सोमवार, 5 दिसंबर 2011

हम मुर्दापरस्त लोग हैं: मेराज फ़ैज़ाबादी



गंभीर शायरी के जाने वाले शायर मेराज फ़ैज़ाबादी से गुफ्तगू के उपसंपादक डॉ0 शैलेष गुप्त ‘वीर’ की बातचीत

सवालः आपको लेखन की प्रेरणा कहां से मिली और इसकी शुरूआत किस प्रकार से हुई?
जवाबः जहां तक प्रेरणा का सवाल है तो एक अनजाना-सा जज़्बा थो जो अपने आप अभिप्रेरित करता था। मैं एक छोटे से गांव में पैदा हुआ था, विज्ञान का छात्र था और साहित्य से मेरे कोई तालुकात हीं नहीं थे। जो रोज़ की समस्याएं हैं, मशायल हैं, हर आदमी के साथ होती हैं, मेरे साथ भी थीं। गांव के खेत-खलिहान, बाग़-बगीचे, इन सबसे मुझे इश्क़ था। मुझे ऐसा लगता है कि इन सबसे कोई संगीत-सा फूट रहा है, तब मैं चौदह-पंद्रह साल का था, जी चाहा कि मन भीतर हो रही संगीत की इस गूंज को बाहर निकालया जाए। यही एक जज़्बा था, वर्ना ऐसा कोई ख़ास वाक़िया, ऐसी कोई ख़ास परिस्थिति याद नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि मुझे लेखन की प्रेरणा वहां से मिली।

सवालः विज्ञापनों में हर हद पार करते स्त्री देह के प्रदर्शन पर आपकी क्या राय है?

जवाबः स्त्री देह की खू़बसूरती उस वक़्त तक है जब तक वह ढकी रहे, जहां खुली वहां उबकाई आने लगती है। आजकल जो नई पीढ़ी के लोग हैं वे चाहे विज्ञापन बनाने वाले हों, फिल्म बनाने वाले हों या किसी भी प्रकार की आर्ट प्रजेन्ट करने वाले लोग हों, उन्होंने यह समझ लिया है कि स्त्री दे हके प्रदर्शन से ही उनका कारोबार चलेगा तो करें भाई, मैं उसका कायल नहीं हूं। पुराने ज़माने में कपड़े बदल ढकने के लिए पहना जाता था, लेकिन आज के ज़माने में कपड़ा बदन दिखाने के लिए पहना जाता है।


सवालः क्या कारण है कि अपने समय के क्रांतिकारी लोगों को वह महत्व नहीं दिया जाता जिसके वे हक़दार होते हैं, जैसे सआदत हसन मंटो, हिन्दी कविता में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ या फिर दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में फ्रेडरिक नीत्थे?

जवाबः यह तो टृेडजी है पूरे एलाइड आर्ट की। सिर्फ दर्शन नहीं, सिर्फ़ कविता नहीं, सिर्फ़ कहानीकार की बात नहीं। हम मुर्दापरस्त लोग हैं और ज़िन्दगी में किसी को अहमीयत नहीं देते। जहां वो मरा,उसके फौरन बाद कब्रिस्तान से श्मसान से ही यह शुरू कर देते हैं, यार कितना अच्छा आदमी था, यार कितना बड़ा कलाकार था, वगैरह-वगैरह... लेकिन यही बातें उसकी ज़िन्दगी में एक आदमी के मुंह से नहीं फूटती। क्या कीजिएगा, यह तो पूरी दुनिया का मिज़ाज है। यह पूरी मानवता पर एक कलंक है किसी भी बड़े जीनियस को उसकी ज़िन्दगी में हमारे समाज ने नहीं पहचाना। आदमी मरा, कफन मैला भी नहीं हुआ उसकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ना शुरू कर देते हैं। अरे मुर्खों, अगर यही क़सीदे तुम उसकी ज़िन्दगी रहते पढ़ते तो शायद वह दो-चार दिन और जी लेता।

सवालः वर्तमान समाज के निर्माण में साहित्य अपनी भूमिका के साथ न्याय क्यों नहीं कर पा रहा है?


जवाबः साहित्य अपनी भूमिका के साथ न्याय कैसे करेगा, जब वह समाज तक पहुंच नहीं पा रहा है। इलेटृानिक मीडिया के युग में प्रिंट मीडिया का महत्व कम हुआ है और बग़ैर प्रिंट मीडिया के साहित्य समाज तक कैसे पहुंचंगा। साहित्य के कम्युनिकेशन का सबसे बेहतर तरीक़ा है प्रिंट मीडिया, उससे हमारे तालुकात ही नहीं। हमारी पूरी नस्ल, पूरी जनरेशन प्रिंट मीडिया से कट गई है।


सवालः आपने देश-विदेश की तमाम यात्राएं की हैं। अन्य देशों में रचा जा रहा साहित्य और यहां रचे जा रहे साहित्य में क्या फर्क है?

