सोमवार, 28 अप्रैल 2025

अलौकिक कल्पना लोक की विलक्षण कहानी

                                                             - अजीत शर्मा ‘आकाश’


                               

  साहित्य अकादेमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, इक़बाल सम्मान और पद्मश्री से विभूषित शम्सुर्रहमान फ़़ारूक़ी हमारे समय के महान लेखकों में से एक हैं। जिन्हें प्रमुखतया उर्दू में तनक़़ीद (आलोचना लेखन) के लिए जाना जाता है। निस्सन्देह वह एक उच्च कोटि के आलोचक थे। अपने जीवन के कई दशकों तक वह उर्दू में तनक़ीद (आलोचना लेखन) के  क्षेत्र में लेखन-रत रहे। इस क्षेत्र में उच्चतम शिखर पर पहुंचने के उपरान्त उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम कुछ दशकों में कहानी-लेखन प्रारम्भ किया। इस क्रम में ‘सवार और दूसरी कहानियां’ ‘कई चांद थे सरे आसमां’, ‘क़ब्ज़-ए ज़मां’ के उपरान्त अभी लॉकडाउन के दौरान उन्होंने ‘फ़ानी बाक़ी’ नाम की लम्बी कहानी उन्होंने लिखी। इसके माध्यम से उन्होंने प्राचीन हिंदू, बौद्ध, जैन, यूनानी, और सीरियाई देवमाला तथा पौराणिक मिथकों का इस्तेमाल करते हुए एक ऐसी कहानी की संरचना की, जिसके अन्तर्गत जीवन और अस्तित्व के विषय में नवीन प्रश्न उठाये गये हैं।

 ‘फ़ानी बाक़ी’ कहानी फ़ारुक़ी साहब की अन्य कहानियों से अलग है। इसकी विषय वस्तु के अन्तर्गत लेखक ने एक विलक्षण कल्पनालोक की रचना की है। जिसके सौन्दर्य एवं उसकी गहराई की अनुभूतियों में पाठक खो-सा जाता है। पाठक के मन के तार कथानक के साथ स्वयमेव जुड़ते चले जाते हैं और वह एक विचित्र से भावनालोक में विचरण करने लगता है। कहानी का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के अन्तस में निहित मुक्ति की आकांक्षा को स्वरूप प्रदान करना है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने ब्रह्माण्ड-विज्ञान के रहस्य की पर्तों की काल्पनिक दुनिया का ताना-बाना बुनने का प्रयास किया है। इस कहानी के मूल में जाने पर प्रतीत होता है कि यह सातवीं शताब्दी के संस्कृत ग्रन्थ ‘योग वशिष्ठ’के सिद्धान्तों पर आधारित है। इसके अतिरिक्त इक़़बाल की शायरी से भी प्रभावित प्रतीत होती है। इसके साथ ही केरल के लगभग दो हज़ार साल पुराने रंगनृत्य कलारूप कूडियाट्टम की झलक भी इसमें समाहित है। इस प्रकार लेखक ने ऐसी विलक्षण कहानी का सृजन किया है, जो अत्यन्त रोचक एवं मानवीय विचारों को जाग्रत करती हुई प्रतीत होती है। कहानी के अन्तर्गत उठायी गयी बहुत-सी बातें आधुनिक मनुष्य की वैचारिक उलझनों और आन्तरिक ऊहापोह को इंगित करती हैं तथा सोचने के लिए प्रेरित करती हैं। लेखक के अनुसार हिमालयी बुद्ध मत में प्रचलित ‘ब्रह्माण्ड-विज्ञान’ की बात करने वाली एरिक हंटिंग्टन की पुस्तक ‘क्रिएटिंग दि यूनिवर्स, डिपिक्शन ऑफ़ दि कॉस्मॉस इन हिमालयन बुद्धिज़्म’इस कहानी की प्रेरणा स्रोत है। इस कहानी को गति देने में इक़बाल का बहुत-सा कलाम नुमायाँ हैसियत रखता है। पुस्तक में लेखक पाठकों से वार्तालाप करता हुआ कहता है कि-‘‘‘लेकिन मुझे तो लिखना वही था जिसकी आवश्यकता मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में थी। कई बैठकों में यह कहानी पूरी हुई। अब जैसी भी है, आपके सामने है।“ लेखक के अनुसार इस कहानी में बहुत कुछ उनका गढ़ा हुआ है। उनका कथन है कि जिस तरह से भी पढ़ें, यह कहानी ही है, कहानी के सिवा और कुछ नहीं।

