शनिवार, 13 दिसंबर 2025

05 सितंबर 1920 से छप रहा ‘आज’

शिवप्रसाद गुप्त हैं इस दैनिक अख़बार के संस्थापक

यूपी, बिहार और झारखंड से भी निकलता है यह

                                                                              - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 देश में छपने वाले अख़बारों में ‘आज’ का प्रमुख स्थान रहा है। आज़ादी से पहले निकलने वाले अख़बारों का मुख्य उद्देश्य देश को आज़ाद कराना रहा है। इसके लिए अख़बार के मालिकों और संपादकों को अंग्रेज़ों के उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ा था। कुछ मालिकों और संपादकों को तो अंग्रेज़ों ने फांसी की सजा तक दे दी थी। इसके बावजूद अख़बारों ने अपना काम बखूबी किया था। इन्हीं उद्देश्यों और ऐसे ही माहौल में ‘आज’ अख़बार की शुरूआत करने वाले बाबू शिवप्रसाद गुप्त जी ने 30 अप्रैल 1914 से कई देशों का दौरा शुरू किया था। इस दौरान उन्हें कई अनुभव हुए। इनमें एक ख़ास अनुभव अख़बार को लेकर हुआ। उन्हें इंग्लैंड में ‘लन्दन टाइम्स’ नामक अख़़बार देखने को मिला। इस अख़बार से वे काफी प्रभावित हुए। तब उन्हें लगा कि अपने देश में हिन्दी में भी ऐसा ही एक प्रभावशाली अख़बार प्रकाशित किया जाना चाहिए। फिर जब वे भारत लौटे तो उन्होंने ‘आज’ नामक अख़बार का शुभारंभ 05 सितंबर 1920 को वाराणसी से किया, तब इसी दिन जन्माष्टमी भी थी। लोकमान्य तिलक जी से परामर्श करने के बाद इसका शुभारंभ किया गया था। 

वाराणसी के कबीरचौरा में ‘आज’ अख़बार का कार्यालय

बाबू शिवप्रसाद गुप्त जी का मानना था कि ‘‘हमारा अख़बार दैनिक है। रोजाना इसका प्रकाशन होगा। दुनिया भर की नई-नई ख़बरें इसमें छपेंगी। रोजाना दुनिया की बदलती हुई दशा में नये-नये विचार उपस्थित करने की ज़रूरत होगी। हमें रोज-रोज अपना मत तत्काल स्थिर करके बड़ी-छोटी सब प्रकार की समस्याओं को समयानुसार हल करना होगा। जिस क्षण जैसी आवश्यकता पड़ेगी, उसी की पूर्ति का उपाय सोचना और प्रचार करना होगा। इसलिए हम एक ही रोज की जिम्मेदारी प्रत्येक अंक में ले सकते हैं। वह जिम्मेदारी प्रत्येक अंक में ले सकते हैं। वह जिम्मेदारी प्रत्येक दिन केवल आज की होगी, इस कारण इस पत्र का नाम ‘आज’ है।’’  पू. बाबूराव विष्णु पराडक़र इस अख़बार के पहले संपादक बने। पराडकर जी का कहना था कि हमारा मक़सद अपने देश के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्रता का उपार्जन करना होगा। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं और यही हमारा लक्ष्य है।

बाबू शिवप्रसाद गुप्त

‘आज’ के संपादकीय में छपा-‘‘संसार इस समय बेचैन है। चारों ओर हलचल है। सब नर-नारी परेशान हैं, क्यों ? राष्ट्रनीतिज्ञों को इसका कारण विचार कर निकालना चाहिए। जिधर देखिये उसी ओर अशान्ति विराज रही है। सब लोग एक दूसरे से अप्रसन्न हैं। अपनी-अपनी श्रेणी को संघटित कर सब लोग दूसरी श्रेणियों से लडऩे के लिए तैयार हैं। इस हलचल में केवल एक सिद्धान्त है-जिसके पास अधिकार है, उससे अधिकार ले लेना चाहिए। जिसके पास अधिकार नहीं है, वह दूसरों को अधिकार प्राप्त देखकर जलता है और उसके पास से अधिकार हटवाना चाहता है। अनधिकारी अधिकारी से द्वेष करता है और अधिकारी अनधिकारियों की संख्या देख उनसे डरता है, उनकी संघटित शक्ति घटाना चाहता है और उनके प्रति रोष दिखाकर उन्हें अधीन अवस्था में ही पड़े रहने का आदेश देता है। राष्ट्र-राष्ट्र, वर्ग-वर्ग, वर्ण-वर्ण सबके झगड़े का मूल मंत्र यही प्रतीत होता है कि अधिकारी के पास अधिकार न हो। अधिकार हटाया जाना चाहिए। तो शान्ति कैसे हो सकती है, चैन कैसे मिल सकता है? शासन और शासित, मालिक और मजदूर, अमीर और गरीब अपने-अपने हक़ और फर्ज दोनों को जब तक अच्छी तरह नहीं समझते, तब तक नीति नहीं हो सकती। दो परस्पर विरोधी श्रेणियों को यह सच समझना होगा।’’

विद्या भास्कर

इसी के साथ ‘आज’ अख़बार का सफ़र शुरू हो गया। ‘आज’ के विभिन्न संस्करण के प्रकाशन की शुरूआत 1977 से हुई। पहले कानपुर, इसके बाद आगरा, गोरखपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, बरेली से भी ‘आज’ निकलने लगा। फिर दूसरे राज्यों से इसका शुभारंभ किया गया। बिहार में पटना, रांची, धनबाद, जमशेदपुर से भी अख़बार निकलने लगा, यह सिलसिला आज भी जारी है। कुछ वर्षों (1943 से 1947 तक) को छोड़क़र पू. बाबूराव विष्णु पराडक़र 1920 से 1955 तक ‘आज’ के संपादक रहे। कमलापति त्रिपाठी ‘आज’ में 1932 में आये। कुछ समय बाद वह ‘आज’ के संपादक नियुक्त हुए और पराडक़रजी को प्रधान संपादक बना दिया गया। 1943 में विद्या भास्कर और बाद में श्रीकान्त ठाकुर, रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर ‘आज’ के सम्पादक बने।

कमलापति त्रिपाठी

 1959 में सत्येन्द्र कुमार गुप्त ने ‘आज’ के प्रधान सम्पादक का दायित्व संभाला। इससे पहले 1942 से सोलह वर्ष तक उन्होंने ‘आज’ का संचालन किया था। सत्येन्द्र कुमार गुप्त ने ‘आज’ की गौरवपूर्ण परम्परा की रक्षा करते हुए पत्र को उन्नति की ओर अग्रसर किया था। अनेक बाधाओं के बावजूद अख़बार का पृष्ठ-विस्तार कर उसे नये भारत की आवश्यकता के अनुरूप बनाया। पचीस वर्षों तक ‘आज’ के सम्पादन के बाद उनका निधन 6 नवम्बर, 1984 को हो गया।

श्रीकांत ठाकुर

 वर्ष 1942 में जब सत्येन्द्र कुमार गुप्त ने ज्ञानमण्डल लिमिटेड का प्रबंधन सम्भाला, उनकी सहधर्मिणी शशिबाला गुप्त इस कार्य में सक्रिय सहयोग प्रदान करती थीं, ज्ञानमण्डल लिमिटेड  से ही अख़बार का प्रकाशन होता है। उन्होंने 1959 में ज्ञानमण्डल के प्रबंध संचालक का कार्यभार संभाला। ‘आज’ की स्वर्ण जयंती के अवसर पर उनके प्रोत्साहन और प्रेरणा से सचित्र ‘प्रेमसागर’ का प्रकाशन हुआ और उसे निःशुल्क वितरित किया गया। वर्तमान समय में शार्दूल विक्रम गुप्त इस अख़बार के प्रधान सम्पादक हैं। इन्होंने सन 1984 में कार्यभार संभाला था। 

बाबूराव विष्णु पराड़कर

 प्रतिदिन प्रकाशित होने वाले इस संस्थान सेे कई और विशेषांक और पत्रिकाएं आदि प्रकाशित होती रही हैं। 1944 से सोमवार विशेषांक, 18 जुलाई 1938 से ‘आज’ साप्ताहिक के अलावा ज्ञानमण्डल से ‘स्वार्थ’ पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ था। दो-ढाई वर्ष तक चलने के बाद आर्थिक कठिनाइयों के कारण इसे बंद करना पड़ा। 1921 में ‘मर्यादा’ मासिक पत्रिका का अधिग्रहण किया और संपूर्णानंद के संपादकत्व में इसका प्रकाशन शुरू हुआ था। 1947 में ‘समाज’ का प्रकाशन शुरू हुआ था। इसके संपादक मंडल में आचार्य नरेंद्र देव भी थे। एक अक्तूबर, 1950 से इसका प्रकाशन बंद हो गया। 1947 में ‘चित्ररेखा’ नामक कहानी पत्रिका का शुभारंभ हुआ था। इसके कुछ अंक प्रकाशित हुए थे। 30 जुलाई 1931 को अंग्रेज़ी दैनिक ‘टुडे’ का भी प्रकाशन यहीं से शुरू हुआ था। उन दिनों यह अख़बार भी चर्चा में रहा था। 1979 में ‘अवकाश’ नाम से हिन्दी पाक्षिक पत्रिका का शुभारंभ हुआ था, लगभग दस वर्षों तक इसका प्रकाशन हुआ।

शार्दूल विक्रम गुप्त

अख़बारों और पत्रिकाओं के अलावा इस संस्थान से कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का भी प्रकाशन हुआ है। ‘बृहत हिन्दी कोश’ के सात संस्करण अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। ‘अंगेजी-अंग्रेजी-हिन्दी’ नामक पुस्तक का प्रकाशन डॉ. हरदेव बाहरी के संपादन में हुआ है। यहीं से प्रकाशित हुआ ‘पौराणिक कोश’ बहुत ही उपयोगी है। इसी तरह ‘भाषा विज्ञान कोश’, ‘वाङ्मयार्णव’, ‘काव्य प्रकाश’, ‘ध्वन्यालोक’, ‘सूरसागर’, ‘हिन्दुत्व’, ‘अशोक के अभिलेख’, ‘वास्तु मर्म’, ‘स्वतंत्रता संग्राम’, ‘चिद्विलास’, ‘पालि साहित्य का इतिहास’, ‘पालि व्याकरण’, ‘महापरिनिब्बान सुत्तं’, ‘पालि पाठशाला’, ‘समाचार पत्रों का इतिहास’ और ‘मालवीय जी महाराज की छाया में’ आदि पुस्तकों का प्रकाशन भी इस संस्थान की तरफ से हुआ है। 

‘आज’ के वाराणसी कार्यालय में बातचीत करते। बाएं से-संजय कुमार, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और मोहम्मद अशफ़ाक़ सिद्दीक़ी।

वर्तमान समय में ‘आज’ के वाराणसी कार्यालय में कार्यरत विज्ञापन प्रबंधक संजय कुमार जी का कहना है कि - ‘‘ ‘आज’ हर मोर्चे पर आज भी ईमानदार लड़ाई लड़ रहा है। उसकी नज़र आज भी शासक पर है, शासित पर है। अफ़सरशाही की गतिविधियों पर उसकी कड़ी नज़र होती है। ग्राम जगत उससे अछूता नहीं है। गांवों की समस्याओं को हम सर्वाेच्च प्राथमिकता देते हैं। शिक्षा, शिक्षक, शिक्षार्थी, महिलाओंकी स्थिति, बढ़ते अपराध, सरकार की दुर्नीति, पुलिस की निष्क्रियता सब पर हमारी नज़र होती है।’’ 

