अदबी बारीकियों का ज़खीरा तनकीदी औराक
- डॉ..वारिस अंसारी
तनकीद का शाब्दिक अर्थ आलोचना होता है, लेकिन अदब में तनकीद के माने किसी की बुराई करना नहीं बल्कि उसकी अदबी सलाहियतों की बारीकियों पर नज़र डालना है। तनकीद अदब की वह खूबसूरत छेनी है जो तखलीक या मज़मून को तराश कर और भी खूबसूरत बना देती है। प्रो. शबनम हमीद की किताब ‘तनकीदी औराक़’ में ऐसे ही तमाम शायरों, अदीबों की अदबी खिदमात का जायज़ा लिया गया है, जिसमें फन की बारीकियों, खूबियों और खामियों पर बात की गई है। इस किताब में 16 मज़ामीन हैं,ं जिसमें शायरी, तहकीक, ड्रामा और नावेल वगैरा पर मजमून शामिल हैं। किताब में पहला मजमून ‘हाली बहैसियत मोहक्किक ग़ालिब’ के उनवान (शीर्षक) पर है जिसमें मौलाना हाली की तनकीद निगारी पर जबरदस्त तरीके से बात की गई है। किताब में शामिल दूसरा मजमून नई नज़्म पर है, जिसमें नई नज़्म के हवाले से बात की गई है। अहदे हाज़िर में ‘दास्तान की अहमियत’ पढ़ने लायक मजमून है, जिसमें मोसन्निफह शबनम हमीद ने दास्तान को लेकर बड़ी बात कही कि ‘अदब की हर शाख किसी न किसी सूरत में हर ज़माने में मुफीद ही साबित होती हैं। ड्रामा पर चार मजमून हैं जबकि एक मजमून ड्रामा निगार पर भी पढ़ने को मिला। इनके अलावा एक मजमून दो ज़बानों की तारीख़ से ताल्लुक रखता है।’
मुसन्निफह प्रो. शबनम हमीद ने बड़ी ही मेहनत से ‘तनकीदी अैराक’ को किताब की शक्ल दी है। उन्होंने तामामी मज़ामीन में इतने खूबसूरत और आसान लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया है की कारी (पाठक) रवानी से पढ़ता चला जाता है और अपने दिलो दिमाग पर कोई बोझ महसूस नहीं करता। खूबसूरत हार्ड कवर के साथ 188 पेज के किताब की कीमत सिर्फ 300 रूपए है, जो कि सन 2022 में रोशन प्रिंटर्स देहली से कंपोज हो कर एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस डी 1/ 16अंसारी रोड दरिया गंज, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। इतनी खूबसूरत और कारामद किताब के लिए मोहतरमा प्रो. शबनम हमीद को दिली मुबारकबाद।
निस्वनियत से आगे की बात करती गजलें
शायरी में जहां शोअरा हज़रात की मज़ीद तादाद बढ़ती जा रह है, वहीं शायरात भी पीछे नहीं। एक से बढ़ कर एक शायरा हैं, जिनकी शायरी में सिर्फ निस्वनियत ही नहीं बल्कि वह दौर-ए-हाज़िर के तमाम मनाज़िर अपनी आगोश में समेट कर अवाम को रु-ब-रु कराती हैं। इनमें एक शायरा तलअत जहां सरोहा का भी नाम है। इस वक़्त उनकी किताब ‘काविश-ए-तलअत’ मेरे हाथ में है, जिसको मैंने भरपूर पढ़ा और समझा। वह एक आला तालीम याफ्ता घराने से हैं और खुद भी आला तालीम याफ्ता हैं जो कि उर्दू टीचर की शक्ल में अपनी खिदमात अंजाम दे रही हैं। तलअत का ये पहला शेरी-मजमूआ है, लेकिन उनके ख़्यालात में बड़ी पुख्तगी है। वह निस्वानियत की रहनुमाई के साथ-साथ अपनी शायरी में समाज का दर्द, जिंदगी के ज़रूरी मसाइल और हालात-ए-हाज़रा पर भी अपनी गिरफ्त रखती हैं। उनकी शायरी पढ़ कर ऐसा महसूस होता है जैसे उन्होंने जिंदगी को बहुत करीब से देखा और समझा है। उनकी शायरी में कौमी यकजहती भी झलकती है, जिससे ये बार साफ हो जाती है की वह कट्टरता के खिलाफ हैं। आइए एक मतला और एक शे’र मुलाहिजा करते चलें-‘ईरान के लिए न तो तूरान के लिए/है मेरा प्यार अपने गुलिस्तान के लिए/ तलअत हमारा मुल्क है ये गुलशन ए जम्हूर/हिंदू के लिए है न मुसलमान के लिए।’ हालात पर नज़र डालते हुए वह कहती हैं-‘मयकदा भी है गम का घर बाबा/इस लिए लग रहा है डर बाबा/एक सैयाद की तरह गम ने/नोच डाले हैं बालोदृपर बाबा।’ उनकी शायरी में आसान लफ़्ज़ों के साथ साथ शाइस्तगी है और सलासत भी। वह फिक्र की ऊंचाइयों पर जा कर शायरी करती हैं। उनके लहजे में लताफत है जो उन्हें सबसे अलग बनाती है। उनकी ग़ज़ल का एक मतला एक शे’र और देखते चलते हैं जो कि सादा और आसान होते हुए भी अपने अंदर बला की गहराई वा गिराई समेटे है।
