बुधवार, 23 मार्च 2016

उर्दू कामनमैन लैंग्वेज़ हैः प्रो. अक़ील

प्रो. सैयद अक़ील रिज़वी और प्रभाशंकर शर्मा
उर्दू साहित्य के मर्म को समझने वाले सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रो. सैयद अक़ील रिज़वी उन बुजुर्ग लेखकों में से हैं, जिन्होंने आज़ादी के पहले से लेकर आज के दौर का इलाहाबाद देखा है। आपकी मशहूर पुस्तक ‘गोधूल एक आत्मकथा’ है, जिसमें इलाहाबाद के इतिहास को विस्तारपूर्वक बताया है। इसके अलावा इनकी ‘इलाहाबाद की संस्कृति और इतिहास’ नामक पुस्तक इलाहाबाद संग्रहालय से प्रकाशित हुई है। प्रो. रिज़वी का जन्म अक्तूबर 1928 को मंझनपुर तहसील के करारी नामक गांव में हुआ था, तब मंझनपुर इलाहाबाद जिले का ही हिस्सा था। अब यह कौशांबी जिले की तहसील है। अपने विद्यार्थी जीवन में आप अत्यंत मेधावी छात्र रहे। 1953 से ही आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू किया, जहां से आप उर्दू के विभागध्यक्ष पद से 1992 में रिटायर हुए। ‘गुफ्तगू’ के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा, शिवपूजन सिंह और रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’ ने उनसे उनके दरियाबाद स्थित निवास पर मुलाकात कर बात की। प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित अंश-
सवाल:  सबसे पहले आप अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के और शुरूआती दिनों के बारे में बताइए ?
जवाब: मैं क़रारी कस्बा का रहने वाला हूं। मेरी मां का नाम शफअतुन्निसा है। मेरे पिता का नाम सैयद अकबर हुसैन है। पिताजी को हमने नहीं देखा। मेरी एक साल की उम्र थी, जब पिताजी का इंतक़ाल हो गया। मेरे पिताजी की जमींदारी थी। मेरे चचा उस ज़माने में डिप्टी कलेक्टर थे। जिनका 1920 में इंतिक़ाल हो गया और पिताजी के गुजर जाने के बाद हमारी हालत और ख़राब होेने लगी। मेरे एक बड़े भाई जो दूसरी मां थे और मेरी तीन बहनें थीं। उनमें एक का यहीं इंतकाल हो गया था। दो बहनें पाकिस्तान चली गईं जो अब नहीं रहीं। बहनों के बेटे लंदन चले गए, जो इलाहाबाद भी कभी-कभी आते हैं। जब आज़ादी के समय लोग पाकिस्तान जा रहे थे तब मैंने उनसे उस वक़्त कहा था ‘मैं उस मुल्क में कभी नहीं जाउंगा जहां इस तरह से कत्लेआम हो रहा हो, जहां आदमी को आदमी न समझा जाए।’ पाकिस्तान में आदमी, आदमी नहीं रह गया था जानवर बन गया था। जबकि इलाहाबाद में हमारी सम्मेलन वाली रवायत उस वक़्त भी थी आज भी है। इलाहाबाद में ज़रा-सा झटपट हुआ था जब पंजाब से शरणार्थी आए थे।
सवाल: आपने लेखन की शुरूआत कब से की?
जवाब: मैंने लिखना पढ़ना इंटरमीडिएट से सन 1948 से शुरू कर दिया था। हमारे 2-3 अच्छे साथी थे जो लेखक भी थे और शायर भी।
सवाल:  आपने लेखन की शुरूआत गद्य साहित्य से की या पद्य से?
जवाब: मैंने शुरूआत ही गद्य साहित्य की। मेरे मजमून उर्दू की पत्रिकाओं में उसी समय से छपने लगे थे।
सवाल: इलाहाबाद संग्रहालय से प्रकाशित आपकी पुस्तक ‘इलाहाबाद की संस्कृति और इतिहास’ की विषय-वस्तु के बारे में बताइए?
जवाब:  इसमें मैंने इलाहाबाद का इतिहास लिखा है, और तथ्य ऐसी किताबों से लिया है जो अथेंटिक किताबें हैं। ऐसा नहीं कि बैठकबाज बैठक कर अपना बयान करते रहें। इसमें यहां की तहज़ीबी और पढ़ने लिखने की जि़न्दगी इन सबकी बातें मैंने की है। यह किताब इस लिहाज़ से बहुत ही इनफार्मेटिक है।
सवाल: इलाहाबाद के नामकरण के इतिहास पर प्रकाश डालें?
जवाब:  इलाहाबाद शहर का पहले नाम ‘प्रयाग’ था जिसका विस्तृत विवरण मेरी पुस्तक में है। इलाहाबाद शब्द सही है। इलाह का बसाया हुआ शहर, इलाह का अर्थ ‘गाड’ अर्थात ईश्वर।  जो लोग अलाहाबाद कहते हैं वह गलत है।
