अब राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार देश में कहीं नहीं दिखते: क़मर आग़ा
मूलत: इलाहाबाद के रहने वाले क़़मर आग़़ा दिल्ली में निवास कर रहते हैंं। आप अंतरराष्ट्रीय मामलों के जाने-माने जानकार, रक्षा विशेषज्ञ और स्तंभकार हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, दि हिन्दू, हिन्दुस्तान टाइम्स, नेशनल हेराल्ड के साथ-साथ वाशिंगटन पोस्ट समेत कई देशों के अख़बारों के लिए नियमित लेखन किया है। बीबीसी, वायस ऑफ अमेरिका, जर्मन टीवी डीडब्लू सहित देश-विदेश के कई टीवी चैनेल से जुड़े रहे हैं। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान समेत कई देशों की सरकारों के प्रमुखों के आपने बहुत बेबाक इंटरव्यू किए हैं। जेएनयू के साथ-साथ अमेरिका सहित कई देशों की कई यूनिवर्सिटी में आप विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। क़मर आग़ा के इलाहाबाद प्रवास के दौरान अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंश -
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क़मर आग़ा से बातचीत करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’। |
सवाल: इलाहाबाद के प्रयागराज होने के साथ-साथ, समय में आ रहे तेज बदलाव का सांझी संस्कृति के इस शहर के लोगों की सोच और आबो-हवा पर पड़ रहा प्रभाव किस दिशा में जा रहा है?
जवाब: पूरे भारत में अगर बदलाव आ रहा है, तो यह बदलाव इलाहाबाद में भी नजर आएगा। बदलाव तो हर समय, हर समाज में आता रहता है। अगर बदलाव नहीं आएगा तो समाज रुग्ण समाज हो जाएगा। बदलाव अच्छा है या डिके की तरफ जा रहा है, यह देखने की ज़रूरत है। इलाहाबाद एक यूनिक शहर है। इलाहाबाद क्षेत्र में सेकुलर, प्रोग्रेसिव जनता है और यहां कल्चरल डायवर्सिटी बहुत है। यहां की भाषा, हिन्दी और उर्दू और स्थानीय भाषाओं का सुंदर मिक्चर है। मैं हिन्दी के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन भाषाई विकास के दृष्टिकोण से, स्थानीय भाषाओं और हिन्दी का साथ ज़रूरी है। स्थानीय भाषाओं जैसे अवधी आदि का संरक्षण बहुत जरूरी है। अवधी भाषा बहुत सुन्दर है। जिसके ऊपर अब कुछ काम नहीं हो रहा है। इलाहाबाद कल्चरल हब था। एक जमाने में दो किस्म के पापुलर कल्चर, म्यूजिक और फेस्टिवल, जिसमें पतंगबाजी, कबूतरबाजी, कुश्ती-कबड्डी आदि भी शामिल थे, बहुत जोर-शोर से नजर आया करते थे। पूरे अवध में यही कल्चर था। संगीत समिति में संगीत के प्रोग्राम भी बहुत अच्छे होते रहते थे। म्यूजिक में क्लासिकल म्यूजिक, सेमी क्लासिकल म्यूजिक, आदि का यह गढ़ था। आजकल संगीत समिति के साथ-साथ नार्थ कल्चरल सेंटर जोन यहीं है। उनकी शानदार एक्टीविटी, हस्तशिल्प मेला के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन में नजर आती रहती है। मेला तो भारत में बहुत इम्पार्टेंट आस्पेक्ट है। यहां होने वाला माघ मेला और कुंभ मेला, से बड़ा मेला तो शायद पूरे दुनिया में कहीं नहीं होता है। अगर भारत को समझना है तो ये मेला देखना बहुत जरूरी है। मैंने तो कई बार देखा है। जनसंख्या में वृद्धि और बेहतर जीवन की चाह में, गांव-देहात से शहरों में, शहर से बड़े कास्मोपोलेटिन शहरों में, माइग्रेशन के कारण, बहुत असर हो रहा है। शिक्षा-रोजगार के चक्कर में, गांव और दूसरे शहरों से बड़ी संख्या में, बाहर से बहुत लोग आ कर, इलाहाबाद में बस गए हैं। इस वजह से इलाहाबाद का पुराना अर्बन कल्चर, अब खो गया सा लगता है। माइग्रेशन के कारण, भाषा खान-पान सहित सब चीजों पर असर हो रहा है। ग्लोबलाइजेशन का भी असर है।
सवाल: इलाहाबाद के राजनीतिक माहौल में आए बदलाव को कैसे देखते हैं ?
