सोमवार, 14 नवंबर 2011

राखी सावंत के हाथों भी दिला सकते हैं ज्ञानपीठ- मुनव्वर राना



आज की तारीख में मुनव्वर राना किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, उन्होंने उर्दू शायरी को गुले-बुलबुल और आशिक-माशूक की बेड़ियों से बाहर निकालकर आम आदमी से जोड़ने का काम किया है। उन्होंने दुनिया को बताया कि शायरी सिर्फ़ हुस्न की जंजीर में जकड़ी हुई खुशामद और जी-हुजूरी की चीज़ नहीं है।बल्कि मां की ममता, उसकी कुर्बानी और औलाद के प्रति उसका असीम प्यार भी शायरी के विषय हैं। कूड़े-करकट, रेल के डिब्बों में झाड़ू लगाते बच्चे और फुटपाथ पर बिना नींद की गोली खाए सोते हुए मज़दूर को खूबसूरती के साथ शायरी विषय बनाया जा सकता है। यही वजह है कि आज मुनव्वर राना को मुशायरों का शहंशाह कहा जाता है। इस दौर के वे अकेले ऐसे शायर हैं जिनकी मकबूलियत मंत्री से लेकर संत्री तक के बीच है। 26 नवंबर 1952 को रायबरेली में जन्मे मुनव्वर राना की अब तक ‘ग़ज़ल गांव’, पीपल छांव, सब उसके लिए, घर अकेला हो गया, सफेद जंगली कबूतर, मुनव्वर राना की सौ ग़ज़लें, नये मौसम के फूल और मुहाजिरनामा नामक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।कन्हैया लाल नंदन ने उनकी एक पुस्तक की भूमिका में लिखा है,‘मुनव्वर राना की शायरी, शायरी से मुहब्बत करने वाले हर आदमी के सर चढ़कर बोलती है। जिन्हें हिन्दी और उर्दू की सादगी की गंगा-जमुनी धार का मजा मालूम है उनके लिए मुनव्वर की ज़बान एक ऐसी ज़बान है जो इन दोनों के लिए पहनापे में विश्वास करती है। एक मां तो दूसरी को मौसी समझती है, जिनके लिए मुनव्वर कहते हैं ‘ लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है, मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिन्दी मुस्कुराती है।’ इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने उनसे बात की-

