सोमवार, 29 जून 2020

इतिहास के आईने में इलाहाबाद

                                                            - कृष्ण कुमार यादव
                                                           
कृष्ण कुमार यादव
भारत के ऐतिहासिक मानचित्र पर इलाहाबाद एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ है, जिसकी रोशनी कभी भी धूमिल नहीं हो सकती।  इस नगर ने युगों की करवट देखी है, बदलते हुये इतिहास के उत्थान-पतन को देखा है, राष्ट्र की सामाजिक व सांस्कृतिक गरिमा का यह गवाह रहा है तो राजनैतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र भी।  पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस नगर का नाम ’प्रयाग’ है। ऐसी मान्यता है कि चार वेदों की प्राप्ति पश्चात ब्रह्म ने यहीं पर यज्ञ किया था, सो सृष्टि की प्रथम यज्ञ स्थली होने के कारण इसे प्रयाग कहा गया। प्रयाग माने प्रथम यज्ञ। कालान्तर में मुगल सम्राट अकबर इस नगर की धार्मिक और सांस्कृतिक ऐतिहासिकता से काफी प्रभावित हुआ।  उसने भी इस नगरी को ईश्वर या अल्लाह का स्थान कहा और इसका नामकरण ’इलहवास‘ किया अर्थात जहां पर अल्लाह का वास है।  परन्तु इस सम्बन्ध में एक मान्यता और भी है कि इला नामक एक धार्मिक सम्राट, जिसकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर (अब झूंसी) थी के वास के कारण इस जगह का नाम ’इलावास‘ पड़ा। कालान्तर में अंग्रेजों ने इसका उच्चारण ’इलाहाबाद‘ कर दिया।  

इलाहाबाद एक अत्यन्त पवित्र नगर है, जिसकी पवित्रता गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम के कारण है। वेद से लेकर पुराण तक और संस्कृति कवियों से लेकर लोकसाहित्य के रचनाकारों तक ने इस संगम की महिमा का गान किया है। इलाहाबाद को संगमनगरी, कुम्भनगरी और तीर्थराज भी कहा गया है। प्रयागशताध्यायी के अनुसार काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियांँ तीर्थराज प्रयाग की पटरानियां हैं, जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्जा प्राप्त है। तीर्थराज प्रयाग की विशालता व पवित्रता के सम्बन्ध में सनातन धर्म में मान्यता है कि एक बार देवताओं ने सप्तद्वीप, सप्तसमुद्र, सप्तकुलपर्वत, सप्तपुरियाँ, सभी तीर्थ और समस्त नदियाँ तराजू के एक पलड़े पर रखीं, दूसरी ओर मात्र तीर्थराज प्रयाग को रखा, फिर भी प्रयागराज ही भारी रहे। वस्तुतः गोमुख से इलाहाबाद तक जहाँ कहीं भी कोई नदी गंगा से मिली है उस स्थान को प्रयाग कहा गया है, जैसे-देवप्रयाग, कर्ण प्रयाग, रूद्रप्रयाग आदि।  केवल उस स्थान पर जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है प्रयागराज कहा गया। इस प्रयागराज इलाहाबाद के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-’’ को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ, कलुष पुंज कुंजर मगराऊ। सकल काम प्रद तीरथराऊ, बेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ।।’’