जवाब: एक ज़माने में इलाहाबाद नेशनल मूवमेंट का हेडक्वार्टर जैसा हुआ करता था। गांधी-नेहरू एवं कांग्रेस के सारे बड़े लीडर की गतिविधियों का इलाहाबाद केंद्र था। बड़े-बड़े लीडरों के आने-जाने से, शहर पर भी काफी इम्पैक्ट था। आप शहर का ट्रांजीशन देखिए, फ्यूडल माहौल से निकल कर इलाहाबाद, नेशनल मूवमेंट की वजह से माडर्न शहर हो गया था। क्योंकि उस जमाने में नेहरू बात कर रहे थे साइंटिफिक टेम्पर, कल्चरल माडर्नाएजशन की, इंडस्ट्रियलाइजेशन की। इसी शहर से यह मूवमेंट निकला था। यहां पर दो बड़े अखबार थे, लीडर और नार्दर्न इंडिया पत्रिका, जिनका नेशनल मूवमेंट में बहुत बड़ा रोल है। बहुत बड़ा वर्ग था जो इंग्लिश अखबार पढ़ता था, इंग्लिश बोलता था। लेकिन अब वो बात नहीं रही।
सवाल: इलाहाबाद में हो रहे इस बदलाव का पत्रकारिता और साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?
जवाब: जर्नलिज्म तो है लेकिन वो स्तर नहीं दिख रहा है कम्पटीशन भी नहीं है। यहां भी नहीं है, नेशनल लेविल पर भी नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में उस जमाने में डॉ राम कुमार वर्मा, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, फ़िराक़ गोरखपुरी आदि इस शहर की शान हुआ करते थे। पर आज के दौर में इनके स्तर का साहित्यकार न तो इलाहाबाद में, और न ही राष्ट्रीय स्तर पर कहीं दिखाते हैं। आज आप उर्दू में फ़िराक़ जैसा पोएट या फ़ारूक़ी साहब जैसा राइटर या हिंदी में महादेवी वर्मा और निराला जैसा साहित्यकार क्या दिखा सकते हैं?
सवाल: देश को कई प्रधानमंत्री तथा प्रदेश को मुख्यमंत्री देने वाले इलाहाबाद के राजनेताओं की राष्ट्रीय स्तर पर अब वह पहचान नहीं रही। इसका क्या कारण है ?
जवाब: राजनीति अब प्रोफेशन बन गई है। पहले राजनीति में वो लोग आते थे जो अपने जीवन में सेक्रीफाइस किया करते थे। सेवाभाव ही उनके काम का आधार होता था। मुल्क को अच्छा बनाना, उनका उद्देश्य होता था। राष्ट्र की तरफ कमिटमेंट होता था। अब एक बड़ा सेक्शन या ग्रुप जो इस क्षेत्र में आ रहा है, उसका नियत कुछ और होता है। वो बार-बार पकड़ा भी जा रहा है, रेड पड़ रही है। लीडरशिप, अगर कम्प्रोमाइज कर लेगी तो बड़ी मुश्किल होगी। पोलिटकल पार्टीज की कोई स्थिर आइडियोलॉजी न होना भी एक समस्या है। अगर कोई आइडियोलॉजी है तो बस एक कि किसी तरह से सत्ता में आ जाएं। कास्ट सिस्टम ने भी ऐसा बांट दिया है कि एक बहुत बड़ा सेटबैक हो गया है। बीजेपी की कसेंट्रिस्ट पालिटिक्स थी, जहां से इमर्ज हुई थी, वो अब कहीं न कहीं कम्प्रोमाइज हो गई है।
सवाल: पिछले कुछ वर्षों से भारतीय पत्रकारिता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। देश की पत्रकारिता के साथ-साथ दुनिया के अन्य देशों की पत्रकारिता को आप किस रूप में आप देख रहे हैं? क्या अब पूरी दुनिया की पत्रकारिता सत्तापक्ष की ओर उन्मुख और हिमायती हो रही है?
