मंगलवार, 30 जुलाई 2019

समाज के लिए समर्पित हैं डाॅ. कृष्णा मुखर्जी

डाॅ. कृष्णा मुखर्जी


                                                         - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
 20 सितंबर 1941 को कोलकाता में जन्मी डाॅ. कृष्णा मुखर्जी चिकित्सा और समाज सेवा में किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं, वे प्रयागराज के सोहबतिया बाग मुहल्ले में रहती हैं। उन्होंने अपनी चिकित्सीय सेवा से एक अलग मुकाम बनाया है। आपने आगरा से एमबीबीएस, लंदन से एम.एस., यूएसए से एफएसीएस. और वियना से एमएसएच किया। लंदन में एसोसिएट मेम्बर आॅफ रायल कालेज रही हैं। सन 2000 से वर्तमान समय तक कमला नेहरु मेमोरियल अस्पताल में चिकित्सा अधीक्षक और चीफ कन्सल्टेंट हैं। 1968 से 2000 तक मोती लाल नेहरु मेडिकल काॅलेज, इलाहाबाद में स्त्री रोग एवं प्रसूति विभाग की विभागाध्यक्ष और प्रधानाचार्य रही हैं। आज भी आपको पढ़ाने की विशेष रुचि है, इसीलिए एमबीबीएस, एमएस और डीएनबी के छात्र-छात्राओं को पढ़ाती हैं। बांझ औरतों के इलाज के तहत इन विट्रोर्फार्टलाइजेशन/आईवीएफ और लोप्रोस्कोपिक सर्जरी एवं कैंसर सर्जरी के लिए आप एक दक्ष शल्यक हैं और कई शोध कार्य किया है। इनके काम को देश-विदेश की गोष्ठियों में और अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय जर्नलों में प्रस्तुत किया गया है। 
 आप 1991 से 1993 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय और फ़ैज़ाबाद विश्वविद्यालय में सदस्य एकेडमिक काउंसिल, 1991 से 1994 तक आनरेरी कन्सटेंट फैमिली प्लानिंग एसी आॅफ इंडिया और डिविजनल अस्पताल उत्तर भारत रेलवे इलाहाबाद मंडल रही हैं। इंडियन काॅलेज आॅफ आब्सेट्रेटिक व गाइनकोलाॅजी, नेशनल एसोसिएशन आॅफ वालेंट्री स्टरिलाइजेशन एवं फैमिली वेलफेयर गवर्निंग काउंसिल सदस्य रही हैं। 1996 से 1997 तक एसोसिएशन आॅफ आॅन्कोलोजिकल आॅफ इंडिया की उपाघ्यक्ष रहीं हैं। फेडरेशन आॅफ आब्सट्रेटिक व गाइनोकोजिकल सोसाइटी की अध्यक्ष, अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन की उत्तर प्रदेश महिला समिति की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन के प्रांतीय अलंकरण समिति की अध्यक्ष रही हैं।
 डाॅ. कृष्णा मुखर्जी की अब तक एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें स्वास्थ्य ही जीवन, कैंसर से कैसे बचें, सुरक्षित मातृत्व की तैयारी, कुछ परिचर्चा स्वास्थ्य संबंधी, मातृत्व एक सुखद अहसास, भारतीय संस्कृति एवं एड्स, गर्भकाल एवं प्रसव संबंधित आवश्यक जानकारियां, एड्स सिनरियो इन इंडिया एंव भारतीय संस्कृति, एवरनेस आॅफ कैंसर, रिव्यू आॅफ गाइनोकोलाॅजी, ए हैंडबुक आॅफ गाइनोकोलाॅजी, भारतीय संस्कति-मधुमेह तथा अन्य पद्धतियों से इसका इलाज और आपातकालीन विपत्तियों का समाधान एवं बचाव आदि शामिल हैं। पत्रिकाओं और अख़बारों में स्वास्थ्य संबंधी लेख प्रायः प्रकाशित होते रहते हैं।
 सन् 2000 से ‘आसरा’ केयर प्रोजक्ट से जुड़कर मलिन बस्तियों में समय-समय पर मुफ्त मेडिकल कैम्प में मरीजों को स्वास्थ्य सेवा, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की जानकारी, परिवार नियोजन, टीकाकरण करवाती हैं। साथ ही ‘आशा तथा बेसिक हेल्थ वर्कर’ द्वारा बस्तियों को साफ़ सुथरा रखना, हरी सब्जियां उगवाना, स्वच्छ पीने के पानी की उपलब्ध करवाना, महिलाओं को विभिन्न प्रकार की ट्रेनिंग जैसे सिलाई, लाख का सामान बनवाना, बेत-बांस का सामान बनवाने का प्रशिक्षण करवाकर रोजगार के लिए सक्षम करवाती है।
 अब तक आपको ‘डाॅ. बीसी राय नेशनल एवार्ड फाॅर ऐनीमेन्ट’, 1995 में परिवार कल्याण मंत्रालय दिल्ली से ‘कुछ परिचर्चा स्वास्थ्य संबंधी’ पुस्तक पर 25000 रुपये का नगद पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से ‘सौहार्द सम्मान’, ‘कैंसर से कैसे बचें’ और ‘सुरक्षित मातृत्व की तैयारी’ नामक पुस्तकों पर स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नगद पुरस्कार, ‘साहित्य महोपाध्याय’, ‘मदर मेटेसा एवार्ड’, ‘सुमन चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘भारत भूषण सम्मान’ समेत अनके पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। आज भी आप समाज सेवा से तत्परता से जुड़ी हुई हैं।  
 
(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून: 2019 अंक में प्रकाशित )

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

राष्ट्रवाद के प्रेरणास्रोत डॉ. मुख़्तार अंसारी

डॉ. मुख़्तार अंसारी
                                                          - मुहम्मद शहाबुद्दीन ख़ान
                                  
  डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी महान देशभक्त और चिकित्सक थे, उनके कार्य आज भी हमारे के लिए प्रेरणास्रोत हैं। वे भारत की आज़ादी के आंदोलन के प्रति जागरूक थे। इंग्लैंड में पढ़ाई और चिकित्सा सेवा के बाद दिल्ली आते ही वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सदस्य बन गए। उनके अच्छे दोस्तों में सुप्रसिद्ध शायर डॉ. अल्लामा इक़बाल भी थे। सन 1933 में गांधी जी ने पूना में एक आमरण अनशन किया, जिसमें 21 दिन उपवास पर रहे, गांधी जी की जब हालात बिगड़ने लगे तो उन्होंने एक तार डॉ. अंसारी को भेजा। मेरी ख्वाइश है, मैं अपनी आखिरी सांस डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी के गोद लूं। डाॅ. अंसारी गांधी जी के पास चले गए, और उनका उपवास तुड़वाकर इलाज किया। गांधी जी डॉ. अंसारी के घनिष्ठ मित्रों हो गए थे, गांधी जी जब उनके दिल्ली स्थित दारुल सलाम घर में ठहरा करते। उन पर मौलाना मुहम्मद अली का भी बहुत प्रभाव था। यही कारण है डॉ. अंसारी 1912-13 में हुए जंग-ए-बालकन में खलिाफत उस्मानिया के समर्थन में रेड क्रिसेंट के बैनर तले मेडिकल टीम की नुमाईंदगी की। जिसमें उनके साथ मौलाना मोहम्मद अली जौहर, चैधरी खलिकुजमा, अब्दुर्रहमान बिजनौरी आदि शामिल थे। चूंकि मिलिट्री मदद करने पर अंग्रेजों ने पाबंदी लगा दी थी, इसलिए डॉ. अंसारी ने 25 डॉक्टरों की टीम बनाई। यह टीम जब लखनऊ की चारबाग स्टेशन से गुजरी तो प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान मौलाना शिबली नोमानी ने अंसारी की शान में एक नज़्म पढ़ी। डाक्टरों की टीम का यह मिशन 7 माह तक चला, इसके मिशन से वापसी के समय 10 जुलाई 1913 की शाम को दिल्ली स्टेशन पर 30 हजार से अधिक लोगों की भीड़ डॉ. अंसारी और उनके साथियों के स्वागत के लिए खड़ी थी। इस काम के लिए डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी को ‘तमगा-ए-उस्मानिया’ से नवाजा गया था। ये अवार्ड फौजी कारनामों के लिए उस्मानी सल्तनत द्वारा दिया जाता था। उसके बाद हिन्दुसतान में रेड क्रॉस सोसाईटी 1920 में वजूद में आई। 
 डॉ. अंसारी ने उस्मानिया सल्तनत के समर्थन में 1912 में ही रेड क्रिसेंट सोसाईटी को अपनी सेवाएं देनी शुरू कर दी थी। उनके इस मिशन को मुस्लिम नेताओं ने संगठित किया था, इसने भारत के नेताओं के लिये रास्ता खोल दिया कि वे अतंरराष्ट्रीय स्तर पर अपना पक्ष रख सकें, जिससे दुनिया के नक्शे में भारत को स्थापित किया जा सके। जिसका पहला असर दिसम्बर 1915 में काबुल में बनी आरजी हुकूमत के तौर पर देखा गया, जिसमें राजा महेंद्र प्रताप राष्ट्रपति बने और मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली प्रधानमंत्री और इस आरजी हुकूमत को तुर्की सरकार ने मान्यता दी।
 सन 1918 में दिल्ली में होने वाले मुस्लिम लीग के सालाना अधिवेशन में उन्होंने अध्यक्ष पद संभाला। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में खिलाफत का पक्ष लिया और पूर्ण स्वतंत्रता की मांग पर बिना शर्त सहयोग का वायदा किया, सरकार ने इसे गैर-क़ानूनी माना। सन 1920 में एक बार फिर से वह ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नागपुर अधिवेश के अध्यक्ष बने और वहां पर उसी समय मद्रास के विजय राघवा चरियार की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी के लोगों से मिले, जिसके अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे। तीन संगठनों का संयुक्त अधिवेशन हुआ। सन 1927 ई. में महात्मा गांधी ने अपने एक भाषण में डॉ. अंसारी को हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक बताया। उन्होंने असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। उन्होंने बनारस में राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ और दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 10 फरवरी सन 1920 को काशी विद्यापीठ की स्थापना हुई एवं 29 अक्टूबर 1920 को अलीगढ में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना हुई। डॉ. अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया की फाउंडेशन समिति के सदस्य और संस्थापकों में से एक थे। वे आजीवन उसके संरक्षक रहे। सन 1925 में जामिया को अलीगढ़ से दिल्ली लाया गया, यहां तिब्बिया कॉलेज के पास बीडनपुरा, करोलबाग में बसाया गया। हकीम अजमल खां की मृत्यु के बाद वह जामिया मिल्लिया के आजीवन कुलपति रहे। डॉ. अंसारी जीवनभर कांग्रेस कार्य-समिति के सदस्य रहे। सन 1920, 1922, 1926, 1929, 1931 तथा 1932 में वह इसके महासचिव थे तथा सन 1927 ई. में 42वें कांग्रेस अधिवेशन के सभापति हुए। 1928 ई. में लखनऊ में होने वाले सर्वदलीय सम्मेलन का इन्होंने सभापतित्व किया था और नेहरू रिपोर्ट का समर्थन किया। 
 डॉक्टर अंसारी के प्रयास से ही 1934 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जिन्ना में बातचीत हुई, लेकिन वो प्रयास विफल रहा। इससे डॉक्टर अंसारी को धक्का लगा। वो जिन्ना से नाराज थे। उनकी सेहत गिर रही थी। इस कारण भी उन्होंने कांग्रेस के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। उन्हें फुरसत के कुछ पल मिले तो एक अंग्रेजी किताब ‘रीजंनरेशन ऑफ मैन’ लिखी। दूसरी तरफ जामिया मिल्लिया इस्लामिया पर वे ध्यान देने लगे। उन्हीं का फैसला था कि ओखला में जामिया को बसाया जाए। वर्तमान जामिया की परिकल्पना उन्होंने ही की थी। जमीनें भी उन्होंने ही खरीदीं। इस वजह से साठ हजार का कर्ज हो गया। हकीम अजमल खां, अब्दुल मजीद ख़्वाजा और डॉ. अंसारी ने पूरे भारत का दौरा कर चंदा इकठ्ठा किया और एक मार्च 1935 को ओखला में जामिया की बुनियाद रखी गई। बुनियाद का पत्थर सबसे कम उम्र के विद्यार्थी अब्दुल अजीज से रखवाया गया। इससे पहले जामिया मिल्लिया (1920-25) तक अलीगढ़ में कायम था। डॉ. अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया के अमीर-ए-जामिया (कुलाधिपति) रहे और डॉक्टर जाकिर हुसैन को कुलपति बनाया। वर्तमान जामिया मिल्लिया इस्लामिया फाउंडेशन कमेटी के 18 सदस्यों में दो लोग गाजीपुर से है। जिनका नाम डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी एवं डॉ. सईद महमूद जो सैदपुर भीतरी गांव के रहने वाले थे। 
 डाॅ. अंसारी का जन्म 25 दिसम्बर 1880 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के युसूफपुर में एक अंसारी परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम हाजी अब्दुर्रहमान बलिया स्थित रसड़ा तहसील में सदर अमीन थे। मां शमसुन निसा बेगम गृहणी थीं। सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351) के दौर में डॉ. अंसारी के पूर्वज भारत आएं, कस्बा मोहम्मदाबाद में काजी बनाए गए, तभी से यह घराना काजी घराना कहलाता है। इनके पूर्वज ने अपने भतीजे/दामाद यूसुफ अंसारी के नाम पर यूसुफपुर गांव बसाया था। सन 1896 में उन्होंने विक्टोरिया हाईस्कूल, गाजीपुर से मैट्रिक एवं इलाहाबाद से इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद डॉ. अंसारी ने मद्रास मेडिकल कालेज में शिक्षा ग्रहण की और निजाम स्टेट द्वारा मिले छात्रवृत्ति पर आगे की पढाई के लिए इंग्लैंड चले गए। सन 1905 में अंसारी ने वहां एमडी और एमएस की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद लंदन के लाक अस्पताल में कुलसचिव बने। इस चयन पर कुछ नस्लवादी अंग्रेजों ने बहुत हो-हल्ला मचाया। तब मेडिकल काउंसिल ने स्पष्टीकरण दिया कि उनका चयन योग्यता के आधार पर किया गया है। फिर लंदन के चारिंग क्रॉस अस्पताल में हाउस सर्जन के रूप में नियुक्त हुए। उनकी उल्लेखनीय सेवा के कारण चरिंग क्रॉस हास्पिटल के एक वार्ड का नाम अंसारी रोगी कक्ष रखा गया, जो आज भी कायम है। लंदन में ही वे मोतीलाल नेहरु, हकीम अजमल खान और जवाहरलाल नेहरू से मिले और इन सबसे घनिष्ठ मित्रता हो गई। डॉ. मुख्तार अंसारी 1910 में हिंदुस्तान लौट आएं। हैदराबाद तथा अपने गृहनगर यूसुफपुर में थोड़े समय तक रहने के बाद उन्होंने दिल्ली में फतेहपुरी मस्जिद के पास दवाखाना खोला और मोरीगेट के निकट अपना निवास बनाया। 
 रामपुर के नवाब के निमंत्रण पर एक मरीज को देखने दिल्ली से मसूरी गये हुए थे। लौटते समय लक्सर स्टेशन के समीप 10 मई 1936 की रात डॉ. अंसारी को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया, जामिया नगर के जामिया मिल्लिया कब्रिस्तान में दफनाया गया। उनके निधन पर महात्मा गांधी ने कहा कि शायद ही किसी मृत्यु ने इतना विचलित और उदास किया हो जितना डॉ. मुख़्तार की मौत ने किया है। डॉक्टर अंसारी के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष में भारत सरकार ने राष्ट्र के प्रति इनकी महत्वपूर्ण सेवाओं को देखते हुए डाक विभाग द्वारा 35 पैसे का एक डाक टिकट, प्रथम दिवस आवरण एवं सूचना पत्र जारी किया गया। डॉ. अंसारी के नाम पर गाजीपुर जिला चिकित्सालय एवं दिल्ली में डॉ. अंसारी रोड है। 
                                             ( गुफ़्तगू के अप्रैल- जून 2019 अंक में प्रकाशित )