अगर हम प्रागैतिहासिक काल में झांककर देखें तो इलाहाबाद और मिर्जापुर के मध्य अवस्थित बेलनघाटी में पुरापाषाण काल के पशु-अवशेष प्राप्त हुये हैं। बेलनघाटी में विंध्यपर्वत के उत्तरी पृष्ठों पर लगातार तीन अवस्थायें-पुरापाषाण, मध्यपाषाण व नवपाषाण काल एक के बाद एक पाई जाती हैं।  भारत में नवपाषाण युग की शुरूआत ईसा पूर्व छठीं सहस्त्राब्दी के आसपास हुयी और इसी समय से उपमहाद्वीप में चावल, गेहूँ व जौ जैसी फसलें  उगायी जाने लगीं।  इलाहाबाद जिले के नवपाषाण स्थलों की यह विशेषता है कि यहाँ ईसा पूर्व छठी सहस्त्राब्दी में भी चावल का उत्पादन होता था।  इसी प्रकार वैदिक संस्कृति का उद्भव भले ही सप्तसिन्धु देश (पंजाब) में हुआ हो, पर विकास पश्चिमी गंगा घाटी में ही हुआ।  गंगा-यमुना दोआब पर प्रभुत्व पाने हेतु तमाम शक्तियाँ संघर्षरत रहीं और नदी तट पर होने के कारण प्रयाग का विशेष महत्व रहा ।  आर्यों द्वारा उल्लिखित द्वितीय प्रमुख नदी सरस्वती प्रारम्भ से ही प्रयाग में प्रवाहमान थीं।  सिन्धु सभ्यता के बाद भारत में ’द्वितीय नगरीकरण‘ गंगा के मैदानों में ही हुआ। यहाँ तक कि सभी उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ लगभग 1000-600 ई0पू0 में उत्तरी गंगा मैदान में ही रचे गये।  उत्तर वैदिक काल के प्रमुख नगरों में से एक कौशाम्बी था, जो कि वर्तमान में इलाहाबाद से एक पृथक जनपद बन गया है।  प्राचीन कथाओें के अनुसार महाभारत युद्ध के काफी समय बाद हस्तिनापुर बाढ़ मेें बह गया और कुरूवंश मेें जो जीवित रहे वे इलाहाबाद के पास कौशाम्बी में आकर बस गये।  बुद्ध के समय अवस्थित 16 बड़े-बड़े महाजनपदों में से एक वत्स की राजधानी कौशाम्बी थी।

मौर्यकाल में पाटलिपुत्र, उज्जयिनी और तक्षशिला के साथ कौशाम्बी व प्रयाग भी चोटी के नगरों में थे। प्रयाग में मौर्य शासक अशोक के 6 स्तम्भ लेख प्राप्त हुये हैं। संगम-तट पर किले में अवस्थित 10.6 मी0 ऊँचा अशोक स्तम्भ 232 ई0पू0 का है, जिस पर तीन शासकों के लेख खुदे हुए हैं।  200 ई0 में समुद्रगुप्त इसे कौशाम्बी से प्रयाग लाया और उसके दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित ’प्रयाग-प्रशस्ति‘ इस पर खुदवाया गया।  कालान्तर में 1605 ई0 में इस स्तम्भ पर मुगल सम्राट जहाँगीर के तख़्त पर बैठने का वाकया भी खुदवाया गया। 1800 ई0 में किले की प्राचीर सीधी बनाने हेतु इस स्तम्भ को गिरा दिया गया और 1838 में अंग्रेजों ने इसे पुनः खड़ा किया। 
  
गुप्तकालीन शासकों की प्रयाग राजधानी रही है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित ’प्रयाग-प्रशस्ति‘ उसी स्तम्भ पर खुदा है, जिस पर अशोक का है।  इलाहाबाद में प्राप्त 448 ई0 के एक गुप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि पांचवीं सदी में भारत में ’दाशमिक पद्धति‘ ज्ञात थी।  इसी प्रकार इलाहाबाद के करछना नगर के समीप अवस्थित गढ़वा से एक-एक चन्द्रगुप्त व स्कन्दगुप्त का और दो अभिलेख कुमारगुप्त के प्राप्त हुए हैं, जो उस काल में प्रयाग की महत्ता दर्शाते हैं।  ’कामसूत्र‘ के रचयिता मलंग वात्सायन का जन्म भी कौशाम्बी में हुआ था।

भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट माने जाने वाले हर्षवर्धन के समय में भी प्रयाग की महत्ता अपने चरम पर थी।  चीनी यात्री हृवेनसांग लिखता है कि-’’ इस काल में पाटलिपुत्र और वैशाली पतनावस्था में थे, इसके विपरीत दोआब मेें प्रयाग और कन्नौज महत्वपूर्ण हो चले थे।‘‘ हृवेनसांग ने हर्ष द्वारा महायान बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ कन्नौज और तत्पश्चात प्रयाग में आयोजित ’महामोक्ष परिषद‘ का भी उल्लेख किया है।  इस सम्मेलन में हर्ष अपने शरीर के वस्त्रों को छोड़कर सर्वस्व दान कर देता था।  स्पष्ट है कि प्रयाग बौद्धों हेतु भी उतना ही महत्वपूर्ण रहा है, जितना कि हिन्दुओं हेतु।  कुम्भ में संगम में स्नान का प्रथम ऐतिहासिक अभिलेख भी हर्ष के ही काल का है।

