शनिवार, 21 सितंबर 2013

चैपाल: उस्ताद-शार्गिद परंपरा के फायदे-नुकसान क्या हैं ?


‘गुफ्तगू’ के चैपाल कालम में किसी एक विषय पर बड़े साहित्यकारों से बात करके उनकी राय पाठकों के सामने रखी जाती है। जून-2013 और सितंबर-2103 अंक में ‘उस्ताद-शार्गिद परंपरा में क्या फायदे-नुकसान हैं?’ विषय पर चर्चा की गई है। ब्लाग के पाठकों के लिए कालम प्रस्तुत है।
प्रो. सोम ठाकुर: एक ज़माना था जब उस्ताद और शार्गिद की रवायत होती थी। दरबारी शायर होते थे और बाहर भी होते थे जिनके शार्गिद होते थे। उस्ताद-शार्गिद की परंपरा की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि शार्गिद का कलाम जब पुख़्ता हो जाता था तभी अवाम तक पहुंचाता था। बहुत मश्क के बाद उस्ताद ग़ज़लों को पढ़ने की अनुमति देते थे। अब यह परंपरा खत्म होती जा रही है जिससे कच्ची रचनाएं श्रोताओं और पाठकों तक पहुंच जा रही है जिससे हमें बचना चाहिए।
निदा फ़ाजली: उस्ताद और शार्गिद की परंपरा में खूबियां ये हैं कि शार्गिद को वाकफि़यत कर देता है। जैसे शब्दों का उच्चारण, सही लफ़्ज़ों की पहचान, मीटर आदि उस्ताद अगर जानकार है तो शार्गिद को यह इल्म देता है। शार्गिद अपने उस्ताद की नकल करने की कोशिश करता है और मौलिकता बहुत ज़रूरी है। अब शायरी बाज़ारी हो गई है, अब अल्फ़ाज का अल्फ़ाज़ों होने लगा है जज़्बात का जज़्बातों हो रहा है। अब झूठ बोलना जुर्म है, चोरी करना जुर्म है मगर ज़बान का गलत होना जुर्म नहीं है। पहले उस्ताद पढ़ते थे तो शार्गिद सुनते थे और सीखते थे, मगर अब यह सब खत्म हो गया है। आज शायर को परफार्मेन्स से जाना जाता है, शायर बहुआयामी हो गया है। अब मुशायरे की परंपरा में शायर वही लिख रहा है जो मंच पर पसंद किया जाए.
डा. मलिकजादा मंज़ूर-तब्दीलियाँ तो आज जि़ंदगी के हर सूबे में आयी हैं मगर उस्ताद और शागिर्द के दरम्यान प्राचीन काल में जो रिश्ते थे वो रफ़्ता-रफ़्ता कम होते जा रहे हैं। आज का शागिर्द क्लासरूम में बैठे अपने गुरु का इंतज़ार करता रहता है मगर गुरु स्टाफक्लब में बैठे अपने दोस्तों के साथ गपशप करता रहता है। मैंने शोध करने वाले छात्रों से अक्सर यह सुना है कि जिसके निर्देशन में वो शोध-कार्य कर रहे हैं, वह उससे व्यक्तिगत व घरेलू कार्य भी कराता रहता है। पुराने ज़माने में गुरु-शिष्य के अमूनन जो रिश्ते थे, उनके तहत शिष्य गुरुकुल में रहकर गुरु से शिक्षा के अतिरिक्त संस्कार भी ग्रहण करता था। तब्दीलियाँ तो अब बहुत हो गयी हैं, उनका इस्तक़बाल भी करना चाहिये मगर ज़रूरत इस बात की है कि हमारे समाज व देश के जो बुनियादी ढाँचे हैं, उनकी अच्छी बातों की क़द्र करनी चाहिये, उन्हें कुबूल करना चाहिये।
