शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

 फ़ारूक़ी साहब ने बेटियों को खुद दी इस्लाम की शिक्षा

इंतिकाल से पहले अपनी बेगम के बगल में दफनाने की मांग की थी

औरतों के पर्दा करने के सख़्त खिलाफ़ थे महान आलोचक फ़ारूक़ी  

                                                                    - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

  अपनी बड़ी बेटी महर अफसां फ़ारूक़ी के साथ शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी 

.शम्सुरर्हमान फ़ारूक़ी वैसे तो इलाहाबाद में रहते थे, लेकिन इनकी अदबी शिनाख़्त वर्ल्ड लेवल पर उर्दू आलोचक के रूप में होती है। आज भले ही वो हमारे बीच मौजूद नहीं हैं, लेकिन उनका लिखा-पढ़ा रहती दुनिया तक याद किया जाएगा। जब भी उर्दू अदब में आलोचना की बात होगी तो सबसे पहले शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का नाम लेना ही पड़ेगा। उनकी अदबी सलाहियतों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और आगे भी लिखा जाता रहेगा। लेकिन उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। इतना बड़ा अदीब घर में कैसे रहता था, लेखन के अलावा क्या-क्या शौक़ थे और बच्चों के साथ उनकी चिनचर्या कैसी थी? आमतौर पर माना जाता है कि इस्लाम मज़हब की मान्यताओं से वे अपने आपको काफ़ी अलग रखते थे। इन सब चर्चाओं के बीच जब उनकी बेटी बारां फ़ारूक़ी से बातचीत की गई तो बहुत ही दिलचस्प बातें सामने आयीं।

 बारां फ़ारूक़ी जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अध्यापिका थीं। अपने वफ़ात से चंद महीने पहले शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने बारां से कहा कि-‘मेरे मरने के बाद इलाहाबाद आ जाना और इसी घर में रहना। घर को न तो बेचना और न ही किसी और को देखभाल के लिए देना।’ इस बात ने बारां को अंदर से हिला दिया। उसी वक़्त बारां ने दिल्ली छोड़ने का फैसला कर लिया। जामिया में प्रोफेसर की नौकरी छोड़कर मुकम्मल तौर पर इलाहाबाद आ गईं और अपने पिता की देखभाल करने लगीं। मां जमीला फ़ारूक़ी का पहले ही निधन हो चुका था। बारां की बड़ी बहन महर अफसां फ़ारूक़ी इनसे सात वर्ष बड़ी हैं, जो अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया के साउथ ईस्ट एशियन डिपार्टमेंट में प्रोफेसर हैं। उनका इलाहाबाद कम ही आना होता है।

 बारां बताती हैं कि शुरू में बहुत ही तंगी के हालात थे। वालिद ने बलिया और आज़मगढ़ में कुछ दिनों तक अध्यापन कार्य किया, लेकिन आमदनी इतनी अच्छी नहीं थी। किसी तरह से परिवार का पालन-पोषण हो रहा था। तब थार्नहिल रोड पर किराये के मकान में हमलोग रहते थे। वर्ष 1958 में फ़ारूक़ी साहब का चयन जब आई.ए.एस. में हो गया, तब परिवार की हालत बेहतर हुई। क़िदवई इंटर कॉलेज का जब निर्माण हो रहा था, उन दिनों मेरी मां पूरा दिन उसी में लगी रहती थीं। वहां काम करने वाले कहते थे कि अपनी बेटी को दूध पिला दीजिए, तब उनका ध्यान इस ओर जाता था। मां ने बड़ी मेहनत और लगन से कॉलेज का निर्माण कराया था।