जवाबः हर देश के साहित्यकार अपनी मातृभाषा में साहित्य सृजन कर रहे हैं और हर उस मातृभाषा से मेरा कांटैक्ट नहीं हो पाता। मैं उर्दू का आदमी हूं, ज़ाहिर है हिन्दुस्तान से लेकर अमरीका तक जहां भी जाता हूं, उर्दू के सर्किल में जाता हूं। अमरीका की मातृभाषा अंग्रेजी है,उनके लिए उर्दू एलियन लैंग्वेज है। उस एलियन लैंग्वेज में वो जो कुछ प्रोड्यूस करेंगे, वह स्टैंडर्ड तो नहीं होगा...बहरहाल कुछ भी हो, हिन्दुस्तान के बाहर हिन्दी-उर्दू वाले, अच्छी शायरी कर रहे हैं, अच्छा लिख रहे हैं, मगर उनमें कोई एचीवमेंट नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि कोई मीर तक़ी मीर या कोई मिर्ज़ा ग़ालिब पैदा होने वाला है। इसके पीछे कारण यह है कि वे अपने ख़्वाब तो दूसरी भाषाओं में देखते हैं और क्रियेशन हिन्दी या उर्दू में टृांसलेशन करके करते हैं।

सवालः साहित्य में हो रही राजनीति और गुटबाजी पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
जवाबः ......इसीलिये मैंने अपने आपको समेट लिया है. राजनीति और गुटबाजी में पड़कर कोई प्रोफ़ेशनली तो कामयाब हो सकता है लेकिन अन्दर का साहित्यकार मर जाता है। राजनीति और गुटबाज़ी हर ज़माने में हो रही है, लेकिन पहले पचीस प्रतिशत गुटबाज़ी थी, पचहत्तर प्रतिशत साहित्य है और वह भी धीरे-धीरे घट रहा है, यह शून्य प्रतिशत तक आ जाये तो हैरानी नहीं होनी चाहिये.
सवालः आजकल मंचो से संजीदा शायरी लुप्त हो गयी है. फूहड़पन और चुटकुलेबाज़ी का ज़ोर है, आपको नहीं लगता कि अब कवि सम्मेलन और मुशायरे, सही मायनों में कवि सम्मेलन व मुशायरे हैं ही नहीं?


जवाब-ऐसा तो नहीं है, जहां तक कवि सम्मेलन का सवाल है, दो-चार नाम ऐसे हैं जिन्होंने मंच की गरिमा बनाये रखी हैं, सोम ठाकुर हैं, भारत भूषण है, वग़ैरह-वग़ैरह. मुशायरों में हास्य-व्यंग्य तो बहुत थोड़ा-सा है बाक़ी सब संजीदा शायरी है. असल में मुतमइन जबाने कभी अच्छा अदब तक़लीफ नहीं करती और हिन्दी एक मुतमइन ज़बान है. उसके पास सब कुछ है तो ज़ाहिर-सी बात है उनके यहां हास्य-व्यंग्य ज़्यादा चल रहा है और इसके सिवा उनके पास कुछ नहीं हैं. उर्दू के सामने उसके अस्तित्व का सवाल है कि यह ज़बान बचेगी भी या नहीं, इसलिये वहां अभी भी काफ़ी संजीदा शायरी हो रही है. जो साहित्य कभी समाज का आईना होता था वह आजकल हिन्दी के मंचो पर बिल्कुल भी नहीं दिखाई देता है और उर्दू के मंचों पर भी पहले जैसा नहीं. शोर और हंगामें के बीच सब कुछ ग़ुम होता जा रहा है....वैसे कुछ बावले अभी भी ज़िंदगी के संजीदा मामलात परोस रहे हैं.

सवालः एक बात और भी है कि मंचो में आजकल बहुत से नक़ली लोग आ रहे हैं, चोरी के शेर पढ़ रहे हैं या तमाम लोग अपने गले की बदौलत वग़ैरह-वग़ैरह....... इस तरह की भयावह स्थिति का मंच पर बैठे अच्छे और असली कवि-शायर विरोध क्यों नहीं करते, वे क्यों उन्हें स्वीकार कर लेते हैं?

