शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

पहले एक उपन्यास नया कानून बनवा देता था: नासिरा शर्मा

 


                                                                   

नासिरा शर्मा से बात करते डॉ. गणेश शंकर श्रीवास्तव

            

 नासिरा शर्मा हिन्दी कथा जगत की जानी-मानी लेखिका हैं। अपने विविध किरदारों के चलते वे एशिया की राइटर मानी जाती हैं। यह कहना भी समीचीन होगा कि वे एक ग्लोबल लेखिका हैं, जिनके लेखन को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समान रूप से स्वीकार्यता मिली है। उनका जन्म 22 अगस्त 1948 को इलाहाबाद में एक संपन्न मुस्लिम परिवार में हुआ। प्रगतिशील विचारों के धनी उनके पिता प्रोफेसर जामीन अली उर्दू के प्रोफेसर थे। माता नाज़मीन बेगम सफल गृहणी रहीं। नासिरा जी के भाई-बहन भी साहित्य और लेखन से जुड़े रहे हैं। नासिरा जी का विवाह डॉ. रामचन्द्र शर्मा जी से हुआ जो कि भूगोल विषय में अध्यापन कार्य कर रहे थे। चर्चित उपन्यास ’पारिजात’ के लिए नासिरा जी को वर्ष 2016 का साहित्य अकेडमी अवार्ड भी मिला है। पत्थर गली’, संगसार, इब्ने मरियम, शामी कागज, सबीना के चालीस चोर, खुदा की वापसी, इंसानी नस्ल, शीर्ष कहानियां और दूसरा ताज महल आदि उनके प्रकाशित कहानी संग्रह हैं। शाल्मली, ठीकरे की मंगनी, जिंदा मुहावरे, सात नदियां एक समुंदर, अक्षयवट, कुईयांजान, पारिजात, शब्द पखेरू आदि उनके चर्चित उपन्यास हैं। उन्होंने संपादन एवं अनुवाद कार्य भी किया है, साथ ही बच्चों के लिए भी बहुत कुछ लिखा-पढ़ा है। युवा साहित्यकार डॉ. गणेश शंकर श्रीवास्तव और प्रियंका प्रिया ने उनसे बातचीत की।          

सवाल: आपने ढेर सारी कहानियां और उपन्यास लिखे हैं। उपन्यास एवं कहानी के आपसी संबंधों के बारे में आप क्या समझ्ाती हैं ?

जवाब: कहानी एक जज़्बा है, एक शिद्दत है जिसे आप उठाते हैं। चाहे वह लंबी कहानी हो या लघु कहानी, आप का जज़्बा उसमें निकल आता है। लेकिन उपन्यास में आपको पूरी बस्ती पूरा मोहल्ला बसाना पड़ता है। उसमें कभी अपना शहर तो कभी विदेश भी उपस्थित रहता है। इसलिए उपन्यास में बहुत धैर्य और समय की ज़रूरत है। उपन्यास में हर किरदार के तर्क और तथ्य को इस प्रकार साधना होता है कि उपन्यास की प्रामाणिकता और विश्वास बना रहे और पाठक को उपन्यास में आए चरित्र प्रभावित कर सकें और सच्चे लगें। इसलिए उपन्यासकारों का एक मुकाम भी होता है।

सवाल: साहित्य और पत्रकारिता का गहरा अंतर्संबंध रहा है, किंतु आजकल पत्रकारिता में साहित्य हाशिए पर चला गया है, इस पर आपके क्या विचार हैं ?

जवाब: देखिए एडिटर क्या प्रकाशित करना चाहता है क्या नहीं यह सब एडिटर के मिज़ाज़ पर निर्भर करता है। पहले साहित्यकार और पत्रकारों मैं बैलेंस था। अब पत्रकारों ने साहित्यकारों से एक दूरी बना ली है और स्वयं को रिपोर्टिंग तक सीमित कर लिया है। अब पत्रकारों को साहित्य की दुनिया की इतनी जानकारी नहीं होती या शायद उनकी साहित्यकारों में दिलचस्पी नहीं होती। एक और महत्वपूर्ण बात मैं कहना चाहती हूं कि जो पत्रकारिता की ज़रूरत होती है वह कहानी की नहीं होती है। हर घटना पर आप कहानी नहीं लिख सकते और हर घटना सूचना नहीं हो सकती। यह सबसे बड़ा फ़र्क़ है। जिनके पास यह समझ्ा है और जो इन दोनों की सीमाएं जानते हैं, वे एक साथ पत्रकार और साहित्यकार दोनों हो जाते हैं।

सवाल:  आपकी राय में क्या आज भी समाज और राजनीति के परिष्करण में साहित्य की सक्रिय भूमिका है ?