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

आमजन का चित्रण करता है आज का दोहा


हरेराम समीप से बातचीत करते डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव

 13 अगस्त 1951 में मध्य प्रदेश के ग्राम मेख जिला नरसिंहपुर में जन्मे हरेराम नेमा ’समीप’ जाने माने साहित्यकार हैं। इन्हें  हरियाणा साहित्य अकादमी से राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त विशिष्ट पुरस्कार मिल चुका है। वाणिज्य एवं विधि से स्नातक हरेराम समीप ने दोहा और ग़ज़ल साहित्य पर शोध कार्य भी किया है। उनके प्रकाशित मुख्य दोहा संग्रहों में ‘साथ चलेगा कौन’, ‘जैसे’, ‘चलो एक चिट्ठी लिखें’, ‘आंखें खोलो पार्थ’ हैं तो गजल संग्रह में ‘हवा से भीगते हुए’, ‘आंधियों के दौर में’, ‘कुछ तो बोलो’, ‘किसे नहीं मालूम’, ‘इस समय हम’ आदि सम्मिलित हैं। उनका एक बहुत ही चर्चित कविता संग्रह ’मैं अयोध्या’ एवं कहानी संग्रह ‘समय से पहले’ भी प्रकाशित हैं। समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों पर आलोचना भी तीन खंडों में प्रकाशित है। उन्होंने समकालीन दोहा कोश, समकालीन महिला ग़ज़लकार, कथाभाषा त्रैमासिक पत्रिका आदि का संपादन तथा निष्पक्ष भारती, मसिकागद पत्रिकाओं में अतिथि-संपादन भी किया। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के लिए उन्होंने नोबल पुरस्कार विजेता लेखकों के अनेक लेखों का अनुवाद कार्य और चर्चित दूरदर्शन धारावाहिक ’नक्षत्रस्वामी’ के लिए पटकथा व गीत लेखन भी किया। पिछले दिनों नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव ने उनका साक्षात्कार लिया। फोटोग्राफी प्रियंका प्रिया ने की।           


प्रश्न: अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में हमारे पाठकों को बताइए ?
उत्तर: मैं मध्यप्रदेश के एक बेहद पिछड़े गांव मेख में 13 अगस्त 1951 को एक सामान्य किसान परिवार में पैदा हुआ। मेरे पिता आज़ादी की लड़ाई के सिपाही और विद्रोही वक्ता थे। बचपन से ही उन्होंने मेरी रचनात्मक दृष्टि और विवेक को प्रखरता प्रदान की और मुझे जीवन को समझने की वह प्रविधि दी जो बाद में लेखन के माध्यम से मुझमें अभिव्यक्ति पाने लगी। दरअसल, बचपन में मैंने अपने घर, गांव और अपने इर्द-गिर्द इतना दुःख, गरीबी, अभाव और सत्ता की ऐसी-ऐसी क्रूरताएं देखी हैं कि मैं विद्रोही स्वभाव का हो गया हूं। छात्र आंदोलन किए और लेख, कविताएं, गीत, ग़जलें और दोहे लिखे फिर औद्योगिक नगर फरीदाबाद आकर श्रमिक-आंदोलनों में भाग लिया, जिसका शतांश भी अभी तक नहीं लिख पाया हूं।

प्रश्न 2 अपनी रचना यात्रा के बारे में संक्षेप में हमारे पाठकों को बताएं ?
उत्तर: सन् 1971 से कविता लेखन और पत्रकारिता के दौरान ग़ज़लें, दोहे, कविताएं और कहानियां तथा आलोचना की, मेरी 16 किताबें अब तक प्रकाशित हो गई हैं।

प्रश्न 3. वर्तमान में दोहा अपनी भाव भंगिमा और प्रस्तुतीकरण में प्राचीन काल से किस तरह भिन्न है?
उत्तर: हिन्दी काव्य में दोहा छन्द अपनी भाव-भंगिमा और प्रस्तुतीकरण में प्राचीनकाल से आज तक निरंतर अपने समय का साक्षी बनकर विद्यमान रहा है। ये दोहे हमारे साहित्य और लोकजीवन के अक्षुण्ण अंग बनकर, हमारी संस्कृति में रच बस गए हैं। परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध बदला है। अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आमजन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, शोषित है, बेबस है। इस समूह के दोहे अपने नए अंदाज में तीव्र व आक्रामक तेवर लिए हुए हैं। अतः जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है। इसमें आस्वाद का अंतर प्रमुखता से उभरा है। इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिम्बित हो रहा है।

प्रश्न 4. क्या कारण है कि एक प्राचीन छन्द होते हुए भी दोहा वर्तमान में बहुत अधिक लोकप्रिय है?
उत्तर: पिछले डेढ़ हजार साल से दोहा कभी अलोकप्रिय नहीं हुआ है। आज इसकी बढ़ती लोकप्रियता का मुख्य कारण एक तो सूचनातंत्र का विस्तार है और दूसरा महत्वपूर्ण कारण इसकी सहज ग्राह्यता है। वर्तमान जीवन की उथल-पुथल व जद्दोजहद को दोहा अधिक जीवंतता से प्रस्तुत कर रहा है। यह दोहा, जीवन की गहरी अनुभूति, संवेदना और यथार्थबोध की ताजा फसल के रूप में आ रहा है। इसमें आधुनिक भावबोध की प्रस्तुति बेहद प्रभावी अंदाज़ में हो रही है। इन दोहों में व्यक्त संवेदनाएं हमें यथार्थ से जोड़ती हैं। आज का दोहा जब हमारे आसपास उपस्थित अंधेरे को और अपने समय में उपस्थित गलत समय को शिद्दत से उजागर करेगा तो लोकप्रिय तो होगा ही।

प्रश्न 5. जन सरोकारों की दृष्टि से दोहों की उपयोगिता कितनी महत्वपूर्ण है?
उत्तर: अमानवीय शोषण पर टिकी सत्ता की इन शातिर पैंतरेबाजी से सचेत करते, असहमति जताते इन दोहों को जब आप देखेंगे तो पूरा समकालीन परिदृश्य आपके सामने स्पष्ट होता जाएगा। यही है जनता की ओर दोहों की यात्रा। मुझे लगता है कि आज दोहा व्यवस्था-परिवर्तन के लिए संघर्ष का उद्घोष कर रहा है और वह जनता की बात अगर जनता की भाषा में कर रहा है, तो इससे अधिक इसकी उपयोगिता और क्या होगी।

प्रश्न 6. सामाजिक विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति के लिए दोहा व्यंग्य का सहारा लेकर चल रहा है क्या आप इससे सहमत हैं?
उत्तर: मैं बिल्कुल सहमत हूं। इस संवेदनहीन, आत्मरत और निष्ठुर वक्त में व्यंग्य ही लेखन की सबसे प्रभावशाली प्रविधि है। आजकल लगभग सभी विधाओं में व्यंग्य एक स्थायी माध्यम की तरह प्रयोग किया जा रहा है। फिर कबीर की परम्परा से जुड़ा हुआ दोहा ऐसे समय में व्यंग्यतत्व का प्रयोग करने में पीछे क्यों रहता। 

प्रश्न 7. दोहा लिखते समय क्या सावधानी बरतनी चाहिए?
उत्तर:दोहा एक मात्रिक छन्द है। इसका अपना एक अनुशासन है, जिसका पालन अवश्य होना चाहिए।

प्रश्न 8. दोहा-सृजन में देशज शब्दों का प्रयोग कितना उचित है?
उत्तर: भाषाई संकीर्णता के लिए दोहे में कभी कोई जगह नहीं होती। दोहों में प्रयुक्त देशज या अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द दोहे की अर्थव्यंजना में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि कर देते हैं। लेकिन अक्सर देखा गया है कि देशज शब्दों का फैशन की तरह अतिशय प्रयोग दोहे की सम्पे्रषणीयता को बाधित करने लगता है। अतः इनका प्रयोग कुशलता से किया जाना चाहिए। 

