हृदय की संवेदनाओं की पूंजी खत्म हो गई है: पुष्पिता
तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के हाथों विदेशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए पद्मभूषण मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार, अंतरराष्ट्रीय अज्ञेय साहित्य सम्मान, सूरीनाम राष्ट्रीय हिन्दी सेवा पुरस्कार, शमशेर सम्मान आदि से विभूषित प्रो. पुष्पिता अवस्थी जी का जन्म कानपुर देहात के एक गांव के जमींदार परिवार में हुआ था। हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला, फ्रेंच, अंग्रेज़ी और डच भाषाओं पर समान अधिकार रखने वाली प्रो. पुष्पिता अवस्थी ने वर्ष 2001-2005 के दौरान सूरीनाम स्थित भारतीय राजदूतावास के प्रथम सचिव एवं भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र, पारिमारिबो में हिंदी प्रोफेसर के पद को सुशोभित किया। आप हिंदी यूनिवर्स फ़ाउंडेशन, नीदरलैंड की निदेशक रहीं। आपने वर्ष 2010 में गठित अन्तरराष्ट्रीय भारतवंशी सांस्कृतिक परिषद के महासचिव पद की गरिमा को भी बढ़ाया। गोखरू, जन्म, अक्षत, देववृक्ष, शैलप्रतिमाओं, आधुनिक हिन्दी काव्यालोचना के सौ वर्ष, छिन्नमूल उपन्यास सहित साठ से ज्यादा आपकी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। सूरीनाम में हिन्दीनामा प्रकाशन संस्थान और साहित्य मित्र संस्था को स्थापित करने तथा हिन्दीनामा और शब्द शक्ति पत्रिकाओं के प्रकाशन के शुभारंभ का भी श्रेय आपको प्राप्त है। भारत से नीदरलैंड तक इनकी साहित्यिक जीवन यात्रा, विश्व में हिंदी के प्रचार-प्रसार और भारतीय तथा विदेशी पृष्ठभूमि पर रचे इनके अतुलनीय साहित्यिक योगदान संबंधित विभिन्न विषयों पर अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंश -
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| प्रो. पुष्पिता अवस्थी |
सवाल: आपकी प्रारंभिक शिक्षा कहां और कैसे हुई ?
जवाब: मैं कानपुर देहात के एक गांव में अपने ननिहाल में पैदा हुई। सातवें महीने में ही मेरा जन्म हो गया था। मां उस समय 17 अठारह बरस की थीं। अत: मेरी नानी ने ही मुझको पाला था। बचपन में हम बड़े खिलंदड़े थे। हम ज़मींदार परिवार के थे। खेतीबाड़ी के लिए जो मज़दूर आते थे, उन लोगों के साथ, मैं खेतों पर चली जाती थी तो सब को ये लगने लगा कि ये पढ़ेगी-लिखेगी नहीं, ऐसे ही घूमती फिरती रहेगी। तब मुझे चार बरस की अवस्था में बनारस के एक हॉस्टल में डाल दिया गया। कानपुर से बनारस जाते समय और हॉस्टल में दस-पंद्रह दिन तक हम रोते रहते थे। मेरी तो सारी आजादी, पूरा बालपन ही छिन गया था। मेरी नानी बहुत पढ़ी लिखी नहीं थी। वो संस्कृत नहीं पढ़ पाती थी। इसलिए जब मेरे नाना बाहर चले जाते थे तो नानी पूजा-पाठ नहीं कर पाती थीं। बस भगवान को नहला धुला कर हम दोनों लोग आधा घंटे हाथ जोड़कर बैठ जाते थे। मेरी नानी ने समझाया कि तुम्हें हमेशा के लिए नहीं भेज रहे हैं, एक-दो साल के लिए ही भेज रहे हैं। नानी ने कहा देखो स्कूल इसलिए भेज रहे हैं कि वहां से पढ़ कर आओगी तो