मुनव्वर राना: यह उसी प्रकार है कि किसी से पूछना कि लड़का होने की अच्छाइयां और बुराइयां। न केवल अदब कि दुनिया में बल्कि वसीय फलसफे में उस्ताद का मतलब होता है केयर टेकर। अगर सिकंदर को अरस्तू न मिलते तो हमें इतना बड़ा आदमी कैसे मिलता। उस्ताद संगतराश है जो छेनी हथौड़ी से खुद को ज़ख्मी करके भी पत्थर को भगवान बना देता है, अगर संगतराश न होता तो लोग अनगढ़ पत्थर को पूजते और यह और ख़राब बात होती। जिन हाथों में उस्तादों की जूतियों की मिट्टी लगती है वह आम आदमी को भी हुनरमंद बना देता है। अब न ऐसे उस्ताद रह गए हैं और न ऐसे शार्गिद। अगर नुकसान की बात करें तो अब अच्छे शार्गिद होने से पहले लोग उस्ताद होने लगे हैं अब उस्ताद शार्गिद से मेहनत नहीं करवाते साीधे ग़ज़ल ही कर के दे देते है और अब नाम का लालच आ गया है। उस्ताद बनकर लोग कहने लगे हैं कि मेरे पास 40 शार्गिद हैं, 28 मुरीद हैं। शार्गिद बताता फिरता है कि मैं फलां उस्ताद का शार्गिद हूं और अगर उस्ताद का नाम कम है तो शार्गिद उस्ताद का नाम लेने में शरमाता है। शार्गिद कहता है कि ‘नहीं, नहीं मैं खुद कहता हूं उनको तो मैं खुद सिखा दूंगा।’ एक बुजुर्ग होने के नाते मेरा मश्विरा है कि उस्ताद होना बहुत ज़रूरी है। एक आम आदमी भी अगर कहता है आप दाएं से न जाएं ऊपर बदमाश रहते हैं सीधे न जाएं उधर का रास्ता ख़राब है आप बाएं से जाएं तो आप उसकी बात मान लेते हैं और बाएं से जाते हैं तो अगर आप जि़न्दगीभर उस्ताद की बात मानें तो फायदे में रहेंगे।
एस.एम.ए. काज़मी: उस्ताद शार्गिद का संबंध पिता-पुत्र के जैसा पाक रिश्ता है बल्कि अदब की दुनिया में इससे बड़ा पाक रिश्ता कोई और नहीं है, क्योंकि बाप केवल सुविधाएं मुहैया करवा सकता है शिक्षा दिलवा सकता है मगर एक उस्ताद शार्गिद में शउर पैदा करता है। हमें संस्कार अपने उस्ताद से ही मिलते है और मैं खुद आज जो कुछ हूं वह अपने उस्तादों की इज़्ज़त करने के कारण है। अगर गुरू न हो तो हमें संस्कार नहीं मिल सकते और संस्कार ही काम आते हैं।
प्रो. राजेंद्र कुमार: उस्ताद शार्गिद की परंपरा अच्छी है मगर हिन्दी में भी यह परंपरा रही है मगर अब पूरी तरह समाप्त हो चुकी है अब हिन्दी में केवल संपादक लेखक की परंपरा बची है। कुछ अच्छे संपादक लेखकों को सुझाव देते हैं। और अब तो इस्लाह लेना कवि अपमान समझते हैं। उर्दू में यह परंपरा अभी काफी हद तक बची हुई है क्योंकि कुछ विधाओं के प्रति बहुत ध्यान दिया जाता है। उस्ताद-शार्गिदी परंपरा के फायदे यह है कि रचनाओं की मंजाई हो जाती है और उस्ताद का इल्म शार्गिद तक पहुंच जाता है। रचना में शिल्पगत कमियां दूर हो जाती है मगर अब नज़रिया बदल रहा है अब कवि आज़ादी चाहता है कन्टेन्ट को वरीयता देना चाहता है इसलिए छंदमुक्त रचनाओं की शुरूआत हुई और आज़ाद नज़्म की शुरूआत हुई जिसमें शिल्प का विशेष बंधन नहीं होता इसलिए कवि ऐसी रचना में इस्लाह लेना ज़रूरी नहीं समझता। अब कमियों में यह है कि शार्गिद यह सोचता है कि हमारे कन्टेन्ट को दबा तो नहीं दिया जाएगा क्योंकि उस्ताद का ध्यान अधिकतर शार्गिद के शिल्पपक्ष की ओर अधिक रहता है।
