रविवार, 6 नवंबर 2011

मजरूह सुल्तानपुरी ने फैज को दिया करारा जवाब



---- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ---------
मजरूह सुल्तानपुरी के करीबियों में शुमार जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि मजरूह साहब अपने दोस्त हकीम इब्बन साहब के यहां फैजाबाद में मेहमान थे। एक काव्य गोष्ठी की समाप्ति पर उन्होंने गालिबन कनाडा के किसी मुशायरे का जिक्र किया। उस मुशायरे में मजरूह और फैज अहमद फैज के अतिरिक्त दुनिया के कई बड़े शायर शरीक थे। फैज ने एक तकरीर की जिसमें दुनिया के कुछ देशों के हालात का जिक्र करते हुए भारत पर भी कुछ तीखी टिप्पणी की। जब मजरूह साहब अपना कलाम पेश करने माइक पर गए तो उन्होंने कहा, अभी जिस भारत के हालात पर फैज साहब रोशनी डाल रहे थे, मैं वहीं का हूं। मैं अपने भारत के बारे में फख्र के साथ कहता हूं कि यह चश्मा जो मेरी आंख पर है, भारत का बना हुआ है।मेरे जिस्म पर मबलूस शेरवानी, कुर्ता और पायजामा का कपड़ा भारत में ही बना है। मेरा कलम, मेरा मोजा और जूता भारत का ही बना हुआ है। पर फैज साहब के पाकिस्तान का आलम यह है कि उनकी पैंट-शर्ट का कपड़ा जर्मन का बना है तो चश्मा इंग्लैंउ का। कलम अमेरिकी है तो जूता जापान का है। अगर से सारे देश अपनी-अपनी चीज़े वापस ले लें तो फैज साहब की क्या हालत होगी, आप हज़रात महसूस कर सकते हैं।
एक और घटना का जिक्र करते हुए जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि बात सितंबर 1976 की है, मैंने अपने एक साहित्य प्रेमी मित्र स्वर्गीय रामजी अग्रवाल जो उन दिनों अधिवक्ता संघ सुल्तानपुर के सचिव थे, से मजरूह सुल्तानपुरी का जश्न सुल्तानपुर में मनाए जाने केक संबंध में मशवरा करना चाहा तो वह खुशी से उछल पड़े और तुरंत मुझे अपने साथ राजकिशोर सिंह जो उस समय जिला परिषद अध्यक्ष थे, के पास ले गए। और उनसे कहा कि नवंबर 1976 के अंत तक ‘जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ मनाया जाए। जश्न के संबंध में हम तीनों लोगों ने मजरूह साहब की खिदमत में अलग-अलग ख़त लिखे। ख़त में जश्न की तिथि के निर्धारण और उसमें शिरकत करने का अनुरोध किया गया। दो सप्ताह के अंदर ही मजरूह साहब ने जश्न मनाने की अनुमति और उसमें शिरकत करने की स्वीकृति प्रदान कर दी। हमलोगों ने को अपार खुशी हुई और ‘जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ की संपूर्ण रूपरेखा बना ली गई। सौभाग्य से उन्हीं दिनों स्वर्गीय केदारनाथ सिंह जो उस समय केंद्रीय मंत्रीमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे, सुल्तानपुर आए हुए थे। उनसे भी जश्न के संबंध में विचार-विमर्श हुआ। उन्होंने न सिर्फ हमारे फैसले को सराहा बल्कि इस प्रस्तावित जश्न को ऐतिहासिक जश्न का रूप देने का मश्विरा दिया और इसमें भरपूर सहयोग करने का आश्वासन भी दिया।
‘कमेटी जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ के नाम से एक तदर्थ समिति का गठन भी हुआ, जिसके अध्यक्ष राजकिशोर सिंह, मंत्री रामजी अग्रवाल हुए। मुझे संयाजक बनाया गया। जाहिल सुल्तापुरी बताते हैं कि मैंने मजरूह साहब को एक विस्तृत खत लिखा, जिसमें त्रिदिवसीय जश्न की रूपरेखा से अतगत कराते हुए उनसे तारीख निर्धारित करने का अनुरोध किया। ख़त में यह भी उल्लेख किया कि सुल्तानपुरवासी अपने वतन के हरदिल अज़ीज़ शायर का जश्न महज मुशायरा तक ही सीमित नहीं रखना चाहते। वतन वालों की ख़्वाहिश है कि जश्न के पहले दिन मजरूह की शायरी और ज़िन्दगी पर एक उच्चस्तरीय सेमिनार का आयोजन किया जाए, जिसमें कुछ प्रतिष्ठित विद्वान समालोचकों द्वारा आलेख का वाचन किया जाए। उन आलेखों को आयोजन से पहले मंगाकर उर्दू और हिन्दी में एक किताब के रूप में छाप लिया जाए, ताकि सुल्तानपुर अपने इस अज़ीज़ शायर पर अपनी धरती से एक किताब दे सके। जश्न के दूसरे दिन मजरूह के फिल्मी गीतों, जिसमें भारतीय संस्कृति, ग्रामीण जीवन से संबंधित बहुआयामी लोकगीतों,परंपराओं और लोक जीवन का जो सजीव चित्रण बोली-बानी से माध्यम से किया गया है उसे एक नया आयाम देकर फिल्मों के जरिए लोक तक पहुंचाया है, पर विस्तृत चर्चा कि जाए। तीसरे दिन अखिल भारतीय मुशायरा और कवि सम्मेलन अयोजित किया जाए।
जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि हमलोग मजरूह साहब के ख़त का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से कर रहे थे। मजरूह साहब का ख़त तो जरूर आया, पर उन्होंने जश्न की तारीख निश्चित करने के बजाए यह लिखा कि क्या उस जश्न में उनके कुछ निकटस्थ दोस्तों का मश्विरा शामिल नहीं हैं, तहरीर करो। इस ख़त के बाद मैंने दूसरे दिन कमेटी के अध्यक्ष राजकिशोर सिंह और मंत्री रामजी अग्रवाल से मजरूह साहब के उस ख़त पर चर्चा करने के बाद यह लिखा कि इस जश्न में सबका सहयोग रहेगा, सभी की सहमति रहेगी, ख़ासकर आपके साथियों का मश्विरा ही नहीं, उनकी रहबरी में यह जश्न मनाया जाएगा। मगर इस ख़त के दूसरे दिन ही मजरूह साहब का अंग्रेज़ी में लिखा हुआ एक ख़त मिला, जिसमें उन्होंने फरमाया कि लगता है कि यह जश्न उनके दोस्तों की मर्जी के बगैर हो रहा है। अगर ऐसा है तो जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी स्थगित कर दें। इस ख़त को पाकर राजकिशोर सिंह, रामजी अग्रवाल और खुद जाहि को बड़ी मायूसी हुई।
बकौल जाहिल सुल्तानपुरी बाद में पता चला कि मजरूह साहब की खिदमत में उनके एक करीबी साथी ने ख़त लिखा था कि प्रस्तावित जश्न के आयोजक जिम्मेदार नहीं हैं। इन लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मजरूह साहब पर अपने मित्र के ख़त का असर पड़ा और उन्होंने एक तरह से ‘जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ स्थगित करने का निर्देश दे दिया। मजरूह साहब के ख़त को पढ़ने के बाद जाहिल ने गुस्से में एक खत लिखा, ‘जो हजरात आपके काफी करीबी होने का दम भरते हैं और और दावा करते हैं, दरअसल वे ही आपका का जश्न सरज़मीन-ए-सुल्तानपुर में मनाए जाने के दरपर्दा मुखालिफ़ हैं। उन्होंने आपके दिन-ओ-नज़र में मुझे मुशायरों के उन संयोजकों में की कतार मे लाकर खड़ा कर दिया है, जो आमतौर पर मुशायरों के चंदों की रकम से अपनी शेरवानी बनवाते हैं। आपने जश्न-ए-मजरूह सुल्तानपुरी स्थगित करने की हिदायत दी है, मैं इसे कैन्सिल करता हूं। और शायद अब आपका जश्न सुल्तानपुर की सरज़मीन पर आयोजित नहीं हो सकेगा, क्योंकि जिन्हें आप यहां अपना दिली चाहने वाला समक्ष रहे हैं वो आपका का जश्न इस धरती पर मानना ही नहीं चाहते। अगर वे आपको चाहते होते हम तीनों लोगों की पेशकश से पहले वे लोग अब तक आपका जश्न मना चुके होते। हमें तो आपने खुद ही जश्न मनाने से मना कर दिया है, इसलिए हम मज़बूर हैं। हां, आपके बाद इंशा अल्लाह हम ‘याद-ए-मजरूह सुल्तानपुरी’ मनाने का इरादा करते हैं।’ यह ख़त पढ़कर मजरूह साहब ने सुल्तानपुर के एक अन्य शख़्सियत ताबिश सुल्तानपुरी जो उन दिनों संवाद लेखक थे और तरक्की पसंद तहरकी से जुड़े मशहूर शायर थे, से इस अक्षम्य हरकत की शिकायत भी की, मगार एक बुजुर्ग और मुशाफिक की हैसियत से। ताबिश साहब जब मुंबई से सुल्तानपुर आए तो उन्होंने मजरूह साहब की उस बुजुर्गाना शिकायत से आगाह किया।
जाहिल सुल्तानपुरी बताते हैं कि वर्ष 1976 के बाद से 1998 तक की अवधि में पांच-छह बार मजरूह साहब के साथ मुशायरे में शिरकत करने और मुलाकात करने अवसर मिला, मगर उस कद्दावर शख़्सियत ने, जो आलमी शोहरत के मालिक थे, कभी भी मेरे उस असंसदीय और गैर मोहज्जब ख़त के विषय में कोई शिकायत नहीं की। इल्म के उस गहरे समुद्र में मेरी जेहालत से लबरेज तहरकी गर्क हो गई। हर बार मजरूह मुझसे एक मुश्फिक,एक सरपरस्त और एक बुजुर्ग की तरह मिले। मजरूह साहब के उस किरदार ने, उस अख़लाक ने और उस विशाल हृदयता ने मुझे ज़िदगीभर के लिए अपना गिरवीदा बना लिया। मैं अपने ख़त के लिए आज भी शर्मिंदा हूं।
मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म अक्तूबर 1919 का उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ था। तरक्कीपसंद शायरों में उनका नाम सरेफेहरिस्त लिया जाता है। उन्होंने तमाम हिन्दी फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं, जो आज भी लोगों के जेहन में तरोताजा हैं। 1964 में फिल्म ‘दोस्ती’ के गीत के लिए उन्हें फिल्मफेयर एवार्ड से नवाजा गया। इस अज़ीम शख़्सियत के मालिक का निधन 24 मई 2000 को हुआ।
हिन्दी दैनिक ‘जनवाणी’ में 06 नवंबर 2011 को प्रकाशित


1 टिप्पणियाँ:

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

दोनों वाकये पढ़कर अच्छा लगा।
दूसरे वाकये से अंदाजा लगा सकते हैं कि इंसान में कमियाँ हो सकती हैं लेकिन फ़राखदिली से वो कमियों को काफ़ी हद तक दूर कर सकता है।

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