बुधवार, 6 मार्च 2013

फि़राक़ की शायरी उर्दू दुनिया में मिसाल -प्रो. ज़ाफ़र रज़ा

फि़राक़ गोरखपुरी की पुण्यतिथि पर संगोष्ठी एवं तरही मुशायरा आयोजित
इलाहाबाद। फि़राक़ गोरखपुरी की शायरी उर्दू अदब में मिसाल है, उनकी शायरी में सांस्कृतिक चेतना कूट-कूट कर भरी हुई है, यही वजह है कि फि़राक़ साहब की शायरी आम से लेकर ख़ास तक में मक़बूल हुई है। हमारे लिए फख्र की बात यह है कि फि़राक़ साहब इलाहाबाद से ही जुड़े रहे और हमारे ही यूनिवर्सिटी का एक हिस्सा रहे हैं। यह बात प्रो.जाफर रज़ा ने 3 मार्च को हिन्दुस्तनी एकेडेमी में आयोजित एक कार्यक्रम में कही। फि़राक़ गोरखपुरी की पुण्यतिथि पर साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ और हिन्दुस्तानी एकेडेमी के संयुक्त तत्वावधान में संगोष्ठी और तरही मुशायरे का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता प्रो.रजा ने ही की जबकि मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार अजामिल व्यास थे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। रविनंदन सिंह का कहना था कि फि़राक़ साहब की शायरी उर्दू दुनिया से लेकर अन्य भाषाओं तक में काफी चर्चा का विषय रही है। सबा ख़ान ने फि़राक़ गोरखपुरी से जुड़ी हुई तमाम लतीफों और किस्सो-कहानियों का जिक्र करके लोगों को खूब गुदगुदाया। उन्होंने बताया कि फि़राक़ से जुड़ी सैकड़ों कहानियां और घटनाएं हमेशा से चर्चा का विषय रही हैं, जिसे आज की पीढ़ी मजे ले लेकर सुनती और सुनाती है। मुख्य अतिथि अजामिल व्यास ने कहा कि हमलोग यूनिवर्सिटी में अध्यापन के दौरान फि़राक़ साहब को देखा है और उनसे तालीम हासिल किया है, ये हमारे लिये गौरव की बात है। आज के समय में फि़राक़ जैसे अध्यापक बड़ी मुश्किल से मिलते हैं, उनके पढ़ाने का ढंग भी अन्य शिक्षकों से काफी अलग था, यही वजह थी कि उनके क्लास में छात्र-छात्राओं की तादाद काफी अधिक रहती थी। कार्यक्रम के दूसरे दौर में फि़राक़ गोरखपुरी के मिस्रा ‘तुझे ऐ जि़न्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं’ पर तरही मुशायरे आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ शायर इक़बाल दानिश ने की। 

विचार व्यक्त करते प्रो. जाफर रज़ा
विचार व्यक्त करते अजामिल व्यास
विचार व्यक्त करते रविनंदन सिंह
विचार व्यक्त करते डा. पीयूष दीक्षित

कार्यक्रम का संचालन करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
इक़बाल दानिश-
पसे पर्दा हक़ीक़त क्या है उसको जान लेते हैं।
कहा जो आप ने चलिये उसे हम मान लेते हैं।
उन्हीं को मंजि़लें जानां जुनू का नाम देती है,
मुहब्बत में जो ख़ाके दश्तो-सहरा छाने लेते हैं।

सागर होशियारपुरी-
अक़ीदत दिल में दोनों के लिए यकसां है ऐ ‘सागर’
कभी हम हाथ में गीता,कभी कुरआन लेते हैं।

हसनैन मुस्तफ़ाबादी-
चलो गर आप कहते हैं तो हम ये मान लेते हैं,
जिन्हें दावाये उल्फ़त है उन्हें पहचान लेते हैं।
बहुत मुश्किल है ये कहना जलाते हैं बहू-बेटी,
तुझे ऐ जि़न्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।


शकील ग़ाज़ीपुरी-
अना को पास रखते हैं तबीयत में है खुद्दारी,
तुम्हारे हुस्न की खैरात तो नादान लेते हैं।
सोंक के बाद की बेताबियां देखी नहीं जातीं,
हजारों करवटें देखो मेरे अरमान लेते हैं।