सवालः ज्ञानपीठ पुरस्कार अमिताभ बच्चन के हाथों प्रोफेसर शहरयार को दिया जाना कितना उचित है, इसे लेकर साहित्यकारों में बड़ी कड़ी प्रतिक्रिया है।
जवाबःशहरयार साहब को अमिताभ बच्चन के हाथों पुरस्कार दिया जाना बिल्कुल सही है, इसलिए कि उनको हिन्दुस्तान के आम लोग फिल्म राइटर की वजह से ही उन्हे जानते हैं।उनका साहित्य में इतना बड़ा कोई काम नहीं है। मैं पहले भी यह बात कह चुका हूं कि देखिए इस बार ज्ञानपीठ एवार्ड देने वाले ज्ञान की तरफ पीठ करके बैठ गए हैं। हाजी अब्दुल सत्तार, बशीर बद्र, शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, मलिकज़ाद मंजूर जैसे लोगों की मौजूदगी में यह एवार्ड फिल्म कलाकार के हाथों देना ही इस एवार्ड की इंसर्ट है। प्राब्लम यह है कि हमारे मुल्क में लोग सच नहीं बोलते, डरते हैं।उन्हें यह लगता है कि आइंदा हमको भी तो एवार्ड लेना है। मेरा मामला यह है कि मुझे एवार्डों में कोई दिलचस्पी नहीं है और मैं बहुत आसानी से सच बोल देता हूं। आम आदमी शहरयार को ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए’ की वजह से ही पहचानाता है, तो फिल्म अभिनेता के हाथ से शहरयार साहब को
पुरस्कार दिया गया है तो इसका मतलब है कि बहुत इमानदारी से काम किया गया है। एवार्डों की अहमियत ऐसे ही घटती जाती है, कल को राखी सावंत के हाथों से भी दिलाया जा सकता है। मैं पूरे तौर पर, एवार्ड अमिताभ बच्चन के हाथों दिए जाने और शहरयार को ज्ञानपीठ दिए जाने दोनों का खंडन करता हूं।
सवालःग़ज़ल कहने वालों को और कवि और उर्दू शायर कहकर परिभाषित किया जा रहा है। आप इसे किस तरह से देखते हैं।
जवाबःएक वक़्त था जब भारत में दो मान्यता प्राप्त जाति हिन्दू और मुसलमान थे। आज हिन्दुओं में भी विभिन्न जातियां हैं और मुसलमानों में भी। राजनीति ने यह विभाजन कर दिया है और यही विभाजन अब साहित्य में भी हो रहा है। दलित साहित्य में भी अब अपर कास्ट और लोअर कास्ट साहित्य के रूप में विभाजन हो रहा है। ग़ज़ल का मतलब होता है महबूब से बातें करना। कोई भी अपने महबूब से उसी भाषा में बात करता है, जिस भाषा का उसे ज्ञान है।
सवालःउर्दू भाषा की दयनीय स्थिति के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं।
जवाबः सबसे बड़ी वजह पाकिस्तान का बनना। भारत के जितने फिरकापरस्त लोग थे, उन्होंने यह प्रचारित किया कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है। यह भी प्रचारित किया गया है उर्दू की वहज से ही पाकिस्तान बना था। अगर उर्दू की वजह से पाकिस्तान बनता तो आज पूरा पंजाब पाकिस्तान का हिस्सा होता। किसी भी ज़बान को क़त्ल करने का सबसे आसान तरीक़ा है कि उसे किसी ख़ास फिरके से जोड़ दिया जाए।
सवालः नज़्म और ग़ज़ल में से किस विधा को अधिक प्रभावी मानते हैं।
जवाबःहमारे यहां नज़्म के बड़े शायर इक़बाल और नज़ीर अकबराबादी हुए हैं। नज़्मों के सिस्टम का रिप्रेस्मेंट हिन्दी कविता में बहुत मज़बूत है। जो नकारा शायर हैं, जो अपनी बात किसी कैनवास में नहीं ढाल पाते हैं, वो आज़ाद नज़्म लिख रहे हैं। ग़ज़ल एक पावरफुल विधा है, जिस तरह हकीमी मुरब्बा यानी शीशी वाली दवाओं का ज़माना खत्म हो गया है, अब हर दवा कैप्सूल के रूप में उपलब्ध है, उसी तरह शायरी की ग़ज़ल विधा कैप्सूल और टैबलेट हे, जिसका प्रचलन सबसे अधिक है।
सवालःमुशायरों का स्तर लगातार गिरता जा रहा है।
जवाबः बात सही है, जो चीज़ कारोबार बन जाती है, उसका स्तर गिर जाता है।जैसे नेतागिरी कारोबार बन गया है तो राजनीति का स्तर बेहद घटिया हो गया है। तरंनुम में पढ़ने वाले नौटंकीबाज शायरों का जमावड़े होकर रह गए है आज के मुशायरे। आयोजकों में आपसी साठगांठ है, लोग एक दूसरे को बुलाते हैं। मुशायरा पढ़ने वाला शायर है या नहीं इससे किसी कोई सरोकार नहीं है। ऐसी-ऐसी औरतों को स्टेज पर आमंत्रित कर लिया जाता है, जिनका शायरी से कोई रिश्ता नहीं है। एक तरह की व्यक्तिगत नज़दीकी आयोजकों की शर्त पर आमंत्रित होती हैं। ऐसे लोगों के बीच स्टेज पर बैठना शायरी और शायर के शान के खि़लाफ़ है।
सवालः इस तरह की बुराई क्यों पैदा हुई।
जवाबः आज सी क्लास के मुशायरा पढ़ने वाले शायर की भी आमदनी 50 हजार रुपए प्रतिमाह है, जबकि महीनेभर नौकरी करने वाले अफसर की तनख़्वाह 35 हजार रुपए के आसपास है, और यही मुशायरे के स्तर गिरने की सबसे बड़ी वजह है। शायरी दुनिया का अकेला ऐसा इंस्टीट्यूट है जिसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता।माईक कोई लगाता है, चंदा कोई इकट्ठा करता है और शायर मंच पर पहंुचकर शायरी सुनाता है, और सारा धन बटोर लेता है। हालत यह है कि जिस औरत को उसकी करेक्टर की वजह से अपने घर तक नहीं बुलाया जा सकता, उन्हें मुशायरों के ठेकेदार देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए विदेशों में भेज रहे हैं।
सवालः तमाम शायरों ने अपना रेट फिक्स कर रखा है, कुछ लोग तो एक मुशायरे में पढ़ने के लिए 80 हजार से लेकर एक लाख रुपए तक मांग रहे हैं।
जवाबः अच्छे रिक्शेवाले और अच्छी तवायफें भी अपना रेट फिक्स नहीं करतीं, जो ग्राहक दे देते हैं वो ले लेती हैं। जिस शायर में फ़कीरी न हो वो शायर हो ही नहीं सकता। मैं तो कहता हूं कि कि शायरों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक का दस प्रतिशत काटकर उसी मूल्य की अदबी किताबें तोहफे क तौर पर देना चाहिए। साथ ही मुशायरागाह में किताबों के स्टाल भी ज़रूर लगाया जाना चाहिए।
सवालःसाहित्य का राजनीति से कितना संबंध है।
जवाबः दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं, एक ख़ेत में जाता हुआ पानी है, जिसे पीने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है, दूसरा नाली में बहता हुआ पानी, जो सिर्फ़ गंदगी ही गंदगी ही गंदगी है। साहित्य खेत के लिए बहता हुआ पानी है।
सवालः आपने शायरी का प्रमुख विषय मां को बनाया है, इसकी कोई ख़ास वहज।
जवाबः मेरा पूरा खानदान पाकिस्तान चला गया। मैं, मेरी मां और वालिद साहब यहीं रहे। वालिद साहब एक टृक चलाते थे, कभी-कभी वो कई दिनों के बाद घर आते, जिसकी वजह से खाने तक के लिए हम मोहताज़ हो जाते थे। रिश्ते की खाला वगैरह के यहां जाकर खाना खा लिया करता था। मां हर वक़्त जानमाज पर बैठी दुआएं ही मांगती रहती थी। मुझे बचपन में नींद में चलने की बीमारी थी। इसी वजह से मां रातभर जागती थी,वो डरती थी कि कहीं रात में चलते हुए कुएं में जाकर न गिर जाउं। मैंने मां को हमेशा दुआ मांगते ही देखा है, इसलिए उनका किरदार मेरे जेहन में घूमता रहता है और शायरी का विषय बनता है।
सवालः क्वालिफिकेशन शायरी के लिए कितना महत्वपूर्ण है।
जवाबः क्वालिफिकेशन अगर डिग्री का नाम है तो तमाम जगहों पर पैसे बेची जा रही हैं और क्वालिफिकेशन तजुर्बे का नाम है तो पूरी ज़िन्दगी पूरी नहीं हो सकती।
सवालः नए लोगों को क्या सलाह देंगे। आज के नौजवान मुनव्वर राना बनना चाहता है, तो उसे क्या करना चाहिए।
जवाबः नए लोग मेहनत कर रहे हैं, अच्छा कह भी रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ी कमी यह है कि क्लासिकी लिटरेचर का ज्ञान नहीं है, बिना इसके अच्छी शायरी नहीं की जा सकती। जब बुनियाद मज़बूत नहीं होगी, मज़बूत मकान नहीं बना सकता। लोग मुनव्वर राना तब तक नहीं बन सकते जब तक कि मीर को नहीं पढ़ेंगे।