(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2025 अंक में प्रकाशित)


सोमवार, 8 दिसंबर 2025

हृदय की संवेदनाओं की पूंजी खत्म हो गई है: पुष्पिता 

तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के हाथों विदेशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए पद्मभूषण मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार, अंतरराष्ट्रीय अज्ञेय साहित्य सम्मान, सूरीनाम राष्ट्रीय हिन्दी सेवा पुरस्कार, शमशेर सम्मान आदि से विभूषित प्रो. पुष्पिता अवस्थी जी का जन्म कानपुर देहात के एक गांव के जमींदार परिवार में हुआ था। हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला, फ्रेंच, अंग्रेज़ी और डच भाषाओं पर समान अधिकार रखने वाली प्रो. पुष्पिता अवस्थी ने वर्ष 2001-2005 के दौरान सूरीनाम स्थित भारतीय राजदूतावास के प्रथम सचिव एवं भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र, पारिमारिबो में हिंदी प्रोफेसर के पद को सुशोभित किया। आप हिंदी यूनिवर्स फ़ाउंडेशन, नीदरलैंड की निदेशक रहीं। आपने वर्ष 2010 में गठित अन्तरराष्ट्रीय भारतवंशी सांस्कृतिक परिषद के महासचिव पद की गरिमा को भी बढ़ाया। गोखरू, जन्म, अक्षत, देववृक्ष,  शैलप्रतिमाओं, आधुनिक हिन्दी काव्यालोचना के सौ वर्ष,  छिन्नमूल उपन्यास सहित साठ से ज्यादा आपकी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। सूरीनाम में हिन्दीनामा प्रकाशन संस्थान और साहित्य मित्र संस्था को स्थापित करने तथा हिन्दीनामा और शब्द शक्ति पत्रिकाओं के प्रकाशन के शुभारंभ का भी श्रेय आपको प्राप्त है। भारत से नीदरलैंड तक इनकी साहित्यिक जीवन यात्रा, विश्व में हिंदी के प्रचार-प्रसार और भारतीय तथा विदेशी पृष्ठभूमि पर रचे इनके अतुलनीय साहित्यिक योगदान संबंधित विभिन्न विषयों पर अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंश -

प्रो. पुष्पिता अवस्थी

सवाल: आपकी प्रारंभिक शिक्षा कहां और कैसे हुई ?

जवाब: मैं कानपुर देहात के एक गांव में अपने ननिहाल में पैदा हुई। सातवें महीने में ही मेरा जन्म हो गया था। मां उस समय 17 अठारह बरस की थीं। अत: मेरी नानी ने ही मुझको पाला था। बचपन में हम बड़े खिलंदड़े थे। हम ज़मींदार परिवार के थे। खेतीबाड़ी के लिए जो मज़दूर आते थे, उन लोगों के साथ, मैं खेतों पर चली जाती थी तो सब को ये लगने लगा कि ये पढ़ेगी-लिखेगी नहीं, ऐसे ही घूमती फिरती रहेगी। तब मुझे चार बरस की अवस्था में बनारस के एक हॉस्टल में डाल दिया गया। कानपुर से बनारस जाते समय और हॉस्टल में दस-पंद्रह दिन तक हम रोते रहते थे। मेरी तो सारी आजादी, पूरा बालपन ही छिन गया था।  मेरी नानी बहुत पढ़ी लिखी नहीं थी। वो संस्कृत नहीं पढ़ पाती थी। इसलिए जब मेरे नाना बाहर चले जाते थे तो नानी पूजा-पाठ नहीं कर पाती थीं। बस भगवान को नहला धुला कर हम दोनों लोग आधा घंटे हाथ जोड़कर बैठ जाते थे। मेरी नानी ने समझाया कि तुम्हें हमेशा के लिए नहीं भेज रहे हैं, एक-दो साल के लिए ही भेज रहे हैं। नानी ने कहा देखो स्कूल इसलिए भेज रहे हैं कि वहां से पढ़ कर आओगी तो हम दोनों लोग मिलकर पूजा-पाठ करेंगे। ये बात हमे समझ में आ गई तो हम चले गए। वहां जाकर हम मन से सिर्फ़ पढ़ाई करते थे ताकि जल्दी से पढ़कर हम नानी के पास पहुंच जाएं। तीन साल मन से पढ़ाई करने के बाद ही समझ में आने लगा कि पढ़कर बहुत आगे बढ़ना है। मैं वहां कृष्णमूर्ति फाउंडेशन में पढ़ती थी। छह-सात साल वहां कृष्णमूर्ति जी को देखा-सुना। कृष्णमूर्ति जी को सुनते हुए लगा कि जीवन और लिखना-पढ़ना कैसा होना चाहिए। ये फिलॉसफी और संस्कारी चीजों को सुनते हुए हम बड़े हुए। 


सवाल: अपने प्रारंभिक साहित्यिक जीवन तथा विशिष्ट साहित्यकारों से संबंधित विशेष अनुभवों पर प्रकाश डालिए।

जवाब: हमने संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी, तीनों भाषा के साहित्य की पढ़ाई की। जब मैं बीए में थी तब मैंने एक कहानी लिखी। अमृत राय जी ‘नई कहानी’ पत्रिका निकालते थे। उसमें छपने के लिए इसे भेजी। उन्होंने मुझे एक पोस्ट कार्ड लिखकर भेजा कि ये कहानी कहां से उतारी है। मैंने उनको पोस्ट कार्ड में लिखा कि मेरी हस्तलिपि के अलावा यह आपको जहां भी मिले, मुझको सूचित करिएगा। उस समय हम बीएचयू के हॉस्टल में रहते थे। पंद्रह दिन बाद, हॉस्टल में जहां पर विजिटर मिलने आते थे, वहां से मेरे पास एक स्लिप आई, उसमें अमृत राय लिखा था। मैं दौड़ती-भागती गेट पर पहुंची तो देखा कि अमृत राय खड़े हैं। हमने कहा सर आप पहले से पोस्ट कार्ड भेज देते, बता देते। उन्होंने अचानक कहा कि तुम्हारे पोस्ट कार्ड का जवाब ही तो है कि मैं आया हूं। उसके बाद उन्होंने कहा कि सुनो, चलो हमारे साथ, मैं तुम्हें लमही में बप्पा के घर ले चलूंगा। तुम ये डिजर्व करती हो और वो मुझे अपनी कार में बिठाकर लमही ले गए। एक-एक कमरा दिखाया कि कहां मैं बैठता था और कहां बप्पा लिखते थे। कौन सी कहानी पर किस जगह का असर है। ये सब बताया और फिर उसके बाद उन्होंने कहा कि शुक्रवार, शनिवार, इतवार को क्या करती हो। मैंने कहा कुछ नहीं, कवि गोष्ठी वगैरह में कहीं लोग बुला लेते हैं, नहीं तो अपने कमरे में बैठकर पढ़ाई लिखाई करते हैं। उन्होंने कहा इलाहाबाद आया करो। तब हमने कहा कि बनारस से बाहर हम कहीं गए नहीं हैं। उन्होंने कहा कि बस स्टेशन से इलाहाबाद की बस पकड़ना और मैं या मेरा लड़का आलोक, इलाहाबाद में तुमको पिकअप कर लेगा। वहीं मुझे महादेवी वर्मा जी का घर दिखाए, मिलवाने भी ले गए। सुमित्रानंदन पंत जी का घर दिखाए। फिर बनारस में ही कथाकार प्रेमचंद जी की परंपरा के, शिव प्रसाद सिंह जी तथा शुक्ल जी से भी आशीर्वाद मिला। जब इन लोगों के लिए लखनऊ दूरदर्शन द्वारा फिल्म बनाने के लिए कहा गया तब इन लोगों के पूरे साहित्य को मैंने पढ़ा और इनसे बातचीत की। तत्पश्चात, मैंने शिव प्रसाद जी पर तथा श्री लाल शुक्ल पर तीन-तीन घंटे की फिल्म बनाई। इन सबसे, कहानी-कविता लिखने के साथ-साथ लेखन की दृष्टि से दुनिया को देखने की दृष्टि मेरे भीतर पैदा हुई कि कैसे आप किसी को तथा घटनाओं को आत्मसात करें। एक बार अमृतराय जी ने बताया कि बांग्लादेश बनने से पहले, मैं और धर्मवीर भारती युद्ध के दौरान बांग्लादेश बार्डर पर गए थे और उसके बाद हम लोगों ने रिपोर्ट लिखी और कहानी बनी। पहले हम साहित्यकार जहां कुछ होता था, वहां जाते थे लेकिन अब तो लोग एयर कंडीशंड कमरों में बैठकर, किसान के पसीने, फांवड़ा-कुदाल पर कविताएं लिखते हैं। हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष या आईएएस अधिकारी होने के नाते, कुछ लोग हिंदी के साहित्यकार हो गए। प्रकाशक-संपादक को पैसा-प्रतिष्ठा चाहिए। पूरे विश्व में साहित्य के पतन का ये भी एक कारण है। जब लेखक पतित होकर या भीतर के चेतन कांशसनेस, चेतना के वास्तविक सच्चे सोर्स से रचना नहीं लिखेगा तो रचना, पाठकों के हृदय को नहीं छुएगी। 


सवाल: अपनी प्रकाशित पुस्तकों और उन पर हो रहे शोध संबंधित कार्यों के बारे में बताइए। 

जवाब: सूरीनाम की पृष्ठभूमि पर आधारित मेरा उपन्यास ‘छिन्नमूल’, जब लोगों ने पढ़ा तो कुछ लोगों ने कहा कि मैडम, इसे पढ़कर लगा कि हम बिना खर्चे के सूरीनाम घूम आए। कानपुर में एक इंटर कालेज के प्रिंसिपल रोज शाम को इस किताब का एक अंश पढ़ते थे और आसपास से आए गांवों के लोग उत्सुकता से यह जानने के लिए सुनते थे कि उन्हीं के इलाके से गए हुए लोग, अब दूसरे देश में कैसे रह रहे हैं। उनका जीवन अब कैसा है। सत्तर के करीब विश्वविद्यालयों में मेरे साहित्य पर शोध हो रहा है। मुझ पर संगोष्ठियां हो रही हैं। मेरे साहित्य पर केंद्रित दो तीन पत्रिकाएं प्रकाशित हुई है। मारीशस और सूरीनाम में भी, मुझ पर बहुत से लोगों ने काम किया है। 


सवाल: समाज में मरती हुई संवेदनाओं को समाज के सम्मुख प्रदर्शित करने का साहित्य सशक्त माध्यम है। अपनी रचनाओं के हवाले से इस कथन को समझाइए।

जवाब: लोग मुझसे कहते हैं कि कविता हाशिए पर जा रही है तो मैंने कहा कि लोगों का हृदय अब सिर्फ़ शरीर चलाता है। हृदय में जो संवेदनाओं की पूंजी होती है वो लोगों की खत्म हो गई है। वो संवेदनाएं हाशिए पर चली गई अन्यथा कविता पढ़ना, समझना और कविता में जीना इतना सुन्दर है कि मैं कभी-कभी सोचती हूं कि जो कविताएं या साहित्य नहीं लिखते हैं, वो सम्वेदनाओं को जीते कैसे होंगे क्योंकि ये चीजें संवेदनाओं को जीने का एक माध्यम हैं। जैसे कि मेरी एक कविता है- 

