बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

दिल का दर्द उकेरती किताब ‘दर्द-ए-सहरा’

                                                                        - डॉ. वारिस अंसारी

                       


 सहरा शब्द ही ऐसा शब्द है, जिसे सुनकर लोगों के ज़हन में कोई खुशी जैसा एहसास नहीं होता क्योंकि इस शब्द के माने ही जंगल, रेगिस्तान, बियाबान आदि के हैं। अगर इस शब्द के साथ दर्द को जोड़ दिया जाए तो ज़हनो-दिल में यूं भी दर्द का एहसास व जज़्बात बेदार हो जाते हैं। मोहतरमा तलअत जहां सरोहा ने अपनी अफसानों की किताब का नाम ही ’दर्द-ए-सहरा’ रखा है। ये नाम ही उनकी अदबी सलाहियत को समझने के लिए काफी है। उनके अफसानों में इंसानी एहसासत और जज़्बात का जिस तरह इज़हार किया गया है वह काबिले-तारीफ है। वह बेजा शब्दों के इस्तेमाल से गुरेज़ करती हैं। उनके यहां शब्दों का चयन इस तरह किया गया है कि कारी (पाठक) रवानी से पढ़ता चला जाए और बोझ भी न महसूस करे। उनके एक अफसाना की चंद लाइनें देखते चलें- ‘मेरे सब्र का पैमाना लबरेज़ हो चुका था, मैंने उस नवजवान की मरम्मत करने का फैसला कर लिया और दांत पीसता हुआ आगे बढ़ा और उस नवजवान के आगे जा कर उसका कलर पकड़ा। एक ज़ोरदार घूंसा मरना ही चाहा था कि मेरी बीबी ने बिजली की तरह आ कर मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर से चीखी अरे..... अरे.....ये क्या कर रहे हैं आप , क्या बिगाड़ा है इन्होंने आपका।’ 

    वह इंसानी दर्द को इस तरह कागज़ पर उकेरती हैं कि लोग सोचते भी हैं और दर्द का महसूस भी करते हैं। उनके अफसानों में उनका लहजा, ज़बान (भाषा) और किरदार सब कुछ बिल्कुल अलग अंदाज़ में है। यही सब चीजें दीगर लोगों से उनको मुनफरिद बनाती हैं। कहा जाता है की समाज अदब का आइना है और अदब समाज का आइना। इस कहावत को तलअत ने पूरी तरह से साबित कर दिया। उनके अफसानों में समाजी मसाइल, ऊंच-नीच, लोगों का दर्द, अखलाक सब कुछ देखने को मिलता है। जिसे एक बार ज़रूर पढ़ना चाहिए। हार्ड कवर के साथ 152 पेज की इस किताब को सिटी प्रिंटर्स मालेगांव से कंपोज कराकर जावेद खान सराहा एंड ब्रदर्स ने प्रकाशित किया है। कंप्यूटर डिजाइन मो. जुनैद अशफाक अहमद और कवर की डिजाइन मो. अज़ीज़ अशफाक अहमद ने की है। इस किताब की कीमत मात्र 200 रुपए है। 


