गुरुवार, 20 जनवरी 2022

फिल्मी गीत और अदब के स्तंभ रहे इब्राहीम अश्क

                                              

इब्राहीम अश्क


                                                                              - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी 

 16 जनवरी की शाम इस दुनिया से रुखसत हो जाने वाले शायर इब्राहीम अश्क फिल्मी दुनिया और उर्दू शायरी के बीच एक पुल का काम करने वाले अलग किस्म के शायर थे। एक तरफ जहां उन्होंने ‘कहो न प्यार है’, ‘कोई मिल गया’, ‘जानशीन’, ‘ऐतबार’, ‘बहार आने तक’ और ‘कोई मेरे दिल से पूछे’ ढेर सारी फिल्मों के लिए गीत लिखे, तो दूसरी तरफ उर्दू शायरी के व्याकरण पर काफी काम किया है, ग़ज़लों की नई बह्रो का खोज किया, उनकी शायरी पर अब तक पांच लोग शोधकार्य कर चुके हैं। इनके अलावा तरकीबन 700 एलमब के लिए गीत लिखे हैं। ‘इलहाम आगही’, ‘करबला’, ‘अलाव’, ‘अंदाज़े बयां’ और ‘तनक़ीदी शऊर’ नामक इनकी किताबें आ चुकी हैं। ‘रूबाई’ पर विशेष कार्य कर रहे थे, जल्द ही रूबाइयों की एक किताब लाने वाले थे। 

 पिछले और एक और दो जनवरी को वे हमारे आमंत्रण पर प्रयागराज में थे।, उन्होंने ही ‘तलब जौनपुरी के सौ शेर’ नामक किताब का विमोचन किया था। इब्राहीम अश्क का जन्म 20 जुलाई 1951 को मध्य प्रदेश के मंदसौर में हुआ था। उन्होंने अपनी कैरियर की शुरूआत पत्रकारिता से की थी। 12 वर्षों तक दिल्ली में रहे, यहीं इन्होंने ‘शमा’, ‘सुषमा’ और ‘सरिता’ पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग में काम किया था, इससे पहले ‘इंदौर समाचार’ में फीचर संपादक रहे थे। इसके बाद मुंबई चले आए, और यहीं से फिल्मों के लिए गीत लिखने का सिलसिला शुरू हो गया। ‘आओ सुनाएं प्यार की एक कहानी’ (कोई मिल गया), मुहब्बत इनायत करम देखते हैं (बहार आने तक), होठे रसीले तेरे होठ रसीले (वेलकम) जैसे गीत लिखकर इन्होंने फिल्मी दुनिया में अपनी मजबूत पकड़ और पहचान बना लिया था। 

  मुशायरों के सिलसिले में भी वो देशभर के अलग-अलग शहरों में जाते रहे हैं। पहली बार इलाहाबाद में वर्ष 2012 में आए थे, यहां के इविंग क्रिश्चियन कॉलेज के एक मुशायरे में मेरे आमंत्रण आए थे। इन्होंने मेरी पुस्तक ‘फूल मुख़ातिब हैं’ की भूमिका में लिखी है-‘इम्तियाज़ ग़ाज़ी को मैं बरसों से जानता हूं। इलाहाबाद मैंने उनकी वजह से ही देखा है। उन्होंने एक ख़ास मुशायरा वहां के इविंग क्रिश्चियन कॉलेज में किया था। जिसमें मुझे ख़ासतौर पर बुलाया था। उससे पहले वो मेरी ग़ज़लें अपनी मैगज़ीन गुफ़्तगू में बदस्तूर शाया करते रहे हैं और मुझपर मज़ामीन और मेरा इंटरव्यू वहां के मशहूर अख़बारों में छापते थे। मुझे अच्छा लगता था कि मीलों दूर बैठा एक पत्रकार मुझसे इतना मुतअस्सिर है और मेरी इल्मी-अदबी कोशिशों को सराहता है। फिर ये हुआ कि उनसे मुशायरे के दौरान मुलाक़ात हुई तो जाना कि वो इलाहाबाद के इल्मी अदबी हल्के में काफ़ी मक़बूल हैं।’ 

 वो मुशायरे में जाते ज़रूर थे, लेकिन मुशायरेबाज शायरों की तरह सौदा नहीं करते थे, पिछली बार जब मैंने उन्हें बुलाया और पारिश्रमिक के बारे में पूछा तो उन्होने कहा कि ’बस इतना कर देना कि मेरे जेब से कोई खर्च न हो।’ वर्ना आजकल शायरों और कवियों से बात करिए तो वे बाकायदा सौदा करते हैं, लोग एक मुशायरे के 50 हजार से लेकर डेढ़ लाख तक की मांग करते हैं। इनसे बात करिए तो कहते हैं कि साहित्य की सेवा कर रहे हैं।

 हमारे बीच से इब्राहीम अश्क का जाना, उर्दू अदब के साथ ही फिल्मी दुनिया का भी जबरदस्त नुकसान है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। इब्राहीम अश्क जितने अच्छे शायर थे, उतने ही बेहतरीन इंसान थे, अल्लाह उन्हें जन्नत में जगह दे। आमीन।

 

  



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