                  मैं जानती हूं तुम्हें 

                  जैसे 

                  फूल जानता है गंध 

                  मैं जानती हूं तुम्हें

                  जैसे 

                  पानी जानता है अपना स्वाद

                  मैं तुम्हें जानती हूं तुम्हें  

                  जैसे 

                  हवाएं जानती हैं अपना मानसून

                  मैं जानती हूं तुम्हें

                  जैसे 

                  जड़े जानती हैं अपनी फुनगी को 

                  और फुनगी जानती है अपनी जड़ों को 

                  मैं जानती हूं तुम्हें 

                  जैसे 

                  आत्मा जानती है देह को 

                  और देह जानती है आत्मा को।

 कितनी आसान कविता है, लेकिन इसको एहसास के धरातल पर महसूस करना होगा। मैंने प्रेम की कविताएं इतनी लिखी कि मैं हिंदी साहित्य की दुनिया में प्रेम कवयित्री के रूप में जानी जाती हूं। मेरे भीतर जो प्रेम का भाव है उसी की स्याही से लिखा और प्रेम मिला ही नहीं। जब कुछ मिलता नहीं तभी व्यक्ति लिखता है। मेरी एक किताब आई थी ‘आंखों की हिचकियां’। उसके आवरण पृष्ठ पर मेरी एक कविता है, ‘आंखों की हिचकियां’ 

               चांदनी भी 

               समा चुकी होती है- 

               मीठे उजालेपन के साथ 

               आकाश गंगा के धवल प्रवाह में।

               बेघर चांद भी अपने

               कृष्ण पक्ष में ठहर जाता है- 

               तुम्हारी आंखों के घर में 

               स्वप्न बन जाने के लिए।

                अकेलेपन की रोशनी में तब पिघलती हूं मैं 

                और मेरे भीतर का 

                शब्द-संसार 

                जिनकी आंखों से उतरते हैं 

                पारदर्शी आंसू 

                जिसमें झिलमिलाती है-

                स्मृतियों की रौनक।

                ऐसे में 

                तुम्हारे लिए रचाए गए 

                शब्दों की मुठ्ठी में होता है-

                प्यार की अमृत बूंदों का

                जादुई सच

                जिसे जानती हैं 

                ‘आंखों की हिचकियां’ 


सवाल: विदेश में रहते हुए भी आपने सूरीनाम, कैरेबियन देशो, युरोपीय देशों तथा भारतीय परिदृश्य पर काफी साहित्य रचना की हैं। इन्हीं भूखंडो पर लिखे अन्य देशी-विदेशी साहित्यकारों से आपका साहित्य कैसे भिन्न है ?

जवाब: हमने संस्कृत साहित्य, हिंदी साहित्य और अंग्रेज़ी साहित्य से पढ़ाई की है। पांच हजार साल के साहित्य का व्यापक पैनोरमा मेरे दिमाग के भीतर है और इसी दिमाग के भीतर आंखें हैं। सामान्य दृष्टि और प्रज्ञा चक्षु मेरे दोनो जाग्रत हैं और दोनों एक दूसरे से अन्तर्संबंधित हैं। इस वजह से जब आपको एवं आपकी दुनिया को हम देखते हैं तो वो हमारी प्रज्ञा चक्षु से रिलेट होकर के हमारी कई हजार साल पुरानी भारतीय संस्कृति की विरासत की आंखो से, इसे देखती है। विश्व युद्धों के बाद, कोलोनाइजिंग के बाद, विदेशी लोग अभी नामी गिरामी बने हैं। वस्तुत: ये लोग या तो लुटेरे या मछेरे रहे हैं या कोलोनाइजिंग की है। संस्कृति की विरासत तो भारत की धरती के पास है। भारत की धरती उस समय इधर अफगानिस्तान तक और उधर इंडोनेशिया, बर्मा तक गई हुई थी। ये सब भारत था। इसने मानवीय संस्कृति को विकसित किया है। मैं उसी विकसित मानवीय संस्कृति की आंखों से देखकर लिखती हूं। मनुष्य को जो मनुष्यता की दुनिया के लिए करना चाहिए, उस तरफ मैंने लिखा। मेरे कहानी-संग्रह ‘कत्राती बागान’ में तीन बड़े भूखंडो भारत, कैरेबियन देशों और युरोपीय देशों के मानवीय चरित्रों पर, मैंने कहानियां लिखी। विदेशी भाषा के लेखकांे के द्वारा, जो साहित्य किसी अन्य देश पर लिखा जाता है, वो अक्सर उन देशों की मूल परिस्थितयों और सांस्कृतिक स्वरूप से भिन्न होता है। जैसे आप रशिया के मैक्सिम गोर्की, इंग्लैंड के लेखकों की अंग्रेजी में लिखी, दूसरे देशों पर किताबें पढ़िए तब आप पायेंगे कि वो जिस तरह से दूसरे देशों की संस्कृति को देखते हैं उसे पढ़कर आप उस देश को नहीं समझ सकते। रोमा रोला, मूलर तथा अन्य विदेशी लोगों ने भारत के बारे में लिखा परंतु जब एक भारतीय, भारत के बारे में लिखता है तो दोनों में अंतर होता है। ये अंतर दृष्टि का अंतर होता है। इसलिए मुझे लगता है कि मेरा साहित्य विदेश में क्यों महत्त्वपूर्ण हुआ ? उसका बहुत बड़ा कारण ये है कि मैंने विदेश पर हिंदी भाषा में साहित्य लिखा तो उस देश के लोगों को ये उत्सुकता हुई कि भारत से आई हुई महिला हमारे देश पर आखिर क्या और क्यों लिख रही है ? किन आंखों से वो हमारे देश को देख रही है?  इस वजह से उन्होंने हमारे साहित्य को पढ़ा और समझने की कोशिश की। तत्पश्चात् इनके अनुवाद हुए। मेरी एक कविता ‘पृथ्वी अकेले औरत की तरह सह रही है जीने का दुख’ का ग्यारह भाषाओं में अनुवाद हुआ। उस पर एक घंटे की फिल्म बनी और नीदरलैंड के टेलीविजन में एनटीआर चैनेल ने दिखाया।

प्रो. पुष्पिता अवस्थी

सवाल: साहित्य में आजकल चोरी का बोलबाला हो गया है लोग दूसरों की रचनाएं अपने नाम से छपवा ले रहे हैं। इस बारे में आपका क्या विचार है और इस संबंध में आपका कोई अनुभव हो तो बताइए।

जवाब:  हमारी कुछ किताबों को भी कुछ लोगों ने अपने नाम से छपवा लिया है। उसमें से एक किताब ‘सूरीनाम का सृजनात्मक साहित्य’ साहित्य एकडेमी से प्रकाशित है। उस किताब को उसी शीर्षक तथा अपने नाम से छपवा लिया। इस तरह से देखें कि साहित्यिक दुनिया में किस तरह से एक साहित्यकार और उसकी साहित्यिक कृति की चोरी या मर्डर होता है। सूरीनाम देश पर मेरी एक किताब, नेशनल बुक ट्रस्ट से छपी। उसे भी भारत में एक महिला अधिकारी ने अपने नाम से छपवा लिया और जब मैंने शिक्षा मंत्रालय में उनकी शिकायत की, तो जब मेरा नाम विश्व हिंदी सम्मेलन में सम्मान के लिए यहां के दूतावास से गया, तो बदले की भावना से मेरा नाम हटवा दिया गया। भारत सरकार के अधिकारियों का दुर्व्यवहार और नीयत ऐसी है कि हम विदेश में रहकर हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति हेतु ईमानदारी से जो काम करते हैं, उसके लिए सम्मान और सहयोग का भाव तो छोड़ दीजिए, जो अवसर मिलते हैं उसे भी नहीं लेने देते हैं। ये काम छोटे मोटे लोगों ने नहीं किया। ये दिल्ली विश्वविद्यालय के अस्सी बयासी साल के रिटायर्ड प्रोफेसर ने किया है और दूसरा उन्हीं की शिष्या ने किया है, जिसको उन्होंने गोल्ड मेडल दिलाया था। इसके अलावा मेरी लिखी कहानियों का हिंदी से अंग्रेज़ी में लोगों ने अनुवाद किया और उसे वूमेन इरा में अपने नाम से छपवा लिया। वो कहानी हिंदी की साक्षात्कार पत्रिका में छपी थी। कहानी का नाम था ‘इट्स प्लेज़र’। राजस्थान की एक महिला ने यह काम किया है। इसके बाद जनसत्ता में ओम थानवी ने इस पर लिखा। बहुत से अखबारों में यह छपा। उसके बाद उस महिला ने मुझसे कहा मैडम मेरा तो पूरा कैरियर खत्म हो गया। सारे पत्रकार मेरे विरूद्ध हैं। आप हमें बचाइए। ईमानदार साहित्यकार और पत्रकार अभी भी मेरे किए के महत्व को समझते हैं और अपने सहयोग से मुझे जिलाए हुए हैं।


सवाल: भारत,  सूरीनाम और नीदरलैंड के कई संस्थानों में अत्यंत महत्वपूर्ण पदों पर आपने कार्य किया है। भारत से नीदरलैंड तक की अपनी इस साहित्यिक जीवन यात्रा के बारे में बताइए। 

जवाब: बहुत ही असाधारण परिस्थितियां थी मेरी। सामान्य स्थितियों में पला व्यक्ति, इस तरह नहीं बन सकता जैसी मैं बन गई। आप सोचिए कि लोग विदेश क्या दूसरे शहर अकेले जाने में डरते हैं और मैं अकेले बनारस से सूरीनाम गई। उस समय सूरीनाम की अम्बेसडर कमला सिन्हा जी चाहती थी कि वहां विश्व हिन्दी सम्मेलन हो और चूंकि वहां उन्होंने यूपी और बिहार से गए हिंदुस्तानी किसान-मजदूरों को देखा तो कहा कि यहां हिंदी पढ़ाने के लिए और एम्बैसी में मदद के लिए, भारतीय संस्कृति से प्रेम एवं किसान-मजदूरों को समझने वाली शख्सियत को भेजिए। हमारे लेख वगैरह जगह-जगह छपते रहते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी तक मेरा नाम पहुंचा और उन्होंने मुझे भेजा। अटल बिहारी बाजपेयी जी ने जाने से तीन दिन पहले प्रधानमंत्री आवास पर मुझे बुलाया। तीन चार और महत्वपूर्ण लोग वहां थे। हमने वहां कविता पाठ किया। अटल जी ने भी किया और उसके बाद अटल जी ने कहा कि इस बार मैं सूरीनाम एक कवि एक विलक्षण स्त्री को भेज रहा हूं। ये जो उनकी भावमुद्रा थी, वो सूरीनाम में, मेरी शक्ति बनी रही। वहां जाकर मुझे लगा कि जब मैंने अपना देश, अपने लोग, घर छोड़ा तो मुझे लगकर ही काम करना होगा। 


सवाल: सूरीनाम, नीदरलैंड आदि देशों में बहुत महत्वपूर्ण पदों पर आप आसीन रही हैं। इस दौरान इन देशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार संबंधित अपने कार्यों तथा अनुभवों के बारे में बताइए। 