प्रश्न 9. क्या वजह है कि हिन्दी की विधा होते हुए भी पाकिस्तान में भी दोहे खूब लिखे जा रहे हैं?
उत्तर: दरअसल दोहा एक सामथ्र्यवान मुक्तक छन्द है, जो हर कवि को आकर्षित करता है। फिर यह उर्दू ग़ज़ल की इकाई अर्थात ‘शेर’ से भी बहुत मिलता-जुलता है। अतः प्रत्येक शायर ने ग़ज़लों के साथ जब दोहे लिखे तो ये खूब प्रचलित हुए। आज दोहा अनेक भारतीय भाषाओं में ही नहीं पाकिस्तान, नेपाल और मौरीशस आदि अनेक एशियन देशों में लोकप्रिय हो रहा है।

प्रश्न 10: हिन्दी दोहों पर हाल ही में जो काम हुए हैं क्या उनकी कुछ जानकारी दे पाएंगे?
उत्तर: इस समय वरिष्ठ, युवा और तरुण दोहाकारों की तीन पीढ़ियां एक साथ दोहा लेखन में संलग्न हैं, जिसमें लगभग एक हजार दोहाकारों की सूची तो मेरे ही पास है। पिछले दिनों ‘समकालीन दोहाकोश’ का संपादन करते हुए मेरे सामने चयन की समस्या खड़ी हो गई थी, तब यही सोचा गया कि शीघ्र ही इसका दूसरा खण्ड तैयार किया जाए। अनेक पत्रिकाओं के दोहा विशेषांकों तथा समवेत संकलनों और उनमें लिखी संपादकीय भूमिकाओं ने आधुनिक दोहे को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उम्मीद है कि ‘गुफ्तग’ू के इस दोहा विशेषांक से भी दोहा लेखन और समृद्ध होगा।

प्रश्न 11. काव्य विधा में गेयता का कितना महत्व है ?
उत्तर: गेयता कविता की पूर्णता मानी जाती है। प्राचीनकाल से अब तक वही कविताएं लोकजीवन का अंग बन पाई हैं जिनमें गेय तत्व विद्यमान रहा। यद्यपि आज की गद्य कविता की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ने काव्यपाठकों को दुविधा में डाल दिया है किन्तु लोकप्रिय काव्य गेय ही है। अतः कविता में गेयता का महत्व कभी कम नहीं होगा। 

प्रश्न 12. क्या ऐसा नहीं लगता कि छंदमुक्त कविता ने हर तीसरे आदमी को कवि तो बना दिया है, लेकिन पाठकों की संख्या लगातार कम हो रही है ?
उत्तर: नहीं भाई मुझे ऐसा नहीं लगता कि कवि बढ़ रहे हैं, लेकिन कविता के पाठक कम हो रहे हैं। इस पर बहस हो सकती है। सच यह है कि कविता के ग्राहक को किताब के अतिरिक्त अनेक साधन उपलब्ध हो रहे हैं-ई बुक्स, सोशल मीडिया, यूट्ब, इंटरनेट आदि के जरिए कहीं न कहीं वह कविता से जुड़ ही रहा है। दोहे का प्रसार भी इससे अछूता नहीं है। 

प्रश्न 13. काव्य की अन्य विधाओं के मुकाबले दोहे की कितनी प्रासंगिकता है ?
उत्तर: किसी भी विधा का भविष्य या उसकी प्रासंगिकता उसकी जीवन के प्रति दृष्टि और समय के साथ उसकी गतिमयता ही निर्धारित करती है। दोहा ने लगभग डेढ़ हजार सालों से बार-बार यह साबित किया है कि उसे अपने समय के साथ चलना आता है। रासो, अध्यात्म, भक्ति,प्रेम, श्रंगार, नीति, राष्ट्रीय चेतना, साम्प्रदायिक सामंजस्य और अब यथार्थ की मुखर अभिव्यक्ति-यात्रा करते हुए उसने  अपने सामथ्र्य की असीम संभावना के प्रति हमें आश्वस्त कर दिया है। आज जो दोहे की लोकप्रियता के नए क्षितिज खुल रहे हैं, ये उसकी अंतर्शक्ति का प्रमाण हैं। अतः दोहे की प्रसंगिकता निर्विवाद है। काव्य की अन्य विधाओं से दोहे का कोई मुकाबला नहीं है इसीलिये मुक्त गगन में आज दोहा छन्द साहित्य के नए क्षितिज तलाशने हेतु नई उड़ान पर निकला है। 

प्रश्न 14ः दोहा और ग़ज़ल, कदाचित ये दोनों साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधाएं हैं। इनके आपसी संबंधों को आप किस प्रकार देखते हैं? क्या उर्दू और हिन्दी भाषा की दृष्टि से इनमें कोई उल्लेखनीय अंतर है?
उत्तर: शेर और दोहा दो मुक्तक छंद हैं और स्वतंत्र रूप से उद्धृत किए जाते हैं। शेर और दोहा दो-दो पंक्तियों में आबद्ध होते हैं, जिनमें दोनों ही पंक्तियों की लय एक समान होती है। गेयता दोनों का ही गुण है। विशेष बात यह भी है कि दोनों की भावसंप्रेषण क्षमता अतुलनीय है। अंतर केवल यह है कि शेर अनेक बहरों में कहा जाकर ग़ज़ल में निबद्ध हो सकता है, जबकि दोहा सदैव मुक्त रहता है। यही तत्व हैं जो शायर को दोहे की तरफ और कवि को शेर की ओर आकर्षित करते हैं। 
  
प्रश्न 15 आप नए रचनाकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
उत्तर : वास्तव में नए रचनाकार नए साहित्य के निर्माता होते हैं, अपने समय के प्रतिनिधि होते हैं। उन्हें अपने समय की सार्थकता तलाशनी है, अपने अतीत की समीक्षा करनी है, अपने वर्तमान की व्याख्या करनी है और अपने बेहतर भविष्य को प्रस्तावित करना है। इसके लिए उनमें स्पष्ट जीवन-दृष्टि होनी जरूरी है। उन्हें सोचना चाहिए कि आज वे ढेर सारा लिखने के बाद भी क्यों कोई विजन नहीं बना पा रहे हैं। कहीं शायद वे बाजार के दबाव में सतही उपलब्धियों में अपनी उर्जा तो नष्ट नहीं कर रहे हैं या फिर पुरस्कारों व प्रशस्तियों के जुगाड़ में लगे हैं। उन्हें जानना होगा कि क्यों उनका अधिकांश लेखन अप्रासंगिक और व्यर्थ हो रहा है। उन्हें समझना होगा कि यदि समय की संवेदनात्मक अनुभूति उसके पास नहीं है तो वह कैसे कुछ सार्थक व प्रभावी लिख पाऐंगे?

( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च: 2019 अंक में प्रकाशित )

सोमवार, 24 जून 2019

नंदल के परिवार की आर्थिक मदद की जाए


गुफ़्तगू की ओर से ‘नंदल हितैषी को श्रद्धांजलि’ का आयोजन
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


मनमोहन सिंह ‘तन्हा’

प्रयागराज। नंदल हितैषी के निधन से इलाहाबाद के साहित्य को बड़ी क्षति हुई है। नगर की कई संस्थाएं उनकी याद में कार्यक्रम करके उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रही हैं, यह अच्छी बात है, लेकिन इससे उनके परिवार को क्या लाभ ? इसलिए हम सभी रचनाकारों को चाहिए कि किसी भी साहित्यकार केे निधन हो जाने पर सभी लोग मिलकर उनके परिवार को आर्थिक मदद पहुंचाएं तो ज्यादा बेहतर होगा। यह बात गुफ़्तगू संस्था के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने 16 जून की शाम करैली स्थित अदब घर ‘नंदल हितैषी को श्रद्धांजलि’ कार्यक्रम के अंतर्गत कही। श्री ग़ाज़ी ने कहा हम रचनाकारों को चाहिए कि विकास प्राधिकरण जैसी संस्थाओं से मिलकर ‘साहित्यपुरम’ या ‘कविपुरम’ जैसी काॅलोनी बनाने की मांग करें। यह काॅलोनी साहित्यकारों को कम कीमत पर उपलब्ध कराई और रचनाकार के निधन होने पर उनके परिवार इस काॅलोनी में फ्री में आवास प्रदान की जाए।
नायाब बलियावी ने कहा नंदल जी हर रचनाकार की हौसला अफज़ाई करते थे और सभी लोगों ने मित्रतापूर्वक मिलते थे, उनके लेखनी और काम को भुलाया नहीं जा सकता।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे बुद्धिसेन शर्मा ने कहा कि नंदल हितैषी एक सक्रिय साहित्यकार थे,  उन्होंने अपनी लेखनी और व्यवहार से लोगों को एक साथ जोड़ेन का काम किया है, उनकी लेखनी और काम को कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस मौके पर अजीत शर्मा आकाश, शिवजी यादव, केशव सक्सेना, फ़रमूद इलाहाबादी, एसपी श्रीवास्तव, तलब जौनपुरी, राम लखन चैरसिया, प्रीता वाजपेयी, ललिता नारायणी पाठक, कविता उपाध्याय, नंदिता श्रीवास्तव, उवर्शी उपाध्याय, असद ग़ाज़ीपुरी, सुनील दानिश, खुर्शीद हसन, सेलाल इलाहाबादी, इजलाल अहमद आदि मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ ने किया।

शनिवार, 15 जून 2019

गुफ्तगू ने अपने काम से रचा इतिहास

कई सम्मानों से नवाजे गए देशभर के 25 रचनाकार

प्रयागराज। इस शहर में आकर ‘गुफ्तगू’ के इस आयोजन को देखकर महसूस हुआ कि समाज में सबकुछ गड़बड़ नहीं है, तमाम गलत प्रयासों के बावजूद समाज में बहुत से अच्छे काम आज भी हो रहे हैं, लोगों को जागरुक करने का काम किया जा रहा है। गुफ्तगू ने इस सम्मान समारोह और पत्रिका के प्रकाशन से साहित्य का इतिहास रच दिया है। यह बात रांची के वरिष्ट पत्रकार राजेंद्र तिवारी ने ‘गुफ्तगू’ संस्था द्वारा आयोजित ‘साहित्य समारोह-2019’ के अंतर्गत कही। आयोजन 09 जून की शाम धूमनगंज स्थित अनंतराज गार्डेन में किया गया, इस दौरान बुद्धिसेन शर्मा को अकबर इलाहाबादी समेत कई रचनाकारों को बेकल उत्साही, सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान और सीमा अपराजिता सम्मान प्रदान किया गया। गुफ्तगू के ‘महिला ग़ज़ल विशेषांक’ और हरीराम मिश्र की पुस्तक ‘माटी क अहक चिरई क चहक’ का विमोचन भी किया गया। श्री तिवारी ने कहा आज समाज को खराब करने का काम किया जा रहा है, कोई भी अच्छा काम करने पर लोग विरोध शुरू कर देते हैं, उसे गलत साबित करने की कोशिश करते हैं, ऐसे माहौल में गुफ्तगू पत्रिका का लगातार 16 वर्षों से संचालन होते रहना बड़ी बात है, ऐसे काम इलाहाबाद जैसे शहर से ही हो सकता है।
वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि गुुफ्तगू पत्रिका को इस विपरीत माहौल में कामयाबी के साथ संचालन करना बड़ी बात है, इस काम की जितनी सरहना की जाए कम है। गुफ्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि तमाम विपरीत हालात में गुफ्तगू का संचालन चंद अच्छे लोगों के सहायोग से जारी है। हमारी शुरू से ही कोशिश रही है कि बड़े शायरों के साथ नए लिखने वालों को अवसर प्रदान किया जाए। यही वजह है कि तमाम नए लोग उभरकर सामने आए। आज टीम गुफ्तगू के संकल्प के कारण ही यह आयोजन और पत्रिका का संचालन संभव हो रहा है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे इक़बाल दानिश ने कहा कि इम्तियाज अहमद गाजी ने अपनी मेहनत और लगन से साहित्य के लिए बड़ा काम किया है और इस काम का तेजी से आगे बढ़ाया है। आज जिन लोगों को सम्मानित किया है, वे सभी बधाई के पात्र हैं। गाज़ियाबाद के डिप्टी एसपी डाॅ. राकेश मिश्र ‘तूफ़ान’, इनकम टैक्स में ज्वाइंट कमिश्नर शिव कुमार राय, नरेश कुमार महरानी, हरीराम मिश्र आदि ने भी लोगों को संबोधित किया। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।
दूसरे दौर में प्रभाशंकर शर्मा, अनिल मानव, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, शिवाजी यादव, शिवपूजन सिंह, देवेंद्र प्रताप वर्मा, योगेंद्र मिश्रा, दीक्षा केसरवानी, फरमूद इलाहाबादी, रेनू मिश्रा, शिवशरण बंधु  हथगामी, प्रदीप सिंह तन्हा, केशव सक्सेना, शैलेंद्र जय, रविशंकर  उपाध्याय, एसपी श्रीवास्तव, अभिनव केसरवानी रवि, नंदिता एकांकी, मुजाहिद लालटेन, अंकुर सहाय अंकुर, अजीत शर्मा आकाश, आशीष पांडेय आदि ने काव्य किया।


