सोमवार, 10 जनवरी 2011

हिंदी पाठ्यक्रम में ग़ज़ल: विद्वानों की राय

हिंदी पाठ्यक्रम में ग़ज़ल को शामिल किया जाये या नहीं. इसे लेकर पिछले दस-बारह सालों से बहस ज़ारी है. हिंदी-उर्दू के साहित्यकार इस बारे में क्या कहते हैं। यह जानने के गुफ्तगू में एक सीरियल चलाया गया । गुफ्तगू के उपसंपादक डॉक्टर शैलेश गुप्त वीर ने इन साहीत्याकारों से उनकी राय पूछी, जिसे गुफ्तगू के दिसम्बर २००९, मार्च २०१० और जून २०१० अंक में प्रकाशित किया. ब्लॉग के पाठकों के लिए हम यह प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि इस अभियान को व्यापक बनकर इसमें सफलता हासिल की जा सके, आपके कमेन्ट इंतज़ार है

प्रोफेसर फजले इमाम :हाँ, बिलकुल शामिल करना चाहिए क्योंकि ग़ज़ल bhartiye सांस्कृतिक परम्पराओं से प्रभावित है। इसको हिंदी की विधाओं में शामिल करना लाभकारी भी होगा और ज्ञानवर्धक भी। ग़ज़ल का जो स्वरुप है , ग़ज़ल के जो प्रत्यय और प्रतिमान हैं, उनका हिंदी काब्य धरा में समावेश होना चाहिए क्योंकि ग़ज़ल अपनी सम्पूर्ण कलातामक्ता के साथ जिनbb विन्दुओं को प्रस्तुत करती है वो गीत से सम्बंधित है। गीत जो गिये धातु से बना हुआ है, उसके संपूर्ण आयाम से सम्बंधित है। ग़ज़ल लिखने और सोचने दोनों की कविता है.इसलिए का जो मूल रूप है , उसे हिंदी की काब्य धारा में निश्चित रूप से शामिल करना चाहिए । इसके अंतर्गत मेरे,ग़ालिब और इकबाल की ग़ज़लें भी शामिल करनी चाहिए.
निदा फाज़ली : ग़ज़ल विधा हिंदी के लिए नयी नहीं है। कबीर से लेकर भारतेंदु हरीश चन्द्र तक इसका इतिहास है। जो ग़ज़लें अचछी हों बिना पछ्पात के शामिल की जानी चाहिए। मैं तो यह कह रहा हूँ की मीर की भी ग़ज़ल शामिल होना चाहिए.हिंदी-उर्दू का भेदभाव ही नहीं है.जब हिंदी में ग़ज़ल लिखी जा रही है तो विधा को विधा की कसौटी पर परखा जाएगा न की भाषा की कसौटी पर.हिंदी और उर्दू दो भाषाएं नहीं थीं , ये दो भाषाए बना दी गएँ और इसके पीछे राजनीति काम कर रही है.इस राजनीति से हटकर साहित्यकारों को इसे ज़िंदा रखना चाहिए। पंडित दयाल, नागार्जुन, बिसन कुमार मेरे लिए अजनबी कैसे हो सकते हैं.कबीर ने सिकंदर लोदी के समय ग़ज़ल लिखी थी, हमन है इश्क मस्ताना, हमन से होशियारी क्या.तो ये भेद भाव की बाते राजनीति में अच्छी लगती हैं, साहित्य में नहीं।
डॉक्टर राहत इन्दौरी: देखिये ग़ज़ल विधा तो उर्दू में भी फारसी से आई है.उर्दू हिंदुस्तान की भाषा है,इरान की भाषा नहीं नहीं है और उसमे ग़ज़ल को जोड़ दिया गया। बाद में ग़ज़लें हिंदी,गुजराती,मराठी,तमिल और कई अन्य दूसरी भाषाओं खासकर पंजाबी में लिखी जाने लगी। आपको यह जानकार हैरानी होगी की मध्य प्रदेश में कई इलाकाई भाषाएँ प्रचालन में हैं, उनमे एक बोली निमारी है.नामारी में भी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं, इसमें सिकंदर अली पटेल का नाम प्रमुख है। तो शाएरी किसी विधा की नहीं होती। उर्दू में दोहा लिखा जा रहा है तो पूरी दुनिया में दोहा नाम से ही लिखा जा रहा है , विधा तो वह हिंदी की है। मेरी नज़र में यह अच्छी बात है, अगर ऐसा होता है तो अपने देश की किसी विधा को ही बढ़ावा देंगे।

बेकल उत्साही : ग़ज़ल को हिंदी में ज़रूर शामिल करना चाहिए। हिंदी ही क्यों हर उस भाषा में शामिल करना चाहिए, जिसमे ग़ज़ल लिखी जा रही है.आज का दौर में जब ग़ज़लें विभिन्न भाषाएँ यथा अरबी,फ़ारसी,तमिल, तेलुगु आदि में लिखी जा रही है तो हिंदी के पाठ्यक्रम में क्यों नहीं शामिल की जा सकती.यहाँ यह ध्यान रखना बेहद ज़रूरी है की ग़ज़ल की जो असल रूह है वो कायम रहे, उससे खिलवाड़ नहीं होना चाहिए,क्योंकि ग़ज़ल के नाम पर बहुत कुछ अनाप-शनाप भी लिखा जा रहा है ।

वसीम बरेलवी : ग़ज़ल बुनियादी तौर पर फ़ारसी से हिन्दुस्तान आई और हिदुस्तान आने पर यहाँ की मिटटी का रचाव उसके अंदर शामिल हुआ , इस प्रक्रिया में समय तो ज़रूर लगा है क्योंकि ग़ज़ल पहले खानकाहों से शुरू हुई थी और खानकाहें जो थीं वो बुजुर्गों, फकीरों और सुफिओं की थीं.ये जगहें आम जनता के मरकज़ हुआ कार्टू थीं। इसलिए ग़ज़ल को प्रारम्भिक समर्थन फकीरों के कतरों से मिला। बाद में बादशाहों के दरबार में आने पर इसके लहजे में अरबी और फ़ारसी का असर हुआ.लेकिन ग़ज़ल की अपनी जो पहचान है , वो मेरे के ज़माने से हुई, वो हमारी ज़मीनी बोली थी, आम भाषा थी। उसका प्रयोग हुआ तो ज़ाहिर बात है हिदुस्तान के पुरे साहित्यिक कलेवर को समझाने के लिए ग़ज़ल को हिंदी पाठ्यक्रम शामिल किया जाता है तो यह एक अच्छा कदम होगा। हमारे यहाँ भक्तिकाल-रीतिकाल , ये तमाम परिवर्तन हिंदी के अंदर हुए हैं। ग़ज़ल ने अपने आपको अमीर खुशरू के समय से आजतक भिन्न-भिन्न परिवेश के हिसाब से हर ज़माने में अपने आपको बदलने की कोशिश की है। हिंदी और उर्दू, दोनों ही भाषाएँ अमीर खुशरू को अपना पहला कवी-शाएर स्वीकार करती हैं.ग़ज़ल में हिंदुस्तान के तमाम मौसमों की पहचान और खूबसूरती भरी हुई है। इन्सांज ज़ज्बात से लेकर काएनात के मसाईल तक, समाजी हालात से लेकर इंसानी हालात की जी नाक्श्याती गिरह है वहां तक मौजोद है। तो मैं समझता हूँ की हिंदी के पाठक इसे पढने का मौक़ा पाते हैं तो इसका एक अच्छा असर होगा, खासतौर पर साझा संस्कृति को समझाने का अच्छा मौका मिलेगा.
इब्राहीम अश्क: निश्चित रूप से शामिल करना चाहिए । ग़ज़लों के माध्यम समाज साहित्य और संस्कृति के विभिन्न आयाम उजागर हुए हैं। साथ ही गज़लें साहिये की चरम सीमा को छू रही हैं.इसलिए य्स्दी ग़ज़ल विधा को हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है तो इससे पाठ्यक्रम को ही गौरव मिलेगा। इनमे उन गजलों को विशेष रूप से शामिल करना चाहिए, जिनमे साहित्यिक चिंतन हो.ऐसे चिंतन हमारे पूर्वजों यथा सूर,तुलसी,कबीर,रसखान, मीरा आदि के साहित्य में मिलता है। यद्यपि ग़ज़ल की विधा अलग है, किन्तु चिंतन के अस्तर पर एकरूपता हो सकती है।