जवाब:  फिलहाल साहित्य कुछ बदल तो पा नहीं रहा, यहां तक कि किसी देश की व्यवस्था तो बदल नहीं पा रहा। पहले एक उपन्यास नया कानून बनवा देता था। कहा जाता है कि मिस्र के एक राष्ट्रपति थे उनकी पूरी सोच एक नोबेल से बदली। इंग्लैंड के एक उपन्यास का प्रभाव रहा कि बच्चों के पक्ष में एक पूरा कानून बना। कमी लेखकों में नहीं है, मुझ्ो लगता है कि लेखकों की राय कोई लेना नहीं चाह रहा। ऐसा माहौल 1947 के बाद धीरे-धीरे बनता चला गया। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि पाठक अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझ्ाते हैं। पाठक लेखक के विचार को आगे नहीं ले जाते। लेकिन एक तीसरा बहुत दिलचस्प दृश्य दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है कि पाठक कम होते जा रहे हैं, लेखक बढ़ते जा रहे हैं। आजकल लेखक की चाहे एक ही किताब हो, लेकिन उसकी इतनी ज्यादा प्रायोजित चर्चा होती है कि अच्छे लेखक ठगे से रह जाते हैं। मीडिया और सोशल मीडिया की वजह से आईं तब्दीलियां आज का परिदृश्य तय कर रही हैं। इनकी वजह से सतही चीज़ों का बहुत ज्यादा शोर हो गया है। क्योंकि साहित्य बहुत धीरे-धीरे असर करता है, पत्रकारिता फौरन असर करती है। एक ख़बर मेरा किरदार बना भी सकती है और बिगाड़ भी सकती है क्योंकि मैं ख़बर को लेकर रिएक्शनरी भी तो हो सकती हूं। पत्रकारिता रोज घटने वाली घटनाओं के प्रति एक्टिव बनाती है, जबकि साहित्य चरित्र का निर्माण करता है, आपको अच्छे-बुरे की समझ्ा देता है। साहित्य आपका परिचय उस समाज से भी करवाता है जिस तक आप पहुंच नहीं पाते।

सवाल:  मैं यह मानता हूं और यक़ीनन और भी कई लोग जो यह मानते होंगे कि नासिरा शर्मा की न सिर्फ़ शक्ल-औ-सूरत अंतरराष्ट्रीय है बल्कि वे अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं या मुद्दों की लेखिका भी हैं। स्वयं की इस छवि को आप किस प्रकार देखती हैं ?

जवाब: मैं इस छवि से खुश हूं। मेरी इस सोच को लोगों ने बहुत पसंद किया है। मेरे बुद्धिजीवी पाठकों ने मुझ्ो बहुत सम्मान दिया है। मैं आपको बताऊं एक वक़्त तक मेरे लेखन को लेकर चंद लोगों की नकारात्मक बातें मुझ्ो झ्ोलनी पड़ी, जिससे मैं अपसेट भी होती थी, लेकिन मैंने इन सब से भी प्रेरणा ली। ऐसे कमअक्ल लोग अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर कलम उठाने को जासूसी समझ्ाते थे। उनकी समस्या थी कि वे संबंधों को संकीर्ण नज़र से देखते थे। उनकी बातों से थोड़ी देर के लिए मन कसैला ज़रूर होता था फिर लगता था कि मेरा जुड़ाव किन्हीं और ऊंचाइयों से है। लेकिन मुझ्ो खुशी है कि जिन लोगों ने मुझ्ो पसंद कियाए भरपूर किया। मुझ्ो किसी से शिकायत नहीं है।

सवाल:  पारिजात के लिए आपको साहित्य अकेडमी अवॉर्ड मिला, कुछ लोग मानते हैं कि यह अवार्ड आपको देर से मिलाए इस बारे में आपका क्या कहना है ?