माहेश्वर तिवारी: शार्गिद को शब्द प्रयोग, शास्त्रीयता, शेरियत, अनुशासन अपने उस्ताद से मिलती है। किसी बात को कहने का शउर उस्ताद ही सिखाता है। अब समय बदल रहा है सोच और कहन का दायरा बदल रहा है समय के साथ कहन बदलती है उस्ताद रवायती शायरी और शिल्प का माहिर होते हैं। कभी-कभी उस्ताद के साथ बहुत जि़यादा बंध जाने पर शार्गिद को यह नुकसान होता है कि कहन के साथ प्रयोग करना चाहता है मगर उस्ताद की सोच शार्गिद पर हावी हो जाती है। यह शार्गिद को सोचना है कि शिल्प के साथ-साथ अपनी कहन को किस प्रकार साधता है। उस्ताद होना ज़रूरी है मगर शार्गिद सांठ-गांठ दण्डवत प्रणाम वाला नहीं होना चाहिए और शार्गिद को अपने उस्ताद से इस्लाह में बदलाव के कारण जानना चाहिए।
प्रो. अली अहमद फ़ातमी-हमारी भारतीय संस्कृति में गुरु की अत्यंत पवित्र परंपरा रही है। जि़दगी के हर क्षेत्र में उस्ताद का अपना रुतबा होता है और शायरी में भी उस्ताद का एक रुतबा रहा करता था क्योंकि जो शायरी है; उसके लिये भाषा जानना बहुत ज़रूरी है, शायरी का व्याकरण जानना बहुत ज़रूरी है और शायरी के लिये जो तीसरी सबसे बड़ी शर्त है वो यह है कि तबीयत मौजू होनी चाहिये। मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हूँ, पूरी दुनिया में जाना जाता हूँ लेकिन शायरी नहीं कर पाता इसलिये कि तबीयत मौजू नहीं है। शायरी की ऊँच-नीच, ज़बान की ऊँच-नीच, और जो लफ़्ज़ या शब्द होते हैं, वे शब्दकोश में कुछ और होते हैं, रोज़मर्रा के बोलचाल में कुछ और होते हैं, उनका लहज़ा कुछ और होता है। शायरी में सिर्फ़ लफ़्ज़ नहीं बोलता, बल्कि लहज़ा भी बोलता है। ये सारी चीज़ें उस्ताद बताता है। मीर तकी मीर का एक शेर है-‘‘सारे आलम पर हँू मैं छाया हुआ/मुस्तनद है मेरा फ़रमाया हुआ।’’ फ़रमाना आदमी अपने लिये नहीं, बल्कि दूसरों के लिये बोलता है। अपने लिये फ़रमाना व्याकरण की दृष्टि से ग़लत तो नहीं है, किन्तु तहज़ीब की दृष्टि से ग़लत है। लेकिन मीर की ज़बान से यह अच्छा भी लगता है। मीर बड़ा शायर है और उसे यह हक़ भी है। ...........तो यह सारे अल्फ़ाज़, उसके दाँवपेंच और उसका लहज़ा, ये सारी चीज़ें किताबों में नहीं मिलतीं; बल्कि पुरखों से, उस्तादों से मिलती हैं। जब से यह परंपरा ख़त्म हो गयी है, वे बुजुर्ग नहीं रहे, वे महफि़लें नहीं रहीं; तब से शायरी का वो मेयार भी नहीं रहा। ऐसे में उस्ताद के होने, न होने और उसकी कमी का एहसास होता है।
