मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

                                                              

समर की शायरी में परिपक्वता की झलक

                                     - अजीत शर्मा ‘आकाश’

 


                                    

‘मोहब्बत का समर’ शायर डॉ. इम्तियाज़ ‘समर’ की ग़ज़लों का संग्रह है। पुस्तक की ग़ज़लें पाठकों को प्रभावित करने में सक्षम है। कथ्य एवं शिल्प दोंनों की दृष्टि से शायरी में परिपक्वता झलकती है। शायरी के तमाम ख़ूबसूरत पहलू पाठकों के समक्ष उजागर होते हैं।   ग़ज़ल आज के दौर की अत्यन्त लोकप्रिय विधा है। दो मिसरों में पूरी बात समेट लेने का हुनर इसी विधा के पास है। हर शायर का अपना एक अलग अंदाज़ और रंग होता है, जिससे उसकी विशेष पहचान बनती है। अपने इस गज़ल-संग्रह के माध्यम से डॉ. इम्तियाज़ ‘समर’ संजीदा और ग़ज़ल-विधा की पर्याप्त जानकारी रखने वाले ग़ज़लकार रूप में पाठकों के समक्ष आते हैं। संकलन की रचनाएं ग़ज़ल की कसौटी पर खरी उतरती हैं। ग़ज़ल का बह्र में होना ही उसकी मूलभूत शर्त होती है, जिसे शायर ने बख़ूबी निभाया है। संग्रह की ग़ज़लों में विषयवस्तु की दृष्टि से विविधता है। शायर ने इनमें ज़िन्दगी के सभी रंगों को समेटने का प्रयास किया है। जीवन के अनुभव और संत्रास भी ग़ज़लों में दिखायी देते हैं। आज का दौर शायर को चिन्तित करता है। अच्छे-बुरे हालात, रिश्तों का निर्वाह, मानवीय संवेदनाएं, आम आदमी की पीड़ा-इन सबका ज़िक्र ग़ज़लों में किया गया है। इनके अतिरिक्त प्यार, मुहब्बत की भावनाओं को उजागर करती हुई ग़ज़लें भी हैं। कहा जा सकता है कि बड़ी सादगी और सच्चाई के साथ स्वाभाविकता से जीवन के सभी पहलुओं को स्पर्श करने का प्रयास किया गया हैं। 

ग़ज़ल संग्रह के कुछ उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं मुहब्बत की बात करते हुए अशआर- ‘मचलने लगा है दिल अब ख़ुशी से/मोहब्बत हमें हो गयी है किसी से।’ कितनी ख़ुशियों ने दिल पे दस्तक दी/इक तुम्हारे क़रीब आने से।’ आज के सियासी हालात का चित्रण-‘मुक़द्दर के सिकन्दर हो गये हैं/जो दरिया थे समन्दर हो गये हैं।’ आज के दौर का इंसान-‘बिक गया इंसाफ़ सिक्कों के एवज़/मुंसिफ़ों के लब पे ताले पड़ गये।’ आम आदमी का चित्रण-‘कांधों पे अपने टाट का बिस्तर लिये हुए/देखो वो जा ररहा है कोई घर लिये हुए।’ मशक्क़्त ख़ूब करता है, लहू दिन भर जलाता है/कहीं तब जाके इस महंगाई में वो घर चलाता है।“      ग़ज़लों में कहीं-कहीं कुछ दोष भी दृष्टिगत होते हैं।, यथा- ऐबे-तनाफ़ुर (स्वरदोष-मिसरे में किसी शब्द के अंतिम अक्षर की उसके बाद वाले शब्द के पहले अक्षर से समानता), तक़ाबुले रदीफ़ (मतले के अलावा किसी शे’र के दोनों मिसरों का अन्त समान स्वर पर होना) आदि। कुछ ग़ज़लों में भरती के शब्द भी आये हैं। इसके अतिरिक्त पुस्तक में रह गयी प्रूफ़ सम्बन्धी त्रुटियों के कारण कुछ स्थानों पर व्याकरण एवं वर्तनीगत अशुद्धियाँ भी परिलक्षित होती हैं, यथा- बेहीसी, मुशिफ, पुछिए, ऊर्दू, दिजिए, ख़्याल, रूत्बा आदि। पुस्तक का मुद्रण एवं गेट अप अच्छा है। कवर पृष्ठ आकर्षक है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘मोहब्बत का समर” पठनीय एवं सराहनीय ग़ज़ल संग्रह है। 128 पृष्ठों की इस पुस्तक को गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, जिसका मूल्य रू0 200/- मात्र है।   