 ब्रह्माण्ड-विज्ञान को आधार बनाकर अत्यन्त प्रवाहमयी भाषा एवं रोचक शैली में लिखी गयी यह कहानी निश्चित रूप से पठनीय, विचारणीय, सराहनीय एवं संग्रहणीय है। मूल रूप से उर्दू (अरबी) लिपि में लिखी हुई यह कहानी फ़ारूक़ी साहब की अन्तिम कृति है, जिसका देवनागरी में लिप्यन्तरण तथा कहीं-कहीं हिन्दी अनुवाद शुभम मिश्र ने किया है। उर्दू न जानने वाले हिन्दी पाठकों के लिए यह एक दुर्लभ संग्रह है। पुस्तक के अन्त में लेखक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के अधूरे उपन्यास ‘गोमती की महागाथा’ के कुछ पन्ने दिये गये हैं। जिससे पाठकों को यह अहसास हो सके कि फ़ारूक़ी साहब जैसा महान् उपन्यासकार किस तरह अपने उपन्यास की शुरूआत करता है। इनका हिन्दी अनुवाद रिज़वानुल हक़ ने किया है। पुस्तक का मुद्रण एवं अन्य तकनीकी पक्ष श्रेष्ठ है। कवर पृष्ठ पर लेखक की फ़ोटो है। सेतु प्रकाशन की इस पुस्तक का पेपर बैक संस्करण 94 पृष्ठों का है, जिसका मूल्य 160 रूपये है।


दिलीप कुमार की अभिनय यात्रा का दस्तावेज़

 


‘ट्रेजडी किंग’ कहे जाने वाले अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के सौंवें जन्मदिवस के अवसर पर विख्यात साहित्यकार प्रबोध कुमार गोविल की पुस्तक ‘साहेब सायराना’ का प्रकाशन किया गया। इस पुस्तक में दिलीप कुमार की जीवन संगिनी एवं प्रख्यात अभिनेत्री सायराबानो की दृष्टि से उनकी जीवन-गाथा को प्रस्तुत किया गया है, जिसके कारण पुस्तक का शीर्षक “साहेब सायराना” रखा गया है। सायरा जी अपने पति दिलीप साहेब को ‘साहेब’ कहकर सम्बोधित करती थीं। इस दृष्टि से भी पुस्तक का शीर्षक “साहेब सायराना“ अत्यन्त सटीक बैठता है। सन् 1944 में फ़िल्म ‘ज्वारभाटा’से अपनी अभिनय यात्रा प्रारम्भ कर सिनेप्रेमियों को अंदाज़, पैग़ाम, उड़न खटोला, अमर, मधुमती, मुग़ले आज़म, कोहिनूर और गंगा जमना जैसी अपने समय की एक से बढ़कर एक बेहतरीन फ़िल्में देने वाले अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के जीवन-कथा पर आधारित एक जीवनी परक उपन्यास है। इससे पूर्व भी गोविल जी अपने समय की लोकप्रिय अभिनेत्री साधना और दीपिका पादुकोण की जीवनी पर आधारित पुस्तकें भी लिख चुके हैं।

