गुरुवार, 2 अगस्त 2012

रोजा इफ्तारः विभिन्न कौमो-मिल्लत के लोग एकजुट


                                                            
                                                                नाजि़या ग़ाज़ी
उनका जो काम है वो अहले सियासत जाने
मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे।
जिगर मुरादाबादी का यह शेर रमजान के महीने में प्रासंगिक हो उठता है। तमाम सियासतदान वोट बैंक की राजनीति के तहत तोड़-जोड़ में लगे रहते हैं और जनता इन्हीं के जाल में फंसी रहती है। मगर रमजान के महीने में विभिन्न समुदायों द्वारा आयोजित की जाने वाली रोजा-इफ्तार पार्टियां इस भ्रम को तोड़ देती हैं कि इंसानों को अलग-अलग ग्रुपों एवं नामों से संबोधित किया जाए। गंगा-जमुना की सरज़मीन इलाहाबाद पूरे एक महीने आपसी भाईचारे और सौहार्द की अनोखा मिसाल बन जाता है। विभिन्न सरकार संस्थानों, राजनैतिक पार्टियों, व्यापार मंडलों और मुखतलिफ़ कौमो-मज़हब के लोग न सिर्फ़ रोजा-इफ्तार पार्टियों में शामिल होते हैं, बल्कि पूरी लगन और मेहनत से इसका आयोजन भी करते हैं। हालांकि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन आयोजनों को सही नहीं मानते हैं, वे मज़हबी चीज़ों और आपसी सौहार्द को अलग-अलग रखने की वकालत करते हैं।
दरअसल, रमजान का महीना इस्लाम मज़हब के अनुसार बरकतों वाला महीना है, जिसमें मुसलिम समुदाय के लोग एक महीने तक रोजा रखते हैं, तरावीह की नमाज पढ़ते हैं, सुबह सहरी खाते हैं और शाम को सूरज डूबने के समय रोजा खोलते हैं। दिनभर भूखे-प्यासे रहने के बाद शाम के वक्त सूरज डूबने पर जलपान वगैरह किया जाता है और इसी जलपान को इफ्तार कहते हैं। इस हिसाब से देखा जाए तो इफ्तार उन लोगों के लिए है, जो दिनभर रोजा रहते हैं। लेकिन रोज़ेदार के साथ पूरे सलीके से बैठकर रोज़ा खोलने यानि में शामिल होने को भी इस्लामिक विधान के सवाब का काम बताया गया है। रोजेदार के साथ रोजा खोलने की परंपरा ने इतनी मक़बूलियत हासिल कर ली है कि आज न सिर्फ गैर मुसलिम रोजा इफ्तार में शामिल होते हैं, बल्कि रोजा इफ्तार पार्टियों के मेजबान भी बनते हैं।
इलाहाबाद गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल रहा है, लिहाजा दूसरे शहरों के मुकाबले यहां के लोग आपसी मिल्लत वाले कामों में कसरत से शामिल होते रहे हैं। रोजा इफ्तार पार्टी के मामले में पंडित मोतीलाल नेहरु का नाम सबसे पहले आता है। ठीक से समय तो नहीं मालूम चला लेकिन कई बुजुर्गों का कहना है कि  इलाहाबाद में रोजा-इफ्तार पार्टी का सबसे पहला आयोजन करने वाले गैर मुसलिम व्यक्ति पंडित मोती लाल नेहरु ही थे। उन्होंने सबसे पहले आनंद भवन में  रोजेदारों के लिए इफ्तार का आयोजन किया था। इसमें शहर के तमाम छोटे-बड़े मुसलमानों ने शिरकत की थी और उस दौर में पंडित मोती लाल नेहरु का यह आयोजन पूरे देश में चर्चा का विषय बना। इस सिलसिले को आगे बढ़ाने और उसे जारी रखने में हेमवंती नंदन बहुगुणा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। 1974 में प्रदेश की मुख्यमंत्री की बागडोर संभालने के साथ ही बहुगुणा जी ने रोजा इफ्तार की नींव अपने जेरे-एहतमाम डाली और वह जब तक जीवित रहे, रोजा-इफ्तार पार्टी का आयोजन करते रहे। पूरे शहर के साथ गांवों के लोग जिनमें हिन्दू-मुसलिम दोनों ही थे, इस इफ्तार पार्टी में शिरकत करते। 72 वर्षीय बुजुर्ग मोहम्मद मुतुर्जा का कहते हैं- ‘बहुगुणा जी के इस व्यक्तित्व से लगता था कि वह अपने घर और परिवार के व्यक्ति हैं। हिन्दू और मुसलिम का कोेई फर्क नहीं पता चलता था।’ साहित्यकार यश मालवीय कहते हैं, ‘राजाओं-महाराजाओं के जमाने में भी सामूहिक रोजे-इफ्तार का आयोजन होता रहा है, उस ज़माने में समाज के मानिन्द बुद्धिजीवियों को खासतौर पर आमंत्रित किया जाता था। आज इस तरह के आयोजनों में राजनैतिक लोग ज्यादा मौजूद रहते हैं। फिर भी यह भारतीय एकता को तो प्रदर्शित करता ही है।’
उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य स्थाई अधिवक्ता कमरुल हसन सिद्दीकी कहते हैं ‘  रोजे में मुसलमानों के सब्र का इम्तिहान होता है, और ऐसे में सभी कौमो-मिल्लत के लोग जब एकट्ठा होकर एक साथ रोजा खोलते हैं तो इलाहाबादी तहजीब अपने चरम सीमा पर नज़र आती है। यही वजह है कि लगभग सभी सरकारी संस्थानों सहित विभिन्न संस्थाएं भी रोजा इफ्तार पार्टियों का आयोजन करती हैं।’ कमरुल हसन जौहर एकेडेमी और सेक्युलर सिटीजन के सक्रिय कार्यकर्ता हैं, प्रत्येक वर्ष रमजान में नखास कोहने पर इन दोनों संस्थाओं द्वारा अलग-अलग आयोजित की जाने वाली इफ्तार पार्टियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। खुल्दाबाद व्यापार मंडल प्रकोष्ठ के सरदार मंजीत सिंह भी खूब जोशो-खरोश से रोजा इफ्तार पार्टी का आयोजन करते हैं। कहते हैं ‘ हमें ये नहीं लगता कि यह सिर्फ मुसलमानों का मामला है, यह भारतीय और इलाहाबादी कौमो-मिल्लत का पैगाम बन गया है। इफ्तार में जितने मुसलमानों भागीदारी होती है, उससे अधिक गैर मुसलमानों की होती है।’
रोजा इफ्तार पार्टी के एक अन्य आयोजक अरमान खान करते हैं कि त्योहार आपसी  मिल्लत का पैगाम लेकर आते हैं, रोजा इफ्तार भी ऐसा ही एक त्योहार है। यह इलाहाबाद की तहजीब का अहम हिस्सा बन गया है, बल्कि पूरे देश में इस तरह का आयोजन होने लगा है। हमारी देखा-देखी ही अमेरिका के राष्टृपति भी रोजा इफ्तार पार्टी में शामिल हो रहे हैं, और मेजबानी भी करने लगे हैं। यह सिर्फ  इस्लामी तहजीब नहीं बल्कि इलाहाबाद और भारतीय तहजीब का हिस्सा बन गया है।’
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर अली अहमद फातमी की इस बारे में अलग राय है, उनका कहना है ‘रोजा खुलवाने को लेकर लोगों का जज्बा कम और अपनी हैसियत दिखाने का ज्यादा रहता है। प्रशासनिक अधिकारियों और नेताओं को इसमें बुलाने की क्या ज़रूरत है। इफ्तार तो उन लोगों के लिए होता है, जो रोजा रखते हैं, जो रोजा नहीं रखते, उनसे इफ्तार से क्या वास्ता ?’ क्या इससे कौमी एकता स्थापित नहीं होती ? इस सवाल पर प्रो. फातमी कहते हैं ‘कौमी मिल्लत के लिए ईद, बकरीद, दीपावली, होली, क्रिसमस आदि त्योहार हैं, इन अवसरों पर लोग एक दूसरे के यहां आयें-जायें, गले मिलें, बधाई दें। मगर इफ्तार में शामिल होना क्या ज़रूरी है।’ शायर असलम इलाहाबादी भी कमोवेश यही ख्याल रखते हैं ‘अब इफ्तार पार्टी मजहबी न होकर सियासी हो गई है। यह कौमी मिल्लत के एतबार से तो ठीक लगती है मगर उसका इस्लामी महत्व नहीं है।’
बहरहाल, लोगों की राय चाहे जो भी  हो लेकिन इस अवसर पर सभी धर्मों के लोगों का एक साथ रोजा इफ्तार में शामिल होना कौमी यकजहती का परिचय तो देता ही है। सलीम शेरवानी द्वारा आयोजित होने वाले इफ्तार पार्टी जिसमें मुलायम सिंह तक शिरकत करते हैं, के अलावा फायर बिग्रेड, रेलवे, हाईकोर्ट के वकीलों, विभिन्न मुहल्लों के व्यापार मंडल, सफीरेनव, कलमकार आदि संस्थाओं द्वारा आयोजित होने वाले रोजा इफ्तार पार्टियां इलाहाबाद की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल हैं, जिसे नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं है।
                                                     नाजि़या ग़ाज़ी
                                                    संपादक-गुफ्तगू
                                              
                                                           
                                            

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