बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

नवाब शाहाबादी: गुफ्तगू के परिशिष्ट योजना के जनक


                                                                               - इम्तियाज़ अहमद ग़ाजी
आज से लगभग 12 वर्ष पहले की बात है, रमजान का महीना था, मैं सेहरी करने के बाद सुबह के वक़्त सो रहा था। करीब सात बजे एक फोन आया। मेरे हेलो बोलते ही दूसरी तरफ़ से आवाज आई। ‘आदाब, इम्तियाज़ ग़ाज़ी साहब, मैं लखनऊ से अरुण कुमार श्रीवास्वत उर्फ़ नवाब शाहाबादी बोल रहा हूं, गुफ्तगू पत्रिका का अवलोकन किया है, बहुत ही शानदार पत्रिका आप निकाल रहे हैं। मैं अपनी कुछ ग़ज़लें भेज रहा हूं, इसे देख लीजिएगा।’ इस बातचीत के तकरीबन एक हफ्ते बाद उनका लिफ़ाफ़ा से आया, उसमें दो ग़ज़लें थीं, जिसे मैं अगले अंक में प्रकाशित किया। नवाब साहब से बराबर बातचीत होती रही, फिर ‘गुफ्तगू’ का बेकल उत्साही विशेषांक निकला। इस अंक के बाद नवाब शाहाबादी ने मुझसे कहा कि ग़ाज़ी एक काम करो, तुम ‘गुफ्तगू’ के प्रत्येक अंक में किसी एक शायर को परिशिष्ट के रूप में शामिल करो, आखि़र के कुछ पेज उस शायर के लिए निर्धारित करके उसकी रचनाएं और रचनाओं पर दो-तीन लोगों से समीक्षात्मक लेख लिखवाकर प्रकाशित करो, कवर पेज पर भी उसकी फोटो लगाओ। मुझे उनका यह आइडिया बहुत अच्छा लगा, मैंने उनसे कहा कि ठीक है, लेकिन इसकी शुरूआत आपसे ही करना चाहंूगा। उन्होंने हामी भर दी। इसके बाद नवाब शाहाबादी परिशिष्ट निकालने की तैयारी शुरू हो गई। पद्मश्री बेकल उत्साही समेत तीन लोगों से उनकी ग़ज़लों पर समीक्षात्मक लेख लिखवाकर उनका परिशिष्ट तैयार किया। अंक लोगों को बहुत ही पसंद आया है। उस अंक के बाद से परिशिष्ट का सिलसिला चल पड़ा। मकबूल हुसैन जायसी और सुनील दानिश से चलता हुआ यह सिलसिला वर्तमान अंक अरविंद असर तक अब भी ज़ारी है। अगर नवाब शाहाबादी ने परिशिष्ट योजना का आइडिया देकर उसकी शुरूआत न कराई होती तो शायद ‘गुफ्तगू’ पत्रिका का सफ़र इतने लंबे समय तक जारी नहीं रह पाता।
फिर मैं लखनऊ गया, तब वे रेलवे में सीएमएस थे, उनके केबिन में पहुंचा। साथ में खाना खाया। ड्यूटी का समय पूरा हो गया तो उन्हीं के साथ उनके निवास स्थान पर आ गया। शाम को वहां से वो मुझे एक कार्यक्रम में ले गए, जहां काव्यगोष्ठी का आयोजन किया गया। वहां मुझे विशिष्ट अतिथि के रूप में शामिल कराया। कार्यक्रम के बाद हमलोग वापस नवाब साहब के घर उन्हीं के साथ आ गया, साथ में रात का भोजन किया। रात को उन्हीं के यहां सोया, सुबह लखनऊ में अपने सारे काम करने के बाद इलाहाबाद लौट आया। फिर वर्ष 2010 में भी गुफ्तगू का एक और परिशिष्ट उनपर निकला। वर्ष 2011 में हमने इलाहाबाद में चार शायरों को ‘अबकर इलाहाबादी’ सम्मान से नवाजा, जिनमें से एक नवाब शाहाबादी भी थे। वर्ष 2014 में ‘गुफ्तगू’ की तरफ से ‘शान-ए-गुफ्तगू’ सम्मान समरोह और मुशायरे का आयोजन इलाहाबाद में ही किया, इसमें 12 शायरों को यह सम्मान फिल्म गीतकार इब्राहीम अश्क के हाथों दिलाया गया, इन 12 लोगों में एक नवाब शाहाबादी भी थे। तकरीबन डेढ़ महीन पहले उनका फोन आया, बोले- ग़ाज़ी मेरी एक दोहों की किताब ‘नवाब के दोहे’ छपवा दो, मेरा जन्मदिन एक मार्च को है, उसी दिन उस किताब का विमोचन कराना चाहता हूं, उससे पहले-पहले किताब मुझे मिल जाए। मैंने उनसे कहा कि बिल्कुल मिल जाएगा। उन्होंने अपने दोहे भेज दिए। दोहो को कंपोजिंग के लिए दे दिया, कंपोजिंग का काम पूरा होते ही उन्हें मैंने कोरियर से प्रूफ़ रीडिंग के लिए भेजवा कर उनसे फोन पर कहा कि प्रूफ़ रीडिंग करके सीधे कंपोजिंग करने वाले के पास भेज दीजिए, ताकि जल्द से काम पूरा हो जाए। चार फरवरी को उनका फोन आया कि प्रूफ़ रीडिंग का काम पूरा हो गया है, सोमवार (06 फरवरी) को कोरियर से भेज दूंगा, जिसे भेजना है उसका पता मुझे एसएमएस कर दो, मैंने तुरंत ही एसएमएस कर दिया। पांच फरवरी का दिन था, संडे की शाम थी, तभी पता चला कि उनको दिल का दौरा पड़ा है, अस्पताल ले जाया जा रहा है। फिर थोड़े ही देर बाद सूचना मिली की नवाब शाहाबादी इस दुनिया में नहीं रहे। इतना जिन्दादिल इंसान का एकदम से हमें छोड़कर चला जाना, यक़ीन के काबिल नहीं है। आज भी लग रहा है कि उनका फोने आएगा, और बोलेंगे- ग़ाज़ी मेरी किताब तैयार हो गई ?

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