बुधवार, 2 मई 2012

एक दिनः अड्डा चुगलखोरों का


---------   इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी  --------------
समय दिन के करीब 12 बजे, जक्शन रेलवे स्टेशन के सामने से जाने  वाली काटजू रोड पर नेत्र चिकित्सालय के सामने दवाओं की एक छोटी सी दुकान..... नगर के अदीबों का बड़ा जमावड़ा।
डा. ज़मीर अहसन, अतीक़ इलाहाबादी, अख़्तर अज़ीज़, नजीब इलाहाबादी के साथ खुद दुकान के मालिक और उस्ताद शायर नय्यर आकि़ल भी मौजूद हैं। यह वही अड्डा है जिसे मशहूर शायर मुनव्वर राना चुगलखोरों का अड्डा कहते हैं।
नजीब इलाहाबादी- अतीक़ भाई कैसा रहा पाकिस्तान का मुशायरा। आपने क्या सुनाया। ‘वहां के मुशायरे तो अच्छे रहते ही हैं, और मुल्कों के अलावा हिन्दुस्तान से मैं और नोएडा वाले तुफैल चतुर्वेदी गए थे। तुफैल ने हिन्दी भाषी एक ग़ज़ल सुनायी, जिसमें गलती थी, लेकिन हमवतन होने के कारण मुझे इसका बचाव करना पड़ा, मैंने लोगों से कहा कि भाई ये हिन्दी के हिसाब से सही है। अतीक़ ने कहा। इतने में अख़्तर अज़ीज़ कहते हैं ‘अतीक़ भाई आपने क्या सुनाया, हमें भी सुना दीजिए, नय्यर चाय मंगाओ अतीक़ भाई शेर सुनाने जा रहे हैं।’ नय्यर- अनवर जाओ चाय ले आओ। अनवर नय्यर आकि़ल का छोटा भाई है, वह चाय लेने चला जाता है। अतीक़ शेर सुनाने से मना करते हैं, अमां तुम लोग तो हमेशा...। तब तक ज़मीर अहसन बोल पड़े-सुना दो अतीक़। अतीक़ फरमाते हैं-
‘जलते हुए मकान में जल जाइए मगर,
सड़कें लहूलूहान हैं बाहर न आइए।’
वाह... वाह बरसती है। नय्यर, ज़मीर अहसन की तरफ तिरक्षी निगाह से देखते हुए कहते हैं, ‘कुछ लोग यह शेर सुनकर जल रहे हैं।’ज़मीर साहब समझ जाते हैं और अपने बगल में बैठे नय्यर की पीठ पर हाथ से मारते हुए कहते हेैं ‘तुम जलो, कहना सीखो, मैं तो अच्छा शेर कहती ही हूं, मेरा कोई मुकाबला तो है ही नहीं।’ इतने में अनवर चाय लेकर आ जाता है। प्लास्टिक के कप में चाय उड़ेलकर सबको देने लगता है। नय्यर कहते हैं, ‘अच्छा इसी बात पर आप अपना कोई शेर सुना दीजिए।’ज़मीर अहसन- तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं है नय्यर की मेरे शेर को ख़राब कह दो। लो पेश है-
कांटा चुभे तो कांटो पे फिर चलकर देखिए।
मुमकिन है कोई कांटा ही कांटा निकाल दे।
सारे लोग वाह-वाह करते हैं, मगर नय्यर की राय अलग (शायद मजाक) अलग है, ‘बहुत पुराना शेर है, लगता है आपने नया कुछ नहीं कहा।’ तभी एहतराम इस्लाम हाथ में बैग लिए सर पर रूमाल रखे पहुंच जाते हैं। सबसे सलाम दुआ करते हैं, नजीब कहते हैं- अमां अनवर चाय और है, लाओ एहतराम भाई को भी दो।
इतने अतीक़ इलाहाबाद का मोबाइल फोन बजने लगता है, वे बात करने लगते हैं, तभी एक लड़का कागज़ की पर्ची नय्यर को दिखाते हुए कान में कुछ कहता है। अख़्तर अज़ीज़ उस लड़के की तरफ देखते हुए बोल पड़े, ‘नय्यर..यार इस लड़के को भी कुछ कह कर दे दो, इसको आज मुशायरे में जाना है।’ उधर अतीक़ इलाहाबादी अपना मोबाइल बंद कर कहते हैं- बीवी का फोन है, खाने पर बुला रही है। मैं चलता हूं, आप लोग शेरो-शायरी का मज़ा लीजिए।