प्रयाग में घाटों की एक ऐतिहासिक परम्परा रही है। यहाँ स्थित ’दशाश्वमेध घाट‘ पर प्रयाग महात्म्य के विषय में मार्कंडेय ऋषि द्वारा अनुप्राणित होकर धर्मराज युधिष्ठिर ने दस यज्ञ किए और अपने पूर्वजों की आत्मा हेतु शांति प्रार्थना की।  धर्मराज द्वारा दस यज्ञों को सम्पादित करने के कारण ही इसे दशाश्वमेध घाट कहा गया। एक अन्य प्रसिद्ध घाट ’रामघाट‘ (झंूसी) है। महाराज इला जो कि भगवान राम के पूर्वज थे, ने यहीं पर राज किया था। उनकी संतान व चन्द्रवंशीय राजा पुरूरवा और गंधर्व मिलकर इसी घाट के किनारे अग्निहोत्र किया करते थे। धार्मिक अनुष्ठानों और स्नानादि हेतु प्रसिद्ध ’त्रिवेणी घाट‘ वह जगह है जहाँ पर यमुना पूरी दृढ़ता के साथ स्थिर हो जाती हैं व साक्षात् तापस बाला की भांति गंगा जी यमुना की ओर प्रवाहमान होकर संगम की कल्पना को साकार करती हैं।  त्रिवेणी घाट से ही थोड़ा आगे ’संगम घाट‘ है। संगम क्षेत्र का एक ऐतिहासिक घाट ’किला घाट‘ है। अकबर द्वारा निर्मित ऐतिहासिक किले की प्राचीरों को जहाँ यमुना स्पर्श करती हैं, उसी के पास यह किला घाट है और यहीं पर संगम तट तक जाने हेतु नावों का जमावड़ा लगा रहता है।  इसी घाट से पश्चिम की ओर थोड़ा बढ़ने पर अदृश्य सलिला सरस्वती के समीकृत ’सरस्वती घाट‘ है।  ’रसूलाबाद घाट‘ प्रयाग का सबसे महत्वपूर्ण घाट है। महिलाओं हेतु सर्वथा निषिद्व शमशानघाट की विचारधारा के विरूद्ध यहाँ अभी हाल तक महाराजिन बुआ नामक महिला शमशानघाट में वैदिक रीति से अंतिम संस्कार सम्पन्न कराती थीं।

सल्तनत काल में भी इलाहाबाद सामारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा। अलाउद्दीन खिलजी ने इलाहाबाद में कड़ा के निकट अपने चाचा व श्वसुर जलालुद्दीन खिलजी की धोखे से हत्या कर अपने साम्राज्य की स्थापना की।  मुगल-काल में भी इलाहाबाद अपनी ऐतिहासिकता को बनाये रहा।  अकबर ने संगम तट पर 1583 ई0 में किले का निर्माण कराया।  ऐसी भी मान्यता है कि यह किला अशोक द्वारा निर्मित था और अकबर ने इसका जीर्णोद्धार मात्र करवाया। पुनः 1838 में अंग्रेजों ने इस किले का पुनर्निर्माण करवाया और वर्तमान रूप दिया।  इस किले में भारतीय और ईरानी वास्तुकला का मेल आज भी कहीं-कहीं दिखायी देता है।  इस किले में 232 ई0पू0 का अशोक का स्तम्भ, जोधाबाई महल, पातालपुरी मंदिर, सरस्वती कूप और अक्षय वट अवस्थित हैं। ऐसी मान्यता है कि वनवास के दौरान भगवान राम इस वट-वृक्ष के नीचे ठहरे थे और उन्होंने उसे अक्षय रहने का वरदान दिया था सो इसका नाम अक्षयवट पड़ा।  किले-प्रांगण में अवस्थित सरस्वती कूप में सरस्वती नदी के जल का दर्शन किया जा सकता है। इसी प्रकार मुगलकालीन शोभा बिखेरता ’खुसरो बाग‘ जहांगीर के बड़े पुत्र खुसरो द्वारा बनवाया गया था।  यहाँ बाग में खुसरो, उसकी माँ और  बहन सुल्तानुन्निसा की कब्रें हैं।  ये मकबरे काव्य और कला के सुन्दर नमूने हैं।  फारसी भाषा में जीवन की नश्वरता पर जो कविता यहाँ अंकित है वह मन को भीतर तक स्पर्श करती है।

