शनिवार, 12 जुलाई 2025

 वर्ष 1900 से निकलनी शुरू हुई ‘सरस्वती’ पत्रिका

‘बाल-सखा’ और साप्ताहिक ‘देशदूत’ भी इंडियन प्रेस से ही निकले

महावीर द्विवेदी और सोहन द्विवेदी जैसे लोगों ने किया संपादन

 

                                                                    - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

   भारतीय मीडिया हाउस के इतिहास में इंडियन प्रेस ने जो मुकाम हासिल किया है, उसके नज़दीक तक भी पहुंचना किसी अन्य संस्थान के लिए बहुत कठिन है। इस हाउस ने प्रकाशन के क्षेत्र में जो मानक और इतिहास स्थापित किया है, उसकी मिसाल सदियों तक दी जाती रहेगी। इस संस्थान से बच्चों की मासिक पत्रिका ‘बालसखा’ और साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘देशदूत’ साहित्य की पत्रिका ‘सरस्वती’ समेत कई अन्य पत्रिकाएं प्रकाशित र्हुईं। लेकिन ‘सरस्वती’ पत्रिका ने देश की साहित्यिक पत्रिकारिता के इतिहास में मील का पत्थर स्थापित किया है। उन दिनों  इस पत्रिका में कोई एक छोटी सी रचना का प्रकाशन मात्र हो जाने से रचनाकार देशभर में चर्चित और स्थापित हो जाता था। तबं इंडियन प्रेस के अलावां ‘मित्र प्रकाशन’ और ‘पत्रिका हाउस’ ने इलाहाबाद को ख़ास मकाम हासिल करा दिया था। तब यह शहर प्रकाशन के क्षेत्र में देश का अव्वल स्थान था।

इंडियन प्रेस की गेट पर लगे नेम प्लेट को देखते डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।

 इंडियन प्रेस की स्थापना वर्ष 1884 में बाबू चिंतामणि घोष ने इलाहाबाद में की थी। शुरूआत में सिर्फ़ मुद्रण का काम किया। उन दिनों स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के प्रकाशन और उसके लिए प्रयोग किया जाने वाला कागज़ बहुत ही घटिया स्तर का होता था,। बाबू चिंतामणि की पहली प्राथमिकता यह थी कि स्कूलों की पुस्तकों का प्रकाशन स्तरीय हो, पुस्तकों के लिए प्रयोग होने वाला कागज बेहतरीन हो जाए। इसी सोच के तहत इन्होंने काम शुरू किया। कुछ ही दिनों में इन्हें अपने कार्य में सफलता मिली। सरकार ने भी इस प्रकाशन संस्थान के कार्य को सराहा। इसी के साथ इंडियन प्रेस देश का सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन बन गया।


हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लाइब्रेरी में ‘सरस्वती’ और ‘बाल सखा’ की फाइलों का अध्ययन करते दुर्गानंद शर्मा, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और धीरेंद्र सिंह नागा।