हम दोनों लोग मिलकर पूजा-पाठ करेंगे। ये बात हमे समझ में आ गई तो हम चले गए। वहां जाकर हम मन से सिर्फ़ पढ़ाई करते थे ताकि जल्दी से पढ़कर हम नानी के पास पहुंच जाएं। तीन साल मन से पढ़ाई करने के बाद ही समझ में आने लगा कि पढ़कर बहुत आगे बढ़ना है। मैं वहां कृष्णमूर्ति फाउंडेशन में पढ़ती थी। छह-सात साल वहां कृष्णमूर्ति जी को देखा-सुना। कृष्णमूर्ति जी को सुनते हुए लगा कि जीवन और लिखना-पढ़ना कैसा होना चाहिए। ये फिलॉसफी और संस्कारी चीजों को सुनते हुए हम बड़े हुए।
सवाल: अपने प्रारंभिक साहित्यिक जीवन तथा विशिष्ट साहित्यकारों से संबंधित विशेष अनुभवों पर प्रकाश डालिए।
जवाब: हमने संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी, तीनों भाषा के साहित्य की पढ़ाई की। जब मैं बीए में थी तब मैंने एक कहानी लिखी। अमृत राय जी ‘नई कहानी’ पत्रिका निकालते थे। उसमें छपने के लिए इसे भेजी। उन्होंने मुझे एक पोस्ट कार्ड लिखकर भेजा कि ये कहानी कहां से उतारी है। मैंने उनको पोस्ट कार्ड में लिखा कि मेरी हस्तलिपि के अलावा यह आपको जहां भी मिले, मुझको सूचित करिएगा। उस समय हम बीएचयू के हॉस्टल में रहते थे। पंद्रह दिन बाद, हॉस्टल में जहां पर विजिटर मिलने आते थे, वहां से मेरे पास एक स्लिप आई, उसमें अमृत राय लिखा था। मैं दौड़ती-भागती गेट पर पहुंची तो देखा कि अमृत राय खड़े हैं। हमने कहा सर आप पहले से पोस्ट कार्ड भेज देते, बता देते। उन्होंने अचानक कहा कि तुम्हारे पोस्ट कार्ड का जवाब ही तो है कि मैं आया हूं। उसके बाद उन्होंने कहा कि सुनो, चलो हमारे साथ, मैं तुम्हें लमही में बप्पा के घर ले चलूंगा। तुम ये डिजर्व करती हो और वो मुझे अपनी कार में बिठाकर लमही ले गए। एक-एक कमरा दिखाया कि कहां मैं बैठता था और कहां बप्पा लिखते थे। कौन सी कहानी पर किस जगह का असर है। ये सब बताया और फिर उसके बाद उन्होंने कहा कि शुक्रवार, शनिवार, इतवार को क्या करती हो। मैंने कहा कुछ नहीं, कवि गोष्ठी वगैरह में कहीं लोग बुला लेते हैं, नहीं तो अपने कमरे में बैठकर पढ़ाई लिखाई करते हैं। उन्होंने कहा इलाहाबाद आया करो। तब हमने कहा कि बनारस से बाहर हम कहीं गए नहीं हैं। उन्होंने कहा कि बस स्टेशन से इलाहाबाद की बस पकड़ना और मैं या मेरा लड़का आलोक, इलाहाबाद में तुमको पिकअप कर लेगा। वहीं मुझे महादेवी वर्मा जी का घर दिखाए, मिलवाने भी ले गए। सुमित्रानंदन पंत जी का घर दिखाए। फिर बनारस में ही कथाकार प्रेमचंद जी की परंपरा के, शिव प्रसाद सिंह जी तथा शुक्ल जी से भी आशीर्वाद मिला। जब इन लोगों के लिए लखनऊ दूरदर्शन द्वारा फिल्म बनाने के लिए कहा गया तब इन लोगों के पूरे साहित्य को मैंने पढ़ा और इनसे बातचीत की। तत्पश्चात, मैंने शिव प्रसाद जी पर तथा श्री लाल शुक्ल पर तीन-तीन घंटे की फिल्म बनाई। इन सबसे, कहानी-कविता लिखने के साथ-साथ लेखन की दृष्टि से दुनिया को देखने की दृष्टि मेरे भीतर पैदा हुई कि कैसे आप किसी को तथा घटनाओं को आत्मसात करें। एक बार अमृतराय जी ने बताया कि बांग्लादेश बनने से पहले, मैं