इन्हें मिला सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान

इफ़्फ़त ज़हरा रिज़वी (सऊदी अरब), पूजा बहार (नेपाल), सुमय्या राणा ग़ज़ल (लखनऊ), नमिता राकेश (फरीदाबाद), अंजु सिंह गेसू (मेरठ), वीना श्रीवास्तव(रांची), नजमा नाहिद अंसारी (रांची), उर्वशी अग्रवाल उर्वी (नई दिल्ली), स्वधा रवींद्र उत्कर्षिता (लखनऊ), सुमन ढींगरा दुग्गल(प्रयागराज) और शिबली सना (प्रयागराज)

इन्हें मिला बेकल उत्साही सम्मान

नय्यर आक़िल (प्रयागराज, मरणोपरांत) अरुण आदित्य (अलीगढ़), कैप्टन जैनुल आबेदीन ख़ान (पुणे), फरहत अली खान (अलीगढ़), उबैदुर्रहमान सिद्दीक़ी (गाजीपुर) रचना सक्सेना (प्रयागराज), अख़्तर अज़ीज़ (प्रयागराज) और डाॅ. राम लखन चैरसिया (प्रयागराज) 

इन्हें मिला सीमा अपराजिता सम्मान

शकीला सहर (पुणे), पारो चौधरी (ग़ाज़ियाबाद), कुमारी निधि चौधरी (किशनगंज, बिहार), मधुबाला (प्रयागराज) और अदिति मिश्रा (प्रयागराज) 
                               



सोमवार, 3 जून 2019

महिला ग़ज़ल विशेषांक (अप्रैल-जून: 2019 अंक) में


3. संपादकीय (ग़ज़ल लेखन में सक्रिय हैं महिलाएं)
4. डाक (आपके ख़त)
5-8. ख़ास लेख ( कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत थी बहुत- वीना श्रीवास्तव)
9-11. स्तंभ लेख (शानदार ग़ज़लें कह रही हैं महिलाएं-अना इलाहाबादी )
12-39. ग़ज़लें ( नजमा नाहीद अंसारी, नमिता राकेश, सुमय्या राणा ग़ज़ल, उर्वशी जाह्वनी अग्रवाल, वीना श्रीवास्तव, अंजू सिंह गेसू, स्वधा रवींद्र उत्कर्षिता, पूजा बहार, संगीता कसिरेड्डी, कल्पना रामानी, डाॅ. कविता विकास, डाॅ. मीना नक़वी, चित्रा भारद्वाज ‘सुमन’, ममता देवी, शुभदा वाजपेयी, आशा सिंह, डाॅ. औरीना अदा, डाॅ. नसीमा निशा, गरिमा सक्सेना, सुनीता कम्बोज, अंजू कुमारी दास, डाॅ. भारती वर्मा बौड़ाई, चारु अग्रवाल गुंजन, सोनिया वर्मा, संगीता चैहान विष्ट, शायर भकत भवानी, अतिया नूर, रीता सिवानी, तारा गुप्ता, डाॅ. नीलम रावत, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, अना इलाहाबादी, डाॅ. अन्नपूर्णा श्रीवास्तव, विकास भारद्वाज ‘सुदीप’, डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, अंजलि सिफर, शुभा शुक्ला मिश्रा, डाॅ. मंजरी पांडेय, वंदना मोदी गोयल, दीपशिखा सागर, पुष्पलता शर्मा, मंजूषा मन, अलका मिश्रा, रमोला रूथ लाल, राजमती पोखराना, अनीता मौर्या अनुश्री, निधि चौधरी, कुमारी अर्चना बिट्टू,, कंचन पांडेय, गीता सिंह, सीमा सिंह, महक जौनपुरी, जयश्री श्रीवास्तव, सौम्या दुआ, शिखा जैन, ललिता नारायण पाठक, रचना सक्सेना )40-45. इंटरव्यू (नासिरा शर्मा ) - डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव
46-49. चौपाल (ग़ज़ल लेखन में महिलाओं का क्या योगदान है ?)
50-53. तब्सेरा (आखि़र मैं हूं कौन, किसकी रचना, प्रेम विरह में आलोकि, दोहा विशेषांक)
54-55. गुलशन-ए-इलाहाबाद : (डाॅ. कृष्णा मुखर्जी)- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
56-58. ग़ाज़ीपुर के वीर-6 (राष्ट्रवाद के प्रेरणास्रोत डाॅ. मुख़्तार अंसारी)- मुहम्मद शहाबुद्दीन ख़ान
59-63. अदबी ख़बरें
64-91. परिशिष्ट-1: सुमन ढींगरा दुग्गल
64. सुमन ढींगरा दुग्गल का परिचय
65-66. साहित्य के गहरे पानी की मछली- ममता देवी
67. शायरी की दुनिया का रौशन सितारा- अतिया नूर
68-91. सुमन ढींगरा दुग्गल की ग़ज़लें

92-108. परिशिष्ट-2: इफ़्फत ज़हरा रिज़वी
92. इफ़्फ़त ज़हरा रिज़वी का परिचय
93-95. सूक्ष्म अनुभूतियों की सजग रचनाकार- डाॅ. नीरजा मेहता
96. इफ़्फ़त की शायरी में दर्द, मुहब्बत और तंज- प्रिया श्रीवास्तव
97-118. इफ़्फ़त ज़हरा रिज़वी की ग़ज़लें

119-152. परिशिष्ट -3: शिबली सना
119. शिबली सना का परिचय
120. शायरी के आसमान का चमकता सितारा- हसनैन मुस्तफ़ाबादी
121. सांवली घटा की भींगी सुगंध की तरह- डाॅ. अनुराधा चंदेल ‘ओस’
122-145. शिबली सना की ग़ज़लें

146-152. इस बार इन्हें मिला एवार्डः (अकबर इलाहाबादी सम्मान: बुद्धिसेन शर्मा। बेकल उत्साही सम्मान: नय्यर आक़िल, अरुण आदित्य, जैनुल आबेदीन खान, फ़रहत अली ख़ान, उबैदुर्रहमान सिद्दीक़ी, अख़्तर अ़ज़ीज़, राम लखन चैरसिया, रचना सक्सेना। सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान: इफ़्फ़त ज़हरा रिज़वी, पूजा बहार, सुमय्या राणा, नमिता राकेश, अंजु सिंह गेसू, वीना श्रीवास्तव, नजमा नाहीद अंसारी, उर्वशी अग्रवाल उर्वी, स्वधा रवींद्र उत्कर्षिता, सुमन ढींगरा दुग्गल, शिबली सना। सीमा अपराजिता सम्मान: शकीला सहर, पारो चौधरी, कुमारी निधि चौधरी, मधुबाला, अदिति मिश्रा)

रविवार, 26 मई 2019

दोहों की दुनिया पूरी तरह हरी-भरी

                                                   -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
 
 वर्तमान समय काव्य विधाओं ग़ज़ल और दोहा के लिखने-पढ़ने का प्रचलन सबसे अधिक है। शायद इसकी मुख्य वजह दो पंक्ति में एक बड़ी बात को पूरी कर देना ही है। यही वजह है ये दोनों की विधाएं खासी लोकप्रिय हैं। जहां तक दोहा की बात है, तो यह ख़ासकर हिन्दी की प्राचीनतम विधा है। कबीर से लेकर अमीर खुसरो तक, गोपाल दास नीरज लेकर हरेराम समीप तक दोहा लेखना की प्रक्रिया निरंतर जारी है। इस समय हरेराम राम समीप के दो दोहा संग्रह मेरे सामने हैं। हेरराम समीप ग़ज़लों और कहानियों में अपने भाव-बिम्बों, कथ्य और शिल्प के अनूठेपन के लिए प्रतिष्ठित रचनाकार रहे हैं। अपनी कहन के अनूठेपन, भाव-व्यंजना की मौलिकता से भरी ताज़गी और युगीन वैचारिकता के तेवरों का बांकपन उनकी ख़ासियत है, जिन्हें उन्हें ग़ज़लों और कहानियों के लेखन-क्षेत्र में अग्रणी हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठित किया है, साथ ही इनके दोहे जिस भोलेपन और ताजगी भरे अनुभवों से समन्वित अभिव्यक्ति को संप्रेषण देते हैं, वह निश्चय ही एक अछूत भावुकता की धरोहर है। हरेराम समीप के पहले दोहा संग्रह ‘जैसे’ में कई कालजयी दोहा संग्रहित हैं। इस पुस्तक में शामिल एक दोहे का बांकपन यूं है- सोच रहा हूं देखकर, जल का तेज़ बहाव/काठ बनी ये ज़िन्दगी, डाले कहां पड़ाव।’ जीवन की ययार्थ को बयां करता इनका ये दोहा भी लाजवाब है- ‘प्रश्नों से बचता रहा, ले सुविधा की आड़/ अब प्रश्नों की टेकरी लो बन गई पहाड़।’ एक और दोहा ज़िन्दगी की हक़ीक़त को रेखांकित करता हुआ- ‘मुझको दिखलाओ नहीं, बार-बार ये पर्स/सबकुछ रुपयों से मिले, मगर मिले ना हर्ष।’ ‘जैसे’ 98 पेज का पेपरबैक संस्करण है, जिसे फ़ोनीम पब्लिशर्स से प्रकाशित किया है।

हरेराम समीप की दूसरी पुस्तक है ‘आखें खोलो पार्थ’। इस दोहा संग्रह में भी मारक दोहों की भरमार है। वे खुद अपने दोहों के बारे में लिखते हैं-‘हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब नयी पीढ़ी को तरह-तरह के नशे देकर उनके सपने छीने जा रहे हैं, उन्हें सुलाया जा रहा है, विवेकहीन बनाया जा रहा है। बेरोेजगारी का दैत्य पहले से उनकी जिन्दगियां छीन रहा है। ऐसे में इस नए कुरूक्षेत्र में नए ‘पार्थ’ को जगाना होगा और नए बदलाव के हेतु संघर्ष करना होगा। संभवतः यही इन दोहों का अभीष्ट भी है।’ इनकी बात बिल्कुल सही है, तभी तो वे अपने दोह में कहते हैं-‘अब तो बतला ज़िन्दगी, क्यों तू बनी अज़ाब/कब तक दफ़नाता रहूं, अपने ज़िन्दा ख़्वाब।’ राजनीतिज्ञों पर कटाक्ष करता इनका एक और शानदार दोहा- ‘पिछले सत्तर साल के, शासन का निष्कर्ष/कचरे घर पर खेलता, नन्हा भारतवर्ष।’ इसी तरह पूरी पुस्तक में एक से बढ़कर एक दोहे प्रकाशित हैं, जो मानवीय संवेदना से लेकर जीवन के अन्य सभी पहलुओं पर कटाक्ष करते हुए सबक देते हैं। ‘आंखें खोलो पार्थ’ 96 पेज का पेपरबैक संस्करण है, जिसकी कीमत 120 रुपये है, इसे बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।