तनक़ीदी फलक का रौशन सितारा डॉ. कहकशां



तनक़ीद अरबी ज़बान का शब्द है, जिसके मानी खरे और खोटे की पहचान करना होता है। तनक़ीद एक ऐसी सिन्फ है जिसमें किसी शख़्स या चीज़ या सिन्फ पर मजबूत दलील के साथ उसके असरदार पहलुओं को उजागर किया जाता है। किसी भी शय का सिर्फ़ खामियां बयान करना ही तनकीद नहीं है, बल्कि उसकी खामियां और खूबियां दोनों बयान होनी चाहिए तब मुकम्मल तनकीद मानी जाती है। और इस तरह की सारी खूबियां डा.कहकशां इरफान में मौजूद हैं, जो एक तनक़ीद निगार में होनी चाहिए। डॉ.कहकशां ने बीसवीं सदी के चंद अहम लोगों फिक्शन (नॉवेल) पर जो राय दी है वह क़ाबिले-तारीफ है। उन्होंने अपनी किताब ‘उर्दू फिक्शन ताबीर-ओ-तफहीम’ में इक्कीसवीं सदी के जदीद तरीन अफसाना निगारों पर भी खुल कर बात की है। वर्तमान लोगों पर खुल कर बात करना ही उनको एक बड़ा तनकीद निगार बनाता है। अदब समाज का आइना होता है और अदीब समाज का एक जिम्मेदार शख़्सियत की हैसियत रखता है लेकिन उससे भी बड़ी शख़्सियत वह है जो अदबी कारीगरों के कारनामों पर अपने कलम का लोहा मनवाये और ऐसा कमल खुदा ने डॉ. कहकशां इरफान के कलम को बख्शा है। सन 1980 में जिला मऊ नाथ भंजन एक कस्बा फिरोज़पुर में पैदा हुई डा. कहकशां ने डी. फिल की डिग्री हासिल की। जिनका पहला तनक़ीदी मकाला नई दिल्ली और दूसरा पाकिस्तान से प्रकाशित हुआ। खूबसूरत हार्ड जिल्द के साथ उनकी किताब ‘उर्दू फिक्शन ताबीर ओ तफहीम’ में 188 पेज हैं। कवर पेज को टीम अर्शिया पब्लिकेशन दिल्ली और किताब को शैख एहसानुल हक ने कंपोज किया, जिसे अर्शिया पब्लिकेशन दिल्ली से सन 2020 में प्रकाशित किया गया। किताब की कीमत मात्र 200 रुपए है। मज़ामीन का शौक रखने वालों को एक बार ये किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए।

 (गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित)


सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

1942 में झांसी से शुरू हुआ था दैनिक जागरण

पूर्णचंद्र गुप्त थे इस हिन्दी अख़बार के पहले संस्थापक संपादक

वर्तमान समय में देश के 11 राज्यों से प्रकाशित हो रहा है अख़बार

                                                           - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी 


 दैनिक जागरण के संस्थापक पूर्णचंद्र गुप्त

    देश को आज़ाद कराने से लेकर इसके लोकतांत्रिक मूल्यों को कायम रखने तक में अख़बारों का प्रमुख योगदान रहा है। वर्ष 1947 से पहले तक अख़बारों का प्रकाशन बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य था। इसके बावजूद देश में बहुत से हिन्दी और उर्दू के अख़बार प्रकाशित होते रहे थे। तब बार-बार इन अख़बारों के मालिकों को प्रताड़ना का सामना करना पड़ता था। इनके मालिकों को गिरफ्तार करके उन्हें जेल भी भेज दिया जाता था। अंग्रेज़ी हुकूमत में कई संपादकों को सूली पर भी चढ़ा दिया गया था। इसके बावजूद देश को आज़ाद कराने और लोगों तक सही जानकारी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से अख़बारों का प्रकाशन किसी न किसी तरह  होता रहा। 

  देश में आज़ादी के आंदोलन की आग जल रही थी। उसी माहौल में हिन्दी के प्रमुख अख़बार ‘दैनिक जागरण’ के प्रकाशन की शुरूआत वर्ष 1942 में झांसी से हुई। तब झांसी संयुक्त प्रांत का एक जिला था। बाद में संयुक्त प्रांत का नाम बदलकर उत्तर प्रदेश हो गया। एक छोटे से कमरे में संस्थापक संपादक पूर्णचंद्र गुप्त ने देश को आज़ाद कराने और लोगों को सही सूचना प्रदान कराने के उद्देश्य से अख़बार की शुरूआत की थी। सीमित संसाधन और लुका-छिपी के माहौल में अख़बार निकालना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य था, लेकिन पूर्णचंद्र गुप्त ने इस चुनौती को स्वीकार किया। इसके साथ ही ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान अख़बार का प्रकाशन निलंबित भी किया गया था।




