शनिवार, 10 सितंबर 2011

दो मिसरों में मुक़म्मल बात गज़ल में ही- नय्यर आकिल


नय्यर आकिल का शुमार सबसे होनहार नौजवान उस्ताद शायरों में होता है जिसे उर्दू शायरी के हर विधा की बखूबी जानकारी थी. उर्दू अदब की दुनिया में नय्यर का नाम न सिर्फ शायरी की उस्तादाना फन के लिए जाना जाता है बल्कि एक बेहतरीन शख्सियत के लिए मशहूर है. उनके असमय निधन से इलाहाबाद शहर के अदबी हलके को इतना गहरा झटका लगा था कि आजतक उस कमी को पूरा नहीं किया जा सका है. नय्यर आकिल की पैदाईश 11 जून 1961 को लखनऊ में हुई थी. उनके वालिद जनाब आकिल इलाहाबादी और वालिदा मोहतरमा राशिदा आकिल, दोनों ही शायर थे. लखनऊ में हाईस्कूल करने के बाद इलाहाबाद आ गए. यही से इण्टर करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन की, फिर इसी विश्वविद्यालय से उर्दू,फारसी और अरबी विषयों में मास्टर डिग्री हासिल की. इन तीनों ही विषयों में नेट भी क्वालीफाई की.उन्होंने फारसी की मशहूर किताब "गुलिस्तां" जिसके लेखक शेख शादी हैं, का उर्दू में काव्यानुवाद किया है. काटजू रोड पर स्थित उनकी दावा की दुकान शहर का प्रमुख अदबी अड्डा रहा है. इस होनहार शायर का तीन जून 2006 को निधन हो गया. निधन से करीब दो साल पहले इम्तियाज़ अहमद गाज़ी ने उनका एक इंटरव्यू लिया था, जो 11 सितम्बर 2004 को हिंदी दैनिक आज में प्रकाशित हुआ था.
सवाल: उर्दू शायरी के मेयार में आ राही गिरावट की क्या वजह मानते हैं?
जवाब: इसकी प्रमुख वजह उस्ताद और शागिर्द के सिलसिले का कम होना है. इस सिलसिले में जहाँ कुछ खराबी थी वहीँ अच्छाई भी थी. आजकल लोग दो-चार शेर कहने के बाद अपने को बहुत बड़ा शायर समझने लगते हैं.
सवाल: उस्ताद और शागिर्द के सिलसिले में बुराई क्या थी या है?
जवाब: कुछ उस्ताद शागिर्दों को खुलकर सोचने नहीं देते थे.जिन उस्तादों की दूसरे शायरों से नहीं बनती थी, वे चाहते थे कि उनके शागिर्द भी उनसे सम्बन्ध न रखें.
सवाल: आपके उस्ताद कौन हैं. इलाहाबाद के वर्त्तमान शायरों में आप किसको सबसे अधिक पसंद करते हैं?
जवाब:मेरे उस्ताद अल्लामा समर हल्लोरी हैं। जहाँ तक पसंददीदा शायरों की बात है तो कई लोग हैं, एक-दो नाम लेना बहुत मुश्किल है. फिर भी फर्रुख जाफरी साहब को मैं सरे-फेहरिस्त रखता हूँ.उनका एक शेर पेश है-
कहाँ जाते हैं,क्या करते हैं, किसके साथ रहते हैं,
हमें अपना तआवुन उम्र भर करना ही पड़ता है.
सवाल: नई कविता के कवियों का कहना है कि गज़ल का खांचा बना हुआ है, उसमे शब्द फिट कर दीजिए, गज़ल तैयार हो जाती है?
जवाब: उनकी सोच सही नहीं है.नई कविता जब आप पूरी पढ़ लीजिए या सुन लीजिए तो एक बात पूरी होती है.जबकि दो मिसरों में एक मुक़म्मल बात कह देना बहुत मुश्किल काम हैं और यह गज़ल ही मुमकिन करती है.
सवाल: हिन्दीभाषी लोग भी खूब ग़ज़लें कह रहे हैं, इसे आप उर्दू शायरी के लिहाज से किस रूप में देखते हैं?
जवाब: यह शायरी के प्रति अच्छा रुझान है. जैसे हमारे यहाँ रदीफ,काफिया, बहर लोग जानते हैं मगर रवायती ख्याल से बाहर नहीं निकल रहे हैं. इसी तरह हिंदी वालों के यहाँ फिक्र मौजूद है लेकिन उसे शेर के पैकर में ढालने की कमी है.
सवाल: उर्दू शायरी का भविष्य कैसा देखते हैं?
जवाब: जितने सुनने और पढ़ने वाले हैं उतने ही रह जाएँ तो भविष्य उज्ज्वल है. लेकिन यदि उनमें भी कमी आ जाये तो भविष्य अच्छा नहीं है.आज लोग उर्दू लिपि को भूल रहे हैं, जो धीरे-धीरे उद्रू भाषा को भुला देगा.
सवाल: आपकी दुकान साहित्यिक जमावड़े के लिए मशहूर है.नगर के बाहर वाले कौन-कौन शायर यहाँ आ चुके हैं और किससे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं?
जवाब: निदा फाजली, बेकल उत्साही,अनवर जलालपुरी,शायर जमाली,राहत इन्दौरी, नजीर बनारसी,कृष्ण बिहारी नूर,रईस अंसारी,मेराज फैजाबादी,मलिकज़ादा मंज़ूर,हसन फतेहपुरी,हमडून उस्मानी,मुज़फ्फर रम्ज़ी वगैरह. दरअसल अतीक इलाहाबादी ही इन्हें लेकर आते हैं. इन सबमें नज़ीर बनारसी से सबसे अधिक प्रभावित हूँ. उन्होंने ने मेरी काफी हौसलाअफजाई की है.उनका एक शेर है-
इस तरह सोया है दीवाना तुम्हारे घर के पास,
एक पत्थर सर के नीचे एक पत्थर सर के पास.

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नय्यर आकिल की ग़ज़लें
(1)
तौके-ए-गम की जंजीर से दो चार हुए.
हो के आज़ाद तो हम और गिरफ्तार हुए.
वह सितम केश परी नम है जिसकी दुनिया,
व्याह लाऊंगा अगर जेब दीनार हुए.
इसी आईने की मानिंद बिखर जावोगे,
ज़ात से अपनी अगर बर सर-ए-पैकार हुए.
जिनसे खदशा या ज़सारत न हुयी उनको मगर,
जिनमें अहबाब थे उस सफ से कई वार हुए.
चाहे जिस ज़ाविये से दायर-ए-गम खींचों,
तुम ये देखोगे हमीं नुक्त-ए-परकार हुए.
(2)
अपने गम के साथ ही सारे जहाँ का गम भी है.
कास-ए-एहसास में खूबी-ए-जाम-ए-जाम भी है.
क्यों न हो माजी की अलमारी से हमको यह लगाव,
इसमें पोशीदा तुम्हारी याद का एल्बम भी है.
गो नहीं झुकता किसी के सामने नख्वत का सर,
सोचिये तो आईने के सामने सरख़म भी है.
आरज़ी आसूदगी देते तो हैं राहत के ख्वाब,
इस सुकूं की जुस्तजू में इक खलिश पैहम भी है.
याद के इस चाँद की तासीर कुच्ज मत पूछिए,
मुन्हसिर इस पर ही बहर-ए-दिल का जेरोबम भी है.
(3)
उसी ने मुझसे मेरे दिल का चैन छीना भी.
सिखा रहा है वही सब्र का करीना भी .
हवा उठाती है खुद बादबाँ से जो तूफ़ान,
उसकी ज़द में है शायद मेरा सफीना भी.
तेरी गली में पड़ा सुर्ख पत्थरों के बीच,
कहीं है मेरी मुहब्बत का आबगीना भी.
ज़मीं ने सुबह-ए-कयामत ही मेरी लाश के साथ,
उगल दिया मेरे आमाल का दफीना भी.
चलो हिसाब बराबर ही कर लिया हमने,
है उसकी तेग भी ज़ख़्मी हमारा सीना भी.
(4)
अपने मित्रों के अहित में जब भी उसका हित हुआ.
पीठ पर खंज़र चलाने में न वह विचलित हुआ.
लोग भी अपने विभाजन पर बहुत संतुष्ट थे,
सर्वसम्मत से वो बिल संसद से भी पारित हुआ.
आत्मा नीलाम करके लिखनी को बेचकर,
मैं भी एक दिन राज दरबारों में आमंत्रित हुआ.
कर दिए निर्यात जीवन मूल्य तक हमने तो क्या,
शास्त्र का भण्डार तो बदले में आयातित हुआ.
छा गया दुनिया पे जब फैला विचारों का प्रकाश,
और जब सिमटा तो बस इस बिंदु तक सीमित हुआ.
(5)
ये हितैषी हैं मगर उनसे अहित होने लगा.
जितनी उन्नति पायी वह उतना पतित होने लगा.
मन का कोलाहल तो फिर मन कोलाहल ही था,
रात्रि की निस्तब्धता में भी ध्वनित हुआ.
और अर्पित अपने जीवन की चिता की आग में,
वह भी मेरी तरह आशाओं सहित होने लगा.
फिर समझ में आ गया सब कुछ मगर प्रारंभ में,
मैं भी उसकी इस सहजता पर चकित हुआ.
बुध्दि जैसा सूर्य भी आखिर दलित होने लगा.

1 टिप्पणियाँ:

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

नैय्यर अकिल को याद कर आपने बहुत ही नेक काम किया |आभार

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