गुरुवार, 24 मई 2012

मुल्क-ए-ग़ज़ल क्यों ?


- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
काव्य की अन्य विधाओं के मुकाबले ग़़ज़ल की लोकप्रियता सबसे अधिक बढ़ी है, यही वजह है कि लगभग हर विधा के कवि ने ग़ज़ल पर कलम ज़रूर चलाया है या चलाने की कोशिश की है। यह बात सिर्फ़ हिन्दी या उर्दू भाषी कवि पर ही लागू नहीं होती है, बल्कि लगभग सभी भारतीय भाषाओं सहित तमाम विदेशी भाषा के कवियों पर भी लागू हो रही है। हिन्दी पत्रिकाओं और संकलनों की बात जाए तो यहां भी ग़ज़ल का पलड़ा सबसे भारी दिखता है। विशेषकर लधु पत्रिकाओं ने सबसे अधिक विशेषांक ग़ज़ल पर ही प्रकाशित किया है, और यह सिलसिला अब भी जारी है। देश के विभिन्न हिस्सों से संकलित किए जाने वाली पुस्तकों पर नज़र दौड़ाई जाए तो ऐसी पुस्तकों में प्रकाशित काव्य की अन्य विधाओं के मुकाबले ग़ज़लों की संख्या सबसे अधिक मिलेगी। अधिकतर प्रकाशकों का भी मानना है कि काव्य की अन्य विधाओं के मुकाबले ग़ज़ल संग्रहों की बिक्री सबसे अधिक है, इसलिए वे ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित करने को अपेक्षाकृत प्राथमिकता देते हैं। ‘गुफ्तगू’ पत्रिका का प्रकाशन भी ग़ज़ल विधा को केंद्र में रखकर ही किया जा रहा है, पत्रिका द्वारा ग़ज़लों को प्राथमिकता देने के कारण पाठकों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है और पत्रिका अपने प्रकाशन के दसवें वर्ष में प्रवेश करने जा रही है। इसके सफलता का श्रेय भी ग़ज़ल की प्राथमिकता को ही दिया जा रहा है।
इसके साथ-साथ हम इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि सबसे अधिक दुगर्ति भी ग़ज़ल की ही हो रही है। इसकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर हर किसी ने ग़ज़ल कहना तो शुरू कर दिया, लेकिन उसके छंद शास्त्र और लबो-लहजे को जाने-समझे बिना। नतीज़ा यह हुआ है कि हर टूटी-फूटी और बिखरी हुई रचना को ग़ज़ल कहके परिभाषित किया जा रहा है। इस बुराई में इज़ाफा करने का काम कुछ पत्रिकाओं के संपादक, इंटरनेट और मुशायरा-कवि सम्मेलन के मंचों ने कर दिया है। तमाम पत्रिकाओं में ऐसी ग़ज़लें छप रही रहीं हैं जिनका एक मिस्रा भी बह्र में नहीं होता, न तो संपादकों को बह्र का ज्ञान है और न ही ग़ज़ल के शायर को। इंटरनेट के विभिन्न मंचों पर धड़ल्ले से बेबह्र ग़ज़लों का प्रकाशन किया जा है, इंटरनेट के माध्यम से ग्रुप, ब्लाग आदि के संचालन करने वाले अधिकतर लोगों को ग़ज़ल विधा की जानकारी ही नहीं है। मंचों ने तो काव्य विधा को हो निगलना शुरू कर दिया है, यहां पढ़ी जाने वाली रचनाएं काव्य की किसी भी विधा की है या नहीं, यह जानने और समझने वाला कोई नहीं है। अधिकतर आयोजकों को इसकी जानकारी ही नहीं होती, वे कवियों को आमंत्रित करने की जिम्मेदारी जिस कवि को देते हैं, वो इमानदारी से अच्छी रचनाओं के आधार पर कवियों को आमंत्रित करने की बजाए दलाली शुरू कर देते हैं। नतीजा यह हो रहा है कि कवि सम्मेलन या मुशायरे के नाम पर आयोजित होने वाले मंच तमाशा बनकर रह गए हैं, लतीफे सुनाने से लेकर तरह-तरह की ऐक्ंिटग करने तक का काम किया जा रहा है। ऐसे में ख़़ासकर नई पीढ़ी लतीफे और नौटंकी को ही कवि सम्मेलन और कविता समझने लगी है। ऐसे मंचों पर तमाम वरिष्ठ शायर-कवि भी मौजूद होते हैं, जिन्हें कविता और शायरी की अच्छी समझ होती है, वे सबकुछ देखते रहते हैं और एक बार भी इसका विरोध करने की कोशिश नहीं करते, उन्हें सिर्फ़ इस बात की चिंता रहती है कि विरोध करने पर अगले साल के आयोजन में नहीं बुलाया जाएगा। ऐसे मंचों पर ग़ज़ल की भी खूब दुगर्ति हो रही है, लतीफा सुनाने वाला भी अपनी रचना को ग़ज़ल कहके परिभाषित करता है। पिछले दिनों हुई एक घटना ने मुझे आश्र्चयचकित किया। इलाहाबाद के काॅलेज में ‘गुफ्तगू कैंपस काव्य प्रतियोगिता’ का आयोजन किया गया, जिसमें कविता लिखने वाले छात्र-छात्राओं से काव्य पाठ कराकर उनकी रचनाओं के आधार पर उन्हें पुरस्कृत किया गया। यह आयोजन जिस काॅलेज में हुआ, उसी काॅलेज के हाईस्कूल के एक छात्र से मुझसे आकर पूछा, ‘ये मुशायरा क्या होता है ?’ साथ उसने यह भी जोड़ा कि मैंने अपने ‘मैम’से भी पूछा है, वो नहीं बता रही हैं।
इन हालात में यह अत्यन्त ज़रूरी महसूस हुआ है कि एक ऐसा संकलन होना चाहिए जिसमें कम से कम छंद की दृष्टि से सही ग़ज़लें शामिल की जाएं, ताकि ग़ज़लों का सही स्वरूप लोगों के सामने आए। इसी को आधार बनाकर ‘मुल्क-ए-ग़ज़ल’ का प्रकाशन किया गया है। एक ही पुस्तक में देश के सभी ग़ज़लकारों को शामिल करना मुमकिन नहीं था, लिहाजा इसे कई भागों में प्रकाशित किया जाना है। पहला भाग आपके हाथ में है और भाग-दो प्रेस में है। इसके बाद भाग-तीन प्रकाशित किया जाना है। अगर सही ग़ज़ल लिखने वालों की तादाद बढ़ती है तो भाग-चार और पांच भी प्रकाशित किया जाएगा। हम अपने मकसद में कितना कामयाब हुए हैं, इसका फैसला आप को करना है, बेबाक टिप्पणी का इंतज़ार रहेगा।

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