और धर्मवीर भारती युद्ध के दौरान बांग्लादेश बार्डर पर गए थे और उसके बाद हम लोगों ने रिपोर्ट लिखी और कहानी बनी। पहले हम साहित्यकार जहां कुछ होता था, वहां जाते थे लेकिन अब तो लोग एयर कंडीशंड कमरों में बैठकर, किसान के पसीने, फांवड़ा-कुदाल पर कविताएं लिखते हैं। हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष या आईएएस अधिकारी होने के नाते, कुछ लोग हिंदी के साहित्यकार हो गए। प्रकाशक-संपादक को पैसा-प्रतिष्ठा चाहिए। पूरे विश्व में साहित्य के पतन का ये भी एक कारण है। जब लेखक पतित होकर या भीतर के चेतन कांशसनेस, चेतना के वास्तविक सच्चे सोर्स से रचना नहीं लिखेगा तो रचना, पाठकों के हृदय को नहीं छुएगी।
सवाल: अपनी प्रकाशित पुस्तकों और उन पर हो रहे शोध संबंधित कार्यों के बारे में बताइए।
जवाब: सूरीनाम की पृष्ठभूमि पर आधारित मेरा उपन्यास ‘छिन्नमूल’, जब लोगों ने पढ़ा तो कुछ लोगों ने कहा कि मैडम, इसे पढ़कर लगा कि हम बिना खर्चे के सूरीनाम घूम आए। कानपुर में एक इंटर कालेज के प्रिंसिपल रोज शाम को इस किताब का एक अंश पढ़ते थे और आसपास से आए गांवों के लोग उत्सुकता से यह जानने के लिए सुनते थे कि उन्हीं के इलाके से गए हुए लोग, अब दूसरे देश में कैसे रह रहे हैं। उनका जीवन अब कैसा है। सत्तर के करीब विश्वविद्यालयों में मेरे साहित्य पर शोध हो रहा है। मुझ पर संगोष्ठियां हो रही हैं। मेरे साहित्य पर केंद्रित दो तीन पत्रिकाएं प्रकाशित हुई है। मारीशस और सूरीनाम में भी, मुझ पर बहुत से लोगों ने काम किया है।
सवाल: समाज में मरती हुई संवेदनाओं को समाज के सम्मुख प्रदर्शित करने का साहित्य सशक्त माध्यम है। अपनी रचनाओं के हवाले से इस कथन को समझाइए।
जवाब: लोग मुझसे कहते हैं कि कविता हाशिए पर जा रही है तो मैंने कहा कि लोगों का हृदय अब सिर्फ़ शरीर चलाता है। हृदय में जो संवेदनाओं की पूंजी होती है वो लोगों की खत्म हो गई है। वो संवेदनाएं हाशिए पर चली गई अन्यथा कविता पढ़ना, समझना और कविता में जीना इतना सुन्दर है कि मैं कभी-कभी सोचती हूं कि जो कविताएं या साहित्य नहीं लिखते हैं, वो सम्वेदनाओं को जीते कैसे होंगे क्योंकि ये चीजें संवेदनाओं को जीने का एक माध्यम हैं। जैसे कि मेरी एक कविता है-
मैं जानती हूं तुम्हें
जैसे
फूल जानता है गंध
मैं जानती हूं तुम्हें
जैसे
पानी जानता है अपना स्वाद
मैं तुम्हें जानती हूं तुम्हें
जैसे
हवाएं जानती हैं अपना मानसून
मैं जानती हूं तुम्हें
जैसे
जड़े जानती हैं अपनी फुनगी को
और फुनगी जानती है अपनी जड़ों को
मैं जानती हूं तुम्हें
जैसे
आत्मा जानती है देह को
और देह जानती है आत्मा को।
कितनी आसान कविता है, लेकिन इसको एहसास के धरातल पर महसूस करना होगा। मैंने प्रेम की कविताएं इतनी लिखी कि मैं हिंदी साहित्य की दुनिया में प्रेम कवयित्री के रूप में जानी जाती हूं। मेरे भीतर जो प्रेम का भाव है उसी की स्याही से लिखा और प्रेम मिला ही नहीं। जब कुछ मिलता नहीं तभी व्यक्ति लिखता है। मेरी एक किताब आई थी ‘आंखों की हिचकियां’। उसके आवरण पृष्ठ पर मेरी एक कविता है, ‘आंखों की हिचकियां’
