बुधवार, 15 मई 2013

बात सिर्फ एक अदद हिन्दुस्तानी एकेडेमी की ही नहीं है

Imtiyaz Ahmad Ghazi

                                                              -इम्तियाज़ अहमद गाजी
प्रदेश सरकार ने हिन्दुस्तानी एकेडेमी का अध्यक्ष सुनील जोगी को क्या बनाया, शहर के साहित्यकारों का जैसे जमीर जाग उठा है। इस बहाने शुरू हुए अभियान ने साहित्य के लिए कई राहें खोल दी हैं, साथ ही यह संकेत सामने आ गया है कि निराला और फि़राक़ जैसे लोगों का यह शहर उपर से थोपी हुई सभी चीज़ों को बर्दाश्त नहीं कर सकता। एक अदद हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष पर नई नियुक्ति को लेकर शुरू हुआ अभियान अब प्रदेश स्तर का मुद्दा बना चुका है। ऐसे में प्रदेश सरकार को देर-सबेर साहित्यकारों की बात सुननी ही पड़ेगी। अच्छी बात यह है कि इस एक मुद्दे पर ही सही अधिकतर साहित्यकार एक जुट हुए हैं और भविष्य में उम्मीद की जा सकती है कि साहित्य की भलाई के लिए साहित्यकार एकजुट हो सकते हैं।
अप्रैल के पहले पखवारे में जब हिन्दुस्तनी एकेडेमी के अध्यक्ष की नियुक्ति हुई तो इलाहाबाद के साहित्यकारों को बड़ा झटका लगा। ख़ासकर जागरुक लोगों को यह एहसास हुआ कि सुनील जोगी किसी प्रकार से इस पद के लायक नहीं हैं। फिर साहित्यकारों की बैठकें शुरू हुईं, बात आगे बढ़ी तो पता चला कि सिर्फ़ हिन्दुस्तानी एकेडेमी ही नहीं बल्कि भारतेंदु नाट्य एकेडेमी,उत्तर प्रदेश संगीत नाटक एकेडेमी, उत्तर प्रदेश ललित कला एकेडेमी और उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर जिन लोगों की नियुक्ति हुई, वे सभी इन पदों के लायक नहीं है। उर्दू अदीबों के विरोधों के कारण उर्दू एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर जिस महिला केा नियुक्त किया गया था, उसे 24 घंटे के अंदर ही प्रदेश सरकार को हटाना पड़ा है, सरकार की इस कार्यवाही से साहित्यकारों में आस भी जगी है कि उनकी सुनी जाएगी। अब आंदोलन शुरू हो चुका है, लगभग सभी प्रमुख शहरों में इन नियुक्तियों के विरोध में हस्ताक्षर अभियान जारी है, जिन्हें एकत्र करके लखनउ में प्रेस कांफ्रेस करके जारी किया जाएगा और मुख्यमंत्री से मुलाकात करके उनके सामने अपनी बात रखनी है।
6 अप्रैल को इलाहाबाद में ही एक कवि सम्मेलन हुआ, जिसमें सुनील जोगी ने लोगों से समर्थन में हाथ उठवाते हुए एक कविता पढ़ी-‘बहुत हो चुका अब ना जनता के घाव कुरेदो, सारा देश कह रहा है अब मोदी को दिल्ली दे दो।’ आश्चर्यजनक है कि प्रदेश की सपा सरकार ने इसके चार दिन बाद जोगी को हिन्दुस्तानी एकेडेमी का अध्यक्ष बना दिया। जोगी कार्यभार ग्रहण करने के लिए इलाहाबाद आते हैं और बयान देते हैं कि यहां के साहित्यकारों ने इलाहाबाद को महाराष्टृ बना दिया है और मेरे साथ ठाकरे जैसा व्यवहार कर रहे हैं। जबकि जोगी को यह अच्छी तरह से पता है कि महाराष्टृ में यूपी-बिहार वालों के खिलाफ हिंसात्मक रवैया अपनाया जाता है, इलाहाबाद में उनके साथ ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ, मर्यादित ढंग से प्रदेश सरकार के इस निर्णय का विरोध हो रहा है, कोई धरना-प्रदर्शन या काम रुकावाट या फिर हिंसा वाली बात कभी नहीं आयी। इसके बाद फिर एक कार्यक्रम होता है तो उसमें जोगी इलाहाबाद के साहित्यकारों को संबोधित करते हुए कविता पढ़ते हैं कि ‘लूले लगड़े लोग अब मुझे चलना सिखला रहे हैं’। जोगी जी को यह कैसे भ्रम हो गया है कि इलाहाबाद के लोग लूले लगड़े हैं, वे अपने पैरों पर नहीं चल सकते हैं। जाहिर है ऐसी बातों से साहित्यकारों का पारा और चढ़ेगा ही और वही हुआ है।
हिन्दुस्तानी एकेडेमी के संदर्भ में दो और महत्वपूर्ण बातें हैं, जिसका संज्ञान साहित्यकार तो ले चुके हैं, लेकिन सरकार ने अब तक नहीं लिया है। पहली बात यह है कि 80 के दशक तक एकेडेमी के अध्यक्ष पर नियुक्ति करने के लिए प्रदेश सरकार इलाहाबाद के वरिष्ठ साहित्यकारों से सलाह मांगती थी कि किसको अध्यक्ष बनाया जाए। साहित्यकारों द्वारा सुझाए गए नामों में से किसी को यह दायित्व दिया जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। यही वजह है कि जिस प्रकार आज जोगी का विरोध हो रहा है, उतना विरोध कभी किसी अध्यक्ष के खिलाफ नहीं हुआ। दूसरी बात यह है कि एकेडेमी का अध्यक्ष बनाए जाने के लिए जो मानक तय किये गए थे, उनमें एक यह भी था कि सेवानिवृत्त अर्थात 60 वर्ष अधिक आयु के साहित्यकारों को ही अध्यक्ष बनाया जाए। लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि जोगी की नियुक्ति के लिए यह आयु सीमा घटाकर 25 वर्ष कर दी गई है। ये चीजें साफ दर्शा रही हैं कि राजनैतिक हितों के लिए साहित्यिक हितों की बलि किस प्रकार दी जा रही है। विडंबना यह है कि एक-दुक्का चाटुकार टाइप के साहित्यकार इन चीजों को समझते हुए भी अपने व्यक्तिगत हितों के लिए समर्थन कर रहे हैं। चाटुकार किस्म के लोग सत्ता में बैठे निर्णायक लोगों के पास भी आसानी से पहुंच जाते हैं।
साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है इसलिए सरकार से ये उम्मीद करना बेमानी नहीं है कि कम से कम अन्य निगमों की तरह सांस्कृतिक, साहित्यिक अकादमियों के अध्यक्ष पदों पर सिर्फ राजनैतिक हितों के मद्देनजर अध्यक्ष पदों पर नियुक्ति न करे। बल्कि ऐसी अकादिमयों पर योग्य लोगों की नियुक्ति करे ताकि कम से कम कला और संस्कृति का सही काम हो। जानकारों का यह भी मानना है कि अन्य राजनितिज्ञों के मुकाबले मुलायम सिंह यादव साहित्यकारों को तरजीह देते हैं, इसलिए अगर उनके पास इन बातों को ठीक ढंग से पहुंचाया जाए तो बात जरूर बनेगी। इसलिय यह माना जा रहा है कि साहित्यकारों की आवाज मुख्यमंत्री और सपा मुखिया के दरबार में दबायी नहीं जाएगी।

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