मंगलवार, 28 जून 2022

अपने करामात के लिए मशहूर हैं सूफी शम्सुद्दीन

                               

 सूफ़ी शम्सुद्दीन की मजार

                                         

                                                    - शहाब खान गोड़सरावी

                                             

  सूफी शम्सुद्दीन खान का जन्म 1910 ई. में ग़ाज़ीपुर जिले के रकसहा गांव में अबु सईद खान के घर हुआ था। उन्होंने इब्तेदाई दीनी तालीम अपने वालिद से हासिल किया, इसके बाद फारसी अरबी की पढ़ाई की। उन्हें दीनी तालीम लेने के बाद जो समय मिलता उसमें वो अक्सर बकरियों को चराते थे। पढ़ाई के दरमयान उनकी शादी सरैला गांव के ज़मींदार बहादुर खां की बेटी होतीयम बीबी से हुई। उनसे चार बेटे और चार बेटियां हुई। बेटों का नाम फ़ैयाज़ हुसैन, अयाज़ हुसैन, नियाज़ हुसैन, रियाज़ हुसैन है। शम्सुद्दीन खां के वालिद के इंतिक़ाल के बाद उन पर घर की ज़िम्मेदारियां थीं। कोलकाता पुलिस में गांव के कोडार मोहल्ले के बादशाह खान कार्यरत थे, उन्होंने सूफी शम्सुद्ीन को अपने साथ कोलकाता ले जाकर पुलिस में भर्ती करा दिया। पुलिस सेवा में आने के बाद भी वे दीनी कामों से जुड़े रहे। नौकरी के दौरान ही वो बिहार के मुजफ्फरपुर स्थित सुरकाही शरीफ के पीर सरकार तेग अली शाह से मुरीद हो गए थे। 

   सन् 1960 में सूफी शम्सुद्दीन खान के नेतृत्व में मुस्लिम राजपूत इंटर कॉलेज यानी ‘एसकेबीएम’ दिलदारनगर के मैदान पर कमसारोबार इलाके का जलसा हुआ। दीनी इदारा कायम करने के लिए सूफी साहब ने यह जलसा मुनअक़िद किया था, इसमें बिरादरी के तमाम नामी-गरामी लोग मौजूद थे। जलसे के आखिर में मुबारकपुर से तशरीफ़ लाए बानिए मदरसा अल-ज़मीअतुल अशरफिया के बानी हाफिजे मिल्लत ने कहा कि इलाके में एक दीनी इदारा क़ायम करना है, इस पर मौजूद लोगों ने बुलंद आवाज में लब्बैक कहकर हाथ उठाया। इसकी जानकारी देवबंद सहारनपुर से फारिग कारी फ़ैयाज़ खां (देवैथवी) को हुई, वे उन दिनों इलाहाबाद के यूनानी मेडिकल कॉलेज में तिब्ब सीख रहे थे। वे तिब्ब की पढ़ाई छोड़कर इलाके में आ गए, और लोगों से राब्ता करके सन.1961 में दिलदारनगर स्थित हुसैनाबाद में ‘जामिया अरबिया मख्जुनूल उलूम’ मदरसा कायम कर दिया। 

 सूफी शम्सुद्दीन खान को यह बात नागवार गुजरी, उन्होंने मसलकी मतभेद की वजह से उससे अपने को अलग कर लिया। उन्होंने खुद का मदरसा ‘मकतब’ की सूरत में रकसहां गांव स्थित अधवार मोहल्ले की छोटी मस्जिद में ‘मदरसा तेगिया अनवारुल उलूम’ के नाम से शुरू की। यह मकतब सन् 1964 से 1967 तक चलता रहा। 26 मार्च 1967 ई. में सूफी साहब का इंतिकाल हो गया। इसके बाद उनके द्वारा संचालित मकतब मदरसा मुकम्मल तरीके से बन्द हो गया। लेकिन वो अपनी जिंदगी में मदरसे के लिए तकरीबन एक बीघा ज़मीन को वक़्फ़ कर गए थे। इस जमीन पर सन् 1975 में उनके बेटों के नेतृत्व में मदरसा का काम शुरू हुआ। 1979 में मदरसा बनने के बाद मकतब ‘तेगीया अनवारुल उलूम’ का नाम मदरसा ‘तेगीया शम्सुल उलूम’ कर दिया गया। आज भी यह मदरसा अच्छे ढंग से चल रहा है।

सूफी साहब की तमाम करामात मशहूर हैं, जिनमें अपनी मौत के मुतअल्लिक तीन दिन पहले अपनी क़ब्र की निशानदेही करना भी शामिल था। इसके अलावा ड्यूटी के दौरान बंदूक का ग़ायब होना और अफसर के तलब करने पर अपनी पीठ पर हाथ फेरकर उसी बंदूक को सामने ला देना, आपके सामने आकर खूंखार सांड का अंधा होना, गांव के नामी पहलवान जगदेव यादव को कुश्ती में मात देना वगैरह। इन्ही बुजुर्गी व करामतों की वजह से उन्हें सूफ़ी शम्सुद्दीन अल मारूफ़ शम्सुल मशायख का लक़ब दिया गया।

(नोट - सूफी शम्सुद्दीन खां से जुड़ी जानकारी किताब ‘इरफाने औलिया’ से ली गई है, इसके लेखक सय्यद मौलाना शम्सुल होदा शम्सी हैं )


(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2022 अंक में प्रकाशित)

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