चांदनी भी
समा चुकी होती है-
मीठे उजालेपन के साथ
आकाश गंगा के धवल प्रवाह में।
बेघर चांद भी अपने
कृष्ण पक्ष में ठहर जाता है-
तुम्हारी आंखों के घर में
स्वप्न बन जाने के लिए।
अकेलेपन की रोशनी में तब पिघलती हूं मैं
और मेरे भीतर का
शब्द-संसार
जिनकी आंखों से उतरते हैं
पारदर्शी आंसू
जिसमें झिलमिलाती है-
स्मृतियों की रौनक।
ऐसे में
तुम्हारे लिए रचाए गए
शब्दों की मुठ्ठी में होता है-
प्यार की अमृत बूंदों का
जादुई सच
जिसे जानती हैं
‘आंखों की हिचकियां’
सवाल: विदेश में रहते हुए भी आपने सूरीनाम, कैरेबियन देशो, युरोपीय देशों तथा भारतीय परिदृश्य पर काफी साहित्य रचना की हैं। इन्हीं भूखंडो पर लिखे अन्य देशी-विदेशी साहित्यकारों से आपका साहित्य कैसे भिन्न है ?
जवाब: हमने संस्कृत साहित्य, हिंदी साहित्य और अंग्रेज़ी साहित्य से पढ़ाई की है। पांच हजार साल के साहित्य का व्यापक पैनोरमा मेरे दिमाग के भीतर है और इसी दिमाग के भीतर आंखें हैं। सामान्य दृष्टि और प्रज्ञा चक्षु मेरे दोनो जाग्रत हैं और दोनों एक दूसरे से अन्तर्संबंधित हैं। इस वजह से जब आपको एवं आपकी दुनिया को हम देखते हैं तो वो हमारी प्रज्ञा चक्षु से रिलेट होकर के हमारी कई हजार साल पुरानी भारतीय संस्कृति की विरासत की आंखो से, इसे देखती है। विश्व युद्धों के बाद, कोलोनाइजिंग के बाद, विदेशी लोग अभी नामी गिरामी बने हैं। वस्तुत: ये लोग या तो लुटेरे या मछेरे रहे हैं या कोलोनाइजिंग की है। संस्कृति की विरासत तो भारत की धरती के पास है। भारत की धरती उस समय इधर अफगानिस्तान तक और उधर इंडोनेशिया, बर्मा तक गई हुई थी। ये सब भारत था। इसने मानवीय संस्कृति को विकसित किया है। मैं उसी विकसित मानवीय संस्कृति की आंखों से देखकर लिखती हूं। मनुष्य को जो मनुष्यता की दुनिया के लिए करना चाहिए, उस तरफ मैंने लिखा। मेरे कहानी-संग्रह ‘कत्राती बागान’ में तीन बड़े भूखंडो भारत, कैरेबियन देशों और युरोपीय देशों के मानवीय चरित्रों पर, मैंने कहानियां लिखी। विदेशी भाषा के लेखकांे के द्वारा, जो साहित्य किसी अन्य देश पर लिखा जाता है, वो अक्सर उन देशों की मूल परिस्थितयों और सांस्कृतिक स्वरूप से भिन्न होता है। जैसे आप रशिया के मैक्सिम गोर्की, इंग्लैंड के लेखकों की अंग्रेजी में लिखी, दूसरे देशों पर किताबें पढ़िए तब आप पायेंगे कि वो जिस तरह से दूसरे देशों की संस्कृति को देखते हैं उसे पढ़कर आप उस देश को नहीं समझ सकते। रोमा रोला, मूलर तथा अन्य विदेशी लोगों ने भारत के बारे में लिखा परंतु जब एक भारतीय, भारत के बारे में लिखता है तो दोनों में अंतर होता है। ये अंतर दृष्टि का अंतर होता है। इसलिए मुझे लगता है कि मेरा साहित्य विदेश में क्यों महत्त्वपूर्ण हुआ ? उसका बहुत बड़ा कारण ये है कि मैंने विदेश पर हिंदी भाषा में साहित्य लिखा तो उस देश के लोगों को ये उत्सुकता हुई कि भारत से आई हुई महिला हमारे देश पर आखिर क्या और क्यों लिख रही है ? किन आंखों से वो हमारे देश को देख रही है? इस वजह से उन्होंने हमारे साहित्य को पढ़ा और समझने की कोशिश की। तत्पश्चात् इनके अनुवाद हुए। मेरी एक कविता ‘पृथ्वी अकेले औरत की तरह सह रही है जीने का दुख’ का ग्यारह भाषाओं में अनुवाद हुआ। उस पर एक घंटे की फिल्म बनी और नीदरलैंड के टेलीविजन में एनटीआर चैनेल ने दिखाया।