जवाब: पत्रकारिता का रूप बदल गया है। अब कोई भी अख़बार बगै़र सरकारी सपोर्ट के नहीं चल सकता। रेवन्यू की बहुत ज़रूरत होती है। 24 घंटे न्यूज चैनल की, टीवी पर शुरुआत के साथ ही, इनके सामने अर्थाभाव की समस्या आने लगी। इनको सुचारू रूप से चलाने के लिए, बहुत पैसा लगता है। इसकी वजह से, बहुत ज्यादा विज्ञापन की आवश्यकता होती है। सरकार से लड़कर आप इन्हें ज्यादा समय तक नहीं चला सकते। दूसरी तरफ सरकारों को भी बहुत ज्यादा आलोचना पसंद नहीं है। अगर आलोचना नहीं होगी तो सरकार को सही ख़बर भी नहीं मिलेगी। इससे सबसे ज्यादा नुकसान सत्ता दल या सरकारों को ही होता है। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान जब मीडिया पर बैन लगाया तो उनको सही खबर ही नहीं मिली कि देश में क्या हो रहा है। अख़बार से ही इंटेलीजेंस को भी खबर मिलती है, जिसे वो फरदर डेवलप करते हैं। ये एक ऐसा स्तंभ है कि अगर इससे ज्यादा खिलवाड़ किया जाएगा तो इसका असर रूलिंग पार्टाे या देश की पालिटिक्स पर ही ज्यादा होगा। यह ज़रूरी है कि इसको किसी तरह से आजाद रखा जाए। ये सारे न्यूज पेपर या मीडिया हाउस, सब बड़े बड़े बिजनेस घरानों के हैं इसका उपयोग वो प्रोगवरनमेंट के रूप में करते हैं। बड़े-बड़े प्रोजेक्ट लाने के लिए पी आर की तरह भी इस्तेमाल करते हैं। पहले के ज़माने में होने वाली आबजेक्टिव रिपोर्टिंग अब यहां ही नहीं, ग्लोबली भी नहीं रही। वो भी अब बदल गई है। चाहे बीबीसी हो या अमेरिकन न्यूज पेपर हों या ब्रिटिश न्यूज पेपर हों, ये सब अपने हितों के अनुसार ही रिपोर्टिंग करते हैं, उन्हीं को प्रोमोट करते हैं। आप वाशिंगटन पोस्ट की थर्ड वर्ड के बारे में रिपोर्टिंग देखिए, बहुत खराब है लेकिन इसके बावजूद, वो अपनी बेसिक पालिसी संबंधित कुछ मुद्दों पर कोई समझौता नहीं करते हैं। व्हाइट सुप्रीमेसी संबंधित बातों पर कंडेम तो ज़रूर कर देते हैं, लेकिन उनको बचाने की प्रवृत्ति भी उनमें रहती है। समस्याएं ग्लोबल मीडिया में भी है। दूसरी तरफ सोशल मीडिया आजकल बहुत स्ट्रांग हो गया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो ख़बरें बड़े-बड़े अख़बार नहीं ला पाते, वो यू-ट्यूबर उपलब्ध करा रहे हैं। बहुत से मुद्दों पर उनकी रिपोर्टिंग बहुत रिमार्केबिल होती है। मुझे नहीं लगता कि मीडिया को अब कोई दबा सकता है। अगर मेन स्ट्रीम मीडिया पर आपने किसी खबर को रोक लिया तो देर सबेर, एक दो दिन लेट भले ही हो जाए, पर वह खबर, अल्टरनेट मीडिया के रूप में मौजूद सोशल नेटवर्क पर ज़रूर आ जाएगी। लोगों के पास हर वक़्त कैमरा है, रिपोर्टिंग 24×7 भी हो रही है। बहुत से मुद्दों जैसे इवायरमेंट, हेल्थ, एजुकेशन आदि पर इतना इंफारमेटिव रिपोर्टिंग है कि आप सोच भी नहीं सकते।
सवाल: वर्तमान पत्रकारिता, में सामाजिक परिस्थितियों के चित्रण को आप किस दृष्टि से देखते हैं। वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों/सौहार्द को सुधारने मे यह कैसे मददगार हो सकती है।
जवाब: मीडिया के बहुत से फार्म्स हैं। मेन स्ट्रीम मीडिया ने अपने आपको काफी हद तक, कम्प्रोमाइज किया है। मेन स्ट्रीम मीडिया में बहुत से मुद्दे नहीं उठ रहे हैं। प्रिंट मीडिया के अलावा टीवी, सोशल मीडिया, आदि, मीडिया के बहुत से फार्म है। आजकल विभिन्न विषयों पर बहुत उच्च क्वालिटी की बहुत इन्फार्मेटिव डाक्यूमेंटेरी बन रही है, लेकिन अफसोस है कि बहुत कम लोग इन डाक्यूमेंटेरी को देख रहे हैं। इन चीज़ों को आप दबा नहीं सकते। भारत के अंदर जिसने भी इनकी आज़ादी से ज्यादा खिलवाड़ किया, उसके लिए मुश्किल हो जाएगी। यहां डेमोक्रेसी बहुत नीचे तक लगभग रूट लेवल तक है। कुछ दिनों कुछ समय के लिए कोई मामला इधर उधर हो सकता है परंतु कुछ समय पश्चात समाज स्वयं ही इसे सही कर लेता है। उसका कारण है कि यहां पर अधिकतर लोग मध्यम वर्ग है जो न तो वामपंथी है और न ही दक्षिणपंथी है बल्कि मध्यमार्गी है। यह बुद्ध के समय से ही चला आ रहा है। और यह स्थिति, केवल एक कम्यूनिटी में ही नहीं बल्कि यहां की सभी कम्यूनिटी में है।
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बाएं से: क़मर आग़ा, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। |
सवाल: विगत कई वर्षों से दुनिया के किसी न किसी हिस्से में युद्ध की स्थिति बनी हुई है। दुनियाभर में हथियार निर्माण में लगे बड़े-बड़े संस्थानों द्वारा बनाए जा रहे हथियारों की खपत के लिए, क्या युद्ध का लगातार होते रहना एक अनिवार्यता बन गई है ?