हिन्दी दैनिक जनवाणी में 13 नवंबर 2011 को प्रकाशित

3 टिप्पणियाँ:

Saurabh ने कहा…

दमदार शब्दों में शिष्ट दृढ़ता के साथ अपनी बातें रखते मुनव्वर राणा साहब को पढ़ना रुचिकर लगा. देखिये, जहाँ पुरस्कार पर चर्चा सर चढ़ कर बोल उठे, शहरियार साहब ने खुद क्या कहा है ! सिक्कों के भले दो पहलू होते हों उछलने के बाद पड़ता सिक्का ही है.

किसी ने कहा, सबने सुना, भले तालियाँ न भी बजें देर तक.. .

--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

Pradeep Yadav ने कहा…

भीष्म पितामह की भूमिका में आने वाले मुन्नवर राणा जी उर्दू साहित्य को संवारने की तारीफ़े काबिल खिदमत कर रहे हैं| इसमें दो राय नहीं की बंटवारे ने एक मीठी भारतीय भाषा के साहित्य को बेहद प्रभावित किया,परन्तु उर्दू को अधिक न जानने वाले मेरे जैसे पाठकों की रूचि बढाने में टीवी और सिनेमाई उर्दू ने कारगर काम किया अतः मेरी नज़र में तो जनाब शहरयार साहब भी उर्दु साहित्य की सेवा करते राष्ट्र कवि की श्रेणी में ही विराजते हैं ....
आदरणीय श्री मुन्नवर राणा जी की
उर्दू अदब की खिदमात के लिए कहूँगा ...
चाहतें लाख हों,
मगरुर ताक़तवर,
यूँ "मुन्नवर" सा खादिम
हो जाना आसां नहीं ... ~ प्रदीप यादव ~

IQBAL KHAN ने कहा…

मुनव्वर राना साहेब एक ऐसे शायर है हैं जो इंसानों के दिल में बस्तें हैं..एक ऐसा शायर जो इंसानों के दिल में बस्ता हो वो किसी पुरस्कार से तुलना किया जाना उसकी इमरानियत को जैसे सूरज को उन्जाला दिखाना होगी :- अल्लामा इकबाल ने क्या ख़ूब कहा है no मुनावर भाई पर ही ठीक सूट करता है ......हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है / बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा ..मुनव्वर रना जिंदाबाद ..
हम सब चाहने वाले रब से आपके लिए दुआ करतें है आपकी सेहत और क़ामयाबी की ,मक्बुलियत की ...आमीन

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