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| प्रो. पुष्पिता अवस्थी |
सवाल: साहित्य में आजकल चोरी का बोलबाला हो गया है लोग दूसरों की रचनाएं अपने नाम से छपवा ले रहे हैं। इस बारे में आपका क्या विचार है और इस संबंध में आपका कोई अनुभव हो तो बताइए।
जवाब: हमारी कुछ किताबों को भी कुछ लोगों ने अपने नाम से छपवा लिया है। उसमें से एक किताब ‘सूरीनाम का सृजनात्मक साहित्य’ साहित्य एकडेमी से प्रकाशित है। उस किताब को उसी शीर्षक तथा अपने नाम से छपवा लिया। इस तरह से देखें कि साहित्यिक दुनिया में किस तरह से एक साहित्यकार और उसकी साहित्यिक कृति की चोरी या मर्डर होता है। सूरीनाम देश पर मेरी एक किताब, नेशनल बुक ट्रस्ट से छपी। उसे भी भारत में एक महिला अधिकारी ने अपने नाम से छपवा लिया और जब मैंने शिक्षा मंत्रालय में उनकी शिकायत की, तो जब मेरा नाम विश्व हिंदी सम्मेलन में सम्मान के लिए यहां के दूतावास से गया, तो बदले की भावना से मेरा नाम हटवा दिया गया। भारत सरकार के अधिकारियों का दुर्व्यवहार और नीयत ऐसी है कि हम विदेश में रहकर हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति हेतु ईमानदारी से जो काम करते हैं, उसके लिए सम्मान और सहयोग का भाव तो छोड़ दीजिए, जो अवसर मिलते हैं उसे भी नहीं लेने देते हैं। ये काम छोटे मोटे लोगों ने नहीं किया। ये दिल्ली विश्वविद्यालय के अस्सी बयासी साल के रिटायर्ड प्रोफेसर ने किया है और दूसरा उन्हीं की शिष्या ने किया है, जिसको उन्होंने गोल्ड मेडल दिलाया था। इसके अलावा मेरी लिखी कहानियों का हिंदी से अंग्रेज़ी में लोगों ने अनुवाद किया और उसे वूमेन इरा में अपने नाम से छपवा लिया। वो कहानी हिंदी की साक्षात्कार पत्रिका में छपी थी। कहानी का नाम था ‘इट्स प्लेज़र’। राजस्थान की एक महिला ने यह काम किया है। इसके बाद जनसत्ता में ओम थानवी ने इस पर लिखा। बहुत से अखबारों में यह छपा। उसके बाद उस महिला ने मुझसे कहा मैडम मेरा तो पूरा कैरियर खत्म हो गया। सारे पत्रकार मेरे विरूद्ध हैं। आप हमें बचाइए। ईमानदार साहित्यकार और पत्रकार अभी भी मेरे किए के महत्व को समझते हैं और अपने सहयोग से मुझे जिलाए हुए हैं।
सवाल: भारत, सूरीनाम और नीदरलैंड के कई संस्थानों में अत्यंत महत्वपूर्ण पदों पर आपने कार्य किया है। भारत से नीदरलैंड तक की अपनी इस साहित्यिक जीवन यात्रा के बारे में बताइए।