जवाब:  हां, कुछ लोग मानते हैं कि शाल्मली के लिए ही मुझ्ो साहित्य अकादेमी अवार्ड मिल जाना चाहिए था। लेकिन कोई बात नहीं। उस वक़्त राइटर और भी बहुत अच्छे-अच्छे थे, शायद इसीलिए उन्हें पहले दिया गया। मैं यह तो नहीं कहूंगी कि मुझ्ो यह देर से मिला लेकिन जब मिला तो भी मेरी ज़िंदगी में क्या फर्क पड़ा, मेरे सामने दो सवाल हैं कि अगर अभी भी ना मिलता तो, और जब मिला तो किसी ने कम से कम यह तो नहीं कहा कि यह बैकडोर एंट्री है या खुशामद का नतीज़ा है। मुझ्ो इस बात का शुक्र है कि मुझ्ो अवॉर्ड उस वक़्त मिला जब लोगों ने यह शिद्दत से महसूस किया कि अब नासिरा शर्मा को साहित्य अकेडमी अवॉर्ड मिल जाना चाहिए।

सवाल: आपकी दृष्टि में óी विमर्श क्या है ?

जवाब:  óी एक ज़िंदगी है। उसे एक आंदोलन की तरह लोग इस्तेमाल करते हैं। लेकिन मुझ्ो óी विमर्श के खाते में डाला जाए, ऐसा मेरे समझ्ा के परे है। óी विमर्श नाम तो अभी दे दिया गया है, लेकिन साहित्यकार तो पहले से ही बिना किसी óी विमर्श आंदोलन के óियों के शोषित चरित्र को बड़ी खूबसूरती से उठाते रहे हैं। दुनिया में जितने बड़े लेखक हैं, उन्होंने जो एक से एक शानदार óियों के किरदार दिए हैं, उसमें महिला लेखिकाएं भी शामिल हैं। औरतों की तादात कम ज़रूर थी लेकिन शानदार थी। देखिए जब किसी चीज़ को आंदोलन का रूप दे दिया जाता है तो सब कुछ होने के बावजूद भी वह वक़्त के साथ ख़त्म हो जाता है। óी विमर्श एक ख़ास अंदाज़ से शुरू हुआ। उससे पहले भी न जाने कितने किरदारों में óियों के सरोकार बिना किसी óी विमर्श के भरे पड़े हैं। मुझ्ो लगता है óी विमर्श सामाजिक दृष्टि से ज़रूरी है।  कहानियों में कला को बर्बाद नहीं करना चाहिए वह किसी नारे की मोहताज़ नहीं होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में कहानी का पूरा का पूरा ढांचा चरमरा जाता है। अतः हमें देखना पड़ेगा कि उस óी विमर्श में लेख और बातचीत के जरिए किस तरह से जागरूकता लाएं। मैं यह नहीं कहती कि ‘कला कला के लिए’ हो, लेकिन किरदार ऐसा होना चाहिए जो लेखक की सोच से प्रभावित होकर उसकी मर्जी से ना चलेए बल्कि खुद वह लेखक को यह बताएं कि वह किरदार किस ग्राफ का है। मैं मानती हूं कि लेखक को किसी भी तरह के विमर्श को अपनी कहानियों में प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। ऐसे विमर्श उसे लेखों वक्तव्यों और समाज सेवा में प्रस्तुत करना चाहिए। हां, जो आंदोलनकारी हैं वह कहानीकार की कहानियों का इस्तेमाल अपने आंदोलन में कर सकते हैं।


सवाल:  क्या óी की बुनियादी और जज़्बाती ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आज का साहित्य कारगर है ? 

जवाब: कारगर इस तरह से है कि हर कोई कलम लेकर अपनी बात कह रहा है। यह एक अच्छा शगुन है। औरतों ने बोलना सीखा है और लिख रही हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि औरतों को जुबान मिल गई है और उसको लोग सुनते हैं।

सवाल:  आपकी दृष्टि में क्या आज ऐसा साहित्य रचा जा रहा है जो पुरुषों को झ्ाकझ्ाोर कर óियों के प्रति अच्छे बर्ताव के लिए प्रेरित करे ?