   ग़ज़ल और दोहा सृजन में एक प्रमुख नाम विज्ञान व्रत का है। वर्तमान समय के कवियों में विज्ञान ने अपनी रचनाशीलता और सक्रियता से एक अहम मुकाम बनाया है, ऐसे मकाम आसानी से नहीं बनते। साहित्य सृजन के लिए इन्हें कई सम्मान प्राप्त हो चुके हैं, कई किताबों प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके दोहा संग्रह ‘खिड़की भर आकाश’ का वर्ष 2018 में चैथा संस्करण प्रकाशित हुआ है, 2006 में पहला संस्करण आया था। आज के दौर में किसी दोहा संग्रह का चैथा संस्करण प्रकाशित होना ही अपने आपमें बहुत बड़ी बात है। इनका एक शानदार दोहा देखें- ‘राजा देखे महल से, खिड़की भर आकाश/फुटपाथों की ज़िन्दगी, उसको दिखती काश।’ वर्तमान व्यवस्था पर चोट करता एक और दोहा यूं है-‘सिर्फ़ नज़रियें ने किया, ऐसा एक कमाल/मेरे लिये हराम जो, उसके लिए हलाल।’ इस तरह पूरी पुस्तक में उल्लेखनीय दोहों की भरमार है-‘चाहे उनको राज दो, या दे दो बनवास/राम रहेंगे राम ही, यह मेरा विश्वास।’ ‘कभी-कभी सम्मान दो, कभी-कभी अपमान/मेरी पूजा मत करो, मैं हूं इक इंसान।’ ‘हम ऐसे ही ठीक हैं, जैसे भी हैं आज/हमें काम से काम है, नहीं चाहिये ताज।’ इस तरह पूरी किताब दोहों का एक शानदार दस्तावेज है, जिसे संभालकर रखने की आवश्यकता है। 80 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को अयन प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 180 रुपये है।     
 झज्जर हरियाणा के कवि राजपाल सिंह गुलिया वरिष्ठ रचनाकार हैं। इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका दोहा संग्रह ‘उठने लगे सवाल’ में कई शानदार दोहे पढ़ने को मिलते हैं। दोहा लेखन में हरियाणा के कई बड़े नाम हैं, जिन्होंने अपनी अभिव्यक्ति से पाठकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। जीवन के प्रांरभिक दौर में सैन्य सेवा और वर्तमान में अध्यापन कार्य से जुड़े गुलिया जी में अनुशासित सिपाही और सुयोग्य शिक्षक के गुण का सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है। इस समन्वय की झलक इनके दोहों के कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर देखी जा सकती है। एक दोहा में अपने बचपन के दिनों को याद करते हैं-‘मुझे आज भी याद है, वो नन्हा संसार/बापू जब भी डांटते, मां लेती पुचकार।’ दूसरे को खुश देखकर जलने वालों पर कहते हैं-‘चलन मुझे संसार का, तनिक न आया रास/खुद दूजे को देखकर, होते लोग उदास।’ आज के समय में धर्म की आड़ लेकर राजनीति की जा रही है, राजनीतिज्ञों की चाहत कुर्सी की है, लेकिन वे आड़ राजनीति का ले रहे हैं। इस पर कवि कहता है-‘ साधु संत और मौलवी, लगे चाहने ताज/धर्म कर्म को छोड़कर, करें सियासत आज।’ इस तरह पूरी पुस्तक अच्छे दोहों से भरी पड़ी है। 96 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को अयन प्र्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
                    
 
 उदयपुर, राजस्थान के डाॅ. गोपाल राजगोपाल चिकित्सक हैं। मगर काफी समय से रचनारत हैं। मुख्यतः ग़ज़ल और दोहा लिखते हैं। पिछले दिनों इनका दोहा संग्रह ‘सबै भूमि गोपाल की’ प्रकाशित हुआ है। इनके दोहों में नये तेवर, सामाजिक यर्थाथता और दूर दृष्टि स्पष्ट रूप से जगह-जगह दिखाई देती है। कथ्य के साथ शिल्प को भी बेहद सादगी से मारक बनाने का काम कवि ने अपने दोहों में किया है। कवि अपने दोहों में समय का जो तीखा बोध उपस्थित करा रहा है वह बेहद सराहनीय है। सुबह के साथ नई उम्मीद और उर्जा का वर्णन कवि करता है, पुस्तके पहले ही दोहा में वह कहता है-‘किरणों में है आज कुछ, नई-नवेली बात/शुभ-शुभ होती आपको, देखे से परभात।’ जीवन की सच्चाई को कवि अपने एक दोहे में यूं बयान करता है-‘उम्र गुजारो फ्लैट में, रहो सुखी-आबाद/ना अपनी छत है यहां, ना अपनी बुनियाद।’ एक कटाक्ष ये भी है-‘मान लिया सरकार का, कुछ तो है आकार/लिक्खा देखा कार पर, जब भारत सरकार।’ इनका एक रोमांटिक दोहा भी उल्लेखनीय है-‘महकी रानी रात की, महका हर सिंगार/नाम लिया जब आपका, तब-तब उमड़ा प्यार।’ इस तरह पूरी किताब में एक से बढ़कर एक दोहे शामिल हैं। 116 पेज के इस पेपरबैक संस्करण को बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया, जिसकी कीमत 120 रुपये है।

अलवर राजस्थान के विनय मिश्र डिग्री काॅलेज में हिन्दी के अध्यापक हैं। इनकी कविता संग्रह और ग़ज़ल प्रकाशित हो चुकी है, इनके अलावा विभिन्न संकलित पुस्तकों में भी इनकी रचनाएं छपी हैं। पिछले दिनों ‘इस पानी में आग’ नाम से इनका दोहा संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक के बारे में रामकुमार कृषक के लिखे गए फ्लैप सामग्री से ही इनके दोहों का अंदाज़ा सरलता से लगाया जा सकता है, जिसमें लिखा है-‘ इन दोहों का विनय मिश्र ने जो व्यवस्था दी है, उसकी अपनी प्रासंगिकता है। समय, स्मृति, प्रकृति, आत्म और प्रतिवाद, ये पांचों खंड कवि के अपने मनोलोक को खोलते हैं। पाठकों से महज बौद्धिक आत्मालाप करने  से उसे परहेज है। उनसे वह सिर्फ़ संवेदनात्मक संवाद करता है। यही आज के दोह की मांग है, यही उसकी काव्य संस्कृति। विनय मिश्र ने इस संस्कृति का बखूबी निर्वाह किया है।’ यह बिल्कुल सटीक टिप्पणी है। एक दोहा देखें-‘ जब से मेरे गांव का, मुखिया बना बबूल/कांटों की मरजी बिना, खिला न कोई फूल।’ फिर आगे एक दोहे में राजनैतिक विकास पर टिप्पणी करते हैं-‘ इस विकास की बात से, बदला क्या परिवेश/भूखा नंगा आज भी, बदहाली में देश।’ एक और दोहा यूं है- ‘सब्जबाग दिखला रहे, इसीलिए वे आज/तुम सपने देखा करो, पे पा जाएं ताज।’ इस तरह के मारक और सटीक दोहे पूरी किताब में भरे पड़े हैं। ऐसी रचनाशीलता के लिए विनय मिश्र बधाई के पात्र हैं। 124 पेज वाले इस सजिल्द पुस्तक को बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
                                 ( गुफ़्तगू के दोहा विशेषांक में प्रकाशित)

शनिवार, 18 मई 2019

मौलिकता न होने से कलाएं खत्म हो रही हैं: नीलकांत


           नीलकांत जी से साक्षात्कार लेते प्रभाशंकर शर्मा
    जब कहीं मन नहीं रमा तो निकल पड़े लंबी शब्द यात्रा पर। कभी दर्शन शास्त्र से एमए होने के नाते अपने गांव के काॅलेज में प्रवक्त पद की जिम्मेदारी सम्हाली तो कभी शंकरगढ़ के आदिवासियों के साथ कौशल विकास को बढ़ावा देते हुए उनके सुख-दुख के साक्षी रहे। अपनी इस यात्रा में उन्होंने कभी गृहस्थी व दैनिक जीवन को बाधक नहीं बनने दिया और चलते रहे, विचारों का मंथन करते अपनी शब्द यात्रा पर जो आज भी जारी है। 
यह इंटरव्यू प्रसिद्ध आलोचक नीलकांत का है। जो कि 87 वर्ष की अवस्था में भी साहित्य में सक्रिय योगदान दे रहे हैं। आप भीड़ से अलग अपनी पहचान बनाए रखने का माद्दा रखते हैं। आपकी प्रमुख कृतियों में ‘अमलतास के फूल‘, ‘महापात्र एवं अजगर‘, ‘बूूढ़ा बढ़ई’, ‘बाढ़ बूढ़ा’, ‘एक बीघा खेत’ आदि हैं। गुफ्तगू के उपसंपादक प्रभाशंकर शर्मा और अनिल मानव ने आपसे मुलाकात कर बातचीत की, जो अक्तूबर-दिसंबर:2018 अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत है उस बातचीत के कुछ ख़ास भाग।
सवाल: सबसे पहले आप अपने बारे में पाठकों को बताइए।
जवाब: मैं किसान परिवार में पैदा हुआ हूं। आज भी किसान मुझको सबसे ज्यादा प्रिय हैं, हालांकि अब तो बहुत तकलीफ़ में हैं। पहले किसानों के हलवाहे तकलीफ़ में होते थे। जमींदारी उन्मूलन के बाद अब इस समय भूमि अधिग्रहण बिल पास हो गया है। सरकार जब चाहे जमीन अधिग्रहण कर सकती है और बेच भी सकती है। निश्चित रूप से अमीरों द्वारा खरीदी गई ज़मीने फार्म हाउस का रूप लेंगी। जो जीटी रोड की मरम्मत हो रही है इसके बहुत ही बातें छुपी हुई हैं। सड़कों का चैड़ीकरण कर बगल की मार्केट को खत्म करना मल्टीनेशनल की छुपी हुई चाल है। अब किसानों का हाल बेहतर नहीं रहा। विदर्भ आदि में किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। बेरोजगारी तेजी बढ़ रही है। बढ़ता हुआ कैपीटलिस्ट सस्ते लेबर की बड़ी सेना व बेरोजगारी को बनाए रखता है। ताकि भूखे लोगों की पल्टन को जो दिया जाए उसी सस्ते दर पर काम करें। यह विदेशों में हो चुका है, विदेशों में अब आटोमेशन हो चुका है यहां यह संभव नहीं है। सड़कों का चैड़ीकरण से हमारा छोटा किसान बाज़ार खत्म हो रहा है और मल्टीनेशनल की बड़ी-बड़ी गाड़ियां बाज़ार पर कब्ज़ा करने को तैयार हैं। मल्टीनेशनल कंपनियों के पुनरागमन का समय आ गया है। 
 भारतवर्ष में जो भी राजनैतिक पार्टियां हैं, वह सभी विदेशियों की मदद में लगी हैं। कामन वेल्थ का जो गठन हुआ है उसमें वे राष्ट्र हैं जहां अंग्रेज़ों ने शासन किया था। उन राष्ट्रों के प्रधानमंत्री कामनवेल्थ के सदस्य हैं। हमारी आज़ादी एक छलावा था, जिसे कांग्रेस जैसी पार्टी को लीज पर दिया गया था। जब ब्रिटिश राष्ट्राध्यक्ष भारत आते हैं तो उनका बीजा नहीं बनता जबकि हमारे यहां का प्रधानमंत्री ब्रिटेन जाता है तो उनका बीजा ज़रूरी होता है। अब आप ही सोचिए इस लिहाज से आज़ाद कौन है ? अभी देश स्वतंत्र नहीं हुआ है तीसरा संग्राम करना होगा।
सवाल: नामवर सिंह के साहित्य प्रतिमानों के प्रति आपका तार्किक विरोध क्यों है ? आपकी नजऱ में हिन्दी की पहली कहानी कौन सी है ?
जवाब: मेरी नज़र में पहली नई किताब ‘गुलेरी’ जी की है, जिन लक्षण कलेवर और पोषक के साथ गुलेरी ने ‘उसने कहा था’ कहानी प्रस्तुत की है, उसके हिसाब से यही पहली नई कहानी है। कहानी और नई कहानी पुस्तक में नामवर सिंह ने ‘उसने कहा था’ कहानी का जिक्र ही नहीं किया है। नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिंदं’ को नई कहानी बताया है। जिसमें कोइ कथा नहीं है। इसे मानव समाज मुक्ति का प्रश्न बताया है।
 किसी भी साहित्य की व्याख्या बिना समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, इतिहास पढ़े की जाए तो लेखक-संपादक, साहित्य की गहराई में नहीं जा सकता। सिर्फ़ साहित्य पढ़कर साहित्य आपको कहीं नहीं ले जाएगा। आपका अपना दृष्टिकोण होना चाहिए। अपनी प्रतिक्रिया होनी चाहिए। रामविलास में आलोचना का गुण है, जबकि नामवर इस मामले में पिद्दी हैं, उनका अपना कोई दर्शन नहीं है। वे सिर्फ़ मंचों पर ज्यादा प्रकट होते रहते हैं और मीडिया में रहते हैं।
सवाल:  क्या आप यह मानते हैं कि नामवर जी का अपना कोई आलोचना दर्शन नहीं है ?
जवाब: उनका अपना कोई दर्शन नहीं है, इनकी व्याख्या अनुमान और अटकल पर आधारित है। अनुमान भी दर्शनशास्त्र में प्रमाण माना गया है। किन्तु चार्वाक दर्शन कहता कि- प्रत्यक्ष प्रमाण है और चारो वेद रचने वाले लोग भौंड, धूर्त और पिट्ठू लोग हैं। यही लोग लोकाचार में अंध विश्वास फैलाते हैं।
सवाल: इस समय आप आलोचक के रूप में किसे अच्छा मानते हैं?
जवाब: कुछ लोग हैं- इनमें उमाशंकर सिंह परमार बांदा के रहने वाले हैं। लखनऊ के अजीत प्रियदर्शी व देवांश जी लहक पत्रिका के संपादक हैं। देवांश जी ने मुझे ‘उसने कहा था’ कहानी पर लिखने के लिए कहा है। 