डा. बुद्धिनाथ मिश्र-हम लोगों का साहित्य मूलतः वाचिक परंपरा का रहा है। वाचिक परंपरा में किताबें नहीं चलतीं, लिपियां नहीं होतीं। गुरु शिष्य को ज्ञान देता था, शिष्य अपने शिष्य को, और यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती थी। अगर यह परंपरा न होती तो वेद के मंत्र अक्षुण्ण रूप से आज तक नहीं रह पाते। जहां पर लिपियों में काम हुआ, वहां साहित्य अवरुद्ध हो गया। जैसे हड़प्पा सभ्यता की लिपि अभी तक नहीं पढ़ी जा सकी है और वेदों की प्राचीन परंपरा अद्यतन है। गुरु-शिष्य की परंपरा भारतीय शिक्षा पद्धति का मूलाधार है। यह परंपरा हिन्दी एवं उर्दू साहित्य, दोनों में रही है। इधर आकर हिन्दी में यह परंपरा नष्ट हो गयी है, जिसके कारण ज़बरदस्त अराजकता फैल गयी है। अनुशासनहीनता जितनी उर्दू मंचों में व्याप्त है, उससे बहुत अधिक हिन्दी मंचों पर है। इसका मूल कारण यही है कि जो आज पैदा हुआ है, लिखना भी नहीं जानता; वह अपने आप को तुलसीदास से भी बड़ा मानने लगा है। एक शब्द है ‘अदब’। अदब माने ‘साहित्य’ भी होता है, और ‘अनुशासन’ भी। अनुशासन के बिना आप बहुत आगे तक नहीं जा सकते, और इसे क़ायम रखने के लिये गुरु-शिष्य की परंपरा बहुत आवश्यक है।
मेराज फ़ैज़ाबादी-इस संदर्भ में मेरी समस्या यह है कि न मेरा कोई उस्ताद है, न कोई शागिर्द। मेरा अपना सोचना यह है कि कविता सीखी नहीं जा सकती, कोई सिखा नहीं सकता। यह गुण पैदाइशी होता है और अगर आप खुद से शायरी नहीं कर सकते तो शायरी पर अहसान करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं शुरु से ही उस्ताद-शागिर्द परंपरा में यक़ीन नहीं रखता था। नतीज़ा यह रहा कि न मैंने कभी किसी को उस्ताद बनाया और न किसी से कभी कोई मशविरा लिया। सलाह लेने वालों से भी मैंने हमेशा यही कहा कि खुद से करो, बार-बार पढ़ो और सुधार करो; तो इस परंपरा का क़ायल न होने के कारण इस पर मेरा कुछ बोलना मुनासिब नहीं है। इसके फ़ायदे-नुक़सान भी मैं तभी बता सकता था, जब इससे मैं जुड़ा होता और इसे परखा होता। एक बात ज़रूर समझ में आयी कि उस्ताद-शागिर्द की यह परंपरा शागिर्द को अपाहिज बना देती है। शागिर्द उस्ताद पर निर्भर रहने लगता है कि जहाँ पर या जिस शेर मे खामी होगी, उस्ताद सुधार देंगे; तो मैंने यह बैसाखी नहीं लगायी। यद्यपि यह कठिन रास्ता था और मुझे एक-एक शेर के लिये महीनों मेहनत करनी पड़ी। आज की पीढ़ी लिखने के साथ ही प्रकाशन के लिये लालायित रहती है। मैं बड़े गर्व से कहता था कि हमारी पीढ़ी ग़ज़ल को कोठे से उतारकर घर-आँगन की चारदीवारी में ले आयी लेकिन अब मसला यह है कि आज पत्र-पत्रिकाओं के ग़ैरजिम्मेदार रवैये और फेसबुक ने इसे घर-आँगन की चारदीवारी से निकालकर चैराहे पे खड़ा कर दिया है।