नय्यर लड़के के पर्ची पर लिखने लगने लगते हैं और दूसरी तरफ एहतराम इस्लाम, डाॅ. ज़मीर अहसन, नजीब इलाहाबादी और अख़्तर अज़ीज आपसी गुफ्तगू में व्यस्त हैं। कुछ नया कहा हो तो सुनाइए एहतराम भाई, अख़्तर अज़ीज़ की यह आवाज़ थी। ज़मीर अहसन और नजीब उनकी हां में हां मिलाते हैं। एहतराम साहब ne शेर पढ़ा-
वार्ताएं, योजनाएं, घोषणाएं फैसले,
इतने पत्थर और तन्हा आईना निष्कर्ष का।
अख़्तर अज़ीज़ उतावले होकर कहते हैं, मेरा भी शेर सुन लीजिए-
मरकज़ी हैसियत है अपनी भी,
हर कहानी की जान हैं हमलोग।
जिसने चाहा है तीर फेंका है,
जैसे खाली कमान हैं हमलोग।
अच्छे अशआर हैं, नजीब और एहतराम बोल पड़ते हैं। तब तक नय्यर उस लड़के की पर्ची पर लिख कर उसे दे देते हैं। ज़मीर अहसन कहते हैं, ‘नय्यर दिनभर में कितने लोगों को बांट देते हो।’ नय्यर, आप भी क्या फालतू बात करते हैं, नये लोगों की कौन मदद करेगा।
नजीब अपनी हाथ घड़ी पर नज़र दौड़ाते हैं- मेरी ड्यूटी का वक़्त हो गया, चलता हूं। एहतराम और अख़्तर अज़ीज़ खड़े हो जाते हैं जाने के लिए, तब तक नय्यर बोल उठते हैं- मेरा शेर तो सुन लीजिए जाने से पहले, आज शुद्ध हिन्दी का एक शेर सुनाता हूं।
आत्मा नीलाम करके लेखनी ko बेचके,
मैं भी एक दिन राजदरबारों में आमंत्रित हुआ।
तभी सुनील ‘दानिश’ अपनी स्कूटर लेकर पहुंच जाते हैं, और आदाब करते हुए कहते हैं,‘ अमां नय्यर...लोगों को क्यों भगा रहे हो।’ सबको मैटेरियल मिल गया अब यहां कौन रूकेगा। तुम आओ, तुमसे बातें करने का जी चाहता है। दानिश अंदर दुकान में बैठकर अपनी जेब से पर्ची निकालते हुए कहते हैं.. यह शेर फिट नहीं बैठ रहा नय्यर कल से परेेशान हूं। तभी बुजुर्ग मुर्तुजा साहब अपने हाथ में ढेर सारी पर्चियां लिए हुए आये। नय्यर से कहते हैं,‘मेरा मुअम्मा ठीक कर दो नय्यर, जमा करना है वक़्त नहीं है।’‘आपका तो रोज़ का मामला है मुर्तुजा साबह, ले आइए।’
इस तरह का सिलसिला रोज़ ही इस दुकान पर चलता है। शेरो-शायरी कहने और तरंनुम में पढ़ने वालों की भीड़ यहां बराबर देखी जाती है। मुनव्वर राना से लेकर बेकल उत्साही तक जो भी इलाहाबाद आता है, एक बार इस अड्डे की जि़यारत ज़रूर करता है... इस कामना के साथ आबाद  रहे अड्डा, संवरता रहे अदब।
 

(यह आलेख हिन्दी दैनिक ‘आज’ में 31 जुलाई 2004 को प्रकाशित हुआ था। नय्यर आकि़ल का तीन जून 2006 और अतीक़ इलाहाबादी का 25 फरवरी 2007 को इंतिकाल हो चुका है)

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