सवाल: ‘उसने कहा था’ कहानी को आप हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की इस कहानी को आप नई कहानी के रूप में कहां तक पाते हैं ?
जवाब: गुलेरी ने मौन और अंतराल का इस कहानी में बहुत अच्छा प्रयोग किया है। किसी चीज़ के बारे में कुछ न कहना और मुख्य कथ्य को छुपा देना और दूसरे कथ्य को मूर्तरूप में, ठोस रूप में प्रस्तुत करना, यह प्रयोग अद्भुत है। कहानी की शुरूआत वहां के डायलाॅग व परिवेश से उभारते हैं। परिवेश मस्तिष्क से पहले होता है। परिवेश सोचने, समझने व चेतना से पहले होता है। भाषा का एक अलग परिवेश है और भाषा में रोचकता है। परिवेश से जुड़कर जो चरित्र मिलता है वह बिल्कुल अलग होता है। पूरी कहानी को गुलेरी जी ने बहुत अच्छी तरह उभारा है। कहानी के अंतिम भाग को लें तो गुलेरी जी ने जो कहानी कौशल दिखाया है वह महत्वपूर्ण है। मरने से पहले स्थितियां बड़ी साफ़ हो जाती हैं और सत्य से साक्षात होता है। गुलेरी जी का यह अस्तित्ववाद प्रभावशाली है।
सवाल: उर्दू ग़ज़ल और हिन्दी ग़ज़ल में आप क्या अंतर देखते हैं ?
जवाब: उर्दू तो मैं थोड़ा जानता हूं पर हिन्दी लिपि में जो ग़ज़ल मिलती है उसे मैं सब पढ़ डालता हूं। उर्दू ग़ज़ल अशआर में लिखी जाती है, जिसका प्रत्येक शेर कहीं भी कोट हो सकता है। इसमें सरलापूर्वक साधारण शब्दों के प्रयोग से अपनी बात कही जा सकती है। कृष्ण बिहारी नूर का शेर है-
चाहे सोने की फ्रेम में जड़ दो, आइना झूठ बोलता ही नहीं।
ज़िन्दगी मौत तेरी मंज़िल है, दूसरा कोई रास्ता हीं नहीं।
सुना है फें्रच भी बहुत मधुर भाषा है, जिसमें व्यंजन, स्वर में खोते-डूबते चले जाते हैं, वैसे ही हमारी उर्दू है। इसमें कितनी सरल भाषा में बड़ी बात कही जा सकती है। उदाहरण देखिए-
मेरे राहबर मुझको गुमराह कर दे
सुना है कि मंज़िल करीब आ गई है।
इसमें कितना दर्शन छुपा है, साधाण शब्दों में।
सवाल: अपनी प्रारंभिक शिक्षा और बचपन की यादों के बारे में कुछ बताएं।
जवाब: मेरी प्रारंभिक शिक्षा जौनपुर के केराकत तहसील के बराई गांव में हुई। मैं घर से स्कूल के लिए निकलता था पर स्कूल जाता नहीं था। दोपहर को कुर्ते में स्याही, दुधिया, लपेटकर खाने के लिए घर आता था ताकि लोग समझें कि स्कूल से आया है। रास्ते मे ंनट, मुसहर, दलित लोग मिल जाते थे। वहां नट बकरियां लेकर आते थे वहीं मेरा समय बीतता था। वहां एक पीपल का पेड़ था, जिसमें एक पंडित जी कच्चा धागा लपेटते व सिंदूर से टीका कर चले जाते थे। एक दिन मेरा दोस्त टनटनियां उस पेड़ से बकरियों के लिए पत्ती तोड़ रहा था तभी पंडित जी वहां आ गए और उन्होंने टनटनियां को बहुत मारा। टनटनियां इसके बाद भागर अपने मामा के पास असम चला गया, जहां उसके मामा फंदी (हाथी पकड़ते) थे। टनटनियां सोने की ताबीज पहनता था। मुझे लगता है कि उस समय नट लोग भी सोना पहनते थे। माक्र्स ने लिखा है कि- भारत में बहुत मात्रा में सोना था, जिसे विदेशी समय-समय पर लूट ले गए।
सवाल: इसी कड़ी में हम जानना चाहेंगे कि स्कूली जीवन में आपके आदर्श या प्रेरणा स्रोत कौन रहे ?
जवाब: मित्रवर ! कोई एक प्रेरणा नहीं था बल्कि लोक जीवन का साहित्य, कहानियां, रामलील, बिरहा, कजरी, कहरवा में मेरा मन बहुत लगता था। यही सब मेरे प्रेरणा स्रोत थे। उसके बाद जब समझ बढ़ी तो तुलसीदास, प्रेमचंद, तोता मैना की कथाएं, जातक कथाएं, रानी सांरगा आदि की कहानियां सुनने योग्य थीं। गुलेरी ने मौन और अंतराल की तकनीकि का प्रयोग शायद इसी सदाबृज की कहानियों से लिया है। हमारे यहां खड़ी बिरहा और प्रीतम जैसे लोक संगीत गायब होते जा रहे हैं। कुल मिलाकर लोक जीवन ही मेरे जीवन का प्रेरणा स्रोत रहा।
सवाल: साहित्य में जो पुरस्कार मिल रहे हैं, उनके चयन का आधार क्या है ?
जवाब: यहां तो कभी-कभी ऐसे लोगों को भी पुरस्कार मिल जाता है, जिनकी किताब ही नहीं जमा होती। दो पन्ने की पाण्डुलिपि दिखाकर बता दिया जाता है कि- किताब लिखी जा रही है और पुरस्कार मिल जाता है। अमिताभ ठाकुर (आईएएस) ग़लत पुरस्कारों पर हाईकोर्ट में मुकदमा लड़ रहे हैं। पुरस्कारों में तो बहुत कमीशनखोरी हो रही है।
सवाल: वर्तमान साहित्य में इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रिंट मीडिया पर हावी होता जा रहा है ? इससे पठनीयता पर क्या असर हो रहा है ?
जवाब: अब दोनों अलग-अलग नहीं रह गए हैं। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। बहुत सी ख़बरें झूठी और बनावटी आती हैं। आजकल नई कविता के नाम पर छोटी बड़ी लाइनें लिखी जा रही हैं, एक भी कविता जनहित में नहीं लिखी जा रही है। टनों कागज़ नष्ट हो रहा है। मैं तो कह रहा हूं ये सब फर्नेस में ले जाकर झोंक देना चाहिए। कोई एक उपन्यास या कहानी मौलिक नहीं आ रही है बल्कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में देखे हएु दृश्य, परिवेश व पोषक को उधार लेकर कहानी उपन्यास लिखे जा रहे हैं। जो आपको मीडिया द्वारा दिया जा रहा है उसी में से चुनना है, इससे मौलिकता की तौहीनी हो रही है। मौलिकता न होने के कारण पठनीयता घट रही है। मौलिकता न होने से कलाएं खत्म हो रही हैं। इलाहाबाद में दसों थियेटर रंगमंच के लिए समर्पित थे, अब वे नहीं चल रहे हैं। डायेक्ट कम्युनिकेशन खत्म करने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया, मोबाइल के रूप में आ गया है। सीधी वार्ता खत्म हो गई है। इसमें भाव-भंगिमा, आमने-सामने का संवाद जिसमें भौंह, आंख की पुतली, देखते है, तब समझ में आता है कह क्या रहे हैं और उसका मतलब क्या है ? यह सब इलेक्ट्रानिक मीडिया खत्म कर रहा है।
सवाल: ‘गुफ़्तगू’ जैसी लघु पत्रिकाओं के बारे में आपका क्या ख़्याल है ?
जवाब: ‘गुफ़्तगू’ और ‘लहक’ पत्रिका अनवरत चल रही है। वागर्थ सिर्फ़ भवन पर कब्ज़ा बना रहे इसलिए निकाली जा रह है और उसमें लीज पर मिले ज़मीन-मकान पर कब्ज़ा बना हुआ है। गुफ़्तगू एक ऐसा प्रयास है जो हिन्दी और उर्दू को गले मिला रहा है। हिन्दी और उर्दू में नफ़रत पैदा करने वालों के लिए यह आदर्श है। अभावों में यह पत्रिका बड़े कठिन परिश्रम से निकाली जा रही है।
सवाल: उर्दू का बड़ा पोएट आप किसे मानते हैं ?
जवाब: उर्दू में ग़ालिब साहब सबसे बड़े पोएट हैं। मेरी नज़र में शेक्सपीयर व गेटे भी बड़े कवि हैं, पर उर्दू आलोचकों ने उनकी सही व्याख्या और आलोचना नहीं की और हम दावा नहीं कर सकते क्योंकि हम उर्दू जानते नहीं। उर्दू वालों में हमेशा यह विवाद रहा कि मीर बड़े हैं या ग़ालिब। ग़ालिब ने खुद ही लिखा है-
रेख्ता  के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो असद
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था।
उर्दू पहले बोलचाल की भाषा थी। अरबी से जब ग़ालिब उर्दू में आए तो ग़लिब, ग़ालिब हो गए।
सवाल: आप दर्शनशास्त्र के प्रवक्ता रहे। हम जानना चाहेंगे कि क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं ?
जवाब: जर्मन दार्शनिक फेडरिक निईत्शे का वाक्या है- ‘गाॅड इज डेड दैट आई डिक्लियर’ ईश्वर के मामले में मैं जर्मन दार्शनिक निईत्शे के मत का समर्थन करता हूं। जो हमारे सम्राट हैं उन्हीं को ईश्वर के रूप में कल्पित किया गया है और उन्हीं की वेशभूषा ईश्वर को पहनाई जाती है। यदि ईश्वर है तो हमें भी दिखाइए। मैं इस मामले में चावार्क एंव बुद्ध का समर्थक हूं। बुद्ध कहते हैं कि- ऐसा प्रश्न पूछना चाहिए जो सम्यक हो। यह प्रश्न काल्पनिक है। अव्यवहारिक एवं अव्याकृत प्रश्न ही नहीं पूछना चाहिए।
सवाल: आप अपने जीवन का मार्गदर्शक वाक्य या प्रिय शेर बताएं।
जवाब: फैज के काव्य संग्रह ‘सारे सुखन हमारे’ का एक शेर है-
राहते और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा,
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग।
नीलकांत जी को ‘गुफ़्तगू’ भेंट करते अनिल मानव