 उदय प्रताप के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का झरोखा



कई दशकों से हिन्दी काव्यमंच के अग्रगण्य और सफलतम कवि 91 वर्षीय शब्द साधक उदय प्रताप सिंह को अभिनंदित कर उन्हें जन्मशती सम्मान प्रदान किये जाने के अवसर पर ‘इटावा हिन्दी सेवा निधि’ द्वारा ‘उदय उमंग’ पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। इसके माध्यम से उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। कविवर उदय प्रताप सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जनपद के गढ़िया ग्राम के चौधरी परिवार में 18 मई, 1932 को हुआ। उनका जीवन पहले एक अध्यापक, बाद में प्राचार्य के रूप में प्रारम्भ हुआ। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव जी को उनका विद्यार्थी होने का गौरव प्राप्त है। उन्हीं के निवेदन एवं अनुरोध पर उदय प्रताप जी ने वर्ष 1989 एवं 1991 में दो बार मैनपुरी से लोकसभा चुनाव लड़ कर भारी बहुमत से विजय प्राप्त की। लोकसभा के पश्चात् वे राज्यसभा के सम्मानित सदस्य रहे। इसके बावजूद अपने साहित्यकार और कवि के ऊपर उन्होंने राजनीति को कभी हावी नहीं होने दिया। उदय प्रताप सिंह अंग्रेजी के प्राध्यापक थे, किन्तु हिन्दी में काव्य-रचना की। वह आज भी हिन्दी काव्य मंचों की शोभा हैं। कवि सम्मेलनों के मंचों पर उनकी गरिमायी उपस्थिति सफलता की एक आश्वस्ति मानी जाती रही है। उदय प्रताप ने हिन्दी कविता की वाचिक परम्परा को समृद्ध किया है। 

‘उदय उमंग’ में गोपालदास नीरज, बेकल उत्साही, बालकवि बैरागी, सोम ठाकुर, मुनव्वर राणा, डॉ. रमाकांत शर्मा जैसे स्वनामधन्य एवं मूर्धन्य कवियों तथा साहित्यकारों के संस्मरणात्मक आलेख संग्रहीत हैं, जो उनके जीवन, कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हें। कविवर बेकल उत्साही ने उन्हें अनूठा रचनाकार तथा अछूती सोच का व्यक्ति बताया है। स्वनामधन्य कविवर गोपालदास नीरज ने उन्हें एक समन्वयवादी विचारक बताया है, तो सोम ठाकुर उन्हें भाव पुरूष कहते हैं। मैनपुरी जनपद के निवासी कवि एवं साहित्यकार डॉ. रमाकांत शर्मा ने उन्हें ‘हमारी माटी के अक्षय वट’ कहते हुए अपने संस्मरणात्मक आलेख में उदय प्रताप का सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व दर्शाया है। आलेख में उन्होंने बताया है कि वे अपने छात्र जीवन में उदय प्रताप जी के निकट सानिध्य में रहे हैं तथा उन्हें निकट से देखा एवं समझा है। कविवर उदय प्रताप सिंह का अंग्रेज़ी, हिन्दी एवं उर्दू का ज्ञान अद्भुत है। उन्होंने साहित्य का गहन अध्ययन किया है। उनकी साहित्यिक एवं प्रेरक कविताएं श्रोताओं को सम्मोहित कर लेने की सामर्थ्य रखती हैं। अपने विचारों एवं लेखन में कविवर उदय प्रताप सिंह सदैव समाजवादी, समन्वयवादी तथा प्रगतिशील विचारधारा के पोषक रहे। उनका सदैव मानना रहा है कि कवि जनता का होता है, किसी सरकार का नहीं होता। भाव पक्ष की दृष्टि से उनकी कविताएँ साम्प्रदायिक सद्भाव को पोषित करती हैं। उनकी कविताओं के विषय आमजन के सरोकारों से सीधे जुड़े होते हैं। कविताओं में मानवीय संवेदना के जीवन्त चित्र उपलब्ध होते हैं।

 पुस्तक के काव्य खण्ड के अन्तर्गत उनकी ग़ज़लों एवं छन्दों के साथ ही बांच के देख, पत्तियाँ, चिड़िया बैठ गई, चांदनी, शिशु जी की स्मृति में, होली, भुजबन्धन ढीले कर दो, उमर ख़ैयाम हो जाए, मयख़ाने नहीं आए शीर्षक कविताएं सम्मिलित हैं, जो यह दर्शाती हैं कि काव्य के शिल्प पक्ष पर उनकी कितनी गहरी पकड़ है। आज भी वे अपने चिन्तन, लेखन के प्रति समर्पित हं् तथा हिन्दी साहित्य की सेवा में निरन्तररत हैं। उनकी कविताओं के कुछ अंश प्रस्तुत हैं -‘अब उसकी मुहब्बत का हम कैसे यकीं कर लें/मौसम के मुताबिक़ जो ईमान बदलता है।’, ‘मोबाइलों के दौर के आशिक को क्या पता/रखते थे कैसे ख़त में कलेजा निकाल के।’, ‘न तेरा है न मेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है/नही समझी गई यह बात तो नुक़सान सबका है।’, ‘जो आनन्द अमीरी में है, उससे अधिक फ़क़ीरी में/ दरबारों में सर ऊँचा कर पाते हैं हम लैसे लोग।’ श्रृंगार का छन्द- काले घुँघराले केश घेरे नवनीत मुख/बादलों में चादहवीं क चाँद लगती थी वह/यौवन की नदी का उफ़ान बाँधे देहयष्टि/तोड़ती हुई-सी तटबाँध लगती थी वह।’

