शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

मोहर्रम के मौके पर-सलाम

चित्रः गुगल से साभार

        -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
शब्बीर से तो मेरे मोहम्मद को प्यार है।
शब्बीर से ही दीने-नबी का वक़ार है।
शब्बीर हक़ का सीन-ए-बातिल पे वार है।
शब्बीर जिस पे सारा जहां सोगवार है।
हर दौर कह रहा है कि शब्बीर के बिना,
इस्लाम का वजूद भी तो तार-तार है।
शब्बीर के ही वास्ते हर सम्त देखिए,
नौहा है, ताजि़या है, अलम है, पुकार है।
क़रबोबला पुकारती है रोजो-शब यही,
शब्बीर से सुकून है सब्रो-क़रार है।
शब्बीर जिसकी सीरतो-ओ-किरदार के सबब,
ईसार के चमन में अभी तक बहार है।
उलझेगा उनसे कौन ज़माने में अब भला,
शब्बीर से ही नाना की उम्मत को प्यार है।
शब्बीर जिसको दह्र में हासिल है ‘इम्तियाज़’,
जे अज़मत-ओ-सिबात का इक कोहसार है।

इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

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