एहतराम इस्लाम
जिस नगर को महान उर्दू कवि अकबर इलाहाबादी, महाप्राण निराला, शाइर-ए-आज़म फि़राक़ गोरखपुरी, महीसयी महादेवी वर्मा, महाकवि सुमित्रानंदन पंत जैसे शीर्षस्थ कवियों की कर्मस्थली होने का गौरव प्राप्त रहा हो उसे यदि कविता और साहित्य का तीर्थ माना जाता रहा है तो इसमें आश्चर्य क्या है? इलाहाबाद संभवतः भारतवर्ष का अकेला नगर है जिसकी झोली में पांच ज्ञानपीठ (पंत, फि़राक़,महादेवी नरेश मेहता और अमरकांत) और दो ‘सरस्वती सम्मान’ (हरिवंश राय बच्चन और शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी) पड़े हैं। इधर कुछ वर्षों से इलाहाबाद की साहित्यिक हैसियत में कुछ कमी सी अवश्य आयी लगती है, लेकिन आज भी यहां की धरती से किसी प्रकार भी जुडे़ रचनाकारों को विशेष आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
हिन्दी कविता में ग़ज़ल का सच्चे अर्थ में प्रवेश दुष्यंत कुमार की ग़ज़लगोई के साथ हुआ। यह भी एक सुखद संयोग है कि दुष्यंत कुमार की रचना का आरंभिक काल भी इलाहाबाद में बीता। यानी हिन्दी में ग़ज़ल की शुरूआत भी इलाहाबादी ग़ज़ल से हुई। उर्दू तो ग़ज़लें इलाहाबाद में शुरू से ही लिखी अथवा कही जाती रही हैं। वर्तमान परिवेश इलाहाबाद की उर्दू ग़ज़लों का मामला यह है कि यहां एक छोर पर प्रसिद्ध समालोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी खड़े दिखाई देते हैं जो ग़ज़ल को सुनाने की चीज़ नहीं, पढ़ने और समझने की चीज़ मानते और मनवाते रहे हैं, और यही कारण है कि उन्हें और उनके स्वर में स्वर मिलाने वालों को काव्य-मंचों से एक प्रकार की घृणा है तो दूसरे छोर पर वयोवृद्ध इंतेज़ार ग़ाज़ीपुरी सरीखे शाइर हैं जो ग़ज़लगोई की सार्थकता तभी मानते है जब उसे मंच प्राप्त हो जाए। उर्दू के बाकी ग़ज़लकार इन्हीं दो धु्रव के बीच सक्रिय दिखाई देते हैं।
लगभग एक दशक पूर्व तक मुशाइरे को मंचों के माध्यम से इलाहाबाद का नाम दूर-दूर तक पहुंचाने वाले माहिरुल हमीदी, राज़ इलाहाबादी और चंद्र प्रकाश जौहर बिजनौरी के न रहने पर यह काम डाॅ. असलम इलाहाबादी, अतीक़ इलाहाबादी (अब दिवंगत),इक़बाल दानिश, अफ़जल जायसी, अख़्तर अज़ीज़ आदि बखूबी अंज़ाम दे रह हैं। इन युवा कवियों के साथ अच्छी बात यह है कि ये मंचों तक स्वयं को सीमित न रखकर प्रिन्ट मीडिया में भी स्थान बनाने के प्रति जागरुक हैं।यही कारण है कि उनकी ग़ज़लों में लीक से हटकर चलने का प्रयास स्पष्ट झलकता है। ग़ज़ल को समसामयिक विषयों से जोड़ने के प्रति गंभीर ग़ज़लकारों की सूची भी बहुत संक्षिप्त नहीं है। ऐसे शाइरों में सुहैल अहमद जैदी (अब दिवंगत),शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी,फर्रुख जाफ़री, नस्र कुरैशी (अब दिवंगत), ज़मीर अहसन, इनआम हनफ़ी, हबाब हाशमी, एम एक क़दीर आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। नई पीढ़ी की नुमाइंदगी करने वाले नैयर आकि़ल (अब दिवंगत),अहमद अबरार, जावेद अख़्तर, जावेद शोहरत, अशरफ़ ख़्याल सरीखे ग़ज़लगोई का नाम की उक्त श्रेणी की सूची में ही शामिल किया जाएगा। उर्दू ग़ज़लगोई की एक श्रेणी इलाहाबाद में और मौजूद है उस्ताद हज़रत ‘नूह’ नारवी के स्कूल से संबंध रखने वाले उन वयोवृद्ध कायस्थ शाइरों की श्रेणी जो ढलती उम्र के बावजूद अपने-अपने स्थान से एकांत में बैठकर उर्दू ग़ज़ल की सेवा में आज भी समर्पण भाव से जुड़े हुए हैं। इस श्रेणी के प्रतिनिधि कवि रामेश्वनाथ ऐश और त्रिभुवन प्रसाद अंजाम हैं।
इलाहाबाद की हिन्दी ग़ज़लगोई के कई रंग और कई तेवर है। एक ओर दुष्यंत कुमार की ग़ज़लगोई के समानांतर ग़ज़ल की ऐसी धारा प्रवाहित करने में रत यह लेखक नज़र आता है जिसने संस्कृत की उस तत्सम शब्दावली का अपनी ग़ज़लों की पहचान के रूप स्थापित करवाने में सफलता पाई जिसका प्रयोग ग़ज़ल में सवर्था अनपेक्षित बल्कि वर्जित था तो दूसरी ओर बुद्धिसेन शर्मा सरीखे ग़ज़लगो हैं जो ऐसी उर्दू को ग़ज़ल के लिए उपयुक्त मानते हैं जिसे हिन्दी मनवाने में प्रतिरोध का सामना न करना पड़े। यही कारण है कि वे हिन्दी और उर्दू दोनों में समान रूप से लोकप्रिय हैं। इसमें दो राय नहीं कि तत्सम शब्दावली वाली शैली ने अनेक कवियों को अपने प्रभाव में लिया और परिणास्वरूप सुरेश कुमार शेष, डाॅ. संत कुमार, अहमद अबरार, नैयर आकि़ल, संजय मासूम, यश मालवीय, (स्व.) वसु मालवीय, अजित शर्मा आकाश, जैसी हिन्दी ग़ज़लकार सामने आए और यह सिलसिला आगे भी बढ़ता दिखाई देता है। नैयर आकि़ल ने तो स्नेह वक्षात इस धारा की ग़ज़ल को एहतरामी धारा की ग़ज़ल का नाम ही दे डाला। युवा ग़ज़लकारों की नई नस्ल भी हिन्दी ग़ज़ल को समृद्ध करने में जुटी हुई है। जिसमें रमेश नाचीज़,सुनील दानिश, अनिल कुमार अंदाज़, इम्तियाज़ ग़ाज़ी आदि का नाम प्रमुख है।गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर 2003 अंक में प्रकाशित
2 टिप्पणियाँ:
इस ज्ञानवर्द्धक आलेख के लिए आदरणीय एहतराम भाईसाहब के प्रति आभार.
वैसे 2003 से इलाहाबाद की साहित्यिक दुनिया बहुत बदली है. आज का परिदृश्य बहुत कुछ बदला है.
सादर
बहुत खूब
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