जवाब: आजकल दुनिया जिस तरह से पतन की ओर जा रही है तो कुछ लोगों के शब्द ही शायद वो ताकत बनें जो दुनिया को नीचता में या राक्षसी वृत्तियों  में गिरने से बचा सकें। हम लोगों को गिरने से बचाने के लिए सिर्फ पकड़ कर, बांहों में थामकर किनारे ला सकते हैं। करीब चार हजार कविताओं का तीन भागों में मेरा एक कविता संचयन है। इसके अतिरिक्त  प्रवास और निर्वासन पर लिखी हुई मेरी कविताओं का भी संग्रह आया है। स्त्री और बच्चों पर आधारित मेरी कविताएं हैं। मेरी रचनाओं का अनुवाद विदेश की कई भाषाओं मे जैसे रशियन, जैपनीज, स्पेनिश, अंग्रेज़ी आदि में हुआ है। मेरा एक कहानी संग्रह इंग्लैंड से प्रकाशित हुआ है। उसी तरह से नीदरलैंड में डच भाषा में मेरे तीन कविता संग्रह आए हैं। सरनामी के जो महत्वपूर्ण कवि हैं, श्रीनिवासी मार्तेंड्य जी और जीत नराइन जी आदि, कवियों का मैंने हिंदी में अनुवाद किया है। बेल्जियम के कवि की रचनाओं का मैंने हिंदी में अनुवाद किया। जिस दिन सूरीनाम में सातवां विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ तो सूरीनाम के सभी कवियों की कविताओं को हमने सेलेक्ट किया। उन्हें रोमन से देवनागरी लिपि में लिपिबद्ध किया। प्रकाशक को हमने अपना पैसा देकर के किताबें छपवाई और मंगवाई। सारे सूरीनामी साहित्यकारों की आंखों में आंसू थे, पहली बार वो अपनी आंखों से अपना नाम छपा और अपनी भावनाओं को शब्दों में देख रहे थे। नीदरलैंड में एक प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी के कैम्पस में, हमने रवींद्रनाथ टैगोर की मूर्ति लगवाई है। केरन इंस्टीट्यूट के एकेडमिक कौंसिल के हम मेंबर भी हैं ।


सवाल: प्रवासी भारतीय होने के साथ-साथ आप वर्तमान में नीदरलैंड की नागरिक हैं। विदेशी और भारतीय परिस्थितियां तथा विदेशी जीवन किन अर्थों में भारतीयों से भिन्न हैं। भविष्य में, इस विषय पर आपकी लेखन संबंधित क्या संभावनाएं हैं ?

जवाब: भारत के लोग विदेश को बहुत अच्छा समझते हैं लेकिन जितना भ्रष्टाचार और बेईमानी विदेश में है उतना भारत में नहीं। भारत में आप जिन दुकानों से चार पांच साल से सामान ले रहे हैं, वहां आपको कोई नहीं ठगेगा क्योंकि एक परिचय, एक प्रतिष्ठा है, मगर यहां कुछ है ही नहीं। अधिकांश दुकानों, होटलों में औरतें ही काम करती हैं। होटलों में रिसेप्शनिस्ट औरतें ही होती हैं। औरतें मैनुपलेशन बहुत अच्छे से करती हैं। उनसे लोग ज्यादा बहस नहीं करते हैं और सबसे ज्यादा बेईमानी वही करती हैं। हालांकि मैं डच भाषा इस हद तक जानती हूं कि मैं डच भाषा का हिंदी में और हिंदी से डच भाषा में अनुवाद कर सकती हूं लेकिन नीदरलैंड देश में जब मैं घर से बाहर जाती हूं तो विदेश के लोगों को पहचानने के लिए लोगो से मैं अंग्रेज्री में ही बोलती हूं। इसके कारण लोगों को लगता है कि मै इमिग्रेंट, बाहर से आई हूं और मैं डच नहीं समझती। तब हर दुकान की औरत ने मुझसे बेईमानी की, जो मेरी दोस्त बनती थी, उन्होंने भी मौका मिलते ही बेईमानी करने की कोशिश की। उनको फिर बाद में, हमने डच भाषा में बोलकर, बताया कि आप लोग यह सोचते हैं कि मुझे डच नहीं आती, मुझे अच्छी तरह से डच भाषा आती है लेकिन आप लोगों की नैतिकता की जानकारी के लिए और दूसरे देशों से आने वाले इमिग्रेंट्स लोग के साथ आपके सुलूक के बारे में जानने के लिए, मैं आप लोगों से अंग्रेजी में बात करती थी। इस तरह से मैंने पहचाना कि इस देश की औरतें कैसी हैं। अगर मॉल में ये जाएंगे, तब जहां बच्चों ने केला खाया, वहीं छिलका फेंक दिया। जहां औरेंज जूस मिलता है वहीं जूस पी कर डिब्बा वहीं फेंक दिया। भारत में लोगों को इस तरह से मॉल में करते हुए नहीं पाएंगे। यहां पर लोग दवाई के पैकेट में से दवा का पत्ता निकाल कर, डिब्बा वहीं रख देंगे जबकि कैमरे वहां लगे हुए हैं। मैं चकित होकर देखती रह जाती। पहले जब शुरू-शुरू में आई तो बड़ी खुश थी कि यहां रूपया दो तो इनकी मशीन तुरंत चेक करती है कि रूपया कहीं नकली तो नहीं है। गांव की ब्रेड की दुकान तक में कैमरा लगा हुआ है। बड़ी अच्छी व्यवस्था है। अब समझ में आया कि यहां चोर ज्यादा है, इस वजह से कैमरा लगा रखा है। यहां यूरोप में छायादार पुराने पेड़ नहीं हैं और ऐसी ही इन देशों की संस्कृति है। यहां छाया देने वाले व्यक्तित्व नहीं हैं। यहां की संस्कृति में छाया, शेल्टर, संरक्षण नहीं है। ये तो खुद कोलोनाइजिंग करके, एसियन देशों से कमाकर, बड़े हुए हैं। तकनीक वगैरह के साथ ये जो भी बने हैं ये गरीब देशों के नागरिकों को अपने देश में लाकर मजदूरी करवाकर उससे ये बने हैं। ये सब मैं लिखंगी जिनके दस्तावेजी प्रमाण हैं और जो बात दस्तावेज के माध्यम से लिखने से लगेगा कि वो लोगों के सम्मान के आड़े है, उसे उपन्यास के माध्यम से कहूंगी। नीदरलैंड के लोगों को लेकर, उस देश के महत्व के बारे में नीदरलैंड डायरी किताब मैंने लिखी थी। अब मैं विदेशों की सच्चाई पर एक महत्वपूर्ण किताब लिखने की तैयारी में हूं कि मैं लोगों को यह बता सकूं। जीवन एक बार मिलता है। हम बेईमान लोगों के गिरफ्त में फंसकर, कष्ट उठाते रहें और मृत्य को प्राप्त हो जांय, कितना दुखद है। ये बेईमानी करने वाले व्यक्ति दूसरों का शोषण करने वाले व्यक्ति नहीं सोचते हैं कि मुश्किल से मिले एक मनुष्य के  जीवन को शोषण करके वो उसको जीवनसुख से ही वंचित कर देते हैं। आखिर हमें कितना सुख चाहिए कि हम दूसरों का शोषण करें और क्यूं करें ? साहित्य तो लिखा ही इसलिए जाता है कि साहित्य को पढ़कर लोगों को जीवन दृष्टि मिल सके और वो मानसिक व्याधियों से मुक्त हो सकें। 

 

सवालः सूरीनाम में हिंदी की पुस्तकों-पत्रिकाओं के प्रकाशन संबंधित क्या कठिनाईयां हैं? और उनको दूर करने हेतु अपने किए गए योगदान पर प्रकाश डालिए।

जवाब: भारत से सूरीनाम चौदह हजार किलोमीटर दूर है और अगर कोई चीज़ भारत में छपती है तो उसके छपने के खर्च के साथ-साथ उसके आने का खर्चा भी सूरीनाम के लोगों को देना होगा। इतने अधिक खर्चे के कारण मुझसे पहले सूरीनाम के लोगों की रचनाएं किताबों में नहीं छपी थीं। मैं पहली व्यक्ति थी जिसने उनकी रचनाओं को खोज खोजकर, उनकी हस्तलिखित रचनाओं को टाईप राइटर में टाईप करवाया। वो लोग देवनागरी लिपि के बजाय रोमन में लिखते थे। देवनागरी में कोई प्रिंटिंग प्रेस नहीं था। अगर हिंदी भाषा का प्रचार करना है तो वहां पर देवनागरी लिपि भी स्थापित करनी थी और उसे आर्थिक रूप से भी सुगम बनाना था। इन सबको ध्यान में रखते हुए मैंने अपना प्रकाशन संस्थान खोलकर, हिंदीनामा पत्रिका निकाली। देवनागरी लिपि नहीं जानने की वजह से भारत में क्या लिखा जा रहा है या किसी भारतीय साहित्यकार को वो लोग जानते ही नहीं थे। इसीलिए मैंने विश्व हिंदी सम्मेलन वहां करवाया। दुनियाभर के साहित्यकारों को वहां बुलाया और हिंदी भाषा को वहां स्थापित किया। इंडियन एक्सप्रेस ने मेरे बारे में लिखा कि मैं हिंदी भाषा और लिपि की सूरीनाम में इंट्रोड्यूसर हूं। हिंदी भाषा को स्थापित करना, वहां की ज़रूरत थी ताकि वहां के लोग देवनागरी लिपि जान सकें, छप सकें, पढ़ सकें और जिससे भारत के साथ उनका रिश्ता फिर से बन सके तथा भारतीय लेखक सूरीनाम की पत्रिका में छप सकें। मैंने शब्दशक्ति पत्रिका भी वहां प्रकाशित किया और उसमें भी उन लोगों की रचनाएं छपीं।


(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2025 अंक में प्रकाशित )


मंगलवार, 18 नवंबर 2025

 गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2025 अंक में



3.संपादकीय- प्रो. पुष्पिता अवस्थी पर यह अंक

4-13. विश्व-चेतना की कवयित्री पुष्पिता अवस्थी - प्रो. अर्जुन चौहान

14-17. भोजपत्र: सगुण एवं निर्गुण का संधिपत्र- डॉ. विवेक मणि त्रिपाठी

18-20. पुष्पिता अवस्थी की कहानियों में सांस्कृतिक गरिमा - डॉ. सरोज सिंह

21.दृश्य रचती हैं पुष्पिता अवस्थी - यश मालवीय

22-23. पुष्पिता अवस्थी होना आसान नहीं- डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

24-29. मानवीय संवेनाओं की कहानियां - डॉ. विशाला शर्मा

30-31. हम तुम्हें ज़िन्दगी ज़िन्दाबाद करना सिखाएंगे- डॉ. धनंजय चोपड़ा

32-34. कविताओं की डोर से बंधा रहा हूं - अरुण अर्णव खरे

35-38. वैश्विक छवि की प्रतिमूर्ति प्रो. पुष्पिता अवस्थी - डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी

39-41. डॉ. पुष्पिता की कविताओं में पूरी ताज़गी- शिवा शंकर पांडेय

42-44. अंतस की टीस को शब्दों में गढ़ती पुष्पिता - डॉ. संतोष कुमार मिश्र

45-47. विवशता और स्वेच्छा का अंतर बताता ‘छिन्नमूल’- डॉ. रूबीना शमीम ख़ान

48-49. परिभाषाओं से परे एक व्यक्तित्व - निरुपमा खरे

50-53. सूरीनाम के लिए विकीपीडिया है ‘अनुभव और अनूभूतियां’- डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

