सोमवार, 17 मई 2021

प्रो. लाल बहादुर वर्मा और राजा राम ने दुनिया को अलविदा कहा

                                                                       - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

प्रो. लाल बहादुर वर्मा


कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं प्रो. वर्मा की पुस्तकें

मशहूर इतिहासकार और साहित्यकार प्रो. लाल बहादुर वर्मा का 16 मई की देर रात निधन हो गया। उनका इलाज देहरादून के एक अस्पताल में चल रहा था। कोरोना से ठीक होने के बाद किडनी की बीमारी से पीड़ित हो गए थे, रविवार की रात उनकी डायलसिस होनी थी, लेकिन किसी वजह से नहीं हो पाई, देर रात निधन हो गया। प्रो.वर्मा मौजूदा दौर के उन गिने-चुने लोगों में से थे, जिनकी पुस्तकें देश अधिकतर विश्वविद्यालयों के किसी न किसी पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही हैं। वे लंबे समय तक इलाहाबाद में रहे, तकरीबन चार वर्ष पहले देहरादून शिफ्ट हो गए थे।


 10 जनवरी 1938 को बिहार राज्य के छपरा जिले में जन्मे प्रो. वर्मा ने प्रारंभिक हासिल करने के बाद 1953 में हाईस्कूल की परीक्षा जयपुरिया स्कूल आनंदनगर गोरखपुर से पास किया था; इंटरमीडिएट की परीक्षा 1955 में सेंट एंउृज कालेज और स्नातक 1957 में किया। स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही आप छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे। लखनउ विश्वविद्यालय से 1959 में स्नातकोत्तर करने के बाद 1964 में गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रो. हरिशंकर श्रीवास्तव के निर्देशन में ‘अंग्लो इंडियन कम्युनिटी इन नाइनटिन सेंचुरी इंडिया’ पर शोध की उपाधि हासिल किया। 1968 में फ्रेंच सरकार की छात्रवृत्ति पर पेरिस में ‘आलियांस फ्रांसेज’में फे्रंच भाषा की शिक्षा हासिल किया।

 गोरखपुर विश्वविद्यालय और मणिपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने के बाद 1990 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अध्यापन कार्य करते हुए यहीं से सेवानिवृत्त हुए। ‘इतिहासबोध’ नाम पत्रिका बहुत दिनों तक प्रकाशित करने के बाद अब इसे बुलेटिन के तौर पर समय-समय पर प्रकाशित करते रहे। इनकी हिन्दी, अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा में डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, इसके अलावा कई अंगे्रजी और फ्रेंच भाषा की किताबों का अनुवाद भी किया है। बीसवीं सदी के लोकप्रिय इतिहासकार एरिक हाब्सबाॅम की इतिहास श्रंखला ‘द एज आफ रिवोल्यूशन’ अनुवाद किया था, जो काफी चर्चित रहा। उनकी प्रमुख पुस्तकों में ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहासबोध’,‘इतिहास क्या, क्यों कैसे?’,‘विश्व इतिहास’, ‘यूरोप का इतिहास’, ‘भारत की जनकथा’, ‘मानव मुक्ति कथा’, ‘ज़िन्दगी ने एक दिन कहा था’ और ‘कांग्रेस के सौ साल’ आदि हैं। जिन किताबों का हिन्दी में अनुवाद किया है, उनमें प्रमुख रूप से एरिक होप्स बाम की पुस्तक ‘क्रांतियों का युग’, कृष हरमन की पुस्तक ‘विश्व का जन इतिहास’, जोन होलोवे की किताब ‘चीख’ और फ्रेंच भाषा की पुस्तक ‘फांसीवाद सिद्धांत और व्यवहार’ है। 


हाईस्कूल में पढाया जाता है राजा राम शुक्ल का लिखा नाटक 

राजा राम शुक्ल


 15 मई को साहित्यकार राजा राम शुक्ल का निधन हो गया। उनके परिवार में दो बेटे, चार बेटियां, बहुएं पोते-पोतियां हैं। 30 जनवरी 1934 को प्रतापगढ़ जिले के खजुरनी गांव में जन्मे राजा राम शुक्ल दारागंज में रहते थे, इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक किया था। रेलवे में नौकरी करते हुए सेवानिवृत्त हुए थे। उनका लिखा हुआ नाटक ‘अब तो नींद खुले’ और खंड काव्य ‘कैवल्य’ बिहार के हाईस्कूल पाठ्यक्रम में शामिल है। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में कैवल्य (प्रबंध काव्य), अतृप्त (उपन्यास), गंगायतन (महाकाव्य), मारिषा (प्रबंध काव्य), विद्यार्थी अनुशासन (संकलन), प्रेरणापुरुष सुमित्रानंदन पंत (संस्मरण समीक्षा), अब तो नींद खुले (ऐतिहासिक नाटक), पंखुरी (अवधी काव्य संग्रह) और चिरंतन सुभाष (प्रबंध काव्य) हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा इन्हें डी.फिल की उपाधि दी गई थी। विभिन्न संस्थाओं ने सम्मानित किया था। 


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