एहतराम इस्लाम: ज़रूर शामिल करना चाहिए। क्या ग़ज़ल हिंदी की विधा नहीं है। इसे अब तक शामिल कर लेना चाहिय था, यद्यपि कुछ पाठ्यक्रम में शामली भी है.सीबीएसई के इंटर के कोर्स में दुष्यंत कुमार बहुत दिनों से शामिल हैं। हाँ हिंदी के कोर्स में पूरी तरह से शामिल करने के लिए उनलोगों को ज़रोर दबाव बनाना चाहिए जो उर्दू को हिंदी की शैली मानते हैं। मैं यह भी नहीं कहता की रखा ही जाना चाहिए। जब उर्दू और हिंदी दो अलग-अलग भाषाएँ हैं और दोनों को अलग-अलग मान्यता प्राप्त है तो यदि मीर और ग़ालिब को नहीं रखा गया तो यह कोई गलत बात नहीं है। चूकी शैली भिन्न हैबहुत सारे हिंदी के लोग जो इन्हें समझ नहीं पाते अतः उर्दू की जो ग़ज़लें हिंदी में चल पाएंगी, उन्हें ज़रोर शामिल करना चाहिए। यह कोइ सहस्य मूलक बात नहीं है। मेरे और ग़ालिब जैसे शाएर आते हैं तो बहुत अच्छी बात है, स्वागत की बात है। समस्या तो यह है की इस प्रक्रिया में उसमे हिंदी की ग़ज़ल शामिल है की नहीं । उसमे मई कहता हूँ की शामिल किया जाना चाहिए और पहले से भी शामिल है।

डॉक्टर मलिकज़ादा मंज़ूर: आजकल तो ग़ज़लों का खाज हिंदी कवियों में बहुत बढ़ गया है। कवी सम्मेलनों में हम गज़लें सुनते हैं और अच्च्चा लगता है। इस्सी तरह से मुशाएरों के अंदर गीतों का खाज बहुत बार गया है। तो ये दोनों के लेन-देने से हमारे अदब में भी और हिंदी अदब में भी नै चीजें आ रही हैं.अतः हिंदी के कोर्स में ग़ज़लें शामिल कर ली जाएँ तो यह बात अच्छी होगी, लेकिन ग़ज़ल कई तरह की होती है- आसान ग़ज़लें , जिनके अल्फाज़ आसान होते हैं। अगर इस प्रकार की ग़ज़लें हिंदी शामिल की जाती हैं तो मेरा ख़याल है की कोई हर्ज़ की बात नहीं है। और इस्सी प्रकार से उर्दू में गीतों को शामिल कर लिया जाए तो यह अच्छी बात होगी.इससे अदब आगे बढ़ेगा, साहित्य की वृद्धि होगी.
मेराज फैजाबादी: जब ग़ज़ल साहित्य की एक विधा है और साहित्य की कई विधाएं हिन्ही के पाठयक्रम में शामिल हैं तो ग़ज़ल को भी शामिल करना चाहिए। सबसे बड़ा सवाल यह है जब हिंदी कविता ने ग़ज़ल को एक विधा के रूप में स्वीकार कर लिया है तो फिर उसे कोर्स में क्यों न रखा जाए। मेरे ख़याल में तो अच्छा ही रहेगा की गज़लें पाठ्क्रम में शामिल हो जाएँ ताकि पढ़ने वाले को यह मालुम हो की हिंदी साहित्य ने इसे विधा के रूप में स्वीकार कर लिया है। ज़ाहिर सी बात है पाठ्यक्रम में शामिल होगी तो उसकी इज्ज़त बढ़ेगी, लेकिन जो पढ़ने वाले हैं उनका कैनवास और ज्यादा बढ़ा होगा। इसके अंतर्गत सभी प्रकार की ग़ज़लें शामिल की जानी चाहिए। कुछ लोग अपनी अलग पहचान बनाने के लिए इसे हिंदी और उर्दू ग़ज़ल के रूप में बाटते हैं। इसपर हिंदी और उर्दू का ठप्पा लगाना ग़ज़ल को महदूद करना है। अब अगर उर्दू ग़ज़ल का कोई पाठ्क्रम बने और उसमे नीरज की ग़ज़लें न आयें तो वह पाठ्यक्रम अधूरा ही होगा। अतः हिंदी के पाठ्यक्रम में निश्चित रूप से ग़ज़ल को शामिल करना चाहिए।

बुद्धिसैन शर्मा: मैं इस बात पर सौ फिसगी सहमत हुई की ग़ज़ल के हिंदी कोर्स में हर अस्तर पर शामिल किया जाना चाहिए। ग़ज़ल हमारे यहाँ उर्दू से आई है, किन्तु उर्दू से यह तमाम भारतीय भाषाओं में फ़ैल गयी। ग़ज़ल में दम है इसलिए फ़ैल गए है.यह है समय की ज़रूरत होती है की जो हल्का होता है , समय उसको उड़ा देता है, और जो दमदार होता है , समय उसको अपने साथ ले लेता है। ग़ज़ल में दम था इसलिए समय ने अपने साथ ले लिया.सीधी सी बात है समय के साथ रहना है तो ग़ज़ल को शामिल करना पडेगा क्योंकि आज के दौर के जितने तकाज़े है, ज़रूरतें हैं और जितना जो कुछ भी साहित्य में कहने के लिए है, वो सब कुछ ग़ज़ल अपने में समेटने में सच्कम है। ग़ज़ल को हिंदी में शामिल करना हिंदी का सौभाग्य होगा.जब हिंदी में सोनेट, छादिकाएं और कहीं न कहीं हाईकू शामिल कर लिए गए तो गजल क्यों नहीं। यदि ग़ज़ल को आप हिंदी में शामिल नहीं करेंगे तो अप्प साहित्य के साथ भी बेईमानी करेंगे और समय के साथ भी।