54-55. हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा- डॉ. शहनाज़ जाफ़र बासमेह

56. अनंत आकाश की तरह वृहद रचना संसार- मनमोहन सिंह ‘तन्हा’

57-60. हिन्दुस्तानी प्रवासियों के संघर्ष की कहानी ‘छिन्नमूल’- रचना सक्सेना

61-62. उत्कृष्ठ प्रतिभाशाली कवयित्री पुष्पिता- शमा फ़िरोज़

63-65. देह है तो प्रेम है, परस्पर संवाद है- डॉ. प्रीता पंवार

66. चमत्कृत करती रचनाएं - मंजुला शरण

67-68. प्रेम और संवेदना की प्रतिमूर्ति पुष्पिता- प्रभाशंकर शर्मा

69-70. संवेदना और विचार की सशक्त अभिव्यक्ति- नरेश कुमार महरानी

71-77. इंटरव्यू: प्रो. पुष्पिता अवस्थी से अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ की बातचीत

78-133. पुष्पिता अवस्थी की कविताएं

134-137. मीडिया हाउस: 05 सितंबर 1920 से छप रहा ‘आज’-डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

138-139. 02 मई 1986 से छप रहा ‘आवाज़-ए-मुल्क’- डॉ.  इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

140-143. दास्तान-ए-अदीब: लक्ष्मीकांत वर्मा ने स्वतंत्रता सेनानी का पेंशन नहीं लिया - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

144-148. अदबी ख़बरें


गुरुवार, 13 नवंबर 2025

फ़ारसी में जन्मी ग़ज़ल का सफ़र सोशल मीडिया तक 

                                                                                        - आक़िब जावेद

     उर्दू ग़ज़ल की परंपरा विश्व साहित्य की सबसे समृद्ध और प्रभावशाली काव्य परंपराओं में से एक है। यह फारसी शायरी से उत्पन्न हुई और भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी अनूठी पहचान बनाई। उर्दू ग़ज़ल ने प्रेम, दर्शन, सामाजिक यथार्थ, और आध्यात्मिकता जैसे विविध विषयों को अपनी रचनाओं में समेटा है।

 फारसी में ग़ज़ल की शुरुआत 7वीं सदी में अरबी कविता से हुई, लेकिन इसे फारसी कवियों ने 10वीं सदी में परिष्कृत किया। फारसी शायरों जैसे रूदकी, हाफ़िज़, और सादी ने ग़ज़ल को प्रेम और रहस्यवाद का माध्यम बनाया। 12वीं-13वीं सदी में सूफी संतों और दिल्ली सल्तनत के कवियों के माध्यम से ग़ज़ल भारत पहुंची। अमीर खुसरो (1253-1325) को उर्दू-हिंदी ग़ज़ल का जनक माना जाता है, जिन्होंने फारसी और स्थानीय भाषाओं का मिश्रण कर इसे लोकप्रिय बनाया। 16वीं से 18वीं सदी में मुगल दरबारों में ग़ज़ल को संरक्षण मिला। इस दौर में वली दकनी (1667-1707) ने दकनी उर्दू में ग़ज़ल को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया, जिसे उर्दू ग़ज़ल की नींव माना जाता है। मीर तकी मीर, मिर्ज़ा ग़ालिब, और दाग़ देहलवी जैसे शायरों ने उर्दू ग़ज़ल को वैश्विक पहचान दी। ग़ालिब (1797-1869) ने ग़ज़ल में दर्शन, मानवीय भावनाओं, और जटिल विचारों को समेटकर इसे कालजयी बनाया।

अमीर खुसरो

 उर्दू ग़ज़ल एक निश्चित छंद (बह्र), रदीफ़, और क़़ाफिया पर आधारित काव्य रूप है। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं। ग़ज़ल दो पंक्तियों (मिस्रा) के स्वतंत्र काव्य खंडों (शेर) से बनी होती है। प्रत्येक शेर अपने आप में पूर्ण विचार व्यक्त करता है, लेकिन सभी शेर एक थीम या भाव से जुड़े हो सकते हैं। प्रत्येक शेर की दूसरी पंक्ति के अंत में दोहराया जाने वाला शब्द या वाक्यांश को रदीफ़ कहा जाता है। रदीफ से ठीक पहले की ध्वनि, जो हर शेर में समान रहती है। उसे रदीफ़ कहा जाता है। ग़ज़ल का छंद, जो शब्दों की मात्रा और लय पर आधारित होता है। यह ग़ज़ल को संगीतमय बनाता है। सामान्य बहरों में बहर-ए-मुजारे, बहर-ए-मुतक़ारिब आदि शामिल हैं। इसे बह्र कहा जाता है। ग़ज़ल का अंतिम शेर, जिसमें शायर अपना तख़ल्लुस (काव्य नाम) शामिल करता है, उस शेर को मक़्ता कहा जाता है। मक़््ता से पहले का शेर को कभी-कभी इसे ‘हुस्न-ए-मक़्ता’ कहा जाता है, जो ग़ज़ल को नाटकीय या भावनात्मक चरम पर ले जाता है। उर्दू ग़ज़ल में फारसी, अरबी, और हिंदी-संस्कृत के शब्दों का मिश्रण होता है, जो इसे समृद्ध और लालित्यपूर्ण बनाता है।

वली दकनी

 उर्दू ग़ज़ल की परंपरा में विषयों की विविधता इसकी सबसे बड़ी ताकत है। ग़ज़ल का केंद्रीय विषय प्रेम है, जो दैहिक और आध्यात्मिक दोनों रूपों में व्यक्त होता है। प्रेमी-प्रेमिका का दुख, वियोग, और मिलन ग़ज़ल के प्रमुख भाव हैं। मीर की पंक्ति ‘दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है’ इसका उदाहरण है। सूफी परंपरा से प्रभावित ग़ज़लें ईश्वर, आत्मा, और विश्व के साथ एकता की बात करती हैं। ग़ालिब की ग़ज़लें अक्सर दार्शनिक और रहस्यवादी प्रश्न उठाती हैं। 19वीं सदी से ग़ज़ल में सामाजिक मुद्दे जैसे गरीबी, अन्याय, और बेरोजगारी भी शामिल होने लगे हैं। ग़ज़ल में प्रकृति के चित्रण का उपयोग प्रेम और दर्शन को व्यक्त करने के लिए होता है, जैसे चाँद, तारे, और फूल। विरह और दुखरू ग़ज़ल में व्यक्तिगत और सामूहिक दुख को गहराई से व्यक्त किया जाता है, जो इसे भावनात्मक बनाता है।

शेख़ सादी

  उर्दू ग़ज़ल भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा है। इसने न केवल साहित्य बल्कि संगीत, सिनेमा, और सामाजिक चेतना को भी प्रभावित किया है। ग़ज़ल को मुशायरों (काव्य सभाओं) में प्रस्तुत करने की परंपरा ने इसे जन-जन तक पहुंचाया। मुशायरों में शायरों की तालियाँ और ‘वाह-वाह’ की गूंज ग़ज़ल की लोकप्रियता का प्रतीक है। उर्दू ग़ज़ल ने बॉलीवुड और ग़ज़ल गायकी को समृद्ध किया। जगजीत सिंह, गुलाम अली, और मेहदी हसन जैसे गायकों ने ग़ज़ल को वैश्विक मंच पर पहुँचाया। उर्दू ग़ज़ल ने हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा दिया। इसमें हिंदी, संस्कृत, और स्थानीय बोलियों के शब्दों का समावेश इसे समावेशी बनाता है। समकालीन ग़ज़लें नारीवाद, पर्यावरण, और वैश्वीकरण जैसे नए विषयों को भी छू रही हैं, जिससे यह परंपरा जीवंत बनी हुई है।

हाफ़िज शिराजी

 उर्दू ग़ज़ल में अपना विशेष योगदान देने वालों में अमीर खुसरो ने ग़ज़ल को स्थानीय भाषा और सूफी विचारों के साथ जोड़ा। वली दकनी ने उर्दू में ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाया, जिसे उर्दू का पहला शायर माना जाता है। मीर तक़ी मीर ने ग़ज़ल में व्यक्तिगत दुख और प्रेम को गहराई दी। उनकी पंक्तियाँ सादगी और भावुकता का प्रतीक हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब ने ग़ज़ल को दार्शनिक और बौद्धिक स्तर पर ले गए। उनकी रचनाएं जटिल विचारों को सरल शब्दों में व्यक्त करती हैं। दाग़ देहलवी ने ग़ज़ल को सहज और संगीतमय बनाया, जो मुशायरों में लोकप्रिय हुआ। इक़बाल ने ग़ज़ल में राष्ट्रीयता और आध्यात्मिक जागृति के स्वर जोड़े। फै़ज़़ अहमद फै़ज़़ ने प्रगतिशील विचारों और सामाजिक क्रांति को ग़ज़ल में शामिल किया। अहमद फ़राज़ और गुलज़ार ने आधुनिक ग़ज़ल को प्रेम, सामाजिक मुद्दों, और सिनेमाई शैली से जोड़ा।

मीर तक़ी मीर

 सोशल मीडिया (जैसे ग्), यूट्यूब, और ऑनलाइन मुशायरों ने ग़ज़ल को युवाओं तक पहुँचाया। महिला शायर परवीन शाकिर, किश्वर नाहिद जैसी शायराओं ने नारीवादी दृष्टिकोण को ग़ज़ल में शामिल किया। भारत में ग़ज़लें हिंदी और उर्दू के मिश्रण में लिखी जा रही हैं। उर्दू लिपि और भाषा का घटता प्रचलन, खासकर युवा पीढ़ी में, ग़ज़ल की पहुँच को सीमित कर रहा है। साथ ही, व्यावसायिक साहित्य और मनोरंजन के दबाव में ग़ज़ल की गहराई कम हो सकती है। डिजिटल प्लेटफॉर्म, अनुवाद, और मिश्रित भाषा के प्रयोग से ग़ज़ल नई पीढ़ी तक पहुंच रही है। गुलज़ार और जावेद अख़्तर जैसे शायरों ने इसे सिनेमा और साहित्य में जीवित रखा है। 

मिर्ज़ा ग़ालिब

उर्दू ग़ज़ल की परंपरा एक जीवंत और बहुआयामी साहित्यिक धारा है, जो प्रेम, दुख, और आशा को कालजयी रूप में व्यक्त करती है। इसकी संरचनात्मक सुंदरता, भावनात्मक गहराई, और सांस्कृतिक समृद्धि इसे विश्व साहित्य में अनूठा बनाती है। समकालीन शायर इस परंपरा को न केवल जीवित रख रहे हैं, बल्कि इसे नए संदर्भों और पीढ़ियों तक ले जा रहे हैं। यह परंपरा अपनी लचीलापन और समावेशिता के कारण भविष्य में भी प्रासंगिक बनी रहेगी।


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित)


गुरुवार, 6 नवंबर 2025

जिंदगी से आशना कराती शबनम नक़वी की ग़ज़लें

                                                      - डॉ. वारिस अंसारी 

                                  