 झांसी से अख़बार के प्रकाशन की शुरूआत होने के बाद 21 सितंबर 1947 से इसका प्रकाशन कानपुर से शुरू हुआ। उस समय पूर्णचंद्र गुप्त विज्ञापन के लिए खुद ही देश के प्रमुख शहरों का दौरा करते थे, इसके साथ ही  पत्रकारों को अपने अख़बार से जोड़ते थे। पूर्णचंद्र गुप्त ने अपने छोटे भाई गुरुदेव गुप्त के साथ मिलकर दैनिक जागरण का प्रकाशन 1953 में रीवां और 1956 में भोपाल से शुरू किया। वर्ष 1950 से ही अख़बार को प्रमुख रूप से विज्ञापन मिलना शुरू हो गया था। ‘द इंडियन प्रेस ईयर बुक’ के 1956 संस्करण में दावा किया गया था कि इस अख़बार का प्रसार 21,000 तक पहुंच गया है। यह प्रसार संख्या उस समय के लिए बहुत बड़ी बात थी। वर्ष 1960 में पूर्णचंद्र गुप्त ‘क्लब इंडियन एंड ईस्टर्न न्यूज़पेपर सोसाइटी’ के सदस्य हो गए। इसके बाद इन्होंने अपने पुत्रों नरेंद्र मोहन, योगेंद्र मोहन, महेंद्र मोहन और धीरेंद्र मोहन को अख़बार से जोड़कर इन्हें विभिन्न प्रकार से प्रबंधन की जिम्मेदारी दी। अन्य पुत्र देवेंद्र मोहन और शैलेंद्र मोहन को दूसरे व्यवसाय की जिम्मेदारी दी। 

  वर्ष 1975 में इस अख़बार का गोरखपुर संस्करण भी शुरू हो गया और इसके बाद वाराणसी संस्करण भी शुरू हुआ। 25 जून 1975 को जब इमरजेंसी लागू हुई तो पूर्णचंद्र गुप्त सहित नरेंद्र मोहन व महेंद्र मोहन को जेल भेज दिया गया। तब अख़बार का संपादकीय पेज खाली छपा था। उस पेज पर सिर्फ़ इतना छपा था-‘नया लोकतंत्र’, ‘सेंसर लागू’, ‘शांत रहें’। वर्ष 1979 में अख़बार का लखनऊ और इलाहाबाद संस्करण शुरू हुआ। दैनिक जागरण का दिल्ली संस्करण 1990 से प्रारंभ किया गया। वर्ष 1993 में अलीगढ़, 1997 में देहरादून और 1999 में जालंधर से भी अख़बार का प्रकाशन शुरू हुआ। 1995 में इसका प्रसार 0.5 मिलियन से अधिक हो गया। अखबार पूरे उत्तर प्रदेश और नई दिल्ली में 12 स्थानों से प्रकाशित होने लगा। 1999 के राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण में दैनिक जागरण को पाठक संख्या के मामले में शीर्ष पांच समाचार पत्रों में शामिल होने वाला पहला हिंदी भाषा का समाचार-पत्र माना गया। उस समय दक्षिण भारत के अख़बार हिंदी अख़बारों के मुकाबले पाठक संख्या के आंकड़ों पर हावी थे। वर्ष 2003 में रांची, जमशेदपुर, धनबाद, भागलपुर और पानीपत शहरों से अख़बार छपने लगा। 2004 में लुधियाना और नैनीताल, 2005 में मुजफ्फरपुर, धर्मशाला और जम्मू संस्करण भी शुरू हो गए।

 वर्ष 1974-75 में पूर्णचंद्र को ‘ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन’ का चेयरमैन बनाया गया था। इसके बाद प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया का भी चेयरमैन बनाया गया। 16 सितंबर 1986 को पूर्णचंद्र गुप्त का निधन हो गया। इसके बाद इनके पुत्रों ने अख़बार की जिम्मेदारी पूरी तौर पर संभाल ली। नरेंद्र मोहन को राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया और वे वर्ष 1996 से 2002 तक राज्य सभा सदस्य के रूप में कार्य करते रहे। वर्ष 2006 में महेंद्र मोहन को राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया गया और वे वर्ष 2012 तक राज्य सभा के सदस्य रहे। नरेंद्र मोहन का वर्ष 2002 में निधन हो गया। इसके उपरांत महेंद्र मोहन गुप्त ने अख़बार की जिम्मेदारी संभाली। और वह आगे भी दायित्व को बखूबी निभा रहे हैं। योगेंद्र मोहन का वर्ष 2021 में निधन हो गया। 

 उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, पंजाब और हिमाचल प्रदेश समेत 11 राज्यों से वर्तमान समय में दैनिक जागरण अख़बार का प्रकाशन हो रहा है। इसके अलावा इसी समूह का पंजाबी भाषा में दैनिक जागरण, उर्दू में ‘इंक़ि़लाब’ और हिन्दी में ‘नई दुनिया’ नामक अख़बार भी प्रकाशित हो रहे हैं।(


( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित)


शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

अब राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार देश में कहीं नहीं दिखते: क़मर आग़ा

मूलत: इलाहाबाद के रहने वाले क़़मर आग़़ा दिल्ली में निवास कर रहते हैंं। आप अंतरराष्ट्रीय मामलों के जाने-माने जानकार, रक्षा विशेषज्ञ और स्तंभकार हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, दि हिन्दू, हिन्दुस्तान टाइम्स, नेशनल हेराल्ड के साथ-साथ वाशिंगटन पोस्ट समेत कई देशों के अख़बारों के लिए नियमित लेखन किया है। बीबीसी, वायस ऑफ अमेरिका, जर्मन टीवी डीडब्लू सहित देश-विदेश के कई टीवी चैनेल से जुड़े रहे हैं। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान समेत कई देशों की सरकारों के प्रमुखों के आपने बहुत बेबाक इंटरव्यू किए हैं। जेएनयू के साथ-साथ अमेरिका सहित कई देशों की कई यूनिवर्सिटी में आप विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। क़मर आग़ा के इलाहाबाद प्रवास के दौरान अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंश -

 क़मर आग़ा से बातचीत करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’।


सवाल: इलाहाबाद के प्रयागराज होने के साथ-साथ, समय में आ रहे तेज बदलाव का सांझी संस्कृति के इस शहर के लोगों की सोच और आबो-हवा पर पड़ रहा प्रभाव किस दिशा में जा रहा है? 

जवाब: पूरे भारत में अगर बदलाव आ रहा है, तो यह बदलाव इलाहाबाद में भी नजर आएगा। बदलाव तो हर समय, हर समाज में आता रहता है। अगर बदलाव नहीं आएगा तो समाज रुग्ण समाज हो जाएगा। बदलाव अच्छा है या डिके की तरफ जा रहा है, यह देखने की ज़रूरत है। इलाहाबाद एक यूनिक शहर है। इलाहाबाद क्षेत्र में सेकुलर, प्रोग्रेसिव जनता है और यहां कल्चरल डायवर्सिटी बहुत है। यहां की भाषा, हिन्दी और उर्दू और स्थानीय भाषाओं का सुंदर मिक्चर है। मैं हिन्दी के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन भाषाई विकास के दृष्टिकोण से, स्थानीय भाषाओं और हिन्दी  का साथ ज़रूरी है। स्थानीय भाषाओं जैसे अवधी आदि का संरक्षण बहुत जरूरी है। अवधी भाषा बहुत सुन्दर है। जिसके ऊपर अब कुछ काम नहीं हो रहा है। इलाहाबाद कल्चरल हब था। एक जमाने में दो किस्म के पापुलर कल्चर,  म्यूजिक  और फेस्टिवल, जिसमें पतंगबाजी, कबूतरबाजी, कुश्ती-कबड्डी आदि भी शामिल थे, बहुत जोर-शोर से नजर आया करते थे। पूरे अवध में यही कल्चर था। संगीत समिति में संगीत के प्रोग्राम भी बहुत अच्छे होते रहते थे। म्यूजिक में क्लासिकल म्यूजिक, सेमी क्लासिकल म्यूजिक, आदि का यह गढ़ था। आजकल संगीत समिति के साथ-साथ नार्थ कल्चरल सेंटर जोन यहीं है। उनकी शानदार एक्टीविटी, हस्तशिल्प मेला के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन में नजर आती रहती है। मेला तो भारत में बहुत इम्पार्टेंट आस्पेक्ट है। यहां होने वाला माघ मेला और कुंभ मेला, से बड़ा मेला तो शायद पूरे दुनिया में कहीं  नहीं होता है। अगर भारत को समझना है तो ये मेला देखना बहुत जरूरी है। मैंने तो कई बार देखा है। जनसंख्या में वृद्धि और बेहतर जीवन की चाह में, गांव-देहात से शहरों में, शहर से बड़े कास्मोपोलेटिन शहरों में, माइग्रेशन के कारण, बहुत असर हो रहा है। शिक्षा-रोजगार के चक्कर में, गांव और दूसरे शहरों से बड़ी संख्या में, बाहर से बहुत लोग आ कर, इलाहाबाद में बस गए हैं।  इस वजह से इलाहाबाद का पुराना अर्बन कल्चर, अब खो गया सा लगता है। माइग्रेशन के कारण, भाषा खान-पान सहित सब चीजों पर असर हो रहा है। ग्लोबलाइजेशन का भी असर है। 