तलब जौनपुरी-
फ़ज़ा दहशत ज़दा है आज के वहशी दरिन्दों से,
किसी बेबस की अक्सर आबरू औ जान लेते हैं।

फरमूद इलाहाबादी-
नज़र आए न आए सूंघ कर ही जान लेते हैं।
तुझे ऐ गन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।
मेर उस्ताद की गुफ्तार में थोड़ी लुकनत है,
वो मेरा नाम भी फ़रमद ख़ा-ख़ा ख़ान लेते हैं।

अख़्तर अज़ीज़-
वो अपनी निगाही का सबब जब जान लेते हैं।
तो पत्थर मारकर हर आईने की जान लेते हैं।
मिज़ाजन गुफ्तगू हर शख़्स की हम छान लेते हैं,
ज़रा सी देर में हम आदमी पहचान लेते हैं।

सबा ख़ान-
बहुत सी उंगलियां उठ जाती हैं किरदारे हव्वा पर,
कभी गलती से गर दिल का कहा हम मान लेते हैं।

डा. नईम ‘साहिल’-
हमें आवाज़ देता है मुसलसल मीर का लहजा,
कभी हाथों में जब ग़ालिब हम दीवान लेते हैं।
बड़ी मुश्किल से होती है कोई उम्दा ग़ज़ल ‘साहिल’
उन्हें मालूम है जो क़ाफिया आसान लेते हैं।

सौरभ पांडेय-
लुटेरे थे लुटेरे हैं ठगी दादागिरी से वो,
कभी ईरान लेते हैं, कभी अफगान लेते हैं।

रमेश नाचीज़-
है तेरी जि़द तो तेरी बात हम मान लेते हैं।
तू हीरा है या मोती है या पत्थर जान लेते हैं।
हैं कितने मोटे आसामी ये पंडे जान लेते हैं,
ये जज्मानों को अपने दूर से पहचान लेते हैं।


शादमा ज़ैदी ‘शाद’-
फरेबो मक्र का चेहरा नुमाया हो ही जाता है,
अगर आंखों की हम कभी अपनी मीज़ान लेते हैं।

वीनस केसरी-
बिगड़ते मौसमों में पुल का जो अहसान लेते हैं।
वो क्या जाने कि क्या-क्या इम्तिहां तूफान लेते हैं।

डा. क़मर आब्दी-
हवा का रुख रुखे जानां के रुख से जान लेते हैं।
शनासाए ग़मे दौरां नज़र पहचान लेते हैं।
बहुत वाज़ेह नज़र आ जाये उनका बदनुमा चेहरा,
सियासत की मगर वो लोग चादर तान लेते हैं।

शाहिद अली ‘शाहिद’-
रहे पेशे नज़र उक़बा तो दुनिया जान लेते हैं।
तुझे ऐ जि़न्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।

 नजीब इलाहाबादी-
किसी दीपक से जब क़ब्जे में हम जान लेते हैं।
हमारी हर अदा दिल से मुख़तलिफ मान लेते हैं।

 आरपी सोनकर-
हक़ीक़त जि़न्दगी की जो यहां पहचान लेते हैं।
वो दुनियाभर के इंसानों को अपना मान लेते हैं।
तुम्हार काम है नफ़रत के जितने बीज बो डालो,
हमार काम है अच्छा बुरा पहचान लेते हैं।

विमल वर्मा-
नचाकर सर्वशिक्षा और मिड-डे मील की धुन पर,
वो शिक्षक से पढ़ाई के सिवा हर ज्ञान लेते हैं।

हुमा अक्सीर-
मेरे दिल पे ग़मे तन्हाई की जब वार होता है,
तो ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं।

नुसरत इलाहाबादी-
बस इतना रह गया कुरआन से अब वास्ता ‘नुसरत’
कसम खाने के खातिर हाथ में कुरआन लेते हैं।


चांद जाफरपुरी-
कही से भी तू गुजरे आहट मिल ही जाती है,
तुझे ऐ जि़न्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।


अजय कुमार-
ये भारतवर्ष है इसकी तरक्की के तो क्या कहने,
कमीशन आज पंडित से यहां जजमान लेते हैं।

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