 इसके बाद बाबू चिंतामणि घोष ने साहित्य को समर्पित पत्रिका ‘सरस्वती’ निकालने की योजना बनाई। उन्होंने इसके लिए वाराणसी की नागरी प्रचारिणी सभा के समक्ष इस पत्रिका को निकालने का प्रस्ताव रखा। सभा ने प्रकाशन की बात स्वीकारते हुए इसमें सहयोग की बात कही, लेकिन इसकी जिम्मेदारी इंडियन प्रेस पर ही छोड़ दी। योजना बननी शुरू हुई तो सबसे पहले संपादक तय करने की बात सामने आयी। इसके संपादक मंडल में बाबू कार्त्तिक प्रसाद खत्री, रामकृष्ण दास, किशोरी लाल गोस्वामी, जगन्नाथ दास रत्नाकर और बाबू श्याम सुंदर दास शामिल किए गए। मासिक और सचित्र पत्रिका निकालने की योजना बनी। जनवरी 1900 में सरस्वती पत्रिका का पहला अंक प्रकाशित हुआ। पहले अंक का संपादकीय था- ‘परम कारुणिक सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की अशेष अनुकंपा से ही ऐसा अनुपम असवर प्राप्त हुआ है कि आज हमलोग हिन्दी भाषा के रसिकजनों की सेवा में नये उत्साह से उत्साहित हो एक नीवन उपहार लेकर उपस्थित हुए हैं, जिसका नाम ‘सरस्वती’ है। भरत मुनि के इस महावाक्यानुसार कि ‘सरस्वती’ श्रुति महती न हीयताम अर्थात् सरस्वती ऐसी महती श्रुति है कि जिसका कभी नाश नहीं होता, यह निश्चय प्रतीत होता है कि यदि हिन्दी के सच्चे सहायक और उससे सच्ची सहानुभूति रखने वाले सह्दय हितैषियों ने इसे समुचित आदर और अनुरागपूर्वक ग्रहण कर यथोचित आश्रय दिया तो अवश्यमेव यह दीर्घ जीवनी होकर निज-कर्तव्य पालन सेे हिन्दी की समुज्ज्वल कीर्ति को अचल और दिगंतव्यापिनी तथा स्थायी करने में समर्थ होगी।’ पहले ही अंक में संपादक मंडल ने यह भी लिखा कि यदि ‘सरस्वती’ से आर्थिक लाभ होता है तो- ‘इससे केवल यही सोचा गया है कि सुलेखकों की लेखनी स्फुरित हो जिससे हिन्दी की अंगपुष्टि और उन्नति हो, इसके अतिरिक्त हम लोगों का यह भी दृढ़ विचार है कि यदि इस पत्रिका संबंधीय सब प्रकार का व्यय देकर कुछ भी लाभ हुआ तो इसके लेखकों की हमलोग उचित सेवा करने में किसी प्रकार की त्रुटि न करेंगे। आशा है कि हिन्दी पठित समाज इस पत्रिका पर कृपादृष्टि बनाये रहेंगे और हमलोगों को निज कर्त्तव्य-पालन में यथाशक्ति पूर्ण सहायता देंगे।’

इंडियन प्रेस में अरिन्दम घोष से बातचीत करते डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। 

 वर्ष 1900 के जनवरी से दिसंबर तक प्रकाशित हुई सरस्वती पत्रिका में कुल 56 रचनाएं प्रकाशित हुईं। इनमें किशोरी लाल गोस्वामी की आधुनिक हिन्दी की पहली कहानी ‘इंदुमति’ छपी। यह कहानी शेक्सपीयर के नाटक ‘टेम्पेस्ट’ का भावानुवाद है। इसके साथ ही वैज्ञानिक कहानियों के छपने की शुरूआत हंुइ। इस एक वर्ष में ब्रजभाषा और खड़ीबोली की कविताएं भी खूब छपीं। मगर, इसी एक वर्ष में संपादक मंडल के लोगों में आपसी विवाद भी हो गया। जिसकी वजह से जनवरी 1901 से बाबू श्यामसुंदर दास इसके अकेले संपादक हो गए। दो वर्षों तक संपादन करने के बाद बाबू श्यामसुंदर दास ने आर्थिक तंगी और समयाभाव की वजह से इसका संपादन कार्य छोड़ दिया। वर्ष 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका संपादन कार्य शुरू किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी इससे पहले रेल विभाग में डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिटेंडेंट के ऑफिस में कार्यरत थे। बाबू चिंतामणि घोष सरस्वती के साथ ही उर्दू में भी एक पत्रिका निकालना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने प्रेमचंद को बुलाकर उनसे बात की। प्रेमचंद ने कहा कि नौकरी छोड़कर पत्रिका का संपादन करने की जो ग़लती महावीर प्रसाद द्विवेदी नेे की है, वह ग़लती मैैंं नहीं करूंगा। हां, पत्रिका का नाम मै ‘फिरदौस’ रख देता हूं और किसी अन्य क़ाबिल इंसान को इसके संपादन की जिम्मेदारी दे देता हूें। प्रेमचंद की इस बात पर बाबू चिंतामणि घोष सहमत नहीं हुए।

 दूसरी तरफ, द्विवदी जी के सपांदक बनते ही बहुत से लेखकों ने सरस्वती से अपना संबंध तोड़ लिया। नागरी प्रचारिणी सभा ने भी अपना अनुमोदन वापस ले लिया, क्योंकि द्विवेदी जी ने एक खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने प्रचारिणी सभा की कड़ी आलोचना की थी। उन्होंने सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता ‘जूही की कली’ को छापने से इंकार करते हुए उसे वापस कर दिया था। 1907 तक द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को ब्रजभाषा से पूरी तरह मुक्त कर दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसके साथ ही ‘कालिदास की निरंकुशता’और भाषा व्याकरण में ‘अनस्थिरता’ को लेकर हिन्दी जगत में एक तूफान खड़ा कर दिया। कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, रामचंद्र शुक्ल, राय देवी प्रसाद पूर्ण, नाथूराम शंकर शर्मा, लोचन प्रसाद पांडेय और ठाकुर गोपाल शरण सिंह के साथ ही कहानी लेखकों रामचंद्र शुक्ल, वृन्दावनलाल वर्मा,  प्रेमचन्द, चन्द्रधर शर्मा गुुलेरी, विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक, ज्वालादत्त शर्मा आदि को सरस्वती पत्रिका में छापकर हिन्दी साहित्य में एक तरह से स्थापित कर दिया।

बाल सखा’ के पहले अंक का कवर पेज।

जुलाई, 1920 में द्विवेदी जी ने पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को अपना सहायक बना लियां। उनको छह महीने तक संपादन का प्रशिक्षण दिया। इसके बाद बख्शी जी को सरस्वती का प्रधान संपादक बना दिया। वर्ष 1925 में बख्शी जी सरस्वती के संपादन का कार्य छोड़कर अपने गृह नगर खैरागढ़ चले गये, तब देवीदत्त शुक्ल को इसकी जिम्मेदारी सौंप दी गई। अप्रैल 1927 में बख्शी जी ने फिर वापस आकर संपादन कार्य शुरू कर दिया। लेकिन, कुछ दिनों के बाद खैरागढ़ के स्कूल में उनको नौकरी मिल गई, और वे चले गए। फिर देवीदत्त शुक्ल को प्रधान संपादक बना दिया गया। देवीदत्त शुक्ल के साथ ही 1934 से ठाकुर श्रीनाथ सिंह को  सरस्वती का संपादक बनाया गया। 1939 से  उमेश चंद्र देव मिश्र को संयुक्त संपादक बनाया गया। 1946 में देवीदत्त शुक्ल के आंख की रोशनी चली गई। संपादन की जिम्मेदारी उमेश चंद्र देव मिश्र को सौंप दी गई, लेकिन 9 जून 1951 को इनका देहांत हो गया। नवंबर 1951 में फिर से बख्शी जी सरस्वती के संपादक बना दिए गए। जून 1955 तक इन्होंनेे संपादन का कार्य किया, इसके बाद फिर से अपने गृहनगर चले गए। जुलाई 1955 से दिसंबर 1975 तक सरस्वती पत्रिका का संपादन पं. श्रीनारायण चतुर्वेेदी ने किया। सरस्वती पत्रिका जनवरी-मार्च 1976 में संयुक्तांक के रूप में निशीथ कुमार राय केे संपादन में पुनःजीवित हुई और दिसंबर 1980 तक किसी तरह निकलती रही। मई, 1982 तक किसी तरह प्रकाशित होती रही, इसके बाद बंद हो गई।

 इंडियन प्रेस से ही वर्ष 1917 से बच्चों की पत्रिका ‘बाल-सखा’ निकलनी शुरू हुइै। इंडियन प्रेस में ही कार्यरत बदरीनाथ भट्ट को इसका संपादक बनाया गया।। कुछ ही समय बाद बदरीनाथ लखनऊ यूनिवर्सिटी में अध्यापक हो गए। इसके बाद बाल-सखा के संपादन की जिम्मेदारी देवीदत्त शुक्ल को दी गई। वर्ष 1927 से अगस्त 1942 तक बाल-सखा का संपादन श्रीनाथ सिंह ने किया। इसके बाद 1956 तक इस पत्रिका के संपादक लल्ली प्रसाद पांडेय रहे। वर्ष 1957 में इस पत्रिका के संपादक सोहन लाल द्विवेदी हो गए। वर्ष 1968 में पुनः लल्ली प्रसाद पांडेय इसके संपादक हो गए। मगर, लगातार घाटे में चलने के कारण इसी वर्ष के अंत में बाल-सखा पत्रिका बंद हो गई।

सरस्वती पत्रिका के वर्ष 1900 के फरवरी अंक के अंदर का पहला पेज।

 वर्ष 1938 में इसी संस्थान से ‘देशदूत’ नामक साप्ताहिक पत्र निकलना शुरू हुआ। तत्कालीन संचालक हरिकेेशव घोष ने इसकी शुरूआत कराई। राजनीति, वाणिज्य, उद्योग, कृषि, शिक्षा, आदि विषयों पर इसमें सामग्री प्रकाशित होती रही। 12 वर्षों तक इसका प्रकाशन हुआ। 

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित)





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