सवाल: इलाहाबाद के राजनीतिक माहौल में आए बदलाव को कैसे देखते हैं ?

जवाब: क ज़माने में इलाहाबाद नेशनल मूवमेंट का हेडक्वार्टर जैसा हुआ करता था। गांधी-नेहरू एवं कांग्रेस के सारे बड़े लीडर की गतिविधियों का इलाहाबाद केंद्र था। बड़े-बड़े लीडरों के आने-जाने से, शहर पर भी काफी इम्पैक्ट था। आप शहर का ट्रांजीशन देखिए,  फ्यूडल माहौल से निकल कर इलाहाबाद, नेशनल मूवमेंट की वजह से माडर्न शहर हो गया था। क्योंकि उस जमाने में नेहरू बात कर रहे थे साइंटिफिक टेम्पर, कल्चरल माडर्नाएजशन की, इंडस्ट्रियलाइजेशन की। इसी शहर से यह मूवमेंट निकला था। यहां पर दो बड़े अखबार थे, लीडर और नार्दर्न इंडिया पत्रिका, जिनका नेशनल मूवमेंट में बहुत बड़ा रोल है। बहुत बड़ा वर्ग था जो इंग्लिश अखबार पढ़ता था, इंग्लिश बोलता था। लेकिन अब वो बात नहीं रही।

सवाल: इलाहाबाद में हो रहे इस बदलाव का पत्रकारिता और साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?

जवाब: जर्नलिज्म तो है लेकिन वो स्तर नहीं दिख रहा है कम्पटीशन भी नहीं है। यहां भी नहीं है, नेशनल लेविल पर भी नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में उस जमाने में डॉ राम कुमार वर्मा, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी  निराला, फ़िराक़ गोरखपुरी आदि इस शहर की शान हुआ करते थे। पर आज के दौर में इनके स्तर का साहित्यकार न तो इलाहाबाद में, और न ही राष्ट्रीय स्तर पर कहीं दिखाते हैं। आज आप उर्दू में फ़िराक़ जैसा पोएट या फ़ारूक़ी साहब जैसा राइटर या हिंदी में महादेवी वर्मा और निराला जैसा साहित्यकार क्या दिखा सकते हैं?

सवाल: देश को कई प्रधानमंत्री तथा प्रदेश को मुख्यमंत्री देने वाले इलाहाबाद के राजनेताओं की राष्ट्रीय स्तर पर अब वह पहचान नहीं रही। इसका क्या कारण है ?