 बक्सर के युद्ध (1764) बाद अंग्रेजों ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर आधिपत्य कर लिया, पर मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय अभी भी नाममात्र का प्रमुख था।  अंततः बंगाल के ऊपर कानूनी मान्यता के बदले ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शाह आलम को 26 लाख रूपये दिए एवं कड़ा व इलाहाबाद के जिले भी जीतकर दिये।  सम्राट को 6 वर्षो तक कम्पनी ने इलाहाबाद के किले में लगभग बंदी बनाये रखा।  पुनः 1801 में अवध नवाब को अंग्रेजों ने सहायक संधि हेतु मजबूर कर गंगा-यमुना दोआब पर कब्जा कर लिया।  उस समय इलाहाबाद प्रान्त अवध के ही अन्तर्गत था।  इस प्रकार 1801 में इलाहाबाद अंग्रेजों की अधीनता में आया और उन्होंने इसे वर्तमान नाम दिया।  स्वतंत्रता संघर्ष आन्दोलन में भी इलाहाबाद की एक अहम् भूमिका रही।  राष्ट्रीय नवजागरण का उदय इलाहाबाद की भूमि पर हुआ तो गाँधी युग में यह नगर प्रेरणा केन्द्र बना।  राष्ट्रीय कांग्रेस के संगठन और उन्नयन में भी इस नगर का योगदान रहा है। 1857 के विद्रोह का नेतृत्व यहाँ पर लियाकत अली ने किया । कांग्रेस पार्टी के तीन अधिवेशन यहाँ पर 1888,1892 और 1910 में क्रमशः जार्ज यूल, व्योमेश चंद बनर्जी और सर विलियम बेडरबर्न की अध्यक्षता में हुये। महारानी विक्टोरिया का 1 नंवबर 1858 का प्रसिद्ध घोषणा पत्र यहीं अवस्थित मिण्टो पार्क (अब मदन मोहन मालवीय पार्क) में तत्कालीन वायसराय लार्ड केनिंग द्वारा पढ़ा गया था।  नेहरू परिवार का पैतृक आवास स्वराज भवन और आनन्द भवन यहीं पर है।  नेहरू-गाँधी परिवार से जुडे़ होने के कारण इलाहाबाद ने देश को प्रथम प्रधानमंत्री भी दिया।  उदारवादी व समाजवादी नेताओं के साथ-साथ इलाहाबाद क्रांतिकारियों की भी शरणस्थली रहा है।  चंद्रशेखर आजाद ने यहीं पर अल्फ्रेड पार्क में 27 फरवरी 1931 को अंग्रेजों से लोहा लेते हुये ब्रिटिश पुलिस अध्यक्ष नाॅट बाबर और पुलिस अधिकारी विशेश्वर सिंह को घायल कर कई पुलिसजनों को मार गिराया औरं अंततः खुद को गोली मारकर आजीवन ’आजाद‘ रहने की कसम पूरी की।  1919 के रौलेट एक्ट को सरकार द्वारा वापस न लेने पर जून 1920 में इलाहाबाद में एक सर्वदलीय सम्मेलन हुआ जिसमें स्कूल, काॅलेजों और अदालतों के बहिष्कार के कार्यक्रम की घोषणा हुयी, इस प्रकार प्रथम असहयोग और खिलाफत आंदोलन की नींव भी इलाहाबाद में ही रखी गयी।
  
