बुधवार, 13 मई 2020

हिन्दुस्तानी ज़बान में बात करते दोहे

 
                                                           - अजीत शर्मा ‘आकाश’
                                       

दोहा अर्ध सम मात्रिक शास्त्रीय छन्द है, जिसके चार चरण होते हैं। पहले और तीसरे विषम चरणों में 13 तथा दूसरे और चैथे सम चरणों में 11 मात्राएं होती हैं। सम चरण तुकांत होते हैं एवं इनका अंत दीर्ध लघु से होता है। विषम चरणों के अंत में लघु दीर्घ होता है। इन चरणों के आरम्भ में लघु दीर्ध लघु का स्वतन्त्र शब्द नहीं होना चाहिए। देखने में दो पंक्तियों का यह मुक्तक बहुत आसान-सा लगता है, लेकिन सही शिल्प की दृष्टि से देखा जाए, तो इसे रचने में बहुत सावधानी बरतनी होती है। प्रत्येक छन्द में सबसे महत्वपूर्ण उसकी लय तो होती ही है, जिसे बाधित नहीं होना चाहिए। आजकल दोहों पर बहुत काम हो रहा है। इसी कड़ी में पंकज ‘राहिब‘ का दोहा-संग्रह ‘कौन किसे समझाय‘ प्रकाशित हुआ है, जिसके दोहों को रचनाकार ने 11 खंडों में विभक्त किया है। संग्रह के प्रथम खंड में देश-समाज, लोकतंत्र, शासन संबंधी दोहे हैं एवं अन्य खंडों में राष्ट्र, संस्कृति, मानवता, संविधान, जीवन, न्याय, क्रांति, स्वतंत्रता, मीडिया, कला, लोकजीवन आदि विषयों पर दोहे रचे गए हैं। राहिब ने अपने इस दोहा-संग्रह में आज के मानव में भौतिक सुख-समृद्धि की अत्यधिक चाहत, बढ़ता हुआ बाजारवाद, नेताओं की सत्ता लोलुपता, देश और समाज की चिन्तनीय स्थिति सहित नष्ट होते पर्यावरण और जीवन के समक्ष उपस्थित चुनौतियों आदि को अपने दोहों का वर्णय विषय बनाया है। इन दोहों के माध्यम से युगीन विसंगतियों व विकृतियों के विरुद्ध रचनाकार ने अपना आक्रोश व्यक्त किया है। प्रस्तुत हैं दोहा संग्रह के कुछ अंश। आज के बढ़ते हुए बाजारवाद को रेखांकित करता हुआ संग्रह का यह दोहा- रंग बिरंगे शहर में, हर जीवन बेरंग/बाजारों के शोर में, चैन सुकूं सब भंग। विकास के नाम पर आज पर्यावरण को दूषित किया जा रहा है। प्राकृतिक सम्पदा के अधिक से अधिक दोहन से प्रकृति भी हमसे रूष्ट होती जा रही है। राहिब के दोहे हमें सचेत करते हैं- पानी हवा अशुद्ध सब, फसलें विष का वास/बौराया है आदमी, इनको कहे विकास।, कुदरत से खिलवाड़ कर, मानुष करे विकास/खड़ा आखिरी मोड़ पे, आगे सिर्फ विनाश। आज लोकतंत्र ख़तरे में पड़ता दिखायी दे रहा है। राहिब के दोहे हमें सावधान करते हैं- लोकतंत्र के नाम पर, खुली डकैती लूट/अपने अपनों को ठगैं,इसकी पूरी छूट। दस ताकतवर खा रहे, नब्बे का अधिकार/लोकतंत्र इसको कहे, उसको है धिक्कार।’ नेताओं की सत्ता लोलुपता और कुर्सी के लिए अन्धी दौड़ पर राहिब कहते हैं- सेवा हिंदुस्तान की, मेरा एकै काम/जो भी ये कहता मिले, समझ लीजिये झाम।
नेता सत्ता लोभ में, भावनाएं भड़कांय /अंगरेजों को दोष दें, चाल वही अपनांय।
इन समस्याओं का समाधान भी सुझाया गया है- न्याय पालिका देश की, न्याय अगर कर पाय/मेरे भारत देश की, सब दुविधा मिट जाय।आज के चापलूस और बिकाऊ मीडिया पर ये दोहे इस प्रकार व्यंग्य करते हैं-
  पत्रकार बेशर्म हो, झूठी खबर बनाय / सब दिन धंधे में लगा, देश भाड़ में जाय।
  भ्रष्ट चोर डरपोक हैं, चैनल सारे आज /चढ़ बैठें कमजोर पे, सत्ता देत मसाज।
संग्रह के दोहों में कहीं-कहीं शिल्पगत त्रुटि के कारण लय भंग का दोष परिलक्षित होता है, यथा- गॉड ट्रेवेल एजेन्सी, जिसके हम सब क्लाइंट/ बुकिंग वही सब तय करे, एंजॉय एवरी पॉइन्ट। इसके अतिरिक्त ‘ईंट बुरादा कैमिकल, पलास्टिक शैम्पू सोप‘, ‘निषेध स्वयं इस जगत मे’ ‘महलों जैसे आश्रम’, ‘क्या उसको मालूम नहीं‘, ‘विश्राम मौन उपवास को‘ ‘जौहरी या हमदर्द‘, दोहों में भी मात्रा एवं शब्दकल का ध्यान न रखे जाने के कारण लय भंग प्रतीत होती है। ध्यातव्य है कि दोहा-सृजन में भाषा, शिल्प और कथ्य सम्बन्धी अनेक बारीकियाँ होती हैं, जिनका ध्यान रखते हुए शुद्ध और सार्थक दोहों की रचना की जाती है। प्रस्तुत संग्रह के अधिकतर दोहे हिन्दुस्तानी जबान और स्थानीय भाषा में रचे गये हैं। इसमें परदूषण, परचार परपंच, परयास, हिरदय भरम, पाथर जैसे तद्भव और कछु, तासे, नांय, ताय, दीखै, सिगरे जैसे देशज शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो पाठक को कबीर, रहीम जैसे कवियों एवं मध्यकालीन हिंदी भाषा की याद दिलाते हैं। स्वीकृती, लोकप्रीयता, गती, पारस्पर जैसे शब्दों के बिगड़े हुए रूप का प्रयोग मात्रापूर्ति के लिए किया गया है, जिससे रचनाकार की शिल्पगत कमजोरी परिलक्षित होती है। पुस्तक में षहर, षेष, अनुशरण जैसी वर्तनीगत एवं प्रूफ सम्बन्धी त्रुटियों को दूर किया जा सकता था। पुस्तक का तकनीकी पक्ष, मुद्रण एवं साज-सज्जा सराहनीय है। संग्रह का कथ्य विविधता लिए हुए है एवं इसका भाव पक्ष सराहनीय है। कुल मिलाकर दोहों के सृजन एवं विकास की दिशा में यह एक अच्छा एवं सार्थक प्रयास है। दोहाकार पंकज राहिब इसके लिए बधाई के पात्र हैं। ‘कौन किसे समझाय‘ पठनीय एवं सराहनीय दोहा-संग्रह है। 220 पेज के इस पेपर बैक संस्करण को गुफ्तगू पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2020 अंक में प्रकाशित )

1 टिप्पणियाँ:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बढ़िया समीक्षा

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