रविवार, 6 मई 2012

रोज़ एक शायर में आज- नवाब शाहाबादी


अगर जो दिलों में मुहब्बत न होती।
तो दुनिया भी अब तक सलामत न होती।
ये अच्छा है अपने को पर्दे में रखा,
वरगना तुम्हारी इबादत न होती।
अगर एक रहते बिना सरहदों के,
खुदा की कसम ऐसी हालत न होती।
ळुकूमत नहीं दोस्त तब तक बदलती,
कि जब तक किसी की शहादत न होती।
अगर सादगी से जो करते गुज़ारा,
दिखावे की इतनी ज़रूरत न होती।
अगर हिन्दी-उर्दू के झगड़े में पड़ते,
जुबां में हमारी लताफ़त न होती।
नहीं कोई फिर हमको ‘नव्वाब’ कहता,
नज़ाकत न होती, शराफ़त न होती।
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फैसला उसका कोई भी टल न सका।
लाख चाहा मुक़द्दर बदल न सका।
हम ग़रीबों की यह भी है क्या जि़न्दगी,
कोई भी दिल का अरमां निकल न सका।
लोग चलने को चलते रहे तेज़तर,
वक़्त के साथ कोई भी चल न सका।
आदमी आदमी आज भी है मगर,
आदमियत के पैक़र में ढल न सका।
सूये मंजि़ल क़दम उसके बढ़ न सके,
 ठोकरें खा के वह जो संभल न सका।
ख़ारज़ारों में हंसते रहे यूं ही फूल,
बुल हवस चाह कर भी मसल न सका।
 उसके जीने के अंदाज़ बदले मगर,
फिर भी ‘नव्वाब’ खुद को बदल न सका।
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शरीक़ जिसके हर इक हाल में रहा हूं मैं।
वह किस जुबां कहेगा कि बेवफ़ा हूं मैं।
चढ़ा दो बढ़ के सरेआम मुझको सूली पर,
ख़ता यह कम तो नहीं है कि बेख़ता हूं मैं।
अभी तो झूठ का वह दौर आने वाला है,
कि राहज़न भी कहेगा कि रहनुमा हूं मैं।
करूंगा रब्त किसी संग दिल से फिर कायम,
अभी तो शहे बुतां में नया-नया हूं मैं।
रहे हो बरसों मेरे साथ तुम तो ऐ ‘नव्वाब’,
तुम्हीं बताओ कि पत्थर कि आईना हूं मैं।
मोबाइल नंबरः 09839221614

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