जवाब: साम्यवाद के असर से मर्द-समाज में सामाजिक चेतना आनी शुरू हुई। हमारे यहां जब 1947 के बाद जमीदारी खत्म हुई, बड़े स्तर पर शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ तो मर्दो को भी एक नज़रिया मिला। देखिए सवाल उठता है कि समाज यूं ही नहीं खुलता गया होगा। इतिहास में जाकर हमें देखना होगा कि मर्द कहां तक हमारे समाज को कंट्रीब्यूटर कर रहे हैं  और यह सिलसिला कहां से शुरू होता है। हम देखते हैं कि मुस्लिम समाज के सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की नींव रखी। इस संस्थान ने मुस्लिमों के विश्वास को बढ़ाया। यह यूनिवर्सिटी हिंदू-मुस्लिमों का खेमा नहीं था। यहां से सबसे पहले एम.ए. करने वाले छात्र प्रसिद्ध इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद थे। उस यूनिवर्सिटी में भाई बहनों ने साथ-साथ पढ़ना शुरू किया। इस बात को समझ्ािए कि उस समय óी विमर्श नहीं था, बल्कि समाज ने करवट बदली। राजा राममोहन राय के सती प्रथा के खिलाफ किए गए प्रयासों को कैसे भुलाया जा सकता है। यह तो संकुचित सोच है कि óी विमर्श आज का मुहावरा है। औरत जो कुछ लिख रही है उससे ज़रूर संकुचित मर्दों की चेतना में बदलाव आया होगा। वैसे तो असमानता और एक दूसरे के शोषण का सिलसिला बहुत पुराना है और इस शोषण के खिलाफ मर्द के विरोध का सिलसिला भी बहुत पुराना है।

सवाल:  आपको अपना सबसे प्रिय उपन्यास कौन सा लगता है ? 

जवाब: जब मैं एक उपन्यास लिख रही हूं तो वह मुझ्ो प्यारा लगता है। उसका किरदार मुझ्ो अवसाद और परेशानी में भी डालता है, लेकिन जब वह मार्केट से होते हुए पाठकों के हाथों में पहुंच जाता है तो वह मेरा नहीं रहता। मेरा संबंध तो उससे बना रहता है लेकिन मेरी शिद्दत दूसरे उपन्यास में चली जाती है।

सवाल:  आपने बच्चों के लिए भी लिखा है, बाल साहित्य लिखते समय क्या सावधानियां रखनी होती हैं ? क्या लेखन शैली में किसी विशेष तकनीक का इस्तेमाल अपेक्षित होता है ? 

जवाब: मेरे लेखन को विधाओं में आप बांट दें, यह आपकी मर्जी, लेकिन एक लेखक के दिल में जो भी आया वो उसने लिखा। कुछ लोग बड़े और बच्चे दोनों के लिए अलग-अलग तरह से लिखते हैं। मैं कोई खास सचेत होकर नहीं लिखती कि मैं किसके लिए लिख रही हूं।  आपके अंदर का रस कोई भी रंग पकड़ सकता है। मैं बड़ों के लिए लिखूं या बच्चों के लिए, मनोविज्ञान को सामने रखकर नहीं लिखती बल्कि ज़िंदगी को सामने रखती हूं कि ज़िंदगी कैसे इंसान को मोड़ती है।

सवाल:  हिंदी और उर्दू के आपसी संबंधों को आप किस प्रकार देखती हैं ?

जवाब: हिंदी-उर्दू एक ही मां से पैदा हुई दो बहनें हैं। हिंदुस्तान की बेटियां हैं। स्क्रिप्ट का फर्क ज़रूर है। उर्दू की पैदाइश तो यहीं से हुई। उसकी हिस्ट्री चाहे जहां से पकड़ लो। उर्दू की स्क्रिप्ट अरबी और फारसी के करीब हो गई। हिंदी का झ्ाुकाव संस्कृत की तरफ हो गया। मजे की बात है कि संस्कृत और फारसी को कुछ लोग जुड़वा बहनें कहते हैं। कुछ लोगों ने इस पर काम भी किया है। अभी मैंने अपने एक लेख में लिखा है कि हिंदी और उर्दू के बहुत से शब्द दरअसल फारसी के शब्द हैं।  जिसे दोनों भाषाओं ने अपना लिया हैए क्योंकि भाषा किसी की मोहताज नहीं रहेगी और न किसी सीमा में रहेगी। उसकी ग्रोथ तो बराबर होती रहती है। नामवर सिंह ने एक लेख लिखा था ‘बासी भात में खुदा का साझ्ाा’ जिसके कारण उन्हें प्रगतिशीलों की आलोचना भी झ्ोलनी पड़ी। भाषाओं के साथ कैसी नफ़रत, उर्दू केवल मुसलमानों की जुबान नहीं है।

सवाल:  राजभाषा की दृष्टि से आप हिंदी की स्थिति को कैसा पाती हैं ?

