गुरुवार, 8 अगस्त 2013

चंद्र दर्शन के लिए फोन व खबर की गवाही मान्य नहीं


     -------- नाजि़या ग़ाज़ी ----------
 ईद का संबंध इबादत से है, जो रमजान के महीने से शुरू होता है और इसी महीने के समाप्त होने पर मनाई जाती है। रमज़ान सकुशल संपन्न हो जोने पर अल्लाह के शुक्र के तौर पर खुले मैदान, ईदगाह या सुविधानुसार मसजिद में नमाज पढ़ी जाती है। धार्मिक विधान के अनुसार इस इबादत की शुरूआत उस समय तक नहीं हो सकती, जब तक संतोषप्रद तरीके यह मालूम न हो जाए कि रमजान का महीना शुरू हो चुका है और समाप्त भी उस समय तक नहीं हो सकता जब तक ईद का चांद न देख लिया जाए। रमजान का महीना जब से शुरू हो और जब तक रहे हर मुसलमान का उसके रोजे रखने चाहिए। महीनेभर का रोजा पूरा किए बिना किसी ईद का हरगिज़ कोई सवाल पैदा नहीं होता। इस मामले में असल चीज मुसलमानों की एकता नहीं है, बल्कि रमजान के महीने की समाप्ति है। रमजान एक क़मरी यानी चांद वाला महीना है, जो चांद के दिखने पर निर्भर करता और इसके बारे में नबी का स्पष्ट संदेश मौजूद है, जिसमें कहा गया है कि चांद देखकर रोजे रखो और चांद देखकर ही रोजे खत्म करो। लेकिन आसमान साफ न हो तो तीस रोजे की गिनती पूरी करो, सिवाय इसके कि दो सच्चे और विश्वसनीय गवाह यह गवाही दें कि उन्होंने चांद देखा है। हजरत मुहम्मद सल्ल ने इस आदेश में दो बातें स्पष्ट रूप से निर्धारित की है- एक यह है कि चांद देखने की गवाही उस समय जरूरी होगी जब आसमान साफ न हो, दूसरे- यह कि इस स्थिति में खबर पर नहीं बल्कि दो सच्चे न्यायप्रिय गवाहों की गवाहों पर चांद देखने का फैसला किया जाएगा।
चंद्रदर्शन की गवाही के बारे में किसी व्यक्ति द्वारा फोन पर गवाही दिए जाने या रेडियो-टेलीवीजन पर खबर सुन लिए जाने को नहीं माना जाता। गवाहों का सामने मौजूद होना जरूरी है।जिस प्रकार दुनिया की कोई अदालत टेलीफोन या वीडिया कांफ्रेंसिंग आदि पर की गई गवाही को नहीं मानती, उसकी प्रकार चांद के मामले में भी ऐसी गवाही पर चांद दिखने का ऐलान नहीं किया जा सकता। यह सभी जानते हैं कि पूरी दुनिया में एक ही दिन चांद देख लेना मुमकिन नहीं है। रहा किसी देश या किसी बड़े इलाके में सब मुसलमानों की एक ही दिन ईद होने की बात, तो शरीअत में इसको भी जरूरी नहीं किया गया है। यह अगर हो सके और किसी देश में शरई कानून के अनुसार चांद देखने की गवाही और उसके ऐलान का प्रबंध कर दिया जाए तो इसको अपनाने में हर्ज नहीं है। मगर शरीअत की यह मांग बिल्कुल नहीं है कि जरूर ऐसा ही होना चाहिए। अब रही ईद मानने की बात तो ईद की मुबारकबाद के असली हकदार वे लोग हैं, जिन्होंने रमजान के मुबारक महीने में रोजे रखे कुरआन मजीद की हिदायत को ज्यादा से ज्यादा उठाने की कोशिश फिक्र की, उसको पढ़ा, समझा, उससे रहनुमाई हासिल करने की कोशिश की। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्ल ने कहा है कि रमजान-उल-मुबारक के पूरे होने की खुशी में खुले मैदान में दो रक्अत नमाज अदा करो। अल्लाह केे सभी बंदों के लिए दयालुता का साधन बन जाओ। जिस तरह रोजे रखकर अल्लाह के आदेश का पालन करते हो, उसके आदेश को पूरा करते हो, उसी तरह ईद के दिन लोगों में खुशी का संचार कायम करो, ताकि मनुष्य का हर वर्ग, अल्लाह का हर बंदा आनंद के सागर में खुशी से भरे माहौल में गोते लगाए। अगर हमने रोजे रखे, नमाज पढ़ी, स्वस्थ रहे, लेकिन अपने आसपास के लोगों और अन्य लोगों को तकलीफ पहुंचाई, तकलीफें दीं और हमारे अंदर ईश-परायणता के लक्षण नहीं पाए गए तो हमारी सारी इबादत बेकार हो गई।
नमाज, रोजा, हज, जकात और तौहीद इसलाम मजहब के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। जब तक कोई मुसलमान जकात और फितरा अदा नहीं करता, तब तक उसकी ईद की नमाज अल्लाह की बारगाह में स्वीकार नहीं होती। जकात साल मंें एक बार देना होता है, इसके अंतर्गत सात तोला सोना से अधिक के मूल्य की जितनी धनराशि है, उस अधिक धन का ढाई प्रतिशत धन गरीबों में बांटना ही जकात है। जकात अदा न करना इसलाम मजहब में बहुत बड़ा गुनाह है। यदि कोई मुसलमान हर तरह की इबादत करता है, इमानदारी से जीवन व्यतीत करता है, लेकिन अगर सालाना जकात अदा नहीं करता तो उसकी सारी इबादतें अल्लाह की बारगाद में अस्वीकार कर दी जाएंगी। इसी तरह सभी मुसलमानों को फितरा अदा करना अनिवार्य है। ईद की नमाज पढ़ने से पहले फितरा अदा कर देने का आदेश है, वर्ना नमाज स्वीकार नहीं होगी। फितरे में हर मुसलमान को अपने परिवार के सदस्यो की संख्या के बराबर प्रति सदस्य दो किलो चालीस ग्राम गेहूं के मूल्य के बराबर धन गरीबों में देना होता है। इसमें सबसे पहले अपने पड़ोसी को देखना चाहिए कि वह फितरा लेने की स्थिति में है तो उसे पहले देना चाहिए, इसके बाद रिश्तेदारों को देखना चाहिए। वास्तव में ईद संपूर्ण मानवता के खुशी का दिन है इससे खुदा का कोई बंदा वंचित न हर जाए, इसका ध्यान रखना हर पड़ोसी का फर्ज है।

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