जवाब: नहीं, ऐसी बात नहीं है। जो आपने कहा उसका यह केवल एक हिस्सा ही है। युद्ध से हथियार निर्माता कंपनियों को फायदा अवश्य होता है लेकिन केवल यही एक वजह नहीं है। मुख्य बात है कि अमेरिका का पावर डिक्लाइन हो रहा है और जब किसी बड़ी पावर का डिक्लाइन होता है तो वो इतनी आसानी से नहीं मिट सकता। उसके पास अथाह ताक़त होती है। उसकी कोशिश होती है कि वह अपने ताकत से अपनी पालिसी को मनवाए, अपने हितो की रक्षा करे। अमेरिका की विदेश नीति बहुत मिलेट्राइज्ड हो गई है। अत: अगर वो डिप्लोमेसी से अपना मकसद हल नहीं कर सकते तो उनकी कोशिश होती है कि येन-केन-प्रकारेण इसको हल करो। तेल उत्पादक देशों की सरकारें, अगर तेल देने को तैयार नहीं है, अगर वो बातें नहीं मानते तो इन देशों पर सैंक्शन लगा दो, कमजोर करो। जनता अगर सत्ता नहीं बदल रही तो अटैक करके सत्ता बदल दो। अफगानिस्तान, इराक में इन्होंने सत्ता बदली लेकिन इनके मकसद नहीं कामयाब हुए। प्रो-अमेरिका सरकार नहीं बना पाए। ईरान में भी इनकी कोशिश कामयाब नहीं हुई। वियतनाम, कम्बोडिया में सालों युद्ध चला। लाखों लोग मारे गए। कई शहर बरबाद हो गए, रीजिम नहीं चेंज हुआ। अब मल्टी पोलर विश्व इमर्ज हो रहा है और ये नहीं चाहते कि विश्व मल्टी पोलर हो। ये चाहते हैं कि इनका सुपर पावर स्टेटस बरकरार रहे। इनको लगता है कि रूस और चीन बड़े पावर के रूप में इमर्ज हो रहे हैं तो उनको इनसर्किल करो, कमजोर करो। सबसे बड़ी बात ये है कि यूरोप और अमेरिका की टेक्नोलॉजी पर जो पकड़ थी वो अब धीरे-धीरे कम हो रही है। रूस अपनी तकनीकी के बल पर आटोमोबाइल रक्षा आदि क्षेत्रों में मजबूत और सस्ते उत्पाद बना रहा, जिनके स्पेयर पार्ट भी बहुत सस्ते हैं। अत: रूस को रोकने के लिए यूक्रेन को, उसके विरुद्ध खड़ा कर दो, रूस यूक्रेन में युद्ध करा दो।
सवाल: यूक्रेन, इजराइल, ताइवान आदि युद्धग्रस्त देशों के लिए अमेरिका में 95 बिलियन डालर की मदद का एक फंड पास हुआ हैै जिसका लगभग 90 प्रतिशत हथियार संबंधित मदद और लगभग 10 प्रतिशत मानवीय सहायता के रूप में है। यह मदद क्या युद्धों को और भड़काकर मानवता को उसके निम्नतम स्तर पर ले जाने का कुत्सित प्रयास नहीं है ?
