शनिवार, 5 मई 2012

रोज़ एक शायर में आज- हुमा अक्सीर


आसमां में उड़ू बाल ओ पर चाहिए।
जि़न्दगी के लिये ये हुनर चाहिए।
मुश्किलें जीस्त की जानने के लिए,
राहे रूह को भी ख़तर चाहिए।
बे इरादा ही अजमे सफर कर लिया,
अब कोई तो मुझे हम सफ़र चाहिए।
जा के मिल जाये जो राहे महबूब से,
मुझको ऐसी ही कोई डगर चाहिए।
दिन तो फुटपाथ पर यूं ही कट जाएगा,
रात के वास्ते एक घर चाहिए।
जिससे दिल मेरा धड़कास था पहले कभी,
मुझको फिर से हंसी वो नज़र चाहिए।
रह न जाए कहीं दीप की आरज़ू,
अब दुआओं को ऐसा असर चाहिए।
ये बता दो ज़माने का ‘अक्सीर’ तुम,
दर्द सहने को जख़्मी जिगर चाहिए।
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ये जि़न्दगी है क्या कोई जान नहीं पाया।
साया भी अपने आपको पहचान नहीं पाया।
दुनिया में मिलते हैं यू ंतो बहुत हसीन चेहरे,
इस दिल ने तो कहीं भी आराम नहीं पाया।
हसरत ही रह गइ्र दिल में तेरे वसाल की,
तुझे पाने का कोई भी अरमान नहीं पाया।
बयान हो नहीं सकता जख़्म दिल हमारा,
ख़्याल पाया पर इज़हारे ज़बान नहीं पाया।
मिल जाती गमे जीस्त से नज़ात भी हमें,
कितनी अज़ीज़ जान थी तुझको ऐ काफि़र,
उफ आग के दरिया को खंगाल नहीं पाया।
‘अक्सीर’ अब सुकून कुछ मिलने लगा है,
कल रात से दिल को बेकरार नहीं पाया।
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याद आयें हैं वो इस तरह क्या करें।
हुआ है दर्द सवार हम दवा क्या करें।
मोहब्बत में नाकामियों को क्या कहें,
अब आह फरियाद के सिवा हम क्या करें।
अब नहीं है हमें ख़्वाहिश कोई हमदम,
तू ही बता अब हम दुआ क्या करें।
तूने कहा जो वो कैसे कर जाएं हम,
तुझे भूलकर हम भला क्या करें।
किसको सुनाएं कोई सुनता नहीं है,
अब हम अपना नामें वफ़ा क्या करें।
‘अक्सीर’ जो अपने कभी हो ही न पाये,
फिर उनके बिछड़ने का हम गिला क्या करें।

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