जिंदगी से आशना कराती शबनम नक़वी की ग़ज़लें
- डॉ. वारिस अंसारी
‘इंसानियत को दर्द का दरमां कहेगा कौन/अब आदमी को हज़रते इंसां कहेगा कौन।’ शबनम नकवी अदबी दुनिया का वह अजीम नाम है जिससे लगभग पूरी अदबी दुनिया आशना है। ‘कुछ गम-ए-जानां कुछ गम-ए-दौरां’ उनकी ग़ज़लों का मजमुआ (संग्रह) है । उपरोक्त शेर उनके संग्रह के पहली ग़ज़ल का मतला है जो कि इतना मुसब्बत और मुरस्सा (मज़बूत और मुकम्मल) है कि इसी मतला पर एक किताब लिखी जा सकती है। उन्होंने इस पूरी किताब में इंसानियत के दर्द को जबरदस्त तरीके से पेश किया है। उनकी गजलों में समाज की रंगीनियां और उतार चढ़ाओ को बड़े सलीके से ढाला है जो कि उनकी शख़्सियत (व्यक्तित्व) को दर्शाती हैं। उन्होंने कहीं भी ग़ज़ल की आबरू को मजरूह नहीं होने दिया। शबनम नक़वी ने समाज के साथ एक उम्र गुजारी है। उन्होंने एक ज़माना देखा था। जिंदगी के उतार चढ़ाओ से वह पूरी तरह वाकिफ थे। अपने आप को खूब बिखेरा भी है और समेटा भी है, रातों की नींदों को कुर्बान किया है । जिं़दगी को बहुत करीब से समझा और परखा है तब कहीं जा कर वह तमाम पहलुओं से वाकिफ हुए और इन्हीं तजर्बात को शेर की शक्ल में ढाला। शबनम नक़वी की शायरी रवायत के साथ साथ संजीदा असर भी रखती है यही वजह है कि उर्दू अदब में उनकी एक अलग पहचान है। आइए उनके चंद अशआर पढ़ते चलें-‘पी रहे हैं जिंदगी की धूप कितने प्यार से/दर्द जो बैठा हुआ है साया-ए-दीवार से।’, ‘हर कदम इम्तिहान है भाई/ हर जगह आसमान है भाई/ सब अदब को सजाए बैठे हैं/ सबकी अपनी दुकान है भाई।’, ‘उस एक शख्स को चाहा था टूट कर मैंने/ जो मेरे पास से गुज़रा है अजनबी बन कर।’
पूरा संग्रह इस तरह के खूबसूरत अशआर से भरा पड़ा है । उनके अशआर में एक अलग तरह का एहसास है जो इंसान को सोचने पर मजबूर करता है । किताब ‘कुछ गम-ए-जानां कुछ गम-ए-दौरां को सैयद हामिद रिजवी ने तरतीब दिया है और कवर पेज को मजहर रायबरेलवी ने सजाया है। सन 2004 में प्रकाशित इस किताब में 144 पेज हैं। किताबत (कंपोजिंग)का काम कुर्बान अली ने अंजाम दिया है जिसको इदारा-ए-नया सफर इलाहाबाद (प्रयागराज) से प्रकाशित किया गया । हार्ड जिल्द के साथ किताब की कीमत 150 रुपए है ।
ज़िंदगी से रुशनास कराती ‘नक़्श-ए-हाय ज़िंदगी’
अदब के तमाम सिंफ हैं, जिसमें एक सिंफ है अफसाना निगारी। हक़ीक़त ये है कि अफसाना निगारी देखने पढ़ने में तो बहुत आसान महसूस होती है, लेकिन अफसाना का हक़ अदा करना उतना ही मुश्किल काम है। बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जिनके अफसानों पर अदबी दुनिया को नाज़ होता है। अगर इन कम लोगों में रज़िया काज़मी का नाम लिया जाए तो ग़लत न होगा रज़िया काज़मी का तअल्लुक़ इलाहाबाद से है, लेकिन वह अमेरिका में क़ायम पज़ीर हैं। वतन से दूर रह कर और अपनी मसरूफियात के बावजूद भी उन्होंने उर्दू अदब के लिए बड़ी कुर्बानियां दे रही हैं। उन्होंने कई शेरी और नसरी किताबें उर्दू दुनिया की दिया है। इस वक़्त मैं उनके अफसानों का मजमूआ (संग्रह) नक्श ए हाय जिंदगी के बारे में बात करूंगा। किताब के नाम से ही ज़ाहिर हो रहा है कि उन्होंने अदब में ज़िंदगी के लिए काम किया है। उनके अफसानों में रोज़ मर्रा के हालात, ज़िंदगी के उतार चढ़ाव और जद्दोजहद की खूबसूरत तस्वीरें नज़र आती हैं। उनके अफसानों में इंसानी जज़्बात और एहसासात को बड़े सलीके से पेश किया गया है। उनके अफसानों को पढ़ कर महसूस हुआ कि वह भेजा शब्दों के इस्तेमाल से गुरेज़ करती हैं। रज़िया के यहां शब्दों का चयन इस तरह किया गया है कि पाठक आसानी से पढ़ता चला जाये और उनके उस खयाल तक पहुंच जाए जो वह महसूस करती हैं। वह इंसानी दर्द को इस तरह कागज़ पर उकेरती हैं कि लोग सोचते भी हैं और उस दर्द की हक़ीक़त को महसूस भी करते हैं। उनके अफसानों में उनका लहजा , ज़बान (भाषा) और किरदार सब कुछ बिल्कुल अलग अंदाज़ में है। वह समाजी मसाइल, ऊंच नीच, लोगों का दुःख दर्द , खुशी सब कुछ बड़े ही दिलचस्प अंदाज़ में बयान करती हैं। आइए उनके एक अफसाना से चंद लाइने देखते चलें-‘ये वाकई एक ख़ास लड़की के ज़िंदगी की कहानी है लेकिन नाम से क्या होता है। आज हमारे समाज की हर लड़की शमीमा है। निचला तब्क़ा जिसे ऊंचे लोग छूने से भी कतराते हैं उनके दिन फिर गए लेकिन हमारे समाज में औरत की तक़दीर ज्यों की त्यों वही पहले जैसी रह गई।’
उनकी किताब नक्श-ए-हाय ज़िंदगी दो हिस्सों में है। पहले हिस्से के अफसाने रज़िया के स्कूली ज़िंदगी के दिनों से वाबस्ता हैं जबकि दूसरे हिस्से में आम समाजी हालात पर मुश्तमिल अफसाने हैं। खूबसूरत हार्ड जिल्द के साथ 192 पेज की किताब को फरीद कंप्यूटर ग्राफिक्स करेली, इलाहाबाद से कंपोज़ कराया गया जिसे स्कॉट लाइन प्रिंटर्स प्रयागराज से छपा कर गुफ्तगू पब्लिकेशन से प्रकाशित किया गया है । किताब की क़ीमत मात्र तीन सौ रुपए है।
(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2025 अंक में प्रकाशित)



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