गुफ्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2018 अंक में प्रकाशित

शनिवार, 20 अप्रैल 2019

अंजुमन इस्लाह के संस्थापक खान बहादुर

 खान बहादुर मंसूर अली

                                                               - मुहम्मद शहाबुद्दीन खान
                                             
 खान बहादुर मंसूर अली का जन्म गाजीपुर जिले के गोड़सरा गांव के ‘हाता’ नामक स्थान पर 18 सितंबर 1873 ई. को एक जमींदारी परिवार में सूबेदार मौलवी नबी बख्श खांन के घर हुआ था। इनकी माता मरीयम बीबी एक घरेलू खातून थी। शिक्षा ग्रहण करने के बाद सन 1890 ई. मंे लखनऊ ब्रिटिश नॉर्थरन रेलवे जोन में गुड क्लर्क रूप में उनकी नियुक्ति हुई। इनकी शादी उसिया गांव में मुस्समत बसीरन खातून से हुई, जिनसे तीन लड़की और एक लड़का हुआ। बीबी की देहांत के बाद इनकी दूसरी शादी अखिनी के मशहूर जमींदार सिकंदर खां की बहन बशीरन बीबी से हुई, जिनसे छः लड़के और एक लड़की थी। इंडो-पाक बटवारे में मंसूर अली की दूसरी पत्नी अपने तीन छोटे बच्चे और परिवार के कुछ सदस्यों के साथ पाकिस्तान को चली र्गइं। जहां पर उनके छोटे बच्चे इम्तियाज अली ने अपने पिता की याद मे पाकिस्तान की नार्थ अजीमाबाद में एक और मंसूर मंज़िल कोठी बनवाई। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी लंदन के पी.एच.डी.स्कॉलर और पत्रकार दानिश खान के मुताबिक पब्लिक सर्विस से जुड़े तमाम रेलवे ब्रिटिश आला अधिकारीयो के अच्छे कार्य करने पर खान बहादुर मंसूर अली को खान बहादुर की उपाधी दी गई थी। सन् 1913 ई. में ए.टी.एस. से 1921 में डी.टी.एस. यानी डिवीजन ट्रैफिक सुप्रिटेंडेंट के पद पर पद्दोनित हुए। उम्र से पहले नौकरी मिल जाने की वजह से ज्यदा समय शहरों मंे रहे, उनका गांव आना-जाना बहुत कम होता था। 
 खान बहादुर मंसूर अली किसी काम से अम्बाला कैन्ट गए थे, उसी समय दवैथा गांव के सुलेमान उसने मिले और कमसार में एक हाईस्कूल कायम करने की अपनी ख़्वाहिश जाहिर की। मंसूर अली ने उसने पूछा- छोटे मियां यह बातं तुम्हारे दिमाग में क्यों आई.? मौलवी सुलेमान साहब ने बताया कि जब मैं राजपूत रेजीमेंट में भर्ती हुआ मेरी पहली तनख़्वाह मिली, मैं जब डाकखाने को पैसा घर भेजने को गया। मुझे मनीऑर्डर फॉर्म भरने नहीं आ रहा था, मैंने पोस्टमास्टर से निवेदन किया उसने मुझे खूब डांटा, कहा कि इतने खूबसूरत नौजवान हो तुम्हारे बाप ने तुम्हे नहीं पढ़ाया क्या.? मैं उस पोस्टमास्टर की बात पर रो पड़ा। पोस्ट मास्टर मुसलमान और नेक दिल इंसान था जो मुझे पढ़ाने का वादा किया और मुझे खामोशी से आगे की पढ़ाई पूरा कराया। सन 1908 ई० में सुलेमान साहब से लखनऊ स्थित मंसूर मंजिल में एक खास गुफ्तगू के साथ खान बहादुर मंसूर अली ने पठान बिरादरी के लिए कदम आगे बढ़ाया। वह कमसारोबार एवंम गंगापार के राजपूत-पठानों की तमाम करीबी गांव का दौरा किए। चैधरियों और मुखियाओं को इकट्ठा किया। घर घर के झगड़े खत्म कराए, शादी विवाह में जहेज बारात पर हो रहे तमाम फिजूल गैर रश्मी रवाजों को बंद कराने का प्रयास किया। इस दौरान कभी बात बन-बन के बिगड़ जाती, सदियों पुराना गैर सामाजिक ढांचा रश्मोंरिवाज टूटता नज़र आया तो पुराने लोग मुख़ालपत पर उतर आये। इन सबके बावजूद आखिरकार, 10 अप्रैल 1910 ई. को इस्लाह की मीटिंग पूरी बिरादरी की मौजूदगी में गोड़सरा स्थित ‘हाता’ नामक स्थान पर हुई, और ‘अंजुमन इस्लाह-ए-मुआसरा’ का बुनियाद पड़ी।
  19 अप्रैल सन 1934 ई. को इस्लाह-ए-मुआसरा की पांचवीं मीटिंग बारा में मुनकिद की गई। मंसूर अली को मीटिंग में पहुंचने में लेट हुई, फिर भी गाजीपुर सिटी स्टेशन उतर, गंगा में नाव द्वारा बारा पहुंचे और वहां लेट पहुंचने की अफसोस जाहिर किए। इसी मीटिंग में बिरादरी के लोगों ने कमेटी गठन करने के लिए आठ नाम दिए, फिर उन नामों में से एक नाम अंजुमन इस्लाह मुस्लिम राजपूत कमसार-ओ-बार एवं गंगापार रखा, जिसे बाद सन 1940 में अंजुमन इस्लाह कमेटी के सदर डिप्टी सईद द्वारा कमेटी ने रजिस्टर्ड कर मुस्लिम राजपूत कॉलेज यानी एसकेबीएमकॉलेज की बुनियाद डाली गई।
 मंसूर अली खां का सपना था कि बिरादरी के लिए एक स्कूल खुले और सन 1933-34 के बीच दिलदारनगर में मुस्लिम प्राइमरी के नाम से स्कूल खोला भी लेकिन उसिया गांव से किसी आपसी इख़्तेलाक के कारण बंद हो गई। सन 1935-36 में मंसूर अली के बड़े भाई महियार खां के बड़े लड़के ईशा खां ने मंसूर अली के सपने को साकार करने के लिए दिलदारनगर में कमसारोबार क्षेत्र की शिक्षा के लिए मिर्चा मे छह बीघा जमीन कैप्टन अब्दुल गनी से खरीदी और वहां पर गांधी मेंमोरियाल इंटर कॉलेज की नींव रखी। इंडो-पाक बटवारे में ईशा खां के अलावा मंसूर अली के परिवार से तकरीबन 65 प्रतिशत लोग पाकिस्तान चले गए। इसलिए गांधी मेमोरियल कॉलेज टूटने के कगार पर पहुंच गया, इसलिए बिरादरी की  सहमति से एसकेबीएम इंटर कॉलेज में सम्मलित कर लिया गया था। 
उनके सबसे बड़े लड़के मंजूर अली खान की परपोती इर्रिगेशन चीफ इंजीनियर समीना खातून बताती हैं कि दादा मियां मंसूर अली खान की निशानियों में हमारे पास उनकी ड्राइंग रूम मे टंगी फोटो, सीनरी, दाढ़ी बनाने वाली किट, विजिटिंग कार्ड, इस्लाही दस्तावेज और फोटो तथा उनकी हाथों की लिखी एक अहम डायरी और पासबुक आदि मौजूद है। इसके अलावा उनका सम्मानित मैडल भी था जो अब अपर्याप्त है। खान बहादुर मंसूर अली के दूसरे बेटे मसूद अली के परपोते आईटी स्पेशलिस्ट दानिश खां बताते है, जल्द ही खान बहादुर मंसूरी अली फाउंडेशन, लखनऊ का गठन कर लखनऊ में सामाजिक दृष्टिकोण से समाज सेवा का काम किया जाएगा। 29 नवम्बर 1928 को मंसूर अली रेलवे से सेवानिवृत्त हुए और 1934 आखिर तक लखनऊ नगर निगम के चेयरमैन रहे। आखिरकार 61 वर्ष की उम्र में 19 अक्टूबर 1934 ई. को यह अजीम शख़्सियत इस फानी दुनिया को अलविदा कह गया। उनकी कब्रे मुबारक लखनऊ स्थित उनके अबाहीं कब्रिस्तान में गाजीपुर के महान हॉकी खिलाड़ी शहीद बदरूद्दीन खान के बड़े भाई पहलवान कमरुद्दीन खान के कब्र की दाहीने यानी पश्चिम जानिब मौजूद है। 
(गुफ्तगू के जनवरी-मार्चः 2019 अंक मेें प्रकाशित)

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

हमारे समय के ख़ास साहित्यकार हैं नीलकांत

                                 
neelkant
                                                                                   - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
    22 मार्च 1942 को जौनपुर के बराई गांव में जन्मे नीलकांत जी आज भी लेखन के प्रति बेहद सक्रिय हैं। लेखन के साथ ही विभिन्न साहित्यिक आयोजनो में अपनी सहभागिता से कार्यक्रम को नया आयाम देने का काम करते हैं। इनके पिता स्व. तालुकेदार सिंह किसान थे, आय का्र प्रमुख साधन कृषि ही था, मां स्व. मोहर देवी साधारण गृहणी थीं। आप चार भाई और एक बहन थीं। बड़े भाई स्व. मार्कंडेय जी जाने-माने साहित्यकार थे। इनके अलावा दो अन्य भाइयों के नाम रवींद्र प्रताप सिंह और महेंद्र प्रताप सिंह हैं, बहन का नाम बीना है। नीलकांत जी की प्रांरभिक शिक्षा के गांव के पाठशाला में हुई। कक्षा पांच पास करने के बाद रतनुपुर स्थित चंदवक, जौनपुर के इंटर काॅलेज से हाईस्कूल की परीक्षा पास की। इसके बाद इलाहाबाद आ गए। इलाहाबाद में जीआईसी से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक किया। परास्नातक इन्होंने दर्शनशास्त्र विषय से किया। बचपन से ही पढ़ने और लिखने का शौक़ रहा है। स्वतंत्र लेखन करते हुए इन्होंने कथा और उपन्यास लेखन में एक अलग ही पहचान बनाई है। आपके के दो बेटे हैं, मुंबई में अपना कामकाज करते हैं। प्रदेश में सपा शासन के दौरान स्टेट विश्वविद्यालय की स्थापना इलाहाबाद में किया गया, इस दौरान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस विश्वविद्यालय के लिए झूंसी में 76 हेक्टेयर भूमि उपलब्ध कराई है, उसी विश्वविद्यालय में आपने कुछ दिनों तक अध्यापन का काम किया है। 
 अब तक आपकी एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें एक बीघा ज़मीन (उपन्यास), बंधुआ राम दास (उपन्यास), बाढ़ पुराण (उपन्यास), महापात्र (कहानी संग्रह), अजगर बूढ़ा और बढ़ई (कहानी संग्रह), हे राम (कहानी संग्रह) और मत खनना (कहानी संग्रह) आदि प्रमुख हैं। सन् 1982 में आपने ‘हिन्दी कलम’ नाम से पत्रिका का संपादन शुरू किया, यह पत्रिका चार अंक तक छपी। कोलकाता से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘लहक’ ने मार्च: 2016 में आप पर एक विशेषांक प्रकाशित किया था, यह अंक काफी चर्चा में रहा। साहित्य भंडार समेत कई संस्थाओं ने आपको सम्मानित किया है। वर्तमान लेखन के बारे में आपका कहना है-‘आजकल नई कविता के नाम पर छोटी-बड़ी लाइनें लिखी जा रही है, एक भी कविता जनहित में नहीं लिखी जा रही है। टनों कागज़ नष्ट हो रहा है। मैं तो कह रहा हूं ये सब फर्नेस में ले जाकर झोंक देना चाहिए। कोई एक उपन्यास या कहानी मौलिक नहीं आ रही है बल्कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में देखे हुए दृश्य, परिवेश और पोषक को उधार लेकर कहानी उपन्यास लिखे जा रहे हैं। जो आपको मीडिया द्वारा दिया जा रहा है, उसी में से चुनना है इससे मौलिकता के साथ कलाएं भी खत्म हो रही हैं।’

गुफ्तगू के जनवरी-मार्च: 2019 अंक में प्रकाशित



रविवार, 17 मार्च 2019

स्त्रियों का साहित्य सृजन बेहद खास: एडीआरएम

महिला दिवस पर गुफ्तगू की ओर से हुआ आयोजन
‘आखिर मैं हूं कौन’, ‘किसकी रचना’ और ‘प्रेम विरह में आलोकित’ का विमोचन