असलम इलाहाबादी: मेरे विचार में निश्चित रूप से शामिल करना चाहिए.हिंदी साहित्य में ग़ज़ल शामिल कर देने से हिंदी साहित्य और संपन्न हो जायेगी.ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमे आपके सारे खयालात बड़ी आसानी दो लाइनों में आ जाते हैं। विसंगतियों के इस दौर में किसी के पास इतना समय नहीं है की किसी बिंदु पर वह एक या दो पेज पढ़े। शेर गागर में सागर की तरह होते हैं। वे ज्यादा प्रभावी होते हैं। आने वाला समय हिंदी उर्दू का नहीं बल्कि हमारी ज़रोरतों के मुताबिक़ होगा। जिसमे हमे आसानी होगी , हमारी नई नस्ल उन्ही बातों को अपनाएगी.जो हम रोज़मर्रा में बोल रहें हैं आगे चलकर वही हमारी ज़बान होगी.जब कोई चीज़ पाठ्यक्रम में शामिल की जाती है तो उसके प्रत्येक पहलु को देखा जाता है। हमें यह ध्यान रखना होगा की पाठ्यक्रम बच्चों के पढ़ाने के लिए है तो इसमें कोई ऐसी बात न हो जैसे की कुछ ग़ज़लें तफरीह क्र लिए कही जाती हैं और कुछ जिंदगी के करीब होकर कही जाती हैं। इसमें आम इंसान की हकीक़त होतो है। तो ग़ज़ल तो गजल है। साहित्य को किसी कौम से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए.अतः ग़ज़ल को हिंदी पाठ्यक्रम में ज़रूर शामिल करना चाहिए।

मैत्रेयी पुष्पा: निश्चित रूप से शामिल करना चाहिए। भले ही लोग कुछ कहें इधर जो अतुकांत कविता चली है, उसने आमजनता कविता से बहुत डोर कर दिया है। ग़ज़ल ही वह विधा है जिसने कविता को आमजन से जोड़ रखा है। एक कहानीकार-उपन्यासकार होने बावजूद में शुरू से ही ग़ज़लों की प्रशंसिका रही हूँ.ग़ज़ल के एक-एक शेर में इतनी बातें होती हैं । जिसके लिए हम कहानी और उपन्यास के पेज भर देते हैं। ग़ज़ल की खूबी यह भी है की जो इसे पढ़ता और सुनता है, वो इससे एकदम बंध जाता है और इसे याद भी कर लेते है, तथा समयानुसार जगह-जगह कोट भी करता है। गज़लें समय और समाज का मुक़म्मल रूप हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। ग़ज़ल वर्त्तमान की ज़रोरत है, उसे नकारा नहीं जा सकता, तो इसलिए ग़ज़ल को हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल करना ज़रोरी है.यह साहित्य के प्रति रूचि तो पैदा करती ही है, इसके माध्यम से अधिक सोचने और समझने को भी मिलता है।

डॉक्टर शैलेन्द्र नाथ मिश्र : ज़रूर शामिल करना चाहिए, हिंदी गज़लें तो बहुत पहले से लिखी जा रही हैं। दुष्यंत जी ने इन्हें लोकप्रिय बनाने का काम किया। ग़ज़ल को कुछ निश्चित प्रतीकों और बिम्बों से धक् दिया गया था, वह बिलकुल एकांगी हो गए थी.किन्तु दुष्यंत जी ने उसे आम जनता और साहित्य के मूल सरोकारों से जोड़ने का काम किया। उसके बाद कई लोग यथा - गोंडवी जी , राम कुमार कृषक, बेचैन जी, विराट जी आदि हिंदी ग़ज़ल लेखन के छेत्र में आये। इस समय हिंदी ग़ज़ल पाठ्यक्रम में ज़रूर शामिल होना चाहिए क्योंकि साहित्य से जो अपेक्चायें हैं, वे ग़ज़ल के माघ्यम से पूरी हो रही हैं.ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसने बिना किसी आलोचक और बिना किसी अध्यापक के बहुत अच्छी लोकप्रियता हासिल की है। मेरे विचार में वर्त्तमान में कविता के क्षेत्र में कोई विधा सबसे आगे जा रही है , तो वह ग़ज़ल है। वर्त्तमान में हिंदी के रचनाकार हिंदी उत्कृष्ट गज़लें दे रहे हैं और व्यापक पैमाने पर हिंदी में गज़लें लिखी जा रही हैं।