जवाब: किसी भी देश का एक झ्ांडा और एक भाषा तो होनी ही चाहिए। जब हम अखंडता की बात करते हैं और सारे प्रांतों की बोलियों और भाषाओं के लोगों को एकजुट करना चाहेंगे तो यह प्रश्न उठेगा कि हिंदी ही क्यों, दूसरी भारतीय भाषाएं भी तो लिटरेचर की वजह से काफी रिच हैं। यह भी एक सवाल हो सकता है कि सिर्फ़ हिन्दी क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा को ही आगे क्यों बढ़ाया जा रहा है। ऐसे सवाल वक़्त के साथ बढ़ रहे हैं, क्योंकि यह तो तय है कि उर्दू-हिंदी मिश्रित भाषा यानी ‘हिंदुस्तानी’, जिसमें अब दूसरी भाषाओं के शब्द भी आने लगे हैं। एक कनेकिं्टग भाषा तो है ही। अतः हिंदी को अलग रखते हुए उर्दू को अन्य भारतीय भाषाओं में शामिल कर लीजिए और ‘हिंदुस्तानी’ भाषा जो मिली जुली भाषा है, उसे राष्ट्रीय भाषा मान लीजिए। उसमें एकता भी है, अखंडता भी है, सहकारिता भी है और एक दूसरे को साथ लेकर चलने की भावना भी है। इस तरह हिंदी और उर्दू के प्रति लोगों की परस्पर नफ़रत भी खत्म हो जाएगी।

सवाल:  आपने अंतरधर्मीय विवाह किया है। क्या इस विवाह से सामाजिक रूप से आपको कोई विरोध झ्ोलना पड़ा  ? या जीवन में किसी नकारात्मक प्रभाव का सामना करना पड़ा  ?

जवाब: शादी को लेकर तो ऐसा कोई विरोध नहीं हुआ जिसे दुर्घटना का नाम दिया जाए। यह बात अलग है कि लोगों ने हिन्दू-मुसलमान का नाम देकर हम दोनों को प्रोफेशनली नुकसान पहुंचाने की कोशिश ज़रूर की थी। लेकिन यह भी सच है कि ढ़ेरों लोग कहते रहे इतना खूबसूरत नाम है कि मेरे जहन में जम गया। 

सवाल:  नासिरा शर्मा आज के समाज में किन चुनौतियों को गंभीर मानती हैं ?

जवाब:  सबसे गंभीर बात है कि परस्पर नफ़रत बहुत बढ़ रही है। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ़ हिंदू-मुसलमान तक सीमित है। यह मुसलमानों में कई वर्गों में है, हिंदुओं में जाति-पाति के रूप में मौजूद है। दलित अभी तक इंसान के रूप में स्वीकारा नहीं गया है। दूसरी तकलीफ़ यह होती है कि हमारे पास इतना कुछ है लेकिन हम कॉमन आदमी की परेशानियां दूर नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि आजादी के 70 सालों से ज्यादा वक़्त गुजरने के बाद भी कॉमन आदमी को साफ़ पानीए छोटा सा घर, छोटी सी जॉब तक नहीं मिल रही है। मैं जिन देशों में गई हूं वहां फकीर और फुटपाथों में सोते हुए लोग नहीं दिखते, और सबसे बड़ी बात खेतिह, देश में किसानों के हाल मुझ्ो बेचैन करते हैं।

सवाल:  आजकल आप के अध्ययन कक्ष में क्या चल रहा है ?

जवाब:  कुछ नया तो मैंने शुरू नहीं किया है। अभी हाल ही में मेरे ‘शब्द पखेरू’ और ‘दूसरी जन्नत’ लघु उपन्यास आए हैं। इधर 6 खंडों में मेरे अनुवाद की एक किताबें आई थीं। 

सवाल:  आपके अनुसार नए युवा कहानीकार और उपन्यासकार जो अच्छा लिख रहे हैं  ?

जवाब:  कुछ युवा लेखक बहुत खूबसूरत लिख रहे हैं। उनकी कुछ कहानियों को हिंदी की बेहतरीन कहानियों के साथ रखा जा सकता है, क्योंकि जो लेखक संजीदगी से अपने लेखन को लेता है और जमीन से चीजों को उठाता है उसमें बनावटीपन नहीं होता। वह सीधे आपके दिल पर असर करता है।

सवाल:  नए रचनाकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगी ?

जवाब:  मुझ्ो लगता है कि नई आने वाली कलम को आलोचना की परवाह नहीं होनी चाहिए और ना ही सस्ती शोहरत पर यक़ीन करना चाहिए। उसका ख़जाना उसके पाठक होते हैं जो उसे सही पहचान देते हैं। कुछ किताबों को जबरदस्ती बेस्टसेलर कहा गया लेकिन वे राइटर अब नज़र नहीं आते।


( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2019 अंक में प्रकाशित )


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