 वाकई इलाहाबाद इतिहास के इतने आयामों को अपने अन्दर छुपाये हुए है कि सभी का वर्णन सम्भव नहीं। 1887 में स्थापित ’पूरब का आॅक्सफोर्ड‘ कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अपनी अलग ही ऐतिहासिकता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना 17 नवंबर 1887 को हुई थी। इससे पूर्व यह म्योर सेंट्रल काॅलेज के नाम से जाना जाता था और कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध था। इसे 14 जुलाई 2005 को केंन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त हुआ। इस संस्थान से शिक्षा प्राप्त कर जगद्गुरू भारत को नई ऊँचाईयाँ प्रदान करने वालों की एक लम्बी सूची है। इसमें उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त, उत्तराखण्ड के प्रथम मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के प्रथम अध्यक्ष जस्टिस रंगनाथ मिश्र, स्वतंत्र भारत के प्रथम कैबिनेट सचिव धर्मवीर, राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर चुके डाॅ0 शंकर दयाल शर्मा, पूर्व प्रधानमंत्री द्वय वी0पी0सिंह व चन्द्रशेखर, राज्यसभा की उपसभापति रहीं नजमा हेपतुल्ला, मुरली मनोहर जोशी, मदन लाल खुराना, अर्जुन सिंह, सत्य प्रकाश मालवीय, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस के0एन0 सिंह, जस्टिस वी0एन0 खरे, जस्टिस जे0एस0 वर्मा.....इत्यादि न जाने कितने महान व्यक्तित्व शामिल हैं। शहीद पद्मधर की कुर्बानी को समेटे इलाहाबाद विश्वविद्यालय सदैव से राष्ट्रवाद का केन्द्रबिन्दु बनकर समूचे भारत वर्ष को स्पंदित करता रहा है। देश का चैथा सबसे पुराना उच्च न्यायालय (1866) जो कि प्रारम्भ में आगरा में अवस्थित हुआ, के 1869 में इलाहाबाद स्थानान्तरित होने पर आगरा के तीन विख्यात एडवोकेट पं0 नन्दलाल नेहरू, पं0 अयोध्यानाथ और मुंशी हनुमान प्रसाद भी इलाहाबाद आये और विधिक व्यवसाय की नींव डाली।  मोतीलाल नेहरू इन्हीं प0 नंदलाल नेहरू जी के बड़े भाई थे। कानपुर में वकालत आरम्भ करने के बाद 1886 में मोती लाल नेहरू वकालत करने इलाहाबाद चले आए और तभी से इलाहाबाद और नेहरू परिवार का एक अटूट रिश्ता आरम्भ हुआ। इलाहाबाद उच्च न्यायालय से सर सुन्दरलाल, मदन मोहन मालवीय, तेज बहादुर सप्रू, डा0 सतीशचन्द्र बनर्जी, पी0डी0टंडन, डा0 कैलाश नाथ काटजू, पं0 कन्हैया लाल मिश्र आदि ने इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी।  उत्तर प्रदेश विधानमण्डल का प्रथम सत्र समारोह इलाहाबाद के थार्नहिल मेमोरियल हाॅल में (तब अवध व उ0 प्र0 प्रांत विधानपरिषद) 8 जनवरी 1887 को आयोजित किया गया था। 


इलाहाबाद में ही अवस्थित अल्फ्रेेड पार्क भी कई युगांतरकारी घटनाओं का गवाह रहा है। राजकुमार अल्फ्रेड ड्यूक ऑफ एडिनबरा के इलाहाबाद आगमन को यादगार बनाने हेतु इसका निर्माण किया गया था।  पुनः इसका नामकरण आजा़द की शहीदस्थली रूप में उनके नाम पर किया गया।  इसी पार्क में अष्टकोणीय बैण्ड स्टैण्ड है, जहाँ अंग्रेजी सेना का बैण्ड बजाया जाता था। इस बैण्ड स्टैण्ड के इतालियन संगमरमर की बनी स्मारिका के नीचे पहले महारानी विक्टोरिया की भव्य मूर्ति थी, जिसे 1957 में हटा दिया गया।  इसी पार्क में उत्तर प्रदेश की सबसे पुरानी और बड़ी जीवन्त गाथिक शैली में बनी ’पब्लिक लाइब्रेरी‘ (1864) भी है, जहाँ पर ब्रिटिश युग के महत्वपूर्ण संसदीय कागजात रखे हुए हैं। पार्क के अंदर ही 1931 में इलाहाबाद महापालिका द्वारा स्थापित संग्रहालय भी है।  इस संग्रहालय को पं0 नेहरू ने 1948 में अपनी काफी वस्तुयें भेंट की थी।
       साहित्य, कला, संस्कृति की त्रिवेणी इलाहाबाद में प्राचीन काल से ही प्रवाहित है। इन विधाओं में यहाँ की विभूतियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान कायम की है। प्रयाग का पहला साहित्यकार वैष्णव मत के आचार्य रामानंद को माना जाता है। साहित्य के क्षेत्र में इलाहाबाद की अहमियत इसी से समझी जा सकती है कि यहाँ से अब तक पाँच लोगों को ज्ञानपीठ सम्मान से विभूषित किया जा चुका है।  इनमें  सुमित्रानंदन पंत, रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, महादेवी वर्मा, नरेश मेहता और अमरकांत का नाम शामिल है।