अनवर जलालपुरी-उस्ताद-शागिर्द की परम्परा उतनी ही पुरानी है, जितना कि सभ्यता का इतिहास। यह अत्यन्त स्वाभाविक एवं प्राकृतिक प्रक्रिया है क्योंकि ज्ञान एक दीपक है, चिराग़ है। दीपक से दीपक हमेशा जला है, चिराग़ से चिराग़ हमेशा जला है। किसी के पास ज्ञान था, उसने दूसरे को दिया, दूसरे ने तीसरे को दिया। इस तरह से यह ज्ञानरूपी रोशनी या इल्म का नूर दुनिया में फैलता रहा; तो इस परंपरा से इन्कार नहीं किया जा सकता। अब यह है कि लोग उच्च शिक्षा हासिल करके शायरी करते है तो उसमें उन्हें यह महसूस नहीं होता कि किसी उस्ताद की ज़रूरत है; लेकिन अगर किसी उस्ताद को कलाम दिखाया जाये तो अच्छा से अच्छा शायर उसे उस्ताद मान लेगा क्योंकि कहीं न कहीं हर किसी से चूक होती ही है। एक बहुत ख़ास बात आपको बताऊँ कि शिक्षा का एक नकारात्मक पक्ष भी है कि शिक्षा हासिल करने के बाद, उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद एक ख़ास प्रकार का अहम् हो जाता है और आदमी के स्वभाव की यह कमज़ोरी भी है कि वह किसी को अपने से बड़ा नहीं मान पाता, टैलेंट और इंटेलीजेंसी में तो बिलकुल भी नहीं; और मानता भी है तो बड़ी मुश्कि़ल से।........मैं नहीं मानता कि उस्ताद-शागिर्द से कोई नुक़सान है। यह परंपरा प्राकृतिक है। बग़ैर किसी को उस्ताद या गुरु माने हमें कोई डिग्री या सनद मिल ही नहीं सकती।
प्रो. बी. एल. आच्छा-उस्ताद-शागिर्द परंपरा आदमी की बेहतरी के लिये ज्ञान के अर्जन और नवागत पीढ़ी को सौंपने की प्रक्रिया है। भारत में यह परंपरा सम्प्रदायों या घरानों में सुरक्षित रही, जिससे उनके साहित्य, दर्शन, परंपरा तथा कर्मकाण्ड आज भी जीवित हैं। यह अलग बात है कि सम्प्रदाय शब्द अब संकीर्ण हो चुका है। उर्दू अदब में उस्ताद-शागिर्द की परंपरा आज भी काफी हद तक क़ायम है, पर हिन्दी में तो अब सभी उस्ताद हैं, शागिर्द तो बस काम-निकालने के लिए रह गये हैं। अच्छे शिष्य वे ही होते हैं जो गुरु को प्रणाम करते हुये उन्हें नये आधारों पर चुनौती देते हैं और गुरु भी अपने शिष्य के तेज से मंडित होकर उसे नये प्रस्थान के लिये आशीर्वाद देते हैं। दाग़ देहलवी इकबाल के उस्ताद थे, जिन्हें उस्ताद-उल-मुल्क कहा जाता था। पर उन्हें लग गया कि इकबाल ऊँची उड़ान भरेगा, तो उसे नयी फ़ज़ा में साँस लेने के लिये छोड़ दिया। कहा जाता है कि अच्छा उस्ताद वही है, जिसका शागिर्द फ़ारिग़ुल इसलाह हो चुका है, अब उसे उस्ताद की ज़रूरत नहीं है। यदि उस्ताद केवल अपने सिखाये ज्ञान तक ही शागिर्द की हदबंदी कर दे और उसके प्रतिभा को न जगा पाये, या शागिर्द की कमियों को ही खँगालता रहे तो उस्ताद-शार्गिद परंपरा दम तोड़ देती है। किंतु यदि गुरु अपने शिष्य में प्रवाहित ज्ञान के साथ उसकी भीतरी लौ को दमका दे तो परम्परा नवोन्मेषी हो जाती है। इससे ‘नया’ आता है और यही ‘नया’ अगली पीढ़ी में भी नये का प्रवर्तन करता है।

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