 पुस्तक का प्रकाशन अत्यन्त सराहनीय कार्य है, किन्तु हिन्दी की साहित्यिक संस्था द्वारा प्रकाशित होने के बावजूद पुस्तक में यत्र-तत्र शब्दों की वर्तनीगत अशुद्धियां हैं, जो खटकती हैं, यथा- स्वस्थ्य पृ.-11, कवियत्रियों पृ.-15, आशिर्वाद पृ.-19, आश्वस्ती पृ.-47 आदि। अनुस्वार सम्बन्धी त्रुटियों की अनेक स्थानों पर हैं। इसके अतिरिक्त प्रूफ़ रीडिंग में पुस्तक के सम्पादक द्वारा अत्यन्त असावधानी बरती गयी है, जिसके कारण अनेक अशु़द्धयाँ रह गयी हैं। बावजूद इसके इस प्रकार की पुस्तकों का प्रकाशन अत्यन्त सराहनीय कार्य है। ‘उदय उमंग’ पुस्तक इटावा हिन्दी सेवा निधि, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित की गयी है, जिसके सम्पादक डॉ. कुश चतुर्वेदी हैं।


पठनीय एवं संग्रहणीय श्रेष्ठ कहानी-संग्रह 



डॉ. विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार एवं यशपाल पुरस्कार से सम्मानित, राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश एवं अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत कुशल कथा-शिल्पी राम नगीना मौर्य की नवीनतम कथा-कृति ‘आगे से फटा जूता’ अपने समय के सच का बयान करती हुई नयी भाव-भूमि, तथा नए तेवर की कहानियों का संग्रह है। राम नगीना मौर्य अत्यन्त संवेदनशील एवं चिन्तनशील आधुनिक कथाकार अपनी एक अलग पहचान बना चुके हैं। पुस्तक के प्रारम्भ में ‘अपनी बात’ के अन्तर्गत लेखक ने पूर्व प्रकाशित अपने कहानी संग्रहों की समीक्षाओं के अंशों तथा पाठकों की प्रतिक्रियाओं को सविस्तार उद्धृत किया है, जिनके माध्यम से इनकी कथागत विशेषताएं परिलक्षित होती हैं। उनका ‘आगे से फटा जूता’ श्रेष्ठ कहानी-संग्रह बन पड़ा है। पुस्तक में ‘ग्राहक देवता’, ‘पंचराहे पर’, ‘लिखने का सुख’, ’सांझ-सवेरा’, ‘उठ ! मेरी जान’, ‘ढाक के वही तीन पात’, ‘ग्राहक की दुविधा’, ‘ऑफ स्प्रिंग्स’, ‘गड्ढा’, ‘परसोना नॉन ग्राटा’ तथा आगे से फटा जूता’ शीर्षकों से उनकी 11 यथार्थपरक कहानियां सम्मिलित हैं। इन कहानियों में वर्तमान समय की विसंगतियों तथा सामाजिक एवं राजनीतिक विद्रूपताओं तथा विडम्बनाओं को चित्रित करने का सफल प्रयास किया गया है। कहानियां रुचिकर और प्रासंगिक है, जिनके माध्यम से मध्य वर्ग के लोगों का संत्रास एवं ऊहापोह खुलकर सामने आता है। 

 प्रस्तुत संग्रह का नामकरण ‘आगे से फटा जूता’ कहानी के आधार पर किया गया है। लेखक ने अपनी इस कहानी की रचना-प्रक्रिया की चर्चा भी विस्तारपूर्वक एवं रोचक ढंग से की है। प्रथम दृष्ट्या ऐसा प्रतीत होता है कि यह किसी दीन-हीन व्यक्ति अथवा लेखक की कहानी होगी, किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है। इस कहानी में एक नया प्रयोग करते हुए एक सेमीनार हॉल में आये प्रतिभागियों के जूतों की आपस में बातचीत करायी गयी है, जिसके माध्यम से कथाकार ने समाज का आइना प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। एक नवीन कथा शैली पाठकों के समक्ष उजागर होती है। संवादों की दृष्टि से भी कहानियों में अच्छे प्रयोग किये गये हैं। पात्रों की संवाद शैली अद्भुत है। कहानी की आवश्यकतानुसार संवादों में चुटिलता एवं रोचकता का भी समावेश रहता है, जो पात्रों में निरन्तर जीवन्तता बनाये रखते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आगे से फटा जूता कहानी संग्रह के माध्यम से राम नगीना मौर्य अत्यन्त सफल कथाकार के रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित होते हैं। बहरहाल, कहानियों का यह श्रेष्ठ संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है। नये कहानी लेखकों के लिए यह अत्यन्त प्रेरक सिद्ध हो सकता है। रश्मि प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित 132 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 220/- रूपये है।


पठनीय एवं सरहनीय ग़ज़ल संग्रह


 
 क़ुर्बान ‘आतिश’के ग़ज़ल संग्रह ‘सुलगता हुआ सहरा’ में उनकी 116 ग़ज़लें संकलित हैं। कथ्य एवं शिल्प, दोनों ही दृष्टियों से संग्रह की ग़ज़लें श्रेष्ठ एवं सराहनीय हैं। संग्रह की ग़ज़लें शिल्प की कसौटी पर खरी उतरती हैं। ग़ज़ल की मुलभूत पहचान इसकी छन्दबद्धता और लयात्मकता है। ग़ज़ल कहने के बहुत से क़ायदे-क़ानून तथा ऐब-हुनर हैं जिनके बारे में शायर को अच्छी जानकारी है तथा शायर ने इनको ध्यान में रखा है। शायर ने बह्र-विधान के बारे में सतर्कता और सावधानी का परिचय दिया है। यही कारण है कि लेखन में सरलता, सहजता तथा रवानी परिलक्षित होती है। ग़ज़लें कथ्य की दृष्टि से भी सराहनीय हैं। आज के समाज और उसके बदलते परिवेश के प्रति गहरी चिंता जाहिर करते हुए शायर ने सामाजिक तथा राजनीतिक विसंगतियों पर प्रहार किया है। साथ ही एक ऐसी ख़ूबसूरत और हसीन दुनिया की तलाश करने की कोशिश की है, जहां इंसानियत, प्रेम और सच्चाई हो। जहां इंसान एक दूसरे का संगी-साथी हो और एक दूसरे के सुख-दुख का सहभागी बने। शायर एक ओर सामाजिक विसंगतियों को लेकर चिंतित हैं, वहीं आज की स्वार्थपरक राजनीति से भी खिन्न भी दिखाई पड़ता है। संग्रह के माध्यम से रचनाकार ने ग़ज़लों को बहुत ही सशक्त और आम आदमी से जुड़ा हुआ बना दिया है। आज के नेताओं की सियासत और उनकी स्वार्थपरता को कुछ इस तरह व्यंजित किया है-‘जिस घड़ी धुंध सोच लेती है/सुब्ह का जिस्म नोच लेती है।’,ःतेरी फ़रियाद क्या सुनेगा वह/आसमां पर दिमाग़ है जिसका।’, ‘तीरगी और फैलती ही गई/उसने कंदील वह जलाई है।’, ‘वो हवा बह रही है हर जानिब/एक दहशत बनी है हर जानिब।’ आज के आदमी की स्वार्थवृत्ति का चित्रण-‘मिलते हैं हर क़दम पर अब बैर करने वाले/क्या उठ गये जहाँ से सब ख़ैर करने वाले।’ समाज में व्याप्त शोषण और अन्याय -‘यह मुझसे आज कैसी आज़माइश हो रही है/शिकस्ता जिस्म पर पत्थर की बारिश हो रही है।’   

    संकलन की ग़ज़लों में कहीं-कहीं ऐबे तनाफ़ुर, ऐबे शुतुरगुर्बा जैसे कुछ सामान्य दोष भी रह गये हैं।, कहीं-कहीं भर्ती के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। प्रूफ़ रीडिंग तथा भाषा-व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियाँ भी हैं, यथा-स्तिम, प्याम, ख्याल हूकूमत आशीकी, करिशमा आदि। कुल मिलाकर, शायर की रचनाधर्मिता एवं सृजनात्मकता की दृष्टि से ग़ज़ल संग्रह पठनीय एवं सराहनीय है। 144 पृष्ठों की यह पुस्तक को मंत्री मण्डल सचिवालय (राज्य भाषा विभाग) बिहार के अनुदान से प्रकाशित की गयी है, जिसका मूल्य 225 रुपये है।

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रहस्यवाद की छाया से युक्त रचनाएं



‘अपने शून्य पटल से’ पुस्तक में रचनाकार स्व. बालकृष्ण लाल श्रीवास्तव की 53 काव्य रचनाएं सम्मिलित हैं, जिन्हें रमेश चन्द्र श्रीवास्तव ‘रचश्री’द्वारा संकलित एवं सम्पादित किया गया है। यह पुस्तक एक प्रकार से रचनाकार को श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत की गयी है। पुस्तक में लेखक के लगभग सभी सगे-संबन्धियों, नाते-रिश्तेदारों द्वारा उनके भूमिका आलेखों द्वारा भावपूर्ण स्मरण किया गया है। भूमिका आलेख संक्षिप्त एवं विस्तृत, दोनों ही स्वरूपों में लिखे गये हैं, जिनके माध्यम से उनके व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए उन्हें अपनी ओर से भाव-पुष्प अर्पित किये गये हैं। पुस्तक के अन्त के पृष्ठों में सभी परिवारीजनों के फ़ोटो भी हैं। काव्य रचनाओं के वर्ण्य विषय के अन्तर्गत प्रेम, हास्य, करूणा के भाव सम्मिलित हैं। कुछ रचनाओं के माध्यम से दहेज, तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों एवं दुनिया के छल-छद्म पर प्रहार भी किया गया है। कहीं-कहीं व्यंग्य भी है। इनके अतिरिक्त प्रकृति-प्रेम तथा हृदयगत अन्य भावनाओं का निरूपण भी रचनाओं में दृष्टिगत होता है। पुस्तक में प्रमुख रूप से अध्यात्म एवं ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था के भावों से युक्त रचनाओं को स्थान प्रदान किया गया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अध्यात्मप्रेमी एवं ईश्वरवादी पाठकों के लिए यह पुस्तक रुचिकर लगेगी।

कुछ रचनाओं के अंशः- ‘प्रेम सम्बन्धी अवधारणा- एक एहसास है, दिल के जो पास है/हम सभी प्रेम कहते हैं उसकोमगर/जानते ही नहीं उसमें क्या खास है (एक एहसास है)।  उनकी यादों के पल दो पल, इतनी तेजी से आते हैं/ तन को रोमांचित कर देते, मन को विह्वल कर जाते हैं (यादों के पल)। इनके अतिरिक्त सिन्दूरः दहेज, संसार, प्रीति के दीप, उसी का वजूद, वहाँ क्यों होती प्रज्ञा मौन, पथ पाएगा कभी भटकता आदि काव्य रचनाएं भी उल्लेखनीय कही जा सकती हैं। निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा द्वारा 116 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 350 रुपये है।

( गुफ़्तगू के अप्रैज-जून 2023 अंक में प्रकाशित  )

सोमवार, 2 दिसंबर 2024

 स्वतंत्रता आंदोलन के सिपाही फरीदुल हक़ अंसारी 

                                                         - सरवत महमूद खां 

                                      

 सोशलिस्ट आन्दोलन के संस्थापक और स्वतंत्रता संग्राम के मशहूर सिपाही फरीदुल हक अंसारी का जन्म एक जुलाई सन 1895 ई. को युसुफपूर मुहम्मदाबाद में हुआ था। आप के पिता निज़ामुल हक़ अंसारी युसुफपूर मुहम्मदाबाद के प्रतिष्ठित काजी परिवार के सदस्य थे। काजी निज़ामुल हक़ की गणना गाजीपुर कांग्रेस के संस्थापक सदस्य के रूप मे की जाती है। फरीदुल हक अंसारी का परिवार ग़ाज़ीपुर का रईस जमीन्दार और सम्पन्न परिवार था, लेकिन वह इस आरामपसंद नहीं थे और विलासिता से काफी दूर ही रहे।


फरीदुल हक अंसारी


  फरीदुल की प्रारम्भिक शिक्षा स्टीफेंस स्कूल के बाद अलीगढ विश्वविद्यालय से हुई। इस के बाद उच्च शिक्षा के लिए लंदन चले गए। लंदन से वार-एट-ला की डिग्री हासिल की। लंदन में पढ़ाई के दौरान वह जवाहरलाल नेहरू के सहपाठी थे और वहीं से नेहरू जी से घनिष्ठता हो गई थी। सन् 1925 में लंदन से वापसी पर अपने सगे मामू ड़ॉ. मुख्तार अहमद अंसारी की कोठी नम्बर-1, दरियागंज, देहली में रहकर वकालत शुरू कर दी। दिल्ली के रेन्ट कंट्रोल एक्ट के चयन समिति के सदस्य बनाये गये। जिसके कारण सभी सरकारी सुविधायें मिलने लगीं। मगर देश प्रेम की भावना के कारण अस्वीकार कर दिया। देशद्रोह के एक मुकदमे में अपने मुवक्किल को सजा से मुक्त न करा सके, जिससे दुखी होकर सदा के लिए वकालत छोड़ दिए।

  सन 1920 में कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बने। सन 1927 में साइमन कमीशन का खुलकर विरोध किया। 17 मई 1922 को पटना में आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में हुए सम्मेलन में उसमें भाग लिया। सन 1927 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य एवं 1929-30 मंे दिल्ली कांग्रेस कमेटी के सचिव बनाये गये। सन 1938 में दिल्ली कांग्रेस कमेटी के आरगनाइजर बनाये गये। फरीदुल हक़ अंसारी, स्वामी सहजानन्द सरस्वती के विचारों से प्रभावित होकर 23 अक्टूबर 1938 को अपने गृह नगर मुहम्मदाबाद में किसान सम्मेल शामिल हुए। यहां संबोधित करने के लिए नरेंद्र देव व सहजानन्द सरस्वती को आमंत्रित किया गया था। कांग्रेस पार्टी में समाजवादी विचार धारा के पोषक थे। इसी वजह से उनकी जो ज़मीन और बाग़ान काश्तकारों से उपयोग था, उसे बांट दिया। जिसके लिए पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने धन्यावाद दिया था। 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के कारण इन्हें जेल भेज दिया गया था। इसी प्रकार 1942 में जनक्रांति में शामिल होने पर छह माह की कारावास की सजा हुई। इनको फिरोजपुर जेल भेजा गया। इसी समय माता एवं पत्नी का देहांत हो गया, लेकिन इस मार्मिक घटना से भी विचलित नही हुए लेकिन यह दर्द उन्हे जीवन भर सालता रहा। सन् 1945-46 में युसुफपुर लौट आए। 1946 में संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश ) में धारा सभा (विधानसभा) का चुनाव होना था। मुस्लिम बहुल क्षेत्र होने के कारण पंडित नेहरू ने उन्हे गाजीपुर जिला कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया, लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस की हार के कारण इस्तीफा दे दिया और साथ ही उ. प्र कांग्रेस कार्यकारिणी से भी इस्तीफा दे दिया। 

 आप गांधी जी के उस विचार से सहमत थे कि आजादी मिलने के बाद कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। अपने इसी विचार और अक्खड़ स्वभाव से कांग्रेस से संबंध विच्छेद कर बाद में आजीवन सोशलिस्ट विचारधारा के साथ रहे। यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति व कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख मार्शल टीटो के निमंत्रण पर भारत से समाजवादियों का प्रतिनिधिमंडल 1952 में आप ही के नेतृत्व में यूगोस्लाविया गया था। इस प्रतिनिधिमंडल में कर्पूरी ठाकुर, बांके बिहारी दास,  शांति नारायण नाईक और मधु दंडवते शामिल थे। पंडित नेहरू बहुत चाहते थे कि आप कांग्रेस में लौट आएं, लेकिन फरीदुलहक इसके लिए तैयार नहीं हुए। आपका घनिष्ठतम संबंध नेता जी सुभाष चन्द्र बोस एवं किसान नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती से थे। 1940-41 में जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस गाजीपुर आये थे तो स्वामी सहजा सहजानन्द सरस्वती के साथ आप भी नेता जी से मिले थे। इसके पूर्व भी 1938 में आपकी एक गुप्त भेंट पटना में नेता जी सुभाषचंद्र बोस से हुई थी। आप राज्यसभा के दो बार ( 3 अप्रैल1958 से 2 अप्रैल 1964  एवं  3 अप्रैल 1964 से 4 अप्रैल 1966 तक) सांसद रहे। 4 अप्रैल 1966 को 70 वर्ष की आयु में बम्बई के एक अस्पताल में इंतिकाल हो गया।  उनकी अन्तिम इच्छा थी कि उन्हे उनके आबाई कब्रिस्तान युसुफपुर में दफन किया जाय, इसलिए बम्बई से उनके पार्थिव शरीर को फौजी हवाई जहाज से गाजीपुर लाया गया। उनके पार्थिव शरीर के साथ बम्बई से उनके शिष्य और आस्था रखनेवाले चन्द्रशेखर बलिया (जो बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने ) सेवक के रूप में आये थे। उन्हें उनके पैतृक कब्रिस्तान कोटीया (युसुफपुर )में दफनाया गया।


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )

रविवार, 1 दिसंबर 2024

कार्य क्षेत्र को ही जीवन मान लेना व्यक्ति की सबसे बड़ी नादानी: डॉ. अखिलेश निगम ‘अखिल’ 


अखिलेश निगम ‘अखिल’


शिव मंगल सिंह सम्मान (पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर जी द्वारा वर्ष-1996 में प्रदत्त), राष्ट्रपति का पुलिस पदक (पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा वर्ष-2015 में प्रदत्त),  पुलिस महानिदेशक उत्तर प्रदेश द्वारा प्रशंसा चिह्न (वर्ष-2023), साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, साहित्य गौरवसम्मान, सुमित्रानन्दन पन्त सम्मान, डॉ. विद्या निवास मिश्र सम्मान और विभिन्न साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा 150 से अधिक सम्मानों से विभूषित, लोकप्रिय कवि, शायर एवं कहानीकार डॉ. अखिलेश निगम ‘अखिल’ का जन्म  05 अगस्त, 1966 ग्राम हसनपुर खेवली, लखनऊ में हुआ है। एम. काम., एल.एल.बी. एवं आई.सी.डब्लू.ए. की परीक्षा पास करने के बाद आपका चयन पुलिस सेवा (आइ पी एस) के पद पर हुआ। वर्तमान में आप डी.आई.जी. (आर्थिक अपराध शाखा) के पद लखनऊ में कार्यरत हैं। हिन्दी के प्रति अत्यधिक प्रेम की वजह से आपने, नौकरी करते हुए, हिंदी में स्नातकोत्तर उपाधि तथा अंततः हिंदी में डाक्टरेट (पीएचडी) की उपाधि प्राप्त की है। ‘अभिलाषा’, ‘उत्तर देगा कौन?’, ‘गजलें अखिल की’, ‘अखिल दोहा सतसई’, ‘गिरगिट’,‘ललित निबंध और डॉ. रघुवीर सिंह’ और ‘भाव कलश’ आदि नाम से आपकी पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। लखनऊ स्थित कार्यालय में पहुंचकर अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे विस्तृत बात की है। प्रस्तुत उस बातचीत के प्रमुख अंश -

सवाल: वर्तमान समय में ग़ज़ल का क्या भविष्य है,  और ग़ज़लों की विषय वस्तु पर आपका क्या दृष्टिकोण है?

जवाब: पहले ग़ज़ल का कथ्य बहुत सीमित था, ग़ज़ल में सिर्फ़ श्रंृगार की ही बात होती थी। मगर, वर्तमान समय में जीवन के सभी पहलुओं पर ग़ज़ल में बात होती है। आज की ग़ज़लें, व्यक्तिगत, सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों तथा पर्यावरण संबंधित समस्याओं को उजागर करती हुई उनका समाधान भी प्रस्तुत कर रही हैं। ग़ज़लें अब एक पक्षीय न होकर बहुपक्षीय हो गई हैं। ग़ज़लें अब व्यक्ति और समाज दोनों से जुड़ रही हैं। हालांकि उर्दू ग़ज़लों में सामाजिक विषयों पर कम काम हुआ है। हिन्दी की तरह ही, उर्दू ग़ज़लों में भी, धीरे-धीरे विभिन्न सामाजिक विषयों का समावेश हो रहा है। मेरी ग़ज़ल कृति ‘ग़ज़लें अखिल की’ में कुल 101 ग़ज़लों में से केवल 8-10 ग़ज़लें ही रोमांटिक हैं, बाकी सभी, सामाजिक विषयों से संबंधित हैं। जहां शरीर, मन और आत्मा का एकाकार होता है, वहीं से साहित्य की शुरूआत होती है। बात न्याय की ही होनी चाहिए। दिनों-दिन ग़ज़लों का भविष्य मुझे निरंतर निखरता हुआ ही दिखता है।


सवाल: साहित्य में आपका रुझान कब, क्यों और कैसे हुआ ?

जवाब: मुझे बचपन से ही साहित्य अध्ययन एवं सृजन का शौक रहा है। उम्र के साथ-साथ यह शौक भी बढ़ता गया। विद्यार्थी काल में राजकीय इंटर कालेज की वार्षिक पत्रिका में मेरी  कविता छपी, जिससे साहित्य के प्रति मेरे इस आकर्षण को और बल मिला। पढाई के दौरान, कविताओं में रुचि होने के कारण बहुत सी कविताएं मुझे कंठस्थ थी। अतः मेरा चयन, कालेज की अंत्याक्षरी टीम के कैप्टन के पद पर भी हुआ। शुरूआती दौर में कविताएं लिखने के दौरान ही मेरी लेखनी मुझे गजलों की तरफ मोड़ने लगी। वर्ष-2003 में मेरी मुलाकात प्रसिद्ध शायर डॉ. मिर्जा हसन ‘नासिर’ जी से हुई। उनसे कई बार की मुलाकातों ने मेरे अंदर के ग़ज़लकार को परिष्कृत कर बाहर निकाला और मेरी ग़ज़ल लेखन यात्रा वर्ष-2004 से प्रारंभ हो गई जो कविता, कहानी लेखन  के साथ-साथ फलती फूलती रही। मेरी पहली पुस्तक ‘अभिलाषा’ है, जो कि छंदबद्ध गीत, कविता और ग़ज़ल पर आधारित है तथा ‘उत्तर देगा कौन ?’ जो नई कविताओं पर आधारित है, वर्ष-2006 में प्रकाशित हुई। तत्पश्चात वर्ष-2015 में ‘अखिल दोहा सतसई’ दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष मेरा कहानी-संग्रह ‘गिरगिट’ भी प्रकाशित हुआ। ग़ज़ल लेखन यात्रा वर्ष-2004 से प्रारंभ तो हुई पर मेरे ग़ज़लों का संग्रह ‘ग़ज़लें अखिल की’ वर्ष-2022 में ही प्रकाशित हो पाया। 

सवाल: पुलिस सेवा में रहते हुए, आप अदब के लिए समय कैसे निकालते हैं?

जवाब: कार्य क्षेत्र को ही जीवन मान लेना व्यक्ति की सबसे बड़ी नादानी है और यही अहंकार का कारण है। मैं जीवन से जुड़े हर दायित्व एवं कर्तव्य के लिए आवश्यक समय निकालकर उनमें संतुलन बनाए रखता हूं। यह जीवन रंगमंच है, मैं यहां कार्यालय में डी आई जी का रोल, घर परिवार में परिवार के सदस्य/मुखिया  के रूप में, मित्रों के साथ मित्र के रूप में, तथा रिक्त समय एवं साहित्यिक गोष्ठियों के समय में साहित्यकार का रोल निभाते हुए, सबको उपयुक्त समय देते हुए आवश्यक संतुलन बरकरार रखता हूं। आजकल व्यक्ति का मोटो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ से परिवर्तित होकर ‘कुटुम्ब कैव वसुधा’ में हो गया है। अपनी असीमित आकंक्षाओं एवं लालसा में फँसा हुआ मनुष्य, पूरा जीवन इन्हीं को हासिल करने में बिता देता है और यही उसके तनाव का कारण है।


अखिलेश निगम ‘अखिल’(बीच में) से बात करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’(दाएं) साथ में इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी (बाएं) 

सवाल: ऐसा माना जाता है कि पुलिस बहुत ही कठोर होती है, साहित्य सृजन कोमल हृदय वालों लोगों का काम है। इस बारे में आपका क्या मानना है?

जवाब: जितनी भी नदियां हैं सभी पहाड़ों से निकलती है। तरल की उत्पत्ति कठोरता से हुई है। सरसों का तेल कठोर सरसों से, बेल का जूस कठोर बेल से ही तरल रूप में प्राप्त होता है। तरल से तरल की उत्पत्ति नहीं दिखाई देती। साहित्य की संरचना, कल्पना, भाव और यथार्थ के मिश्रण से होती है। हां, इनके अनुपात, समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। जब व्यक्ति अन्य कार्यक्षेत्र में है तो उसको कविता या कहानी के लिए प्लाट ढूंढना पड़ता है। लेकिन पुलिस अधिकारी के पास कविता, कहानी का प्लाट स्वयं आता है। पुलिस के पास लोग अपनी अपनी समस्याएं लेकर आते हैं। हर समस्या, कहानी, कविता या ग़ज़ल का, प्लाट हो सकती है। जिस समय व्यक्ति आता है उस समय उसके दिल में दर्द, मस्तिष्क में झंझावात और वाणी मूक होती है। चाह कर भी वह कुछ बोल नहीं पाता है। सामने बैठा व्यक्ति यदि संवेदनशील है तो यही उसके सृजन के लिए एक प्लाट होता है। मेरी अपनी बहुत सी कहानी कविता के प्लाट इसी तरह से तैयार हुए हैं।

सवाल: साहित्य पुलिस के लिए किस-प्रकार मददगार साबित हो सकता है?

जवाब: उत्तम साहित्य पुलिस विभाग के किसी भी कर्मचारी या अधिकारी को अच्छा इंसान बनने की प्रेरणा देता है। जिससे वह आम आदमी की समस्याओं को अच्छी तरह से समझ कर उनके निवारण का सम्यक प्रयास कर सकता है।

सवाल: वर्तमान समय के सबसे महत्वपूर्ण शायर आप किन्हें मानते हैं?

जवाब: मेरी दृष्टि में बशीर बद्र की रचनाएं वर्तमान समय की रचनाओं में सबसे ऊपर आती हैं। राहत इंदौरी और दुष्यंत कुमार जी की रचनाओं का भी मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। हालांकि मंचीय कविताएं कुछ अलग तरह की होती हैं।

सवाल: गुफ़्तगू पत्रिका को तकरीबन आप शुरू से देख रहे हैं, क्या कहना चाहेंगे इसके बारे में ?

जवाब: ग़ज़लों के संबंध में ‘गुफ्तगु’ भारत की उत्कृष्ट पत्रिकाओं में से एक है जो व्यक्ति समाज और राष्ट्र की विभिन्न प्रकार की समस्याओं तथा उनके सम्यक समाधान को साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत करती है। यह पत्रिका मानवीय दृष्टिकोण, सर्वधर्म समभाव को आगे बढ़ाती हुए साहित्य को एक नई ऊंचाई पर ले जाती है। मनमोहक पठन सामग्री के लगातार प्रकाशन हेतु ‘गुफ्तुगु’ पत्रिका के संपादक मंडल बधाई के पात्र हैं। जहां तक पत्रिका के कलेवर की बात है तो काव्य जगत की अन्य विधाओं को भी अगर सम्मिलित किया जाए तो यह बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।

सवाल: नई पीढ़ी तो कविता या शेर को सोशल मीडिया पर पब्लिश करके वाह-वाही पा लेने को ही कामयाबी मानती है, आप इसे किस रूप में देखते हैं?

जवाब: सोशल मीडिया की अपनी सीमा है एवं प्रयोग का भी एक दायरा है। हर चीज को केवल सोशल मीडिया पर प्रकाशित करना उचित नहीं हो सकता है। सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया का स्थान नहीं ले सकता है। प्रिंट मीडिया का कोई विकल्प नहीं है। नई पीढ़ी में पठनीयता की कमी उनको अधूरा ज्ञान देती है तथा ज्ञान की संपूर्णता में बाधक सिद्ध होती है। सोशल मीडिया की अपनी लक्ष्मण रेखा है उससे आगे वह नहीं जा सकती है।

सवाल: आजकल आपका कौन-सा सृजन-कार्य और अध्ययन चल रहा है?

जवाब: आजकल मेरे कहानी-संग्रह गिरगिट का चार भाषाओं (बांग्ला, असमिया, उड़िया एवं कन्नड़) में अनुवाद चल रहा है। कन्नड़ और बांग्ला भाषा में अनुवाद प्रकाशित भी हो चुके हैं।

सवाल: शायरी के लिए उस्ताद का होना, कितना जरूरी मानते हैं आप?

जवाब: जीवन का कोई भी क्षेत्र हो यदि उस क्षेत्र में पारंगत और सही पथप्रदर्शक/उस्ताद मिल जाय तो ज्ञानार्जन करना और उसमें पारंगत होना आसान हो जाता है। मार्ग सरल और सुगम हो जाता है। स्वाध्याय से भी मंजिल प्राप्त हो सकती है परंतु रास्ता कठिन, श्रमसाध्य और मंजिल अक्सर अस्पष्ट होती है। उस्ताद के मामले में मैं बड़ा भाग्यशाली रहा हूं। ग़ज़ल लेखन में, लखनऊ के डॉ. मिर्जा हसन ‘नासिर’ साहब मेरे उस्ताद रहे है। ग़ज़ल का व्याकरण सीखने के लिए मैं उनके घर अनेक बार गया। उनके सानिध्य में मैने ग़ज़ल की बारीकियां सीखी। उनके निरंतर मार्ग दर्शन ने मेरी ग़ज़लों के स्तर को निखारा।

सवाल: साहित्य के क्षेत्र में आने वाले नये लोगों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे? 

जवाब: नई पीढ़ी से मैं यह कहना चाहूंगा कि वर्तमान समय में व्यक्ति और सामाजिक समस्याओं एवं विसंगतियों को केन्द्र में रखते हुए, यथार्थ की भूमि पर साहित्य सृजन करना, साहित्य तथा समाज को नई दिशा देगा। ख्याली पुलाव के आधार पर किए गए सृजन की उपादेयता संदेहशील है।

(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )