रविवार, 14 जनवरी 2018

दूधनाथ सिंह का जाना बड़े अध्याय के अंत जैसा

                                                        - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
दूधनाथ सिंह देश के प्रतिष्ठित ख्याति प्राप्त साहित्यकारों में से एक रहे हैं, 11 जनवरी की रात उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन इससे पहले उन्होंने साहित्य जगत को जो प्रदान किया है, उसे किसी भी कीमत पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पर उनकी आलोचना की किताब ‘निराला आत्महंता आस्था’ बड़ी प्रसिद्ध रही है, आज भी माना जाता है कि निराला जी पर इससे अच्छी कोई किताब नहीं है। वर्तमान समय में आप देश के शीर्ष वरिष्ठतम साहित्यकारों में से एक थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से लेकर महात्मा गांधी अंतरराष्टी हिन्दी विश्वविद्याय वर्धा में भी आपने अध्यापन का कार्य किया। जीवन के अंतिम क्षणों तक लेखन के प्रति सक्रिय रहे हैं ।
दूधनाथ सिंह
तकरीबन तीन साल पहले उन्होंने हिन्दी-उर्दू भाषा को लेकर एक बयान दिया था, जिस पर काफी दिनों तक अखबारों में पक्ष और विपक्ष में बयानबाजी चली। उनका कहना था कि ‘साहित्य के स्तर पर दोनों भाषाएं अलग-अलग हैं, लेकिन व्याकरणिक ढांचा एक ही है। फर्क यह है कि हिन्दी संस्कृत से अपनी शब्दावली ग्रहण करती है, जबकि उर्दू फारसी से। इसमें अगर कठोरता बरतेंगे तो दोनों भाषाएं विनष्ट हो जाएंगी। भारतेंदु ने 1872 में एक लेेख लिखा था जिसका शीर्षक ‘हिन्दी नई चाल में ढली’। इसमें उन्होंने भाषा का जो स्वरूप निर्धारित किया है उसी में सबकुछ संभव है। हिन्दी-उर्दू साहित्य में कोई समानता नहीं है‘ जबकि इसके विरोध में तमाम साहित्यकारों का मानना है कि हिन्दी और उर्दू में हर स्तर पर बहुत अधिक भिन्नता नहीं है। आपको मुख्यतः कहानीकार के रूप जाना जाता रहा है, लेकिन कहानियों के अलावा नाटक, आलोचना और कविता का भी खूब लेखन किया है। बाबरी मजिस्द विध्वंस की घटना के बाद आपने ‘आखिरी कलाम’ नाम से उपन्यास लिखा था, जिसमें धार्मिक और राजनैतिक पाखंड़ों पर करारा प्रहार किया गया है, इस पुस्तक की वजह से काफी दिनों पर पूरे देश में चर्चा में रहे हैं। अन्य पुरस्कारों के अलावा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने अपना सर्वोच्च सम्मान ‘भारत भारती सम्मान’ आपको प्रदान किया था।
 आपका जन्म 17 अक्तूबर 1936 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के सोबंथा गांव में हुआ था। पिता देवनी नंदन सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे, 1942 के आंदोलन में उन्होंने सक्रियता से देश की आजादी के लिए भाग लिया था। प्रारंभिक शिक्षा गांव से हासिल करने के बाद आप वाराणसी चले आए, यहां यूपी कालेज से स्नातक की डिग्री हासिल की, इसके बाद एमए की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की, स्नातक तक आपने उर्दू की भी शिक्षा हासिल की है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आपको डॉ. धर्मवीर भारती और प्रो. धीरेंद्र वर्मा से शिक्षा हासिल करने का गौरव प्राप्त हुआ। इलाहाबाद से शिक्षा ग्रहण के बाद 1960 से 1962 तक कोलकाता के एक कालेज में अध्यापन कार्य किया। इसके बाद 1968 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन कार्य शुरू किया और यहीं से 1996 में सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद कई वर्षों तक महात्मा गांधी अंतरराष्टी हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में आपने विजटिंग प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाएं दीं।
दूधनाथ सिंह
गजल लेखन और हिन्दी-उर्दू भाषा के बारे में उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि -‘हिन्दी में ग़ज़ल लिखी ही नहीं जा सकती क्योंकि हिन्दी के अधिकांश ग़ज़ल गो शायर बह्र और क़ाफ़िया,रदीफ़ से परिचित नहीं हैं। इसके अलावा हिन्दी के अधिकांश शब्द संस्कृत से आए हैं जो ग़ज़ल में फिट नहीं बैठते और खड़खड़ाते हैं। मुहावरेदानी का जिस तरह से प्रयोग होता है वह हिन्दी खड़ी बोली कविता में नहीं होता, जैसे कि ग़ालिब का शेर है- मत पूछ की क्या हाल है, मेरो तेरे पीछे/ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।’ इस पूरी ग़ज़ल में ‘आगे’ और ‘पीछे’ इन दो अल्फाजों का इस्तेमाल हर शेर में ग़ालिब ने अलग-अलग अर्थों में किया है। हिन्दी वाले इस मुहावरेदानी को नहीं पकड़ सकते और अक्सर जब ग़ज़ल उनसे नहीं बनती तो उर्दू अल्फाज का सहारा लेते हैं। अरबी से फारसी और फारसी से उर्दू में आती हुई ग़ज़ल की अपनी परंपरा है। लोग कहते हैं कि हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाएं एक है, लेकिन ऐसा नहीं है। क्रिया पदों में भाषाओं का अंतिम निर्धारण नहीं होता। दोनों के मिजाज, संस्कार और परंपराएं अलग-अलग हैं। वली दकनी और मीर तकी मीर ने हिन्दुस्तान के एक शामिल भाषा के रूप में इसे विकसित करने की कोशिश जरूर की, लेकिन हिन्दी और उर्दू दोनों के कठमुल्लाओं ने भाषाओं को अलग करके ही दम लिया।’
इलाहाबाद के बारे में उनका कहना था कि ‘इलाहाबाद में साहित्य की चर्चा ज्यादा हो रही है जबकि कविता, कहानी, उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं। नए इलाहाबादी लेखकों को कविता, कहानी, उपन्यास लिखना चाहिए। साहित्य चर्चा में अपना समय नहीं गंवाना चाहिए। यह बड़े और बूढ़ों पर छोड़ देना चाहिए, यही मेरा संदेश है।’ आज उनके इस वाक्यांश को याद करते हुए हम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनका लिखा साहित्य रहती दुनिया तक पढ़ा और याद किया जाएगा।  
                                 

2 टिप्पणियाँ:

'एकलव्य' ने कहा…

निमंत्रण पत्र :
मंज़िलें और भी हैं ,
आवश्यकता है केवल कारवां बनाने की। मेरा मक़सद है आपको हिंदी ब्लॉग जगत के उन रचनाकारों से परिचित करवाना जिनसे आप सभी अपरिचित अथवा उनकी रचनाओं तक आप सभी की पहुँच नहीं।
ये मेरा प्रयास निरंतर ज़ारी रहेगा ! इसी पावन उद्देश्य के साथ लोकतंत्र संवाद मंच आप सभी गणमान्य पाठकों व रचनाकारों का हृदय से स्वागत करता है नये -पुराने रचनाकारों का संगम 'विशेषांक' में सोमवार १५ जनवरी २०१८ को आप सभी सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद !"एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 70वां भारतीय सेना दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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