जवाब: बहुत ही असाधारण परिस्थितियां थी मेरी। सामान्य स्थितियों में पला व्यक्ति, इस तरह नहीं बन सकता जैसी मैं बन गई। आप सोचिए कि लोग विदेश क्या दूसरे शहर अकेले जाने में डरते हैं और मैं अकेले बनारस से सूरीनाम गई। उस समय सूरीनाम की अम्बेसडर कमला सिन्हा जी चाहती थी कि वहां विश्व हिन्दी सम्मेलन हो और चूंकि वहां उन्होंने यूपी और बिहार से गए हिंदुस्तानी किसान-मजदूरों को देखा तो कहा कि यहां हिंदी पढ़ाने के लिए और एम्बैसी में मदद के लिए, भारतीय संस्कृति से प्रेम एवं किसान-मजदूरों को समझने वाली शख्सियत को भेजिए। हमारे लेख वगैरह जगह-जगह छपते रहते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी तक मेरा नाम पहुंचा और उन्होंने मुझे भेजा। अटल बिहारी बाजपेयी जी ने जाने से तीन दिन पहले प्रधानमंत्री आवास पर मुझे बुलाया। तीन चार और महत्वपूर्ण लोग वहां थे। हमने वहां कविता पाठ किया। अटल जी ने भी किया और उसके बाद अटल जी ने कहा कि इस बार मैं सूरीनाम एक कवि एक विलक्षण स्त्री को भेज रहा हूं। ये जो उनकी भावमुद्रा थी, वो सूरीनाम में, मेरी शक्ति बनी रही। वहां जाकर मुझे लगा कि जब मैंने अपना देश, अपने लोग, घर छोड़ा तो मुझे लगकर ही काम करना होगा।
सवाल: सूरीनाम, नीदरलैंड आदि देशों में बहुत महत्वपूर्ण पदों पर आप आसीन रही हैं। इस दौरान इन देशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार संबंधित अपने कार्यों तथा अनुभवों के बारे में बताइए।
जवाब: आजकल दुनिया जिस तरह से पतन की ओर जा रही है तो कुछ लोगों के शब्द ही शायद वो ताकत बनें जो दुनिया को नीचता में या राक्षसी वृत्तियों में गिरने से बचा सकें। हम लोगों को गिरने से बचाने के लिए सिर्फ पकड़ कर, बांहों में थामकर किनारे ला सकते हैं। करीब चार हजार कविताओं का तीन भागों में मेरा एक कविता संचयन है। इसके अतिरिक्त प्रवास और निर्वासन पर लिखी हुई मेरी कविताओं का भी संग्रह आया है। स्त्री और बच्चों पर आधारित मेरी कविताएं हैं। मेरी रचनाओं का अनुवाद विदेश की कई भाषाओं मे जैसे रशियन, जैपनीज, स्पेनिश, अंग्रेज़ी आदि में हुआ है। मेरा एक कहानी संग्रह इंग्लैंड से प्रकाशित हुआ है। उसी तरह से नीदरलैंड में डच भाषा में मेरे तीन कविता संग्रह आए हैं। सरनामी के जो महत्वपूर्ण कवि हैं, श्रीनिवासी मार्तेंड्य जी और जीत नराइन जी आदि, कवियों का मैंने हिंदी में अनुवाद किया है। बेल्जियम के कवि की रचनाओं का मैंने हिंदी में अनुवाद किया। जिस दिन सूरीनाम में सातवां विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ तो सूरीनाम के सभी कवियों की कविताओं को हमने सेलेक्ट किया। उन्हें रोमन से देवनागरी लिपि में लिपिबद्ध किया। प्रकाशक को हमने अपना पैसा देकर के किताबें छपवाई और मंगवाई। सारे सूरीनामी साहित्यकारों की आंखों में आंसू थे, पहली बार वो अपनी आंखों से अपना नाम छपा और अपनी भावनाओं को शब्दों में देख रहे थे। नीदरलैंड में एक प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी के कैम्पस में, हमने रवींद्रनाथ टैगोर की मूर्ति लगवाई है। केरन इंस्टीट्यूट के एकेडमिक कौंसिल के हम मेंबर भी हैं ।
सवाल: प्रवासी भारतीय होने के साथ-साथ आप वर्तमान में नीदरलैंड की नागरिक हैं। विदेशी और भारतीय परिस्थितियां तथा विदेशी जीवन किन अर्थों में भारतीयों से भिन्न हैं। भविष्य में, इस विषय पर आपकी लेखन संबंधित क्या संभावनाएं हैं ?