जवाब: राजनीति अब प्रोफेशन बन गई है। पहले राजनीति में वो लोग आते थे जो अपने जीवन में सेक्रीफाइस किया करते थे। सेवाभाव ही उनके काम का आधार होता था। मुल्क को अच्छा बनाना, उनका उद्देश्य होता था। राष्ट्र की तरफ कमिटमेंट होता था। अब एक बड़ा सेक्शन या ग्रुप जो इस क्षेत्र में आ रहा है, उसका नियत कुछ और होता है। वो बार-बार पकड़ा भी जा रहा है, रेड पड़ रही है। लीडरशिप, अगर कम्प्रोमाइज कर लेगी तो बड़ी मुश्किल होगी। पोलिटकल पार्टीज की कोई स्थिर आइडियोलॉजी न होना भी एक समस्या है। अगर कोई आइडियोलॉजी है तो बस एक कि किसी तरह से सत्ता में आ जाएं। कास्ट सिस्टम ने भी ऐसा बांट दिया है कि एक बहुत बड़ा सेटबैक हो गया है। बीजेपी की कसेंट्रिस्ट पालिटिक्स थी, जहां से इमर्ज हुई थी, वो अब कहीं न कहीं कम्प्रोमाइज हो गई है।

सवाल:  पिछले कुछ वर्षों से भारतीय पत्रकारिता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। देश की पत्रकारिता के साथ-साथ दुनिया के अन्य देशों की पत्रकारिता को आप किस रूप में आप देख रहे हैं? क्या अब पूरी दुनिया की पत्रकारिता सत्तापक्ष की ओर उन्मुख और हिमायती हो रही है?

जवाब: पत्रकारिता का रूप बदल गया है। अब कोई भी अख़बार बगै़र सरकारी सपोर्ट के नहीं चल सकता। रेवन्यू की बहुत ज़रूरत होती है। 24 घंटे न्यूज चैनल की, टीवी पर शुरुआत के साथ ही, इनके सामने अर्थाभाव की समस्या आने लगी। इनको सुचारू रूप से चलाने के लिए, बहुत पैसा लगता है। इसकी वजह से, बहुत ज्यादा विज्ञापन की आवश्यकता होती है। सरकार से लड़कर आप इन्हें ज्यादा समय तक नहीं चला सकते। दूसरी तरफ सरकारों को भी बहुत ज्यादा आलोचना पसंद नहीं है। अगर आलोचना नहीं होगी तो सरकार को सही ख़बर भी नहीं मिलेगी। इससे सबसे ज्यादा नुकसान सत्ता दल या सरकारों को ही होता है। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान जब मीडिया पर बैन लगाया तो उनको सही खबर ही नहीं मिली कि देश में क्या हो रहा है। अख़बार से ही इंटेलीजेंस को भी खबर मिलती है, जिसे वो फरदर डेवलप करते हैं। ये एक ऐसा स्तंभ है कि अगर इससे ज्यादा खिलवाड़ किया जाएगा तो इसका असर रूलिंग पार्टाे या देश की पालिटिक्स पर ही ज्यादा होगा। यह ज़रूरी है कि इसको किसी तरह से आजाद रखा जाए। ये सारे न्यूज पेपर या मीडिया हाउस, सब बड़े बड़े बिजनेस घरानों के हैं इसका उपयोग वो प्रोगवरनमेंट के रूप में करते हैं। बड़े-बड़े प्रोजेक्ट लाने के लिए पी आर की तरह भी इस्तेमाल करते हैं। पहले के ज़माने में होने वाली आबजेक्टिव रिपोर्टिंग अब यहां ही नहीं, ग्लोबली भी नहीं रही। वो भी अब बदल गई है। चाहे बीबीसी हो या अमेरिकन न्यूज पेपर हों या ब्रिटिश न्यूज पेपर हों, ये सब अपने हितों के अनुसार ही रिपोर्टिंग करते हैं, उन्हीं को प्रोमोट करते हैं। आप वाशिंगटन पोस्ट की थर्ड वर्ड के बारे में रिपोर्टिंग देखिए, बहुत खराब है लेकिन इसके बावजूद, वो अपनी बेसिक पालिसी संबंधित कुछ मुद्दों पर कोई समझौता नहीं करते हैं। व्हाइट सुप्रीमेसी संबंधित बातों पर कंडेम तो ज़रूर कर देते हैं, लेकिन उनको बचाने की प्रवृत्ति भी उनमें रहती है। समस्याएं ग्लोबल मीडिया में भी है। दूसरी तरफ सोशल मीडिया आजकल बहुत स्ट्रांग हो गया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो ख़बरें बड़े-बड़े अख़बार नहीं ला पाते, वो यू-ट्यूबर उपलब्ध करा रहे हैं। बहुत से मुद्दों पर उनकी रिपोर्टिंग बहुत रिमार्केबिल होती है। मुझे नहीं लगता कि मीडिया को अब कोई दबा सकता है। अगर मेन स्ट्रीम मीडिया पर आपने किसी खबर को रोक लिया तो देर सबेर, एक दो दिन लेट भले ही हो जाए, पर वह खबर, अल्टरनेट मीडिया के रूप में मौजूद सोशल नेटवर्क पर ज़रूर आ जाएगी। लोगों के पास हर वक़्त कैमरा है, रिपोर्टिंग 24×7 भी हो रही है। बहुत से मुद्दों जैसे इवायरमेंट, हेल्थ, एजुकेशन आदि पर इतना इंफारमेटिव रिपोर्टिंग है कि आप सोच भी नहीं सकते। 