      कथाक्रम के अनुसार पुस्तक को 40 छोटे-छोटे भागों में विभक्त कर अत्यन्त रोचक ढंग से कालजयी अभिनेता दिलीप कुमार की अभिनय-यात्रा का विवरण प्रस्तुत किया गया है। “साहेब सायराना“ पुस्तक दिलीप कुमार एवं स्वाभिमानी सायराबानो की कहानी है। लेखक के अनुसार यह कहानी है जिन्दगी की, मोहब्बत की, जिंदादिली की। यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति के विषय में है जिसने अपनी पूरी जिन्दगी जवानी में ही गुजारी। दिलीप कुमार ने अपने समय की लगभग हर अभिनेत्री के साथ काम किया। सायराबानो जीवन भर अपने साहेब की फ्रेंड, फिलॉस्फर और गाइड बनी रहीं। भारतीय फिल्म जगत की ये एक अनूठी मिसाल है। दिलीप कुमार को ’ट्रेजडी किंग’ऐसे ही नहीं कहा गया। वे दुखद और गम्भीर फिल्मों के लिए ज़बरदस्त तैयारी करते थे। उन्हें ’अभिनय सम्राट’ कहा गया, वे मुम्बई के शेरिफ बने और कुछ समय के लिए देश के सर्वाेच्च सदन राज्यसभा के सदस्य भी रहे। दिलीप कुमार की हाजिर जवाबी के भी बहुत किस्से हैं। लेखक के अनुसार सिने कलाकारों के वास्तविक जीवन में भी कई ऐसी विलक्षण बातें होती हैं जो नई पीढ़ी को जाननी चाहिए। वस्तुतः फिल्मी दुनिया के चरित्रों पर लिखना सहज और सबके वश की बात नहीं है क्योंकि इस दुनिया में जो दिखता है,वह होता नहीं और जो होता है, वह दिखता नहीं।

      पुस्तक में प्रयुक्त की गयी भाषा सीधी-सरल बोलचाल की आम भाषा है। सम्पूर्ण उपन्यास अत्यन्त सधी हुई एवं प्रवाहमयी भाषा तथा रोचक शैली में लिखा गया है। इनकी लेखन-शैली रोचक एवं प्रवाहयुक्त होती है, जो कथानक के साथ पाठकों को पूरी तरह से जोड़े रहती हैं। पुस्तक का मुद्रण एवं अन्य तकनीकी पक्ष उच्चकोटि का है। स्तरीय लेखक एवं स्तरीय प्रकाशन की इस पुस्तक में त्रुटियां दृष्टिगत नहीं होती हैं। कवर पृष्ठ आकर्षक है। बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा प्रकाशित 124 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150/- रूपये है।



 
रचनाधर्मिता एवं सृजनात्मकता का सार्थक प्रयास

 


 ग़ज़ल एक विशेष प्रकार की काव्य-विधा है, जो फ़ारसी से होती हुई उर्दू एवं अब हिन्दी में आयी है। हिन्दी में ग़ज़ल लेखन दुष्यन्त कुमार के संग्रह ‘साये में धूप’ से लोकप्रिय हुआ है। इसी संग्रह के पश्चात् रचनाकारों ने ग़ज़ल लेखन प्रारम्भ किया और अब नित नये ग़ज़ल-संग्रह प्रकाश में आ रहे हैं, जिनमें से अधिकतर रचनाएं ग़ज़ल की श्रेणी में नहीं आती हैं। इसके बावजूद, ग़ज़ल-लेखन के प्रति ईमानदारी से सक्रिय रहने वाले रचनाकार अच्छी ग़ज़लें कह रहे हैं। इस दृष्टि से दीपाञ्जली दुबे ‘दीप’ ने अपने लेखन में सजगता एवं सतर्कता का परिचय प्रदान किया है। ‘आंख का पानी’  पुस्तक में इनकी 92 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। ग़ज़ल का स्वरूप एवं उसके शिल्प के अनुसार लेखन का प्रयास किया गया है। इस प्रयास में काफ़ी हद तक वह सफल भी रही हैं। कथ्य की दृष्टि से संग्रह की ग़ज़लें प्रेम, श्रृंगार एवं विरह के भावों से युक्त हैं। इसके साथ ही वर्तमान समाज का चित्रण एवं जीवन के विविध पहलुओं पर भी रचनाकार की लेखनी चली है। कुछ ग़ज़लों के उल्लेखनीय अशआर इस प्रकार हैं - “अमीरी गरीबी में क्या फर्क है अब/परेशान दिखता मुझे हर बशर है।, ‘अरे नादान लोगो बेटियों के भ्रूण मत मारो/यही सीता यही राधा हुआ इनसे उजाला है।’, ‘जगा दे जो जन-जन को अपनी क़लम से/क़लमकार वो ही असरदार होगा।’

