गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

 ‘बाघ’ के बहाने नावलियात पर गुफ्तगू 


                                                                        - डॉ. अब्दुर्रहमान फ़ैसल

 अब्दुल्लाह हुसैन का नावेल ‘बाघ’ का बयानिया बज़ाहिर नावेल के मर्कज़ी किरदार असद और यासमीन की दास्तान-ए-इश्क़ है। जैसा कि नावेल के उनवान बाघ के साथ ही ये भी तहरीर है कि ‘एक मुहब्बत की दास्तान’। लेकिन बयानिया में दीगर मौज़ूआत को भी शामिल किया गया है। सिर्फ ये कह देना कि नावेल आज़ाद कश्मीर, और इस के गिर्द-ओ-नवाह के मसाइल पर मबनी है, काफ़ी नहीं है। कश्मीर के मसाइल का ज़िक्र यक़ीनन इस नावेल में किया गया है, लेकिन ये इस नावेल का मौज़ू नहीं है बल्कि ये एक मकानी अरसा  है जो अबदुल्लाह हुसैन ने अपने नावेल की तामीर के लिए खींचा है। नावेल की इब्तिदा-ए-सीग़-ए-माज़ी बईद के इस जुमले ‘रात को असदी, यासमीन ने कहा था’ से होती है। इस के बाद वाहिद ग़ायब रावी , रुएदाद/ सूरत-ए-हाल  के ज़रिये नावेल के बयानिये को आगे बढ़ाता है। नावेल के चौथे पैराग्राफ़ से ही नावेल निगार किरदार असद के इस ख़्याल की वज़ाहत करता है जो बचपन से ही उस के दिल में मौजूद रहता है-‘असद की सांस की मुश्किल, उस की रोज़मर्रा की मशक़्क़त, यासमीन का मुतबस्सिम चेहरा- इन सब चीज़ों के अक़ब में, दूर दूर तक एक शेर का इलाक़ा था, और अरसा-ए-दराज़ से रहा था। इस जानवर की ख़ाहिश असद के दिल में जैसे नसब थी, और इस वक़्त से थी जिस वक़्त की याद भी अब महव हो चुकी थी।’ 




नावेल में शेर का इस्तिआरा मर्कज़ी किरदार  की तशकील के साथ ही क़ायम होता है। शेर की शबीह का जो पहला बयान किया गया है वो किरदार के लड़कपन की ज़िंदगी से मुताल्लिक़ है। तेरह साल की उम्र में जब असद के वालिद का इंतिक़ाल हो गया और असद अपना घर छोड़कर अपने चच्चा के साथ उनके घर रहने जा रहा था, उस वक़्त घर के दरवाज़ों और कुंडियों के बंद होने से उसने आसमान पर एक सितारे को नमूदार होते हुए देखा और सितारे से जो ख़्याल उस के दिल में पैदा हुआ कि वो थोड़े ही फ़ासले पर तो जा रहा है जब चाहेगा चला आएगा । लेकिन वो फिर दुबारा वापिस ना आसका। उसके फ़ौरन बाद रावी बयान करता है।

तीसरी बार जब असद सरहद के इस पार से लौट रहा होता है तो वो रास्ता भटक जाता है। यहां पर भी इस के ज़हन में तरह तरह के ख़्याल आते हैं-“असद का ज़हन भटके लगा था। उल्टी सीधी बातों से घबरा कर आख़िर उस का ख़्याल एक साफ़ सुथरी सिम्त की तलाश में निकल पड़ा। उस जगह पर धुली हुई धूप की फ़िज़ा में हर चीज़ शीशे की सी शफ़्फ़ाफ़ और ठोस अपनी जगह पर मौजूद थी और इस में तवील चौकड़िया भरते हुए एक धारीदार जानवर की शबीह तेज़ी से हरकत करती थी। पहली बार शेर उस को एक जानवर के रूप में नज़र आया।’ और आखि़री मरतबा किरदार को शेर की शबीह उस वक़्त नज़र आती है। जब वो सरहद से तीन चार दिन के फ़ासले पर भूक प्यास की सख्ती और जिस्म की तकलीफ़ से निढाल होता है-‘अजीब पुरानी अन्जानी चीज़ों के और जगहों के ख़्वाब-ए-मुसलसल आते रहते । सारा दिन उसे थोड़ी थोड़ी देर के बाद एक एक करके पिछली रात के ख्वाब याद आते रहते थे। उसे महसूस होता कि वो एक लम्हा भी ऐसी नींद नहीं सोया जब उसने ख्वाब ना देखा हो। जैसे जैसे उस के ख्वाब बढ़ते जा रहे थे। वैसे वैसे उस का जागता हुआ ज़हन यासमीन और गुमशुद के शेर के ऊपर तकिया करता जा रहा था। जैसे कि ये दो सूरतों कोई ऐसे औज़ार हूँ जिनसे उस के अंदर की उधड़ी हुई जगहें साथ साथ रफ़ू होती चली जातीं थीं। वो जिस चीज़ के बारे में भी सोच रहा होता ये दो मुस्तक़िल शक्लें उस के ज़हन के पस-ए-मंज़र में मडलाती फिरतीं। इस अनोखी सूरत-ए-हाल में जिससे उस का साबिक़ा था कम-अज़-कम ये दो शक्लें उस के हाथ में ऐसी आई थीं जो एक मुस्तक़िल रास्ते की तदबीर थीं। उनसे असद को एक सिम्त का इशारा मिलता, आराम हासिल होता। आराम की ज़रूरत अब उसे भूक से भी ज़्यादा होने लगी थी।’ 

नावेल ‘बाघ’ मैं अबदुल्लाह हुसैन ने इन्सानी ज़िंदगी के इसरार-ओ-रमूज़ पर से पर्दा उठाने के साथ ही साथ ख़ुद नावेल निगारी के असरार-ओ-रमूज़ की भी वज़ाहत की है। नावेल के इब्तेदाई सफ़हात में ही रावी, किरदार असद के क़ुव्वत-ए-तख़य्युल की वज़ाहत करते हुए बयान करता है। गोया नावेल नस्री तख़लीक़ी मुतून में तह दर तह असरार की एक दुनिया ख़ल्क़ होनी चाहिए जो क़ारी (त्मंकमत) को इस के ख़ारिजी  दुनिया से खींच कर अपनी ख़लक़ करदा दुनिया में ले आए और क़ारी इसी अफ़सानवी दुनिया को हक़ीक़त समझने लगे। ये उसी वक़्त मुम्किन है जब फ़िक्शन निगार वाक़ियात की तशकील-ओ-तर्तीब और किरदारों की तशकील इस मंतक़ी अंदाज़ से करे कि उनमें तजस्सुस दर तजस्सुस पैदा होता चला जाये और इन्सानी ज़िंदगी की तरह नावेल /फ़िक्शन के बयानिया में भी एक पुर-असरार दुनिया ख़ल्क़ (निर्माण) हो जाये।

नावेल की तामीर (निर्माण) का ये तरीका-ए-कार(शैली), तख़लीक़ी ज़बान की तशकील (रचनात्मक भाषा) और फ़न-ए-नावेल निगारी (उपन्यास लेखन की कला) पर नावेल निगार अबदुल्लाह हुसैन के इंतिहाई क़ुदरत का पता देता है।

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित)

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