‘इंसानियत को दर्द का दरमां कहेगा कौन/अब आदमी को हज़रते इंसां कहेगा कौन।’ शबनम नकवी अदबी दुनिया का वह अजीम नाम है जिससे लगभग पूरी अदबी दुनिया आशना है। ‘कुछ गम-ए-जानां कुछ गम-ए-दौरां’ उनकी ग़ज़लों का मजमुआ (संग्रह) है । उपरोक्त शेर उनके संग्रह के पहली ग़ज़ल का मतला है जो कि इतना मुसब्बत और मुरस्सा (मज़बूत और मुकम्मल) है कि इसी मतला पर एक किताब लिखी जा सकती है। उन्होंने इस पूरी किताब में इंसानियत के दर्द को जबरदस्त तरीके से पेश किया है। उनकी गजलों में समाज की रंगीनियां और उतार चढ़ाओ को बड़े सलीके से ढाला है जो कि उनकी शख़्सियत (व्यक्तित्व) को दर्शाती हैं। उन्होंने कहीं भी ग़ज़ल की आबरू को मजरूह नहीं होने दिया। शबनम नक़वी ने समाज के साथ एक उम्र गुजारी है। उन्होंने एक ज़माना देखा था। जिंदगी के उतार चढ़ाओ से वह पूरी तरह वाकिफ थे। अपने आप को खूब बिखेरा भी है और समेटा भी है, रातों की नींदों को कुर्बान किया है । जिं़दगी को बहुत करीब से समझा और परखा है तब कहीं जा कर वह तमाम पहलुओं से वाकिफ हुए और इन्हीं तजर्बात को शेर की शक्ल में ढाला। शबनम नक़वी की शायरी रवायत के साथ साथ संजीदा असर भी रखती है यही वजह है कि उर्दू अदब में उनकी एक अलग पहचान है। आइए उनके चंद अशआर पढ़ते चलें-‘पी रहे हैं जिंदगी की धूप कितने प्यार से/दर्द जो बैठा हुआ है साया-ए-दीवार से।’, ‘हर कदम इम्तिहान है भाई/ हर जगह आसमान है भाई/ सब अदब को सजाए बैठे हैं/ सबकी अपनी दुकान है भाई।’, ‘उस एक शख्स को चाहा था टूट कर मैंने/ जो मेरे पास से गुज़रा है अजनबी बन कर।’ 

   पूरा संग्रह इस तरह के खूबसूरत अशआर से भरा पड़ा है । उनके अशआर में एक अलग तरह का एहसास है जो इंसान को सोचने पर मजबूर करता है । किताब ‘कुछ गम-ए-जानां कुछ गम-ए-दौरां को सैयद हामिद रिजवी ने तरतीब दिया है और कवर पेज को मजहर रायबरेलवी ने सजाया है। सन 2004 में प्रकाशित इस किताब में 144 पेज हैं। किताबत (कंपोजिंग)का काम कुर्बान अली ने अंजाम दिया है जिसको इदारा-ए-नया सफर इलाहाबाद (प्रयागराज) से प्रकाशित किया गया । हार्ड जिल्द के साथ किताब की कीमत 150 रुपए है ।

 ज़िंदगी से रुशनास कराती ‘नक़्श-ए-हाय ज़िंदगी’


   अदब के तमाम सिंफ हैं, जिसमें एक सिंफ है अफसाना निगारी। हक़ीक़त ये है कि अफसाना निगारी देखने पढ़ने में तो बहुत आसान महसूस होती है, लेकिन अफसाना का हक़ अदा करना उतना ही मुश्किल काम है। बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जिनके अफसानों पर अदबी दुनिया को नाज़ होता है। अगर इन कम लोगों में रज़िया काज़मी का नाम लिया जाए तो ग़लत न होगा  रज़िया काज़मी का तअल्लुक़ इलाहाबाद से है, लेकिन वह अमेरिका में क़ायम पज़ीर हैं। वतन से दूर रह कर और अपनी मसरूफियात के बावजूद भी उन्होंने उर्दू अदब के लिए बड़ी कुर्बानियां दे रही हैं। उन्होंने कई शेरी और नसरी किताबें उर्दू दुनिया की दिया है। इस वक़्त मैं उनके अफसानों का मजमूआ (संग्रह) नक्श ए हाय जिंदगी के बारे में बात करूंगा। किताब के नाम से ही ज़ाहिर हो रहा है कि उन्होंने अदब में ज़िंदगी के लिए काम किया है। उनके अफसानों में रोज़ मर्रा के हालात, ज़िंदगी के उतार चढ़ाव और जद्दोजहद की खूबसूरत तस्वीरें नज़र आती हैं। उनके अफसानों में इंसानी जज़्बात और एहसासात को बड़े सलीके से पेश किया गया है। उनके अफसानों को पढ़ कर महसूस हुआ कि वह भेजा शब्दों के इस्तेमाल से गुरेज़ करती हैं। रज़िया के यहां शब्दों का चयन इस तरह किया गया है कि पाठक आसानी से पढ़ता चला जाये और उनके उस खयाल तक पहुंच जाए जो वह महसूस करती हैं। वह इंसानी दर्द को इस तरह कागज़ पर उकेरती हैं कि लोग सोचते भी हैं और उस दर्द की हक़ीक़त को महसूस भी करते हैं। उनके अफसानों में उनका लहजा , ज़बान (भाषा) और किरदार सब कुछ बिल्कुल अलग अंदाज़ में है। वह समाजी मसाइल, ऊंच नीच, लोगों का दुःख दर्द , खुशी सब कुछ बड़े ही दिलचस्प अंदाज़ में बयान करती हैं। आइए उनके एक अफसाना से चंद लाइने देखते चलें-‘ये वाकई एक ख़ास लड़की के ज़िंदगी की कहानी है लेकिन नाम से क्या होता है। आज हमारे समाज की हर लड़की शमीमा है। निचला तब्क़ा जिसे ऊंचे लोग छूने से भी कतराते हैं उनके दिन फिर गए लेकिन हमारे समाज में औरत की तक़दीर ज्यों की त्यों वही पहले जैसी रह गई।’

   उनकी किताब नक्श-ए-हाय ज़िंदगी दो हिस्सों में है। पहले हिस्से के अफसाने रज़िया के स्कूली ज़िंदगी के दिनों से वाबस्ता हैं जबकि दूसरे हिस्से में आम समाजी हालात पर मुश्तमिल अफसाने हैं। खूबसूरत हार्ड जिल्द के साथ 192 पेज की किताब को फरीद कंप्यूटर ग्राफिक्स करेली, इलाहाबाद से कंपोज़ कराया गया जिसे स्कॉट लाइन प्रिंटर्स प्रयागराज से छपा कर गुफ्तगू पब्लिकेशन से प्रकाशित किया गया है । किताब की क़ीमत मात्र तीन सौ रुपए है।


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित)


रविवार, 2 नवंबर 2025

पाकिस्तान न जाओ...

                                                                    - असग़र वजाहत

                                    



मैं लघु उपन्यास ‘चहारदर’ को लिखने के सिलसिले में अमृतसर की अजनाला तहसील में घूम रहा था.। रावी के इधर भारत था और उधर पाकिस्तान। एक गांव से गुजरते हुए कुछ दूरी पर पेड़ों के पीछे मस्जिद की मीनार दिखाई  देने लगी. मुझे बड़ी हैरानी हुई क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार इस इलाके में अब कोई मुसलमान नहीं बचा था सब पाकिस्तान चले गए थे।

 गाड़ी मोड़ कर हम लोग मस्जिद तक पहुंचे। मस्जिद बहुत साफ सुथरी और रंगी पुती थी। मस्जिद के बराबर खेत में एक किसान काम कर रहा था। उससे पता चला कि अब उस गांव में कोई मुसलमान नहीं है, लेकिन मस्जिद है और गांव वाले उसे अपने गांव की मस्जिद मानते हैं इसलिए उसकी पूरी देखभाल और सफाई होती रहती है। मैंने उससे पूछा, क्या इस इलाके में अब कोई मुसलमान नहीं रहता? उसने जवाब दिया की एक मुस्लिम परिवार है जो पाकिस्तान नहीं गया और पास के ही गांव में रहता है।

हम लोग उस गांव पहुंच गए. पूछने पर पता चला कि उस आदमी का नाम युसूफ है। गांव की बाजार में एक सरदार जी ने कहा यूसुफ उनका दोस्त है। वे हमें यूसुफ के घर तक ले जा सकते हैं। युसूफ से बातचीत होने लगी. मैंने दीगर सवालों के बाद पूछा, जब पूरे इलाके के सभी मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे तो तुम्हारा परिवार क्यों नहीं गया ?. 

 यूसुफ ने जवाब दिया कि उसके अब्बा जी सांप काटने का मंत्र जानते थे। गांव में अगर किसी को सांप काटता था तो वही मंत्र पढ़ कर ज़हर उतारते थे। इसलिए विभाजन के  समय गांव वालों ने बहुत विनती  करके और सुरक्षा का पूरा भरोसा दिला कर उन्हें पाकिस्तान जाने से रोक लिया था।


( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित )


शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

सावन के महीने में निराला ने की बेटी की शादी

महामारी की वजह से पिता चले गए थे बंगाल, वहीं जन्मे थे निराला

परिवार उन्नाव का रहने वाला था, 1942 में इलाहाबाद आ गए

                                                                              - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

  सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की गिनती ऐसे साहित्यकारों में होती है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन साहित्य को समर्पित कर दिया। वे सिर्फ़ लेखनी से ही कवि नहीं थे, बल्कि अपनी दिनचर्या और जीवन जीने के तरीके से भी कवि थे। उन्होंने जिस प्रकार का जीवन जिया है, वह आज के कवियों के लिए बेहरतरीन उदाहरण है। वैसे तो उनके बारे में बहुत सारी बातें प्रचलित हैं, तमाम लोगों ने बहुत लिखा-पढ़ा है। कई अन्य लोगों के अलावा डॉ. राम विलास शर्मा ने उन पर बहुत ही शोधात्मक कार्य भी किया है। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भी निराला जी के बारे में बहुत कुछ लिखा है। लेकिन उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर बहुत सारी बातें प्रचलित हैं, जिनमें बहुत सी बातें सच हैं तो कुछ चीज़ें जोड़ दी गई हैं।

काव्यपाठ करते सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

 प्रपौत्र विवेक निराला ने खुद अपनी आखों से सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को नहीं देखा, लेकिन परिवार और समाज में उनको लेकर हो रही बहुत सारी घटनाओं और बातचीत को सुनते रहे हैं। इन्होंने हमसे बहुत सारी बातें शेयर की हैं। एक घटना के बारे में विवेक निराला बताते हैं- एक बार राममनोहर लोहिया इलाहाबाद आए हुए थे। कॉफी हाउस में बैठकी के दौरान किसी ने उनसे निराला जी से मिलने को कहा। लोहिया जी ने उनसे मिलने से पहले पूरी रात निराला की कविताएं पढीं। फिर सुबह दारागंज स्थित उनके निवास पर मिलने पहुंचे। दरवाजे पर लोहिया जी पहुंचे तो निराला जी के पास बैठे लोगों ने उनको बताया कि लोहिया जी आए हैं। इस पर निराला जी ने पूछा- क्यों आए हैं? नेहरु जी तो नहीं आते हैं। इस पर लोहिया जी ने कहा- नेहरु जी नहीं आते हैं, इसीलिए मैं आपसे मिलने आया हूं। फिर बहुत देर तक दोंनों लोगों ने बात की।

मुंबई के फिल्मी कलाकारों के बीच सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और पृथ्वीराज कपूर।