जवाब: इन बड़ी ताक़तों को मानवता की कोई फिक्र नहीं है। गाज़ा मे क्या हो रहा है? ये कहते हैं कि हम कानून और नियमों पर आधारित, वेस्टर्न सिविलाइजेशन के पार्ट हैं। ह्यूमेन राइट्स, वीमेन लिबरलाइजेशन की ये बात करते हैं और देखिए कि गाज़ा में मरने वालों में 50 प्रतिशत औरत और बच्चे हैं। ह्यूमेन राइट्स की ये बात जरूर करते हैं पर दूसरे देशों में ये केवलअपने हित की रक्षा करते हैं। गाजा में मानवीय सहायता के रूप में दी गई मदद भी इजराइल के द्वारा ही गाज़ा तक पहुंचेगी। अत: ज़रूरतमंदो तक कितनी मदद पहुंचेगी कहा नहीं जा सकता। अमेरिकन हितों को प्रोटेक्ट करने की वजह से, इजराइल, अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन अब इजराइल, अमेरिका के लिए भी लाइबेलिटी बन गया है। इसलिए कि अमेरिका ने अपने हितों को प्रोटेक्ट करने के लिए तमाम अरब देशों में सेना डिप्लॉय कर दी है। अब इस समय इजराइल को बचाने के लिए अमेरिकन सेना चारों तरफ बिखरी हुई है। पर्शियन गल्फ में बहुत बड़ी अमेरिकन सेना तैनात है कि कहीं ईरान स्टेट आफ होरमुज़ को बंद न कर दे। तेल की सप्लाई डिस्टर्ब न कर दे। लाल सागर में हूती विद्रोहियों को रोकने के लिए अमेरिकन नेवी तैनात की है। ईस्टर्न मेरीटियन में हिज्बुल्ला और ईराकी मिलीशिया के आक्रमण को रोकने के लिए सेना लगाई गई है। इजराइल को प्रोटेक्ट करने के लिए प्रतिदिन बिलियन डालर का खर्च हो रहा है। इसका प्रभाव अमेरिकन अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। मिलेट्री इंडस्ट्रियल कांप्लेक्स अमेरिका में सबसे पावरफुल लाबी हैं। ये चुनाव में बड़ी-बड़ी फंडिंग भी करते हैं। इन सब कारणों से अमेरिकन हथियारों की बिक्री होते रहना चाहिए।
सवाल: क्या इन परिस्थितियों में बदलाव की कोई गुंजाइश नजर आती है?
जवाब: बदलाव को बड़ी ताकतें स्वीकार नहीं करती जब तक वो पिट न जाएं। इसके बावजूद बदलाव वहां भी आ रहा है जो दो तरफ से है एक तो अमेरिकन यंग पब्लिक को लग रहा है कि गाज़ा और दूसरी जगहों पर गलत हो रहा है। इससे अमेरिका बदनाम हो रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। अमेरिका में भी राइटविंग बहुत मजबूत है। ट्रंप ग्रुप बहुत रेसिस्ट है, उनके दिल में थर्ड वर्ड के लिए कोई जगह ही नहीं है। वो चाहते हैं, कि सभी अश्वेत लोगों को अमेरिका से बाहर निकाल दिया जाएं।
सवाल: दुनिया भर में तेल के भूमिगत स्रोतों में तेल की मात्रा में आती हुई लगातार कमी के कारण अरब देशों, विशेषकर सउदी अरब में आर्थिक सुधार संबंधित क्या बदलाव आ रहे हैं
जवाब: सऊदी अरब की आर्थिक नीति में बहुत बड़ा बदलवा आ रहा है। वो एक नई पालिसी, विजन 2030 ला रहे हैं। जिसमें अपनी आर्थिक निर्भरता को तेल से हटाकर, रेवन्यू जनरेट करने के अन्य क्षेत्रों में ले जा रहे हैं। रूस, चीन आदि देशों की मदद से टूरिस्ट हब, इंडस्ट्रियल टाऊन आदि विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। डिफेंस आइटम बनाने का भी प्लान है। एक नया बदलाव अरब देशों में आ रहा है। ये इसलिए कर रहे हैं कि अमेरिका और अन्य देशों से पढ़कर आए लोकल युवा लोगों को रोजगार भी मिले।
सवाल: भारत के हितों को देखते हुए पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, श्रीलंका, मालदीव, बंगलादेश, भूटान एवं नेपाल पर चीन के प्रभाव का आप कैसे मूल्यांकन करते हैं?