इलाहाबाद की अपनी एक धार्मिक ऐतिहासिकता भी रही है।  छठवें जैन तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभु की जन्मस्थली कौशाम्बी रही है तो भक्ति आंदोलन के प्रमुख स्तम्भ रामानन्द का जन्म प्रयाग में  हुआ।  रामायण काल का चर्चित श्रृंगवेरपुर, जहाँ पर केवट ने राम के चरण धोये थे, यहीं पर है।  यहाँ गंगातट पर श्रृंगी ऋषि का आश्रम व समाधि है।  भारद्वाज मुनि का प्रसिद्ध आश्रम भी यहीं आनन्द भवन के पास है, जहाँ भगवान राम श्रृंगवेरपुर से चित्रकूट जाते समय मुनि से आशीर्वाद लेने आए थे। अलोपी देवी के मंदिर के रूप में प्रसिद्ध सिद्धिपीठ यहीं पर है तो सीता-समाहित स्थल के रूप में प्रसिद्ध सीतामढ़ी भी यहीं पर है। गंगा तट पर अवस्थित दशाश्वमेध मंदिर जहाँ ब्रह्य ने सृष्टि का प्रथम अश्वमेध यज्ञ किया था, भी प्रयाग में ही अवस्थित है। धौम्य ऋषि ने अपने तीर्थयात्रा प्रसंग में वर्णन किया है कि प्रयाग में सभी तीर्थों, देवों और ऋषि-मुनियों का सदैव से निवास रहा है तथा सोम, वरूण व प्रजापति का जन्मस्थान भी प्रयाग ही है। संगम तट पर लगने वाले कुम्भ मेले के बिना प्रयाग का इतिहास अधूरा है।  प्रत्येक बारह वर्ष में यहाँ पर ’महाकुम्भ मेले‘ का आयोजन होता है, जो कि अपने में एक ’लघु भारत‘ का दर्शन करने के समान है। इसके अलावा प्रत्येक वर्ष लगने वाले माघ-स्नान और कल्पवास का भी आध्यात्मिक महत्व है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार माघ मास में तीन करोड़ दस हजार तीर्थ प्रयाग में एकत्र होते हैं और विधि-विधान से यहाँ ध्यान और कल्पवास करने से मनुष्य स्वर्गलोक का अधिकारी बनता है। पद्मपुराण के अनुसार प्रयाग में माघ मास के समय तीन दिन पर्यन्त संगम स्नान करने से प्राप्त फल पृथ्वी पर एक हजार अश्वमेध यज्ञ करने से भी नहीं प्राप्त होता- प्रयागे माघमासे तु त्र्यहं स्नानस्य यत्फलम्। नाश्वमेधसहóेण तत्फलं लभते भुवि।। 
 कभी प्रयाग का एक विशिष्ट अंग रहे, पर वर्तमान में एक पृथक जनपद के रूप में अवस्थित कौशाम्बी का भी अपना एक अलग इतिहास है।  विभिन्न कालों में धर्म, साहित्य, व्यापार और राजनीति का केंद्र बिन्दु रहे कौशाम्बी की स्थापना उद्यिन ने की थी।  यहाँ पाँचवी सदी के बौद्धस्तूप और भिक्षुगृह हैं।  वासवदत्ता के प्रेमी उद्यन की यह राजधानी थी।  यहाँ की खुदाई से महाभारत काल की ऐतिहासिकता का भी पता लगता है। वाकई इलाहाबाद की ऐतिहासिकता अपने आप में अनूठी है। पर इलाहाबादी अमरूद के बिना यह वर्णन फीका ही लगेगा।  तभी शायर अकबर इलाहाबादी ने कहा है-

                         कुछ इलाहाबाद में सामां नहीं बहबूद के
                         धरा क्या है सिवा अकबर-ओ-अमरूद के।

( गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2017 अंक में प्रकाशित)



1 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

बहुत ही विस्तृत आयाम को समेटे हुए सुसंगत वर्णन है।दिली मुबारकबाद!
श्रीराम मिश्र 'तलब जौनपुरी '

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