वर्ष 1953-54 के कुंभ मेले में भगदड़ के दौरान काफी लोगों की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद इलाहाबाद आए थे। तब उनका निराला जी से मिलने का कोई प्रोटोकाल पहले से नहीं था। लेकिन राजेंद्र प्रसाद जी उनसे मिलने पहुंच गए। दारागंज की पतली गलियों से होते हुए एक दारोगा पहुंचा और उनसे बताया कि राष्ट्रपति जी आ रहे हैं। थोड़ी ही देर में राजेंद्र प्रसाद जी पहुंच गए। पहले से ही निराला जी के पास बहुत से लोग बैठे हुए थे। राष्ट्रपति को देखते ही लोग जाने लगे। इस पर निराला जी ने सबको रोका। पैदल ही संकरी गली से होते हुए राष्ट्रपति जी पहुंच गए। एक अधिकारी ने राष्ट्रपति की ओर इशारा करते हुए कहा कि-पहचाना इनको आपने ? निराला जी ने कहा-‘ये हमारे प्रसिडेंसी कॉलेज के मित्र हैं, इनको क्यों नहीं पहचानूंगा। लेकिन इन्हीं के नाम के एक राष्ट्रपति हैं, उनको मैं नहीं जानता।’

 निराला अपने परिवार के साथ बहुत कम रहे। उनकी पुत्री सरोज अपने ननिहाल में पली थीं। जब सरोज बड़ी हो गईं तो निराला जी की सास ने उनसे कहा कि बेटी की परवरिश तो मैंने कर दी है। अब शादी तुमको ही करनी है। निराला जी ने अपने कोलकाता के एक शिष्य के साथ बेटी सरोज की शादी तय कर दी। उन्होंने कोई कुंडली नहीं मिलाया, ‘सावन’ के महीने में उन्होंने शादी करने का फैसला किया। लड़की और लड़के के लिए निराला ने कपड़ा खरीद लिया, और फिर घर में ही शादी करने का निर्णय लिया। बिना कुंडली मिलाए सावन के महीने में शादी करने के फैसले पर पंडितों ने शादी कराने से मना कर दिया। इस पर निराला जी ने कहा-कोई बात नहीं मैं खुद शादी करा दूंगा। निराला जी ने शादी करा भी दिया।

एक कार्यक्रम में महादेवी वर्मा समेत अन्य साहित्यकारों के साथ निराला जी।

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के पिता उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला नामक गांव के निवासी थे। लेकिन महामारी से परेशान होकर जीविकोपार्जन के लिए मेदनीपुर, पश्चिम बंगाल चले गए। वहीं 1896 में निराला जी का जन्म हुआ। डॉ.रामविलास शर्मा के अनुसार निराला जी का जन्म 1899 में हुआ। निराला जी की शिक्षा हाईस्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी, संस्कृत और बांग्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का सामना करना पड़ा था। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया था। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। 1918 में स्पेनिश फ्लू इन्फ्लूएंजा के प्रकोप में निराला ने अपनी पत्नी सहित अपने परिवार के आधे लोगों को खो दिया।

निराला जी पर जारी किया गया डाक टिकट।

 सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने सबसे पहले महिषादल राज्य में 1918 से 1922 तक नौकरी की। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत्त हुए। 1922-23 में ‘समन्वय’ का संपादन किए। अगस्त 1923 में मतवाला के संपादक-मंडल में कार्य किए। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका ‘सुधा’ से 1935 तक जुड़े रहे। वर्ष 1942 में वे इलाहाबाद आ गए, यहीं दारागंज मे ंएक कमरे में जीवन के अंतिम समय तक रहे।

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के प्रपौत्र विवेक निराला, अशोक श्रीवास्तक ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।

उनकी पहली कविता ‘जन्मभूमि’ प्रभा नामक मासिक पत्र में जून 1920 में, पहला कविता संग्रह 1923 में ‘अनामिका’ नाम से छपा। पहला निबंध ‘बंग भाषा का उच्चारण’ अक्टूबर 1920 में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ। उनकी पहली रचना ‘जन्मभूमि’ पर लिखा गया एक गीत था। लंबे समय तक निराला की प्रथम रचना के रूप में प्रसिद्ध ‘जूही की कली’ शीर्षक कविता, जिसका रचनाकाल निराला जी ने खुदं 1916 बतलाया था, वस्तुतः 1921 के आसपास लिखी गयी थी और 1922 में पहली बार प्रकाशित हुई थी। कविता के अलावा कथा साहित्य और गद्य की अन्य विधाओं में भी निराला ने खूब लेखन किया है। उनकी प्रकाशित प्रमुख कृतियों में अनामिका (1923), परिमल (1930), अप्सरा (1931), अलका (1933), लिली (1934), सखी (1935), गीतिका (1936), प्रभावती (1936), निरुपमा (1936), कुल्ली भाट (1938), तुलसीदास (1939), सुकुल की बीवी (1941), कुकुरमुत्ता (1942), बिल्लेसुर बकरिहा (1942), अणिमा (1943), चतुरी चमार (1945), बेला (1946), नये पत्ते (1946), चोटी की पकड़ (1946), अर्चना (1950), आराधना (1953) और गीत कुंज (1954) आदि हैं। 15 अक्तूबर 1961 को उनका निधन हो गया।

(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित )   


सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

 ‘छछंद के समय में छंदयुक्त शायरी करते हैं सोमनाथ’

डॉ. सोमनाथ शुक्ल की पुस्तक विमोचन के अवसर पर बोले यश मालवीय

‘शाम तक लौटा नहीं’ का विमोचन करते अतिथि।

प्रयागराज। आज ग़ज़ल विधा को लेकर एक तरह से अराजकता फैली हुई है। जिसे ग़ज़ल का क, ख, ग तक नहीं आता वह भी अपने को ग़ज़ल का बड़ा शायर कहने लगा है। ऐसे में डॉ. सोमनाथ शुक्ल का ग़ज़ल संग्रह ‘शाम तक लौटा नहीं’ बहुत सुखद अनुभव देता है। छछंद के माहौल में छंदयुक्त ग़ज़लों का सामने आना हमारे पूरे साहित्यिक समाज के लिए बहुत उल्लेखनीय और ख़ास है। डॉ. शुक्ल ने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से बेहद शानदार नज़ीर पेश किया है। यह बात गुफ़्तगू की ओर से 05 अक्तूबर 2025 को सिविल लाइंस स्थित प्रधान डाक में डॉ. सोमनाथ शुक्ल की पुस्तक ‘शाम तक लौटा नहीं’ के विमोचन अवसर वरिष्ठ साहित्यकार यश मालवीय ने कही। उन्होंने कहा कि डॉ. सोमनाथ शुक्ल की ग़ज़लों को देखकर जहां खुशी का अनुभव होता है, वहीं यह भी कहना पड़ेगा कि हिन्दी ग़ज़ल अभी दुष्यंत कुमार तक ही पहुंची है, इसे अपने मीर, ग़ालिब अभी पैदा करना है।

 कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि आज के भारतीय माहौल में डॉ. सोमनाथ शुक्ल ने शानदार ग़ज़लें कही हैं। इनकी ग़ज़लें आज के समाज को रेखांकित करने साथ ही सचेत भी करती हैं।

मंचासीन - डॉ. सोमनाथ शुक्ल, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, मुनेश्वर मिश्र, यश मालवीय और नरेश कुमार महरानी

गुफ़्तगू के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि डॉ. सोमनाथ शुक्ल ने ग़ज़ल की बारीकियों और छंद को सीखने के बाद ही ग़ज़लें लिखी हैं। जिसकी वजह से इनकी ग़ज़लों में व्याकरण संबंधी त्रुटियां नहीं हैं। अजीत शर्मा ‘आकाश’ ने कहा कि डॉ. सोमनाथ एक परिपक्व ग़ज़लकार हैं। आज ऐसी ही ग़ज़लें लिखे जाने की आवश्यकता है। डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी ने कहा कि डॉ. सोमनाथ शुक्ल ने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से मानवता से प्रेम करने को उल्लेखित किया है। गुफ़्तगू के सचिव नरेश कुमार महरानी ने कहा कि डॉ. सोमनाथ शुक्ल ने बहुत अच्छी ग़ज़लें कही हैं, इनकी प्रशंसा की जानी चाहिए।

डॉ. सोमनाथ शुक्ल ने कहा कि यह पुस्तक मेरी पहला प्रयास है। मैंने अपने तौर पर पूरी कोशिश की है कि समाज को सामने अच्छी ग़ज़लें पेश कर सकूं। किताब कैसी है यह आप लोगों को ही बताना है। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।

दूसरे दौर में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। अरविन्द कुमार ंिसंह, विजय लक्ष्मी विभा, अनिल मानव, धीरेंद्र सिंह नागा, हकीम रेशादुल इस्लाम, संजय सक्सेना, शिबली सना, अफ़सर जमाल, शैलेंद्र जय, मंजूलता नागेश, मोहम्मद शाहिद सफ़र, हरीश वर्मा ‘हरि’, तहज़ीब लियाक़त, रचना सक्सेना, कविता श्रीवास्तव, एमपी श्रीवास्तव और शाहिद इलाहाबादी आदि ने कविताएं प्रस्तुत कीं। राजेश कुमार वर्मा ने सबके प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।

कार्यक्रम के दौरान सभागार में मौजूद लोग।





सोमवार, 29 सितंबर 2025

 ग़ज़ल लेखन की दिशा में सार्थक प्रयास

                                                                   -अजीत शर्मा ‘आकाश’       

  


रचनाकार ‘ख़ुरशीद खैराड़ी के ग़ज़ल संग्रह ‘दुआएं बेअसर हैं’ में उनकी 90 ग़ज़लें संग्रहीत हैं, शिल्प की दृष्टि से गज़लकार ने इस विधा के मानदण्डों को पूरा करने का प्रयास किया है। क़ाफ़िया, रदीफ़ एवं बह्रों को लेकर सतर्कता एवं सावधानी का परिचय प्रदान किया गया है। उर्दू के कुछ कठिन शब्दों का भी प्रयोग किया गया है, पाठकों की सुविधा के लिए जिनका अर्थ ग़ज़ल के नीचे फ़ुटनोट में दिया गया है। कथ्य की दृष्टि से पुस्तक के वर्ण्य-विषय प्रेम-श्रृंगार, आज के युग की विडम्बना, सामयिक समस्याएं-भूख, ग़रीबी, भ्रष्टाचार, सियासत, अन्याय, उत्पीड़न, शोषण एवं अत्याचार का विरोध, जीवन की विसंगतियाँ, पीड़ाएं, चिन्ताएं और उनका समाधान इत्यादि हैं। पुस्तक का कथ्य हमारे समय के समाज के अनेक पहलुओं को स्पर्श करते हुए जीवन के प्रति आशावाद के दृष्टिकोण को भी प्रकट करता है। कुछ ग़ज़लों के कथ्य में आधुनिक बोलचाल एवं व्यवहार की झलक भी प्रतिबिम्बित होती है।

 पुस्तक में संग्रहीत कुछ ग़ज़लों के अंश इस प्रकार से हैंः-गुदगुदाती है हवा फागुन की/तेरा एहसास लिये बैठे हैं।......हिज्र की रात गुज़रती ही नहीं/एक लम्बी सी टनल लगती है।...... लियाक़त मेरी जानता है वो कामिल/मेरे ही मुताबिक़ मुझ रोल देगा।...... हाँ कठिन था मगर कट गया/ चलते-चलते सफ़र कट गया। सवाल पत्थर, जवाब पत्थर, चुका रहा है हिसाब पत्थर। ...... जाल गर्मी का बिछाया धूप ने/ जानलेवा ज़ुल्म ढाया धूप ने।...... हर इक बशर है परेशाँ हर इक जिगर बेकल/न शाम है न सवेरा निज़ाम काला है।’ ग़ज़ल-संग्रह में कर रहा, फ़क़त तू, वीर रानी, ढाल लिया, जैसे प्रयोगों के कारण ग़ज़लों में ऐबे तनाफ़ुंर एवं कहीं-कहीं तक़ाबुले रदीफ़ के दोष भी परिलक्षित होते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थानों पर वर्तनीगत विशेषकर अनुस्वार सम्बन्धी अशुद्धियाँ भी हैं, जिन्हें प्रूफ़ रीडिंग के माध्यम से दूर किया जा सकता था। कुल मिलाकर ग़ज़ल विधा के विकास एवं उन्नयन की दिशा में रचनाकार द्वारा किया गया यह सृजन कार्य सराहनीय कहा जा सकता है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित 112 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 300 रूपये है।


‘पत्थर बोले देर तलक’ सराहनीय ग़ज़ल संग्रह


शायर अनुराग मिश्र ‘ग़ैर’ की पुस्तक ‘पत्थर बोले देर तलक' उनका दूसरा ग़ज़ल-संग्रह है, जिसमें उनकी 112 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। संग्रह की इन ग़ज़लों में अत्यन्त संजीदगी से उन्होंने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करने का प्रयास किया हैं। कथ्य की दृष्टि से पुस्तक में संग्रहीत ग़ज़लें आधुनिक युगबोध, समसामयिक विषयों, आम आदमी की पीड़ाएं, वर्तमान समय की विडम्बनाएं, बढ़ते हुए शहरीकरण तथा गाँवों की तस्वीर, प्रकृति और पर्यावरण की चिन्ता, राजनैतिक गिरावट जैसे आधुनिक और सामाजिक बिन्दुओं को चित्रित करने के साथ ही सामाजिक सरोकारों की पैरवी भी करती हैं। ग़ज़लों में भारतीय जीवन के रंग तथा परम्पराओं को दर्शाते हुए मिथकों का प्रयोग भी किया गया है। इसके साथ ही इनमें प्रेम, श्रृंगार, रूमानियत की बात भी कही गयी है। भाषाई स्तर पर इन ग़ज़ल रचनाओं की भाषा गंगा-जमुनी तहज़ीब की सरल, सहज एवं बोधगम्य है। सामान्य बोलचाल के शब्दों के साथ ही पदचाप, परिमाप, क्षरण, नक़दीकरण, मधुप जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग किया गया है, तो रेंट, किचन, गिटार, मैथ, टॉपिक जैसे प्रचलित अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग भी है। हिन्दी मुहावरों का प्रयोग भी कहीं-कहीं है। पुस्तक में संग्रहीत ग़ज़ल-रचनाओं के कुछ उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं-

बहुत ख़ामोश रहती हैं हवाएँ/कटा जब से यहाँ बरगद पुराना।...... इक बड़ा हाशिया रह गया/जाने क्या अनलिखा रह गया।...... आऊँगा मैं इक दिन वापस/घर-दीवार सजाये रखना।...... मोबाइल से ख़त की लुटिया डूब गई/क़ासिद का भी अब नज़राना बन्द हुआ।...... कहूँ कैसे गया वो दूर मुझसे/अभी मुझमें वो थोड़ा-सा बचा है।

    ग़ज़ल-व्याकरण की दृष्टि से देखा जाए तो रचनाकार ने ग़ज़ल-विधा की मूलभूत शर्तों का भली-भाँति पालन किया है, तथा इस ओर अपनी विशेष सजगता का परिचय प्रदान किया है, तथापि कुछ रचनाएँ दोषयुक्त भी परिलक्षित होती हैं। यथा- ऐबे-तनाफ़ुर- मिसरे में किसी शब्द के अंतिम अक्षर की उसके बाद वाले शब्द के पहले अक्षर से समानता, यथा- कर$रहा, खेत$तेरे, हार$रहे, लग$गया, किस$सितारे, सुगम$मेरा, मगर$रात आदि। तक़ाबुले रदीफ़- ग़ज़ल के मतले के अतिरिक्त किसी और अन्य शेर के पहले मिसरे में अन्त में यदि ऐसी मात्रा (ध्वनि) हो जो रदीफ़ की मात्रा (ध्वनि) से मेल खाए तो शेर में तकाबुल-ए-रदीफैन का दोष आ जाता है। संकलन की ग़ज़ल सं0 3, 4, 21, 39, 43, 44 आदि में यह दोष है। ऐबे-शुतुरगुरबा- एक ही शे’र में जब किसी को दो संबोधन जैसे- ’आप और ’तुम’या ‘तुम’ और ‘तू’ दिए जाएँ तो यह शुतुरगुरबा दोष कहलाता है। पुस्तक की ग़ज़ल सं0 10, 17, 35, 44, 50, 53, 84, 112 आदि में यह दोष है। किसी भी हालत में रचनाकार को इससे बचना चाहिए। इसके अतिरिक्त ‘कि’, ‘दोस्तो’ जैसे भरती के शब्दो से भी बचा जाना चाहिए। भाषा-व्याकरण के अनुसार कर$के का प्रयोग अशुद्ध माना गया है।

 कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अनुराग मिश्र ‘ग़ैर’ का यह ग़ज़ल संग्रह पठनीय एवं सराहनीय है। ग़ज़ल विधा को ऐसे संवेदनशील एवं सशक्त रचनाकारों से बहुत आशाएँ एवं अपेक्षाएँ रहती हैं। लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 130 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 360 रूपये है।


     दोहा सृजन का सार्थक प्रयास


 रीता सिवानी की पुस्तक ‘जीवन का उत्कर्ष’ उनके द्वारा लिखे गये दोहों का संग्रह है। संग्रहीत दोहे सामान्य कोटि के हैं, जिनका वर्ण्य विषय आध्यात्मिक, सामाजिक एवं समकालीन समयबोध है। आज के मानव में भौतिक सुख-समृद्धि की अत्यधिक चाहत, बढ़ता हुआ बाज़ारवाद, पर्यावरण और जीवन की चुनौतियों आदि को दोहों का वर्ण्य विषय बनाया गया है। साथ ही स्त्री-विमर्श के सामाजिक यथार्थ को भी दोहों में सम्मिलित किया गया है। पुस्तक में अधिकतर दोहे धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के लिखे गये प्रतीत होते हैं। देखने में दोहा-लेखन बहुत आसान प्रतीत होता है, किन्तु शिल्प की दृष्टि से इसे रचने में बहुत सावधानी बरतनी होती है। वस्तुतः काव्यशास्त्र के अनुसार दोहा चार चरणों का अर्ध सम मात्रिक शास्त्रीय छन्द है, जिसके पहले और तीसरे विषम चरणों में 13 तथा दूसरे और चौथे सम चरणों में 11 मात्राएँ होती हैं। सम चरण तुकांत होते हैं एवं इनका अंत दीर्ध लघु से होता है। प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंशः- भक्ति भाव से कीजिए, मन से उनका ध्यान/छप्पन भोगों के नहीं भूखे हैं भगवान।...... पॉलिथीन से हो रहा, है दूषित संसार/चलिए इसके त्याग पर हम सब करें विचार।......रंग हरा देता हमें, हरियाली का सार/सुखमय जीवन के लिए, हरा रखो संसार।......एक बार की हार से होना नहीं निराश/निश्चित होगी जीत भी, करते रहो प्रयास। ......अपने सुख की चाह में, अपनों से ही घात/बद से बदतर हो रही, रिश्तों की औक़ात।

 संग्रह का कथ्य विविधता लिए हुए है एवं इसका भाव पक्ष सराहनीय है। कुल मिलाकर दोहों के सृजन एवं विकास की दिशा में रचनाकार की सृजनशीलता एवं रचनाधर्मिता सराहनीय है तथा दोहा सृजन की दिशा में इसे एक सार्थक प्रयास कहा जा सकता है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित 220 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 200 रुपये है।


नव रचनाकारों के लिए उपयोगी पुस्तक


 ग़ज़ल-रचनाकारों को इस विशिष्ट विधा की सम्यक् जानकारी का होना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य माना गया है, जिससे इस विधा के स्वरूप में विकृति का समावेश न होने पाये। पूर्व में इस विषय से सम्बन्धित हिन्दी भाषा में लिखी गयी पुस्तकों का नितान्त अभाव था, जिसके कारण हिन्दी में ग़ज़ल कहने वालों को विशेष कठिनाई का अनुभव होता था। बाद में इस बिन्दु को दृष्टिगत रखते हुए ग़ज़ल के शास्त्रीय स्वरूप की जानकारी रखने वाले लेखकों एवं शायरों द्वारा ग़ज़ल व्याकरण को लेकर हिन्दी भाषा में पुस्तकें लिखी गयीं, जो ग़ज़ल-लेखन सीखने वालों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई।

  अनुपिंदर सिंह अनूप की प्रस्तुत पुस्तक ‘ग़ज़ल का गणित’ ग़ज़ल व्याकरण से सम्बन्धित है। इसमें ग़ज़ल-लेखन की शुरूआत करने वाले नये रचनाकारों को बह्रें सीखने का तरीका बताने का प्रयास किया गया है। लेखक के अनुसार नये ग़ज़ल लेखकों के बह्रों के डर को कम करने के लिए यह आसान पुस्तक लिखी गयी है। इसके अन्तर्गत मशहूर फ़िल्मी गीतों या रिकार्डिड ग़ज़लों की धुन पर तथा गीत गुनगुनाकर या गा कर लिखना सिखाया गया है। इसके साथ ही बह्रों की नाप-तौल के लिए शेअरों की तक़तीअ करना भी बताया है। पुस्तक के प्रारम्भ में गुरू/लघु की जानकारी दी गयी है। ‘ग़ज़ल क्या है’ के अन्तर्गत क़़ाफ़िया-रदीफ़ आदि तकनीकी शब्दों की जानकारी है। ग़ज़ल की बह्र में प्रयुक्त होने वाली गिनती तथा बह्र क्या है, इस विषय में प्रारम्भिक जानकारी दी गयी है।

      पुस्तक के मुख्यांश में प्रचलित बह्रों के अन्तर्गत हज़ज, रमल, खफ़ीफ, मज़ारिआ, मुजतस, कामिल, रजज़, मुतकारिब, मुतदारिक जैसी बह्रों का संक्षिप्त सामान्य परिचय एवं इनमें रचित विभिन्न फ़िल्मी गीतों के उदाहरण दर्शाये गये हैं। अन्त में सम्बन्धित बह्र का उदाहरण देते हुए उसकी तक़तीअ/पड़ताल करने का तरीक़ा भी बताया गया है। लेखक ने विभिन्न शेरों के उद्धरणों के साथ ग़ज़ल के शास्त्रीय स्वरूप के विषय में संक्षिप्त जानकारी प्रदान करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि से ग़ज़ल के नव रचनाकारों के लिए एतद् विषयक उपयोगी सामग्री इस आलेख में समाहित की गयी है। ग़ज़ल की बह्रों के विषय में भी पुस्तक के अन्तर्गत बताते हुए विस्तृत जानकारी के लिए अरूज़ या छन्द के किसी ग्रन्थ की सहायता लिये जाने हेतु भी कहा गया है। कुल मिलाकर नव ग़ज़लकारों के लिए ग़ज़ल का गणित पुस्तक को उपयोगी कहा जा सकता है। अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 140 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 199 रूपये है।

(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित )