बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

दिल का दर्द उकेरती किताब ‘दर्द-ए-सहरा’

                                                                        - डॉ. वारिस अंसारी

                       


 सहरा शब्द ही ऐसा शब्द है, जिसे सुनकर लोगों के ज़हन में कोई खुशी जैसा एहसास नहीं होता क्योंकि इस शब्द के माने ही जंगल, रेगिस्तान, बियाबान आदि के हैं। अगर इस शब्द के साथ दर्द को जोड़ दिया जाए तो ज़हनो-दिल में यूं भी दर्द का एहसास व जज़्बात बेदार हो जाते हैं। मोहतरमा तलअत जहां सरोहा ने अपनी अफसानों की किताब का नाम ही ’दर्द-ए-सहरा’ रखा है। ये नाम ही उनकी अदबी सलाहियत को समझने के लिए काफी है। उनके अफसानों में इंसानी एहसासत और जज़्बात का जिस तरह इज़हार किया गया है वह काबिले-तारीफ है। वह बेजा शब्दों के इस्तेमाल से गुरेज़ करती हैं। उनके यहां शब्दों का चयन इस तरह किया गया है कि कारी (पाठक) रवानी से पढ़ता चला जाए और बोझ भी न महसूस करे। उनके एक अफसाना की चंद लाइनें देखते चलें- ‘मेरे सब्र का पैमाना लबरेज़ हो चुका था, मैंने उस नवजवान की मरम्मत करने का फैसला कर लिया और दांत पीसता हुआ आगे बढ़ा और उस नवजवान के आगे जा कर उसका कलर पकड़ा। एक ज़ोरदार घूंसा मरना ही चाहा था कि मेरी बीबी ने बिजली की तरह आ कर मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर से चीखी अरे..... अरे.....ये क्या कर रहे हैं आप , क्या बिगाड़ा है इन्होंने आपका।’ 

    वह इंसानी दर्द को इस तरह कागज़ पर उकेरती हैं कि लोग सोचते भी हैं और दर्द का महसूस भी करते हैं। उनके अफसानों में उनका लहजा, ज़बान (भाषा) और किरदार सब कुछ बिल्कुल अलग अंदाज़ में है। यही सब चीजें दीगर लोगों से उनको मुनफरिद बनाती हैं। कहा जाता है की समाज अदब का आइना है और अदब समाज का आइना। इस कहावत को तलअत ने पूरी तरह से साबित कर दिया। उनके अफसानों में समाजी मसाइल, ऊंच-नीच, लोगों का दर्द, अखलाक सब कुछ देखने को मिलता है। जिसे एक बार ज़रूर पढ़ना चाहिए। हार्ड कवर के साथ 152 पेज की इस किताब को सिटी प्रिंटर्स मालेगांव से कंपोज कराकर जावेद खान सराहा एंड ब्रदर्स ने प्रकाशित किया है। कंप्यूटर डिजाइन मो. जुनैद अशफाक अहमद और कवर की डिजाइन मो. अज़ीज़ अशफाक अहमद ने की है। इस किताब की कीमत मात्र 200 रुपए है। 


तनक़ीदी फलक का रौशन सितारा डॉ. कहकशां



तनक़ीद अरबी ज़बान का शब्द है, जिसके मानी खरे और खोटे की पहचान करना होता है। तनक़ीद एक ऐसी सिन्फ है जिसमें किसी शख़्स या चीज़ या सिन्फ पर मजबूत दलील के साथ उसके असरदार पहलुओं को उजागर किया जाता है। किसी भी शय का सिर्फ़ खामियां बयान करना ही तनकीद नहीं है, बल्कि उसकी खामियां और खूबियां दोनों बयान होनी चाहिए तब मुकम्मल तनकीद मानी जाती है। और इस तरह की सारी खूबियां डा.कहकशां इरफान में मौजूद हैं, जो एक तनक़ीद निगार में होनी चाहिए। डॉ.कहकशां ने बीसवीं सदी के चंद अहम लोगों फिक्शन (नॉवेल) पर जो राय दी है वह क़ाबिले-तारीफ है। उन्होंने अपनी किताब ‘उर्दू फिक्शन ताबीर-ओ-तफहीम’ में इक्कीसवीं सदी के जदीद तरीन अफसाना निगारों पर भी खुल कर बात की है। वर्तमान लोगों पर खुल कर बात करना ही उनको एक बड़ा तनकीद निगार बनाता है। अदब समाज का आइना होता है और अदीब समाज का एक जिम्मेदार शख़्सियत की हैसियत रखता है लेकिन उससे भी बड़ी शख़्सियत वह है जो अदबी कारीगरों के कारनामों पर अपने कलम का लोहा मनवाये और ऐसा कमल खुदा ने डॉ. कहकशां इरफान के कलम को बख्शा है। सन 1980 में जिला मऊ नाथ भंजन एक कस्बा फिरोज़पुर में पैदा हुई डा. कहकशां ने डी. फिल की डिग्री हासिल की। जिनका पहला तनक़ीदी मकाला नई दिल्ली और दूसरा पाकिस्तान से प्रकाशित हुआ। खूबसूरत हार्ड जिल्द के साथ उनकी किताब ‘उर्दू फिक्शन ताबीर ओ तफहीम’ में 188 पेज हैं। कवर पेज को टीम अर्शिया पब्लिकेशन दिल्ली और किताब को शैख एहसानुल हक ने कंपोज किया, जिसे अर्शिया पब्लिकेशन दिल्ली से सन 2020 में प्रकाशित किया गया। किताब की कीमत मात्र 200 रुपए है। मज़ामीन का शौक रखने वालों को एक बार ये किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए।

 (गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित)


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