जवाब-बड़ा मुश्किल सवाल किया है आपने। ऐसा है कि नकली लोग हर ज़माने में थे, आज भी है, आज ज़रा ज़्यादा हैं, पहले कम थे....लेकिन पहले क्या था कि नक़ली लोगों को जनता नक़ली की तरह ही ट्रीट करती थी, उन्हें कभी अहमियत नहीं दी; असली लोग ही असली माने जाते थे. चूंकि आज के ज़माने में हमारी पब्लिक का साहित्य से वैसा जुड़ाव नहीं रहा तो वह आकलन भी नहीं कर पाती कि कौन असली है, कौन नक़ली; और असली को नक़ली की तरह ट्रीट करती है तो मंचो में जो देखने और भुगतने को मिलता है, हम मज़बूर हैं. अगर हम एतराज़ करें भी तो हमारी कोई सुनेगा भी नहीं क्योंकि मंच में जो छाये हुए हैं वे ज्यादातर नक़ली लोग ही हैं......मुझे शर्मिदंगी होती है कि मैं असली हूं, नक़ली नहीं हूं, मुझे कोई घास ही नहीं डालता.... महसूस मुझे भी होता है, बहुत ज़्यादा ..... लेकिन क्या कीजियेगा.

सवाल-यदि लिपि का अन्तर छोड़ दिया जाये तो ज़बान के स्तर पर भी हिन्दी और उर्दू में क्या कोई फ़र्क़ है?
जवाब-लिपि तो मज़बूरी है और कोई भी ज़बान अपनी लिपि के बग़ैर ज़िंदा भी नहीं रह सकती. इसलिये मैं उर्दू लिपि का बहुत बड़ा समर्थक हूं. लेकिन जहां तक ज़बान का प्रश्न है तो यदि ज़बान में कोई अन्तर होता है तो आप जाने दीजिये मीराबाई को (मेरा ‘दरद’ न जाणे कोय) या फिर निरालाजी को (ख़ुशबू रंगो-आब’) .....यदि हिन्दी-उर्दू में कोई अन्तर होता तो वो लोग ऐसा कैसे लिख पाते. आप हिन्दी और उूर्द को बांट हीं नहीं सकते. जो लोग बिलावज़ह हिन्दी और उर्दू का अपना-अपना ढोल पीट रहे हैं वो सीधी-सीधी हिन्दुस्तानी ज़बान है, जिसे पूरा हिन्दुस्तान बोल रहा है.

सवाल-आपने किन लोगों से प्रेरणा ग्रहण की है और क्यों?

जवाब-अज़ीब-सा सवाल है. मैंने पहले भी कहा है. मेरी साहित्य-सृजन की प्रेरणा मेरे अन्दर से निकली है, बाहर के किसी भी फैक्टर का इसमें कोई रोल नहीं है. रही बात अच्छा लगने की तो थोड़ा-बहुत तो सभी अच्छे लगते हैं. विद्यार्थी जीवन में साहिर और फ़ैज़ बहुत अच्छे लगते थे, उसके बाद फिराक़ साब, नासिर काज़मी वग़ैरह अच्छे लगने लगे, आज की मेरी पंसद कोई और है. मगर इतना अच्छा कभी कोई नहीं लगा कि जो मेरी अपनी सोच में कोई बदलाव पैदा कर सके. हां, थोड़ी बहुत प्रेरणा जो मिली है तो उर्दू के उन क्लासिकल शायरों से, जिन्होंने उर्दू शायरी को एक दिशा दी है जैसे मीर तक़ी मीर आदि. इनसे इस रूप में प्रेरणा मिली कि अपनी बात किस प्रकार से रखूं. अपने विचारों के लिये, अपनी बात के लिये मैंने किसी से प्रेरणा नहीं ग्रहण की. यह बड़ा उलझा हुआ सवाल है आपका, और मेरा उलझा हुआ जवाब है....मगर ये कि मेरा प्रेरणास्रोत कोई नहीं हैं.


सवाल
-नये रचनाकारों के लिये आप क्या संदेश देना चाहेंगें?

जवाब-सिर्फ़ यही संदेश दूंगा कि जोड़-तोड़ के चक्कर में न पड़े, गुटबाज़ी के चक्कर में न पड़ो. अगर अपने को शायर कहते हो तो शायरी करो और सिर्फ़ शायरी करो.

गुफ्तगू के दिसंबर 2011 अंक में प्रकाशित

1 टिप्पणियाँ:

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत अच्छा इंटरव्यू! मेराज साहब हमारे पसंदीदा शायर हैं। उनका इंटरव्यू पढ़कर बहुत अच्छा लगा। शुक्रिया।

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