सवाल: वर्तमान पत्रकारिता, में सामाजिक परिस्थितियों के चित्रण को आप किस दृष्टि से देखते हैं। वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों/सौहार्द को सुधारने मे यह कैसे मददगार हो सकती है।

जवाब: मीडिया के बहुत से फार्म्स हैं। मेन स्ट्रीम मीडिया ने अपने आपको काफी हद तक, कम्प्रोमाइज किया है। मेन स्ट्रीम मीडिया में बहुत से मुद्दे नहीं उठ रहे हैं। प्रिंट मीडिया के अलावा टीवी, सोशल मीडिया, आदि, मीडिया के बहुत से फार्म है। आजकल विभिन्न विषयों पर बहुत उच्च क्वालिटी की बहुत इन्फार्मेटिव डाक्यूमेंटेरी बन रही है, लेकिन अफसोस है कि बहुत कम लोग इन डाक्यूमेंटेरी को देख रहे हैं। इन चीज़ों को आप दबा नहीं सकते। भारत के अंदर जिसने भी इनकी आज़ादी से ज्यादा खिलवाड़ किया, उसके लिए मुश्किल हो जाएगी। यहां डेमोक्रेसी बहुत नीचे तक लगभग रूट लेवल तक है। कुछ दिनों कुछ समय के लिए कोई मामला इधर उधर हो सकता है परंतु कुछ समय पश्चात समाज स्वयं ही इसे सही कर लेता है। उसका कारण है कि यहां पर अधिकतर लोग मध्यम वर्ग है जो न तो वामपंथी है और न ही दक्षिणपंथी है बल्कि मध्यमार्गी है। यह बुद्ध के समय से ही चला आ रहा है। और यह स्थिति, केवल एक कम्यूनिटी में ही नहीं बल्कि यहां की सभी कम्यूनिटी में है।


बाएं से: क़मर आग़ा, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। 


सवाल:  विगत कई वर्षों से दुनिया के किसी न किसी हिस्से में युद्ध की स्थिति बनी हुई है। दुनियाभर में हथियार निर्माण में लगे बड़े-बड़े संस्थानों द्वारा बनाए जा रहे हथियारों की खपत के लिए, क्या युद्ध का लगातार होते रहना एक अनिवार्यता बन गई है ? 