जवाब: चाइना का प्रभाव इस क्षेत्र में तेजी से बढ़ रहा है। चीन के पास बहुत ज्यादा सरप्लस मनी है। चीन की नीति है कि भारत को चारों तरफ से घेर लो। इन देशों में इन्वेस्टमेंट के जरिए वहां के सत्ता वर्ग को प्रभावित करो। फिर इतने बड़े बड़े कर्जे दे दो जिसको ये सस्टेन ही, न कर पाएं। फिर जिन देशों को ये लोन देते हैं उन देशों से कहते हैं कि आप भारत का साथ छोड़कर हमारे साथ आ जाओ। इनकी विदेश नीति को भी प्रभावित करते हैं। मगर ये सारे क्षेत्र हजारों साल से भारत के साथ जुड़े हुए हैं और चीन की इसमें नई इन्ट्री है। इसलिए हम देखते हैं कि अगर प्रोचाइना सरकार किसी देश में आ भी जाती है तो अगले इलेक्शन में दुबारा भारत समर्थक सरकार हो जाती है। ये टसल इन देशों में भी बनी है। कुछ समय के लिए, चीन समर्थक नीति भले ही, अपना लें, लेकिन ये देश, भारत विरोधी नीति नहीं अपनाते। पाकिस्तान जरूर इस मामले में अपवाद है।
सवाल: आप देश-विदेश के विभिन्न मंचो पर आपके व्याख्यान होते रहते हैं। अपने व्याख्यान के दौरान हुई किसी विशिष्ट/महत्वपूर्ण घटना के बारें में हमारे पाठकों को अवगत कराइए।
जवाब: मेरा अनुभव है कि पश्चिमी देशों के लोगों में अभी भी भारत के बारे में बहुत कम जानकारी है। भारत मे रहने वाले डिप्लोमैट्स के अलावा, बहुत बड़े बड़े डिप्लोमैट्स भी भारत के बारे में बहुत नहीं जानते हैं। वो अभी भी समझते हैं कि भारत में गुरबत बहुत है। स्नेक चार्मर आदि का देश है। परंतु अब स्थिति धीरे धीरे बदल रही है। बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग आईटी सेक्टर और अन्य क्षेत्रों में अच्छा काम कर रहे हैं। जिनकी वजह से भारत की इमेज भी बदल रही है। भारत की छवि में बहुत बड़ा पॉजिटिव बदलाव आया है।
सवाल: बंद होती पत्रिकाओं एवं अखबारों तथा समस्याओं से घिरी पत्रकारिता को पेशे के रूप में अपनाने वाले, नये पत्रकारों के लिए आपका क्या संदेश है ?
जवाब: इस समय, प्रिंट मीडिया का सर्वाइवल, बहुत मुश्किल हो गया है। पाठक घटते जा रहे हैं। लोग पत्र, पत्रिकाएं खरीद नहीं रहे हैं। इंटरनेट पर ही अख़बार पढ़ रहे हैं। छोटी-मोटी पत्रिकाएं तो बहुत ही मुश्किल में है। बड़े समाचारपत्रों का भी हाल खस्ता है। वर्नाक्यूलर न्यूजपेपर और स्थानीय भाषाओं में छपने वाले अखबारों की बहुत बुरी हालत है। सबसे बड़ी बात है कि लोग खरीद कर नहीं पढ़ रहे हैं। जागरूकता नहीं है। यह बदलाव यहीं नहीं, वैश्विक स्तर पर है। गार्डियन जैसा अख़बार में अगर एक ख़बर खोलिए तो नीचे लिखा हुआ नजर आएगा कि हमें आपसे आर्थिक सहयोग की ज़रूरत है। यह समस्या अब वैश्विक स्तर पर है। जर्नलिस्ट लोगों के लिए भी, बड़े मुश्किल का समय है। ये युवक सोचते हैं कि समाज में बदलाव लाएंगे। 12 घंटे-14 घंटे, कड़ी धूप-बरसात में, काम कर रहे हैं। सैलरी-सुविधाएं बहुत कम है। मीडिया हाउस सोचते हैं कि नौकरी देकर एहसान कर दिया है। हालांकि, इनमें सीखने की प्रवत्ति भी धीरे-धीरे कम हो रही है। आजकल के जर्नलिस्टों को उनके कार्य में उपयोगी नई नई तकनीकों को सीखने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। उम्मीद है कि समय के साथ, इस स्थिति में भी बदलाव आएगा।
(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित)
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