डॉक्टर सुरेन्द्र विक्रम : ग़ज़ल की परंपरा बड़ी पुरानी है, मुख्य रूप से यह अरबी-फारसी से आये है, किन्तु पहली बार ग़ज़ल को हिंदी में दुष्यंत कुमार ने एक नया आयाम दिया। उन्होंने अपनी गजलों हे माध्यम से न केवल नए शिल्प संवारा बल्कि उसे आज के समाज से जोड़कर भी प्रस्तुत किया। दूसरी बात यह है की पहली बार हिंदी गजलों में दुष्यंत जी ने आम जीवन की समस्याओं को उठाया- कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों। आज तो ग़ज़ल निश्चित रूप से एक विधा के रूप में स्वीकृत हो चुकी है और इसे निश्चित रूप से हिंदी में अस्थान दाना चाहिए। देखेये बात यह है की जो हमारी परम्परा है उसे नकार नहीं सकते, लेकिन आज की समस्या को, आज के जीवन को जोड़कर जो गज़लें लाही जा रही हैं वो पहले से बहतर इस्थिति में हैं।

डॉक्टर प्रकाश चन्द्र गिरी: जौर शामिल करना चाहिए। वर्त्तमान गजलों पर तमाम शोध कार्य हो रहे हैं और सबसे उधार्रियता भी गजलों में है। आपने महसूस किया होगा की कोई भी वक्ता मंच पर चाहे राजनीत हो या सामाजिक हो, खरा होता है तो ग़ज़ल के अशार के कुछ उदाहरण ज़रूर देता है, तो यह तो कविता की एक तरह से मकबूलियत है। आखिरकार आप कविता को किस पैमाने पे नापेंगे। वर्त्तमान परिवेश में ग़ज़ल समाज को दिशा प्रदान कर रही है और इसके माध्यम से से लोग बहुत सोचने को विवश भी होते हैं। ग़ज़ल कविता की एक विधा है। उर्दू ग़ज़ल के भीतर को लेकर उसके सहारे कोई नै चीज़ शुरू की गई है तो इसमें बुरा क्या है? दुष्यंत के बाद कम से कम सौ रचनाकार ऐसे आये जिनके कम से कम दो ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जब इतनी अधिक संख्या में गज़लें आ रही हैं तो इन्हें पाठ्यक्रम में ज़रूर शामिल किया जाना चाहिए।

वाहिद अली वाहिद : ज़रूर शामिल करना चाहिए, यह तो अब बहुत लोकप्रिय विधा हो गयी है। हिंदी में बहुत गजें लिखी जा रही है उनके अस्तर में कोई कमी नहीं है। अतः इसको हिंदी के प्ठ्क्रम में स्वीकार किया जाना चाहिए। जहाँ तक मीर,ग़ालिब,मोमिन या दाग जैसे शायेरों की बात है तो वे उर्दू के पाठ्क्रम में चल रहे हैं। हमें हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में हिंदी गजलों को ही अस्थान देना चाहिए, आजकल तो हिंदी लिपि में और हिंदी अस्तर की गज़लें लिखी जा रही हैं। हिंदी शब्दावली में लिखी जा रही हैं और मिलाजुला इसका जो स्वरुप है वह नै विधा है, नया युग है,आप सभी कार्य हिंदी में हो रहे हैं। तो यह विधा भी हिंदी पाठ्यक्रम में आनी चाहिए। उन हिंदी में हमे हिंदी की शुद्धता रखनी होगी, जिन्हें हम हिंदी के पाठ्क्रम में शामिल करना चाहते हैं।

डॉक्टर शिव नारायण शुक्ल : कुछ गज़लें ऐसी हैं, जो आज की तमाम समस्याओं को तरासती है, तो ग़ज़ल को पाठ्यक्रम में क्यों नहीं शामिल करना चाहिए। गज़लें पढाई भी जा चुकी हैं और कुछ विश्वविद्यालयों में शामिल भी हैं। इसलिए अब ग़ज़ल हो हर अस्तर पर हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए.

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