 फ़ारूक़ी साहब के ़ग़ैर-इस्लामिक होने की चर्चा पर बारां इसे सिरे ख़ारिज़ करती हैं। उनका कहना है कि बचपन के दिनों में मेरे वालिद ने ही हम दोनों को कु़रआन की तालीम दी थी। दरूद शरीफ़ भी उन्होंने ही याद कराया था। नमाज कैसे पढ़ी जाती है? कौन सी दुआ कब पढ़ी जाती है? अपने से बड़ों से मिलते हैं तो किस तहज़ीब से मिलते हैं ? ये सारी बातें उन्होंने ही हमे सिखाई और पढ़ाई है। अपने गोंद में बैठाकर अरबी की तालीम देते थे। बाद में मौलवी साहब को लगवाकर पूरी अरबी की तालीम दिलाई। अपने पास बैठाकर दूसरे शायरों के अशआर भी अक्सर सुनाते थे। हां, इतना ज़रूर है कि स्कूल की पढ़ाई में कभी उन्होंने दखल नहीं दिया। हम दोनों बहनें अपनी मर्ज़ी से पाठ्यक्रम चुनते और पढ़ते रहे। बारां बताती हैं कि वे औरतों के पर्दा करने के खिलाफ़ थे। उनके नमाज पढ़ने के सवाल पर बारां बताती हैं कि पांचों वक़्त का नमाज पढ़ते थे, लेकिन जब हृदय रोग की चपेट में आए तो पांचों वक़्त का नमाज छोड़ दिए, सिर्फ़ जुमे की नमाज पढ़ने लगे।

बारां फ़ारूक़ी से बातचीत करते  डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


 फ़ारूक़ी साहब अपने लेखन में औरतों के श्रृंगार का जिक्र बहुत ही बारीकी से करते थे। इसी को लेकर एक बार एक मौलवी साहब का ख़त उनके पास आया था, जिसमें उन्होंने फ़ारूक़ी साहब को आगाह करते हुए लिखा था कि ’आप औरतों कें श्रृंगार का जिक्र जिस बारीकी से करते हैं, वह बहुत ही गुनाह की बात है। अल्लाह तअला आपसे बहुत नाराज होंगे। ऐसा लेखन न किया करें।’ फ़ारूक़ी साहब को जानवरों को पालने का बहुत शौक़ था। उन्होंने बिल्ली, कुत्ता और चिड़ियों को पाल रखा था। उनकी देखभाल खुद करते थे। वे अपनी दोनों बेटियों के साथ बैडमिंटन और क्रिकेट वगैरह खेलते थे। उन्हें हर तरह की कलम रखने का बहुत शौक़ था। उनके पास लगभग हर कंपनी और हर वैरायटी की कलम होती थी।

 बारां बताती हैं कि हमारे घर अक्सर ही अदीबों का जमावड़ा लगा रहता था। प्रो. एजाज, मसीउज्ज़मा, एहतेशाम हुसैन, नैयर मसूद, महमूद हाशमी, रामलाल वगैरह लोग अक्सर आया करते थे। ‘शबख़ून’ पत्रिका जब उन्होंने शुरू किया तो उसके लिए उन्होंने एक क़ातिब रखा था, जो प्रायः घर आते थे। मैं छोटी थी, इसलिए मुझसे घर में होने वाली अदबी गतिविधियों के बारे में कोई नहीं बताता था। मेरे वालिद अक्सर ही अदबी नशिस्तों का भी आयोजन करते थे। 

 इंतिकाल से कुछ दिनों पहले उन्होंने अख़्तर अमीन से कहा कि राजापुर कब्रिस्तान चले जाओ। वहां जाकर बात कर लो कि मेरी मौत होने पर मेरी बेग़म की कब्र के बगल में ही मुझे दफ़नाया जाए और अगर वो इसके लिए तैयार नहीं होते हैं तो एक दूसरी जगह की निशानदेही करते हुए उन्होंने कहा कि उस जगह कोने में मेरी कब्र बनाने की बात कर लो। अख़्तर अमीन ने जब वहां जाकर बात की तो उनकी बेगम के बगल में ही उन्हें दफनाये जाने की बात मान ली गई। इसलिए उनके इंतिक़ाल के बाद बेगम जमीला फ़ारूक़ी के बगल में उन्हें दफनाया गया।

( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित )





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