जवाब: भारत के लोग विदेश को बहुत अच्छा समझते हैं लेकिन जितना भ्रष्टाचार और बेईमानी विदेश में है उतना भारत में नहीं। भारत में आप जिन दुकानों से चार पांच साल से सामान ले रहे हैं, वहां आपको कोई नहीं ठगेगा क्योंकि एक परिचय, एक प्रतिष्ठा है, मगर यहां कुछ है ही नहीं। अधिकांश दुकानों, होटलों में औरतें ही काम करती हैं। होटलों में रिसेप्शनिस्ट औरतें ही होती हैं। औरतें मैनुपलेशन बहुत अच्छे से करती हैं। उनसे लोग ज्यादा बहस नहीं करते हैं और सबसे ज्यादा बेईमानी वही करती हैं। हालांकि मैं डच भाषा इस हद तक जानती हूं कि मैं डच भाषा का हिंदी में और हिंदी से डच भाषा में अनुवाद कर सकती हूं लेकिन नीदरलैंड देश में जब मैं घर से बाहर जाती हूं तो विदेश के लोगों को पहचानने के लिए लोगो से मैं अंग्रेज्री में ही बोलती हूं। इसके कारण लोगों को लगता है कि मै इमिग्रेंट, बाहर से आई हूं और मैं डच नहीं समझती। तब हर दुकान की औरत ने मुझसे बेईमानी की, जो मेरी दोस्त बनती थी, उन्होंने भी मौका मिलते ही बेईमानी करने की कोशिश की। उनको फिर बाद में, हमने डच भाषा में बोलकर, बताया कि आप लोग यह सोचते हैं कि मुझे डच नहीं आती, मुझे अच्छी तरह से डच भाषा आती है लेकिन आप लोगों की नैतिकता की जानकारी के लिए और दूसरे देशों से आने वाले इमिग्रेंट्स लोग के साथ आपके सुलूक के बारे में जानने के लिए, मैं आप लोगों से अंग्रेजी में बात करती थी। इस तरह से मैंने पहचाना कि इस देश की औरतें कैसी हैं। अगर मॉल में ये जाएंगे, तब जहां बच्चों ने केला खाया, वहीं छिलका फेंक दिया। जहां औरेंज जूस मिलता है वहीं जूस पी कर डिब्बा वहीं फेंक दिया। भारत में लोगों को इस तरह से मॉल में करते हुए नहीं पाएंगे। यहां पर लोग दवाई के पैकेट में से दवा का पत्ता निकाल कर, डिब्बा वहीं रख देंगे जबकि कैमरे वहां लगे हुए हैं। मैं चकित होकर देखती रह जाती। पहले जब शुरू-शुरू में आई तो बड़ी खुश थी कि यहां रूपया दो तो इनकी मशीन तुरंत चेक करती है कि रूपया कहीं नकली तो नहीं है। गांव की ब्रेड की दुकान तक में कैमरा लगा हुआ है। बड़ी अच्छी व्यवस्था है। अब समझ में आया कि यहां चोर ज्यादा है, इस वजह से कैमरा लगा रखा है। यहां यूरोप में छायादार पुराने पेड़ नहीं हैं और ऐसी ही इन देशों की संस्कृति है। यहां छाया देने वाले व्यक्तित्व नहीं हैं। यहां की संस्कृति में छाया, शेल्टर, संरक्षण नहीं है। ये तो खुद कोलोनाइजिंग करके, एसियन देशों से कमाकर, बड़े हुए हैं। तकनीक वगैरह के साथ ये जो भी बने हैं ये गरीब देशों के नागरिकों को अपने देश में लाकर मजदूरी करवाकर उससे ये बने हैं। ये सब मैं लिखंगी जिनके दस्तावेजी प्रमाण हैं और जो बात दस्तावेज के माध्यम से लिखने से लगेगा कि वो लोगों के सम्मान के आड़े है, उसे उपन्यास के माध्यम से कहूंगी। नीदरलैंड के लोगों को लेकर, उस देश के महत्व के बारे में नीदरलैंड डायरी किताब मैंने लिखी थी। अब मैं विदेशों की सच्चाई पर एक महत्वपूर्ण किताब लिखने की तैयारी में हूं कि मैं लोगों को यह बता सकूं। जीवन एक बार मिलता है। हम बेईमान लोगों के गिरफ्त में फंसकर, कष्ट उठाते रहें और मृत्य को प्राप्त हो जांय, कितना दुखद है। ये बेईमानी करने वाले व्यक्ति दूसरों का शोषण करने वाले व्यक्ति नहीं सोचते हैं कि मुश्किल से मिले एक मनुष्य के जीवन को शोषण करके वो उसको जीवनसुख से ही वंचित कर देते हैं। आखिर हमें कितना सुख चाहिए कि हम दूसरों का शोषण करें और क्यूं करें ? साहित्य तो लिखा ही इसलिए जाता है कि साहित्य को पढ़कर लोगों को जीवन दृष्टि मिल सके और वो मानसिक व्याधियों से मुक्त हो सकें।
सवालः सूरीनाम में हिंदी की पुस्तकों-पत्रिकाओं के प्रकाशन संबंधित क्या कठिनाईयां हैं? और उनको दूर करने हेतु अपने किए गए योगदान पर प्रकाश डालिए।
जवाब: भारत से सूरीनाम चौदह हजार किलोमीटर दूर है और अगर कोई चीज़ भारत में छपती है तो उसके छपने के खर्च के साथ-साथ उसके आने का खर्चा भी सूरीनाम के लोगों को देना होगा। इतने अधिक खर्चे के कारण मुझसे पहले सूरीनाम के लोगों की रचनाएं किताबों में नहीं छपी थीं। मैं पहली व्यक्ति थी जिसने उनकी रचनाओं को खोज खोजकर, उनकी हस्तलिखित रचनाओं को टाईप राइटर में टाईप करवाया। वो लोग देवनागरी लिपि के बजाय रोमन में लिखते थे। देवनागरी में कोई प्रिंटिंग प्रेस नहीं था। अगर हिंदी भाषा का प्रचार करना है तो वहां पर देवनागरी लिपि भी स्थापित करनी थी और उसे आर्थिक रूप से भी सुगम बनाना था। इन सबको ध्यान में रखते हुए मैंने अपना प्रकाशन संस्थान खोलकर, हिंदीनामा पत्रिका निकाली। देवनागरी लिपि नहीं जानने की वजह से भारत में क्या लिखा जा रहा है या किसी भारतीय साहित्यकार को वो लोग जानते ही नहीं थे। इसीलिए मैंने विश्व हिंदी सम्मेलन वहां करवाया। दुनियाभर के साहित्यकारों को वहां बुलाया और हिंदी भाषा को वहां स्थापित किया। इंडियन एक्सप्रेस ने मेरे बारे में लिखा कि मैं हिंदी भाषा और लिपि की सूरीनाम में इंट्रोड्यूसर हूं। हिंदी भाषा को स्थापित करना, वहां की ज़रूरत थी ताकि वहां के लोग देवनागरी लिपि जान सकें, छप सकें, पढ़ सकें और जिससे भारत के साथ उनका रिश्ता फिर से बन सके तथा भारतीय लेखक सूरीनाम की पत्रिका में छप सकें। मैंने शब्दशक्ति पत्रिका भी वहां प्रकाशित किया और उसमें भी उन लोगों की रचनाएं छपीं।
(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2025 अंक में प्रकाशित )


