ट-3: मधुकर वनमाली

117-119. भाषागत और शैलीगत की परिपक्वता- डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी

120. कविताओं में समय के विविध रंग - डॉ. मधुबाला सिन्हा

121-122. साहित्य के उपवन का मधुकर वनमाली - डॉ. इश्क़ सुल्तानपुरी

123-144. मधुकर वनमाली की कविताएं




बुधवार, 27 नवंबर 2024

 मानव की शायरी में समाज का सच्चा मूल्यांकन: बसंत 

पुस्तक ‘अनिल मानव के चुनिन्दा अशआर’ का विमोचन और मुशायरा



प्रयागराज। अनिल मानव हमारे समाज के  युवा शायर हैं। इन्होंने ग़ज़ल की शायरी शुरू करने से पहले उस्ताद के ज़रिए इसकी छंद की बारीकी को सीखा है और उसी रूप में अपनी शायरी को ढ़ाला है, इसलिए इनकी शायरी परिपक्व और दोषरहित है। इनकी शायरी की ख़ास बात यह है कि उन्होंने समाज का सही आबजर्वेशन करके उसे शायरी में उतार दिया है। इसलिए इनकी शायरी बोलती है। इन्होंने समाज के दर्द को खूब अच्छी तरह से महसूस किया है और उसे अपनी शायरी में तार्किक ढंग से ढाल दिया है। यह बात उत्तर मध्य रेलवे के मुख्य यात्री परिहवन प्रबंधक बसंत कुमार शर्मा ने कही। 20 अक्तूबर की शाम साहित्यिक संस्था गुफ़्तगू की तरफ से विमोचन समारोह और मुशायरे का आयोजन सिविल लाइंस स्थित प्रधान डाक घर में किया गया। 

 गुफ़्तगू के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि अनिल मानव अपनी शायरी में समाज के दर्द और अव्यवस्था को उकेरते हैं। एक तरह से उनकी शायरी अदम गोडंवी की शायरी के काफी करीब लगती है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मीडिया स्टडीज़ सेंटर के कोआर्डिनेटर डॉ. धनंजय चोपड़ा ने अनिल मानव के एक शेर का अंश ‘उम्रभर भरते रहो चांबियां विश्वास की’ को प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह शायरी आज के समाज की हक़ीक़त है। शिक्षक हमेशा उपदेश देता है और अगर वह शिक्षक शायर भी हो जोए उसका उपदेश और अधिक तमन्यता से समाज के सामने आ जाता है। यही बात अनिल की शायरी में दिखाई देती है। डॉ. चोपड़ा ने यह भी आज के दौर में जब किताबें बहुत महंगी हो गई हैं, ऐसे में गुफ़्तबू पब्लिकेशन की यह किताब केवल 25 रुपये की है, यह देखकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई।

भारतीय डाक सेवा के एडीशनल डायरेक्टर-2 मासूम रज़ा राशदी ने कहा कि किसी भी शायर की पहली किताब का आना उसी तरह से है जैसे परिवार में एक नया सदस्य जुड़ गया। इनकी शायरी समाज और परिवार के कई मुद्दों को रेखांकित करती है। डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी ने कहा कि अनिल की शायरी आज के समय में सबसे अलग है, इस किताब का अलग ढंग से मूल्यांकन किया जाएगा। नरेश महरानी ने भी अनिल मानव की शायरी की प्रशंसा की।

दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया। नीना मोहन श्रीवास्तव, शिबली सना, हकीम रेशादुल इस्लाम, धीरेंद्र सिंह नागा, अफ़सर जमाल, आसिफ़ उस्मानी, प्रभाशंकर शर्मा, शशिभूषण मिश्र, अजीत शर्मा आकाश, निखत बेगम, शिवनरेश भारती, विक्टर सुल्तानपुरी, देवी प्रसाद पांडेय, गीता सिंह, असद ग़ाज़ीपुरी और सुजीत जायसवाल आदि ने कलाम पेश किया।