  शायरा ने ग़ज़ल के शिल्प को बचाये रखने का पूरा प्रयास किया है। फिर भी ग़ज़ल व्याकरण की दृष्टि से कुछ रचनाओं में ऐब (दोष) भी हैं। उदाहरणार्थ कई स्थानों पर ऐबे तनाफ़ुर, तक़ाबुले रदीफ़, ऐबे शुतुरग़ुर्बा जैसे दोष हैं। इसके अतिरिक्त अनेक मिसरों में यारो, कभी भी, सनम, अजी, प्यारे जैसे भर्ती के शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो ग़ज़लों में नहीं होना चाहिए। भाषा व्याकरण की दृष्टि से अनेक शब्दों की वर्तनी अशुद्ध है, यथा- बज़ार, ज़िगर ,शिवा, सदाँ, मसहूर, सिरक़त, शुकून आदि। अनुस्वार के अशुद्ध प्रयोग की तो भरमार है। बावजूद इन सब के, शायरा की रचनाधर्मिता एवं सृजनात्मकता की दृष्टि से ग़ज़ल संग्रह सराहनीय है। अच्छी श्रेणी के लेखन के लिए भविष्य में शायरा को भाषा सम्बन्धी त्रुटियों एवं अशुद्धियों के प्रति सतर्क एवं सजग रहना होगा। 112 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 320 रुपये है, जिसे भारतीय साहित्य संग्रह, कानपुर ने प्रकाशित किया है।

 

प्रेम, विरह और श्रृंगार की कविताएं



 डॉ. मधुबाला सिन्हा की पुस्तक ‘बंधन टूटे न’ में उनकी 51 कविताएं संग्रहीत हैं। इनमें से अधिकतर रचनाओं में  प्रेम, विरह और श्रृंगार को मुख्य विषय बनाया गया है, जिनके माध्यम से प्रणय, मिलन, बिछोह, शिकवा और शिकायतों को वर्णित किया गया है। इस कविता-संग्रह में मन की भावनाओं के कई रूप दर्शाये गये हैं, जिनकी पूर्ण अभिव्यक्ति करने का प्रयास किया गया है। कविताओं के माध्यम से प्रणय से उपजे संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। पुस्तक का शीर्षक ‘बंधन टूटे न’कवयित्री के मनोभावों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। कविताओं में विषम परिस्थितियों में भी जीवन का सन्देश प्रदान करने का प्रयास किया गया है। पुस्तक में संग्रहीत कुछ कविताओं के उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं- ‘चलो चलें हम उस दुनिया में/जहां न होगा कोई भेद/प्रीत की राह बने मंज़िल अब/रह न पाएगा कोई खेद।’, ‘हमारे घर के दरवाजे तो/खुले ही ही रहते हैं/ऐसी क्या फिर बात हुई तूने/बन्द किए अपने दरवाजे ?’

  शिल्प की दृष्टि से पुस्तक में संग्रहीत कविताएँ छन्दहीनता, लयभंग एवं काव्यानुशासन के अभाव की शिकार हैं। कविताओं को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि रचनाकार को काव्य व्याकरण एवं छन्द शास्त्र की सम्यक् जानकारी नहीं है। उदाहरणार्थ, ‘बन्धन टूट न जाए साथी/कोई ऐसा जतन कर लो/एक बार जो बन गया रिश्ता/फिर वह टूट नहीं सकता।’(पृ. 37) जैसी पंक्तियों में लयात्मकता एवं गेयता का नितान्त अभाव है। ध्यातव्य है कि साहित्यिक सृजन हेतु रचनाकार को काव्य व्याकरण एवं भाषा व्याकरण का सम्यक् ज्ञान निश्चित रूप से होना चाहिए। इन सबके बावजूद महिला-लेखन के क्षेत्र में कवयित्री के प्रयास एवं रचनाशीलता को सराहनीय कहा जाएगा, जो रचनाकार की सृजनात्मकता का द्योतक है। कहा जा सकता है कि संकलन की रचनाएं मनोभावों को व्यक्त करने में काफ़ी हद तक सफल रही हैं। देवसाक्षी पब्लिकेशन, राजस्थान द्वारा प्रकाशित 116 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 170 रुपये है।