इलाहाबाद। एक दौर था जब हम अपने घरों में फिल्मी गाने नहीं गा सकते थे, इसे बहुत ही खराब माना जाना था, अंताक्षरी के खेल में भी हम रामचरित मानस और देशभक्ति गीत ही गा सकते थे। मगर आज बेहद खराब से लेकर अश्लील गीत गीत गाये और गुनगुनाए जा रहे हैं। इसके विपरीत इस दौर में भी आज की स्त्रियां साहित्य सेवा कर रही हैं, कविताएं गढ़ रही हैं, समाज को दिशा दे रही हैं। आज महिला दिवस पर तीन कवयित्रियों की किताबों का विमोचन होना साबित करता है कि स्त्री समाज और देश के प्रति सजग हैं और साहित्य का सृजन कर रही हैं। ये तीनों की कवयित्रियों बेहद बधाई की पात्र हैं। यह बात एडीआरएम अनिल कुमार द्विवेदी ने ‘गुफ्तगू’ द्वारा 09 मार्च की शाम सिविल स्थित बाल भारती स्कूल में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर तीन पुस्तकों के विमोचन करते हुए कही। कार्यक्रम के दौरान ऋतंधरा मिश्रा की पुस्तक ‘आखिर मैं हूं कौन’, रचना सक्सेना की पुस्तक ‘किसकी रचना’ और कुमारी निधि चैधरी की पुस्तक ‘प्रेम विरह में आलोकित’ का विमोचन किया गया।

गुफ्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि इन तीनों पुस्तकों की कवयित्रियों ने अथक परिश्रम करके कविता का सृजन किया और इसके बाद पुस्तक प्रकाशित कराया, यह एक बहुत बड़ा काम है। इसके लिए तीन ही कवयित्रियां बधाई की पात्र हैं, लेकिन इन्हें ग़लतफ़हमी में नहीं रहना चाहिए, अभी इससे भी बेहतर रचनाएं की जा सकती हैं, क्योंकि और बेहतर करने की संभावना हमेशा बनी रहती है। गलतफ़हमी बनी रहने से और बेहतर सृजन की संभावना समाप्त हो जाती है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे पं. राम नरेश त्रिपाठी ने कहा कि कविता का सृजन ईश्वर की देन है, ईश्वर द्वारा जो मनुष्य को प्रदान किया जाता है, उसे ही मनुष्य सृजन के रूप में अपने अंतर्मन से बाहर निकालता और लोगों के समाने प्रस्तुत कर देता है। आज जिन महिलाओं की पुस्तकों का विमोचन हुआ है, इन्होंने भी इसी तरह का सृजन करके लोगों के सामने प्रस्तुत किया है। महिला दिवस पर पुस्तकों का विमोचन होना ख़ास मायने रहता है। उन्होंने कहा कि यह निराला, फिराक, महादेवी, पंत और अकबर इलाहाबादी की सरज़मीन है, यहीं पर इस तरह के सराहनीय काम हो सकते हैं। नंदल हितैषी, शिवाशंकर पांडेय, डाॅ. ताहिरा परवीन, नेरश महरानी, डाॅ. राम लखन चैरसिया, प्रदीप बहराइची, संपदा मिश्रा और शैलेंद्र जय ने इन तीन पुस्तकों पर विचार व्यक्त किया, और पुस्तकों की प्रशंसा की। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।    
                                  
दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसमें शिवपूजन सिंह, अनिकेत चैरसिया, अनिल मानव, कविता उपाध्याय, उर्वशी उपाध्याय, ललिता पाठक नारायणी, गीता सिंह, शांभवी, असद गाजीपुरी, अशोक कुमार स्नेही, महक जौनपुरी, मीरा सिन्हा, प्रकाश तिवारी पुंज, अजीत शर्मा आकाश आदि ने कलाम पेश किया।


रविवार, 3 मार्च 2019

अंजुमन इस्लाह के संस्थापक खान बहादुर


खान बहादुर मंसूर अली 

                                              - मुहम्मद शहाबुद्दीन खान
                                           
  खान बहादुर मंसूर अली का जन्म गाजीपुर जिले के गोड़सरा गांव के ‘हाता’ नामक स्थान पर 18 सितंबर 1873 ई. को एक जमींदारी परिवार में सूबेदार मौलवी नबी बख्श खांन के घर हुआ था। इनकी माता मरीयम बीबी एक घरेलू खातून थी। शिक्षा ग्रहण करने के बाद सन 1890 ई. मंे लखनऊ ब्रिटिश नॉर्थरन रेलवे जोन में गुड क्लर्क रूप में उनकी नियुक्ति हुई। इनकी शादी उसिया गांव में मुस्समत बसीरन खातून से हुई, जिनसे तीन लड़की और एक लड़का हुआ। बीबी की देहांत के बाद इनकी दूसरी शादी अखिनी के मशहूर जमींदार सिकंदर खां की बहन बशीरन बीबी से हुई, जिनसे छः लड़के और एक लड़की थी। इंडो-पाक बटवारे में मंसूर अली की दूसरी पत्नी अपने तीन छोटे बच्चे और परिवार के कुछ सदस्यों के साथ पाकिस्तान को चली र्गइं। जहां पर उनके छोटे बच्चे इम्तियाज अली ने अपने पिता की याद मे पाकिस्तान की नार्थ अजीमाबाद में एक और मंसूर मंज़िल कोठी बनवाई। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी लंदन के पी.एच.डी.स्कॉलर और पत्रकार दानिश खान के मुताबिक पब्लिक सर्विस से जुड़े तमाम रेलवे ब्रिटिश आला अधिकारीयो के अच्छे कार्य करने पर खान बहादुर मंसूर अली को खान बहादुर की उपाधी दी गई थी। सन् 1913 ई. में ए.टी.एस. से 1921 में डी.टी.एस. यानी डिवीजन ट्रैफिक सुप्रिटेंडेंट के पद पर पद्दोनित हुए। उम्र से पहले नौकरी मिल जाने की वजह से ज्यदा समय शहरों मंे रहे, उनका गांव आना-जाना बहुत कम होता था। 
 खान बहादुर मंसूर अली किसी काम से अम्बाला कैन्ट गए थे, उसी समय दवैथा गांव के सुलेमान उसने मिले और कमसार में एक हाईस्कूल कायम करने की अपनी ख़्वाहिश जाहिर की। मंसूर अली ने उसने पूछा- छोटे मियां यह बातं तुम्हारे दिमाग में क्यों आई.? मौलवी सुलेमान साहब ने बताया कि जब मैं राजपूत रेजीमेंट में भर्ती हुआ मेरी पहली तनख़्वाह मिली, मैं जब डाकखाने को पैसा घर भेजने को गया। मुझे मनीऑर्डर फॉर्म भरने नहीं आ रहा था, मैंने पोस्टमास्टर से निवेदन किया उसने मुझे खूब डांटा, कहा कि इतने खूबसूरत नौजवान हो तुम्हारे बाप ने तुम्हे नहीं पढ़ाया क्या.? मैं उस पोस्टमास्टर की बात पर रो पड़ा। पोस्ट मास्टर मुसलमान और नेक दिल इंसान था जो मुझे पढ़ाने का वादा किया और मुझे खामोशी से आगे की पढ़ाई पूरा कराया। सन 1908 ई० में सुलेमान साहब से लखनऊ स्थित मंसूर मंजिल में एक खास गुफ्तगू के साथ खान बहादुर मंसूर अली ने पठान बिरादरी के लिए कदम आगे बढ़ाया। वह कमसारोबार एवंम गंगापार के राजपूत-पठानों की तमाम करीबी गांव का दौरा किए। चैधरियों और मुखियाओं को इकट्ठा किया। घर घर के झगड़े खत्म कराए, शादी विवाह में जहेज बारात पर हो रहे तमाम फिजूल गैर रश्मी रवाजों को बंद कराने का प्रयास किया। इस दौरान कभी बात बन-बन के बिगड़ जाती, सदियों पुराना गैर सामाजिक ढांचा रश्मोंरिवाज टूटता नज़र आया तो पुराने लोग मुख़ालपत पर उतर आये। इन सबके बावजूद आखिरकार, 10 अप्रैल 1910 ई. को इस्लाह की मीटिंग पूरी बिरादरी की मौजूदगी में गोड़सरा स्थित ‘हाता’ नामक स्थान पर हुई, और ‘अंजुमन इस्लाह-ए-मुआसरा’ का बुनियाद पड़ी।
  19 अप्रैल सन 1934 ई. को इस्लाह-ए-मुआसरा की पांचवीं मीटिंग बारा में मुनकिद की गई। मंसूर अली को मीटिंग में पहुंचने में लेट हुई, फिर भी गाजीपुर सिटी स्टेशन उतर, गंगा में नाव द्वारा बारा पहुंचे और वहां लेट पहुंचने की अफसोस जाहिर किए। इसी मीटिंग में बिरादरी के लोगों ने कमेटी गठन करने के लिए आठ नाम दिए, फिर उन नामों में से एक नाम अंजुमन इस्लाह मुस्लिम राजपूत कमसार-ओ-बार एवं गंगापार रखा, जिसे बाद सन 1940 में अंजुमन इस्लाह कमेटी के सदर डिप्टी सईद द्वारा कमेटी ने रजिस्टर्ड कर मुस्लिम राजपूत कॉलेज यानी एसकेबीएमकॉलेज की बुनियाद डाली गई।
 मंसूर अली खां का सपना था कि बिरादरी के लिए एक स्कूल खुले और सन 1933-34 के बीच दिलदारनगर में मुस्लिम प्राइमरी के नाम से स्कूल खोला भी लेकिन उसिया गांव से किसी आपसी इख़्तेलाक के कारण बंद हो गई। सन 1935-36 में मंसूर अली के बड़े भाई महियार खां के बड़े लड़के ईशा खां ने मंसूर अली के सपने को साकार करने के लिए दिलदारनगर में कमसारोबार क्षेत्र की शिक्षा के लिए मिर्चा मे छह बीघा जमीन कैप्टन अब्दुल गनी से खरीदी और वहां पर गांधी मेंमोरियाल इंटर कॉलेज की नींव रखी। इंडो-पाक बटवारे में ईशा खां के अलावा मंसूर अली के परिवार से तकरीबन 65 प्रतिशत लोग पाकिस्तान चले गए। इसलिए गांधी मेमोरियल कॉलेज टूटने के कगार पर पहुंच गया, इसलिए बिरादरी की  सहमति से एसकेबीएम इंटर कॉलेज में सम्मलित कर लिया गया था। 
उनके सबसे बड़े लड़के मंजूर अली खान की परपोती इर्रिगेशन चीफ इंजीनियर समीना खातून बताती हैं कि दादा मियां मंसूर अली खान की निशानियों में हमारे पास उनकी ड्राइंग रूम मे टंगी फोटो, सीनरी, दाढ़ी बनाने वाली किट, विजिटिंग कार्ड, इस्लाही दस्तावेज और फोटो तथा उनकी हाथों की लिखी एक अहम डायरी और पासबुक आदि मौजूद है। इसके अलावा उनका सम्मानित मैडल भी था जो अब अपर्याप्त है। खान बहादुर मंसूर अली के दूसरे बेटे मसूद अली के परपोते आईटी स्पेशलिस्ट दानिश खां बताते है, जल्द ही खान बहादुर मंसूरी अली फाउंडेशन, लखनऊ का गठन कर लखनऊ में सामाजिक दृष्टिकोण से समाज सेवा का काम किया जाएगा। 29 नवम्बर 1928 को मंसूर अली रेलवे से सेवानिवृत्त हुए और 1934 आखिर तक लखनऊ नगर निगम के चेयरमैन रहे। आखिरकार 61 वर्ष की उम्र में 19 अक्टूबर 1934 ई. को यह अजीम शख़्सियत इस फानी दुनिया को अलविदा कह गया। उनकी कब्रे मुबारक लखनऊ स्थित उनके अबाहीं कब्रिस्तान में गाजीपुर के महान हॉकी खिलाड़ी शहीद बदरूद्दीन खान के बड़े भाई पहलवान कमरुद्दीन खान के कब्र की दाहीने यानी पश्चिम जानिब मौजूद है।