‘ये कैद व कफस का ही सुकूं बख्श असर है/अब बर्क का खतरा है न सैयाद का डर है/जो तोड़े है अब दैरो हरम के भी तिलिस्मात/ऐ जाने वफा तेरे सिवा किसकी नज़र है।’ मजमुआ में ऐसे बहुत से खूबसूरत अश्आर, खूबसूरत गज़लें देखने को मिलेंगी लेकिन उनको अभी मज़ीद मश्क सुखन की ज़़रूरत भी है, जिससे आगे की राह आसान होगी और अदब में एक नुमाया मुकाम भी हासिल होगा। किताब हार्ड जिल्द में है जिसके ऊपर उनकी तस्वीर के साथ बहुत ही खूबसूरत कवर भी है। 150 पेज की इस किताब ‘काविश-ए-तलअत’ को सिटी प्रिंटर्स मालेगांव से किताबत करा कर जावेद ख़ान सरोहा एंड ब्रदर्स 12/944 दाऊद सराय स्ट्रीट, सहनपुर उत्तर प्रदेश से प्रकाशित किया है। इस किताब की कीमत मात्र 200 रुपए है।
ज़िंदगी से आशना कराती सुहैल की ग़ज़लें
सहारनपुर अदब का वह मस्कन रहा जहां बड़े नामवर शायर, अदीब और सहाफी हुए जिनमें फिरोज़ जावेद, रोशन सिद्दीकी, रज़ी अख्तर शौक़, आमिर उस्मानी जैसे लोगों ने इस सर ज़मीन की ज़ीनत बढ़ाई और मौजूदा दौर में नवाज़ देवबंदी, रहमान मुसव्विर, आसिम पीर ज़ादा, आएशा फरहीन जैसी तमाम शख्सियात को इसी सर ज़मीन ने जनम दिया और आज इनकी अदबी सरगर्मी बैनल अकवामी प्लेटफार्म पर भी देखने को मिलती है। इन्हीं लोगों के बीच से एक नाम बहुत तेज़ी से उभर कर मंजरे आम पर आया जिसे दुनिया-ए-अदब सुहैल इकबाल के नाम से जानती पहचानती है। सुहैल इकबाल पेशे से इंजीनियर हैं और लगभग ढाई दशक से सऊदी अरब में अपनी खिदमात अंजाम दे रहे हैं। इंजीनियरिंग के साथ साथ उन्हें लफ्जों के तराशने का हुनर भी अपनाया और एक खूबसूरत मजमुआ ‘सहरा में शाम’ अवाम के सुपुर्द कर दिया। उनकी शायरी में रवानगी है, मोहब्बत का रंग है और जिंदगी की सच्चाई भी। जैसा कि वह खुद बताते हैं कि ‘मुझे उरूज़ का इल्म नहीं है धुन पर ही शायरी की तखलीक करता हूं।’ लेकिन उनके पूरे मजमुआ में उरूज़ की कोई कमी नज़र नहीं आती। वह आसान लफ़्ज़ों में सलासात के साथ शायरी करते हैं जिससे कारी (पाठक) उनकी शायरी में डूबता चला जाता है और अपने ऊपर बार भी नहीं महसूस करता। आइए उनके चांद अशआर पर नज़र करते चलें-‘मज़ीद मुझमें मुसाफत की जब न ताब रही/तो थक के सो गया मैं भी वहीं ज़मीन के साथ।’, ‘मरने की अपने अपने दुआ मांगने लगे/घबरा के सब चराग हवा मांगने लगे/घर लौटने में मुझको ज़रा देर क्या हुई/सब मेरी जिंदगी की दुआ मांगने लगे।’ एक मतला और एक शे’र और मुलाहिजा करते चलें-‘दौरान-ए-सफर तेज़ हवा सबको मिलेगी/घर छोड़ के जाने की सज़ा सबको मिलेगी/सहरा हो समुंदर हो बियाबां हो कि गुलशन/खुर्शीद उगेगा तो ज़िया सबको मिलेगी।’
पूरा मजमुआ (संग्रह) ऐसे तमाम खूबसूरत अशआर से भरा हुआ है जिनको पढ़ने के बाद कारी (पाठक) बहुत देर तक सोचता है और जिंदगी की सच्चाई को महसूस भी करता है। मजमुआ की शुरुआत हम्द बारी तआला से की गई है जिसके बाद नअत और मनकबत भी हैं। पूरे मजमुआ में 82 ग़ज़लें हैं और कुछ फुटकर अशआर भी।बेहतरीन हार्ड जिल्द के साथ 182 पेज की इस किताब को वासिफ कंप्यूटर सेंटर, छत्ता मस्जिद, दारुल उलूम देवबंद से किताबत करा कर होराइजन एकेडमी सहारनपुर से सितंबर 2018 में प्रकाशित किया गया । किताब की कीमत मात्र 200 रुपए है।
( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित )
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