रविवार, 18 सितंबर 2011

विसंगतियों के लिए सिनेमा जिम्मेदार नहीं

फिल्म पटकथा लेखक संजय मासूम से डॉ. शैलेष गुप्त वीर की बातचीत
सवाल:वर्त्तमान समाज की विसंगतियों और पश्चिम के अंधानुकरण के लिए सिनेमा कहाँ तक जिम्मेदार है?
जवाब: सिनेमा क्यों जिम्मेदार है.सिनेमा तो समाज का आइना ही है, वह उसी को रिफ्लेक्ट करता है, जो लोगों की रहन-सहन है,उनकी भाषा है या जो लोगों की सोच है, तो सिनेमा कहाँ जिम्मेदार है. ... और जहाँ तक प्रेरणा की बात है. सिनेमा सोसाइटी को केवल रिफ्लेक्ट करता है.सिनेमा प्रेरणा देता नहीं लोग उससे प्रेरणा ग्रहण कर लेते हैं, यह अलग बात है. मैं विसंगतियों और पश्चिम के अंधानुकरण के लिय सिनेमा को ज़िम्मेदार नहीं मानता.
सवाल: आजकल फ़िल्मी गीतों में विषय-वस्तु का अभाव है और संगीत का बोलबाला है, क्यों..?
जवाब: इस सन्दर्भ में मैं यही कहूँगा कि आजकल फ़िल्मी गीत नई नस्ल के मुताबिक बन रहे हैं. इनमें विषय-वस्तु का बिलकुल से अभाव नहीं कहा जा सकता, हाँ, विषय-वस्तु में अरिवर्तन हो गया है.अब नई पीढ़ी को कथ्य से अधिक संगीत अच्छा लगता है औत संगीत तो वक्त के हिसाब से ही बनता है.
सवाल:विभिन्न टीवी चैनलों के विविधवर्णी कार्यक्रमों के बीच साहित्य की उपादेयता कितनी बची है?
जवाब: देखिये, साहित्य की उपादेयता तो किसी न किसी सन्दर्भ में हमेशा बनी ही रही है. शब्दों का अपना अस्तित्व होता है,उनका अपना महत्त्व होता है.भले ही माध्यम कुछ हो, साहित्य की उपादेयता हमेशा रही है और आगे भी रहेगी.
सवाल:एक पेशेवर पटकथा लेखक और गैर पेशेवर लेखक में क्या फर्क होता है?
जवाब: लेखक किसी भी विधा का हो, यदि लेखन उसका पेशा है तो उसकी ज़िम्मेदारी अधिक हो जाती है, उसे वक्त पर काम पूरा करना होता है,साथ ही डिमांड का भी प्रेशर होता है. आप अपनी मर्ज़ी सबकुछ नहीं लिख सकते. हाँ, अगर पेशेवर नहीं हैं तो अपनी मर्ज़ी से काम कर सकते हैं, जब मूड करे तब लिख सकते हैं.
सवाल: आपने अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इलाहाबाद में गुज़ारा है. मुंबई में रहकर इलाहाबाद की कमी आपको किस प्रकार खलती है.
जवाब: हर शहर की अपनी खासियत होती है और किसी भी शहर की कमी दूसरा शहर पूरा नहीं कर सकता.मुंबई की अपनी खासियत है. इलाहाबाद में जो ख़ास माहौल था, जो आवारगी थी, वो यहाँ मुमकिन नहीं हो पाती. इस प्रकार आप कह सकते हैं कि इलाहाबाद में जो बात थी वो इलाहाबाद में ही है, जो बात मुंबई में है वो केवल मुंबई में है.
सवाल: आपको लेखन की प्रेरणा कहाँ से मिली?
जवाब: क्या बताऊँ.... जिंदगी से मिली है, यह आप कह सकते हैं.वैसे इस तरह से मैंने कभी सोचा नहीं. आपके सवाल के बाद इस बारे में सोच रहा हूँ तो लग रहा है कि जीवन ने ही प्रेरणा दी और जीवन ही प्रेरणा दे रहा है अब तक.... आसपास जो घटता है, जिसे हम-आप आब्ज़र्व करते हैं शायद वही अंदर एक बेचैनी पैदा करती है और सृजन के रूप में बाहर आता है.
सवाल: आपके मन-मस्तिष्क में जब भी कोई नई थीम कोंधती है तो क्या उसपर आप तुरंत लेखन शुरू कर देते हैं या बाद में?
जवाब: यह इस बात पर निर्भर करता है कि मन-मस्तिष्क में क्या कैसी चीज़ चल रही है.अगर कोई शेर मेरे दिमाग में कौंधता है तो में तुरंत गज़ल कहने की करता हूँ. अगर कोई विचार ऐसा है की उसमें थोडा वक्त लगाने की ज़रूरत है, थोडा उसे चिंतन करने और समझने ज़रूरत है तो उसमें थोडा वक्त लगता है, अतः यह इसपर निर्भर करता है कि विचार कैसा है.
सवाल: आपके सर्वाधिक पसंदीदा लेखक कौन है, और क्यों?
जवाब: डॉ. राही मासूम रज़ा, क्योंकि उनकी भाषा में मिट्टी की खुशबु है. एक आम जीवन की झलक मिलती है और लगता है की यह हमारे बीच की बातें कह रहे हैं. वे किसी भी बात को अत्यंत स्वाभाविकता व सजीवता के साथ बहुत साधारण तरीके तथा सादगी से कहते थे. यही वजह है की वह मुझे पसंद हैं.
सवाल: पत्रकारिता में ज़रूरत से अधिक व्यावसायिकता के चलते साहित्य में गिरावट आई है, इससे आप कहाँ तक सहमत हैं?
जवाब:मैं काफी हद तक सहमत हूँ, पत्रकारिता में व्यावसायिकता हाबी है. इसमें कोई संदेह नहीं है .... किन्तु वही बात है हर दौर की, हर समय की अपनी ज़रूरत होती है,मांग होती है,पत्रकारिता भी शायद उसी मांग को पूरा करने में व्यावसायिक होती जा रही है. पहले पत्रकारिता का एक मकसद हुआ करता था, वह शायद अब थोडा पीछे चला गया है.
सवाल: शैक्षिक योग्यता से लेखन का क्या कोई सम्बन्ध है, क्या हाई-फाई डिग्रियां लेखन में कोई मदद करती हैं?
जवाब: लेखन में डिग्रियां तो मदद नहीं करतीं लेकिन शिक्षा संस्कार प्रदान करती है, सोचने समझने की छमता का विकास करती है, विश्लेषण की छमता देती हैं और जीवन के सही अर्थों को तलाशने की शक्ति प्रदान करती हैं. लेखन के लिए शिक्षा ज़रुरी है लेकिन डिग्रियां इतनी ज़रुरी नहीं.
सवाल: भविष्य में आपकी कौन-कौन नई फ़िल्में आ रही हैं?
जवाब: मैं तृष्णा हूँ, कृष्-2 के अलावा महेश भट्ट की एक फिल्म आएगी.इसके अलावा ज़ल्द ही एक दो फ़िल्में और आएँगी, जिनपर अभी काम चल रहा है.
सवाल: युवा रचनाकारों के लिए फिल्म और टीवी लेखन में क्या संभावनाएं हैं?
जवाब: अनंत संभावनाएं हैं. फिल्म और टीवी माध्यमों का विस्तार ही होते जाना है.आने वाले दिनों में और भी शाखाएं होगी जैसे आजकल मोबाइल के लिए फ़िल्में बन रही हैं, मोबाइल के लिए कार्यक्रम बनने लगें हैं, ज़ाहिर है कि कार्यक्रम बनेगें तो लेखन कि भी संभावनाएं बढेंगी. अतः युवा रचनाकारों के लिए संभावनाएं असीमित हैं, अनंत हैं.
( गुफ़्तगू के सितम्बर 2011 अंक में प्रकाशित)

1 टिप्पणियाँ:

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत साक्षात्कार बधाई और शुभकामनायें भाई शैलेश गुप्त वीर जी

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