सवाल: मुशायरे अदब के दायरे में आते हैं या नहीं आते ?
जवाब: मुशायरे ने ही उर्दू अदब को तरक्की दी। अगर मुशायरे न होते तो यह ज़बान इतनी पापुलर न होती जितनी आज है। उर्दू अपने रंग-ढंग की वजह से और सम्मेलन के मिज़ाज से पापुलर हुई है। जो लोग मुशायरों को सिर्फ़ दिल बहलाने की चीज़ समझते हैं वह ग़लत हैं।
सवाल: उर्दू के मिज़ाज के बारे में कुछ बताइए?
जवाब: मेरे एक दोस्त थे उन्होंने एक बार बहस की कि कौन-सा लफ्ज़ है जिसकी हिन्दी नहीं हो सकती। मैंने कहा बोलने में क्या लहजा है उन्होंने कहा सब बोल सकते हैं। ये जो तुम लोग ‘चश्मा’ बोलते हो, यह क्या है? वे बोले ऐनक, मैंने कहा ऐनक तो अरबी शब्द है और चश्मा पर्शियन शब्द है। तो उर्दू का यह मिज़ाज है कि सरल शब्दों को अपने में ले लेती है। उर्दू कामनमैंन लैंग्वेज है। डाॅ. रघुवीर ने बहुत से विदेशी शब्दों की हिन्दी बनाई लेकिन  वह बहुत कठिन हो गई और आम आदमी कठिन शब्दों को नहीं बोलता। जैसे ‘टाई’ की हिन्दी ‘कंठभूषण’ तो बना दी गई लेकिन आम बोलचाल में इसे नहीं बोला जाता। कुल मिलाकर उर्दू की यही जीत रही कि जो लफ्ज़ चलन में आ गया उसे ले लिया। आम आदमी डाॅ. रघुवीर की डिक्शनरी के लिए नहीं बल्कि अपनी बात आप तक पहुंचाने के लिए बोलता है।
सवाल: उर्दू अख़बारों का क्या भविष्य है? उर्दू अख़बारों की बिक्री 10 फीसदी ही है, इस पर आप क्या कहेंगे?
जवाब: आजकल उर्दू पढ़ने वाले कम हो गए हैं, इसकी वज़ह आर्थिक भी है। लोग सोचते हैं कि उर्दू पढ़ने से नौकरी तो नहीं मिलेगी और दूसरी वजह राजनैतिक भी है। दिल्ली की बसों में कहने के लिए तो उर्दू में अंदर लिखा है लेकिन यह नहीं लिखा जाता कि यह बस कहां जाएगी।
सवाल: क्या टीवी और इंटरनेट के दौर में पठनीयता कम हो रही है?
जवाब: हां, इसमें उर्दू का सबसे बड़ा नुकसान हो रहा है कि पहले हम उर्दू में ख़त लिखते थे, अब ये आ गया है। हमने ख़त लिखना ही छोड़ दिया है। ग़ालिब का सारा ख़त दो वाल्यूम में छपा है। अब मोबाइल आ गया है, ये तो ह्यूमन डेवलपमेंट है, इसे तो कोई रोक नहीं सकता।
सवाल: उर्दू अकादमी की गतिविधियों पर आपकी क्या राय है? इसमें क्या क़ाबिल लोगों का सेलेक्शन हो रहा है?
जवाब: पहले उर्दू एकेडमी में अच्छे लोग थे। अब पाॅलिटिकल दौर आ गया है। अब अच्छे लोग हैं नहीं तो लाएं कहां से? एक वक़्त तो ऐसा भी आया था कि हाईस्कूल के टीचर को एकेडमी का अध्यक्ष बना दिया गया, जो ग़ालिब की ग़ज़ल तक ठीक से नहीं पढ़ सकते थे।
सवाल: उर्दू अदब के लिए आपका क्या संदेश है?
जवाब: उर्दू अदब में अच्छे लेखकों शायरों की रोज़-बरोज़ कमी होती जा रही है। यह भी  सही है कि आज की तहज़ीब ख़ालिस उर्दू तहज़ीब उस तरह नहीं रह गई जैसी मुशायरों की तहज़ीब पहले हुआ करती थी। आज शायरी के अल्फ़ाज़ को जानने वाले कम होते जा रहे हैं। इसमें कुछ तो ज़माने का हिस्सा भी है और कुछ तालीमी सूरतों की ख़राबियां भी आकर शामिल हो गई हैं। लेकिन आज भी लोगों कर दिलचस्पी उर्दू कहानियों, नज़्म और ग़ज़लों में बाकी है। शायद ये नई जि़न्दगी के साथ अपनी रवायतों को लेकर हर दौर में चलती रहेगी। हां, ये ज़रूर है कि क्लासिकी टेडिशन घटता जा रहा है और घटता जाएगा।

(गुफ्तगू दिसंबर - 2015 अंक में प्रकाशित)
बायें  से: शिवपूजन सिंह, प्रो. सैयद अक़ील रिज़वी, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और प्रभाशंकर शर्मा

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