 चुनिन्दा अशआर की बानगी बेहद ख़ास



  हाल ही में पुस्तक ‘डॉ. मधुबाला सिन्हा के चुनिन्दा अशआर’ प्रकाशित हुई है। इसमें डॉ सिन्हा के चुनिन्दा अशआर संग्रहित हैं। आमतौर पर अधिकतर हिन्दी और उर्दू के रचनाकार ग़ज़ल का सृजन कर रहे हैं। मगर किसी भी बड़े से बड़े शायर या कवि की ग़ज़लों के सभी अशआर अच्छे नहीं होते। मीर, ग़ालिब, अकबर या सूर, रहीम, तुलसी आदि हमारे अहद के बड़े शायर और कवि हैं। जब भी बड़ी शायरी की बात हम करतें हैं, तो इनकी नज़ीर पेश करते हैं, मगर इनकी भी सारी रचनाएं बहुत अच्छी नहीं हैं। इन लोगों ने जो लेखन किया है, उनमें बहुत सी रचनाएं कालजयी हैं, मगर सारी रचनाएं कालयजी नहीं हैं। इसी तरह आज के शायर जो ग़ज़लें लिख रहे हैं, इनकी ग़़ज़लों के सभी अशआर अच्छे नहीं होते। कई बार तो ऐसा भी होता है कि एक-दो अच्छे अशआर हो जाने पर एक ग़ज़ल पूरी करने के लिए भर्ती के कई शेर कहने पड़ते हैं। ऐसे में पाठक के सामने जब ग़ज़ल आती तो वह एक-दो अच्छे अशआर के बाद बाक़ी के अशआर को पढ़कर बोरियत का एहसास करता है। कहने का आशय यह है कि आज के भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वह आपके भर्ती के ऊबाउ शेर पढे।

 पाठक के इस पक्ष को ही ध्यान में रखकर अलग-अलग ग़ज़लों के चयनित अशआर को एक साथ एकत्र करके प्रकाशित करने की कोशिश की गई है। कोशिश यह रही है कि पाठकों के सामने चुनिंदा अशआर प्रस्तुत किए जाएं, जिन्हें पढ़कर आनंद का अनुभव करे और समाज की मौजूदा हालात से रूबरू हो। मौजदूा दौर की कवयित्री अपनी शायरी के ज़रिय समाज को सचेत करने का काम रही हैं, अपने अनुभवों से लोगों को सचेत करते हुए अच्छे काम करने की प्रेरणा दे रही हैं। इस किताब में तमाम उल्लेखनीय अशआर हैं। बानगी स्वरूप कुछ अशआर इस प्रकार हैं-उदासी, शाम, तन्हाई, कसक यादों की बेचैनी/मुझे सब सौंपकर सूरज उतर जाता है पानी में’, ‘हर चीज़ तो बदली हुई अच्छी लगती है/पर प्यार पुरानी ही सदा अच्छी लगती है।’ इस तरह डॉ. मधुबाला सिन्हा की इस पुस्तक में ढेर सारे अशआर हैं, जिसे शायरी में दिलचस्पी लेने वाले लोग एक बार ज़रूर पढ़ना चाहेंगे। मूलतः हिन्दी भाषी होने के बावजूद डॉ. सिन्हा ने ग़ज़ल की परंपरा को अपने तौर पर समझने और उसमे डूब जाने का भरसक प्रयास किया है। ऐसे प्रयासों को छूरी और चाकू दिखाने के बजाए प्रशंसा की नज़र से देखे जाने की आवश्यकता है। 32 पेज की इस किताब को गुफ़्तगू पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 40 रुपये है।


(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में प्रकाशित )


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