जवाब: नहीं, ऐसी बात नहीं है। जो आपने कहा उसका यह केवल एक हिस्सा ही है। युद्ध से हथियार निर्माता कंपनियों को फायदा अवश्य होता है लेकिन केवल यही एक वजह नहीं है। मुख्य बात है कि अमेरिका का पावर डिक्लाइन हो रहा है और जब किसी बड़ी पावर का डिक्लाइन होता है तो वो इतनी आसानी से नहीं मिट सकता। उसके पास अथाह ताक़त होती है। उसकी कोशिश होती है कि वह अपने ताकत से अपनी पालिसी को मनवाए, अपने हितो की रक्षा करे। अमेरिका की विदेश नीति बहुत मिलेट्राइज्ड हो गई है। अत: अगर वो डिप्लोमेसी से अपना मकसद हल नहीं कर सकते तो उनकी कोशिश होती है कि येन-केन-प्रकारेण इसको हल करो। तेल उत्पादक देशों की सरकारें, अगर तेल देने को तैयार नहीं है, अगर वो बातें नहीं मानते तो इन देशों पर सैंक्शन लगा दो, कमजोर करो। जनता अगर सत्ता नहीं बदल रही तो अटैक करके सत्ता बदल दो। अफगानिस्तान, इराक में इन्होंने सत्ता बदली लेकिन इनके मकसद नहीं कामयाब हुए। प्रो-अमेरिका सरकार नहीं बना पाए। ईरान में भी इनकी कोशिश कामयाब नहीं हुई। वियतनाम, कम्बोडिया में सालों युद्ध चला। लाखों लोग मारे गए। कई शहर बरबाद हो गए, रीजिम नहीं चेंज हुआ।  अब मल्टी पोलर विश्व इमर्ज हो रहा है और ये नहीं चाहते कि विश्व मल्टी पोलर हो। ये चाहते हैं कि इनका सुपर पावर स्टेटस बरकरार रहे। इनको लगता है कि रूस और चीन बड़े पावर के रूप में इमर्ज हो रहे हैं तो उनको इनसर्किल करो, कमजोर करो। सबसे बड़ी बात ये है कि यूरोप और अमेरिका की टेक्नोलॉजी पर जो पकड़ थी वो अब धीरे-धीरे कम हो रही है। रूस अपनी तकनीकी के बल पर आटोमोबाइल रक्षा आदि क्षेत्रों में मजबूत और सस्ते उत्पाद बना रहा, जिनके स्पेयर पार्ट भी बहुत सस्ते हैं। अत: रूस को रोकने के लिए यूक्रेन को, उसके विरुद्ध खड़ा कर दो, रूस यूक्रेन में युद्ध करा दो।

सवाल: यूक्रेन, इजराइल, ताइवान आदि युद्धग्रस्त देशों के लिए अमेरिका में 95 बिलियन डालर की मदद का एक फंड पास हुआ हैै जिसका लगभग 90 प्रतिशत हथियार संबंधित मदद और लगभग 10 प्रतिशत मानवीय सहायता के रूप में है। यह मदद क्या युद्धों को और भड़काकर मानवता को उसके निम्नतम स्तर पर ले जाने का कुत्सित प्रयास नहीं है ?

जवाब: इन बड़ी ताक़तों को मानवता की कोई फिक्र नहीं है। गाज़ा मे क्या हो रहा है? ये कहते हैं कि हम कानून और नियमों पर आधारित, वेस्टर्न सिविलाइजेशन के पार्ट हैं। ह्यूमेन राइट्स, वीमेन लिबरलाइजेशन की ये बात करते हैं और देखिए कि गाज़ा में मरने वालों में 50 प्रतिशत औरत और बच्चे हैं। ह्यूमेन राइट्स की ये बात जरूर करते हैं पर दूसरे देशों में ये केवलअपने हित की रक्षा करते हैं। गाजा में मानवीय सहायता के रूप में दी गई मदद भी इजराइल के द्वारा ही गाज़ा तक पहुंचेगी। अत: ज़रूरतमंदो तक कितनी मदद पहुंचेगी कहा नहीं जा सकता। अमेरिकन हितों को प्रोटेक्ट करने की वजह से, इजराइल, अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन अब इजराइल, अमेरिका के लिए भी लाइबेलिटी बन गया है। इसलिए कि अमेरिका ने अपने हितों को प्रोटेक्ट करने के लिए तमाम अरब देशों में सेना डिप्लॉय कर दी है। अब इस समय इजराइल को बचाने के लिए अमेरिकन सेना चारों तरफ बिखरी हुई है। पर्शियन गल्फ में बहुत बड़ी अमेरिकन सेना तैनात है कि कहीं ईरान स्टेट आफ होरमुज़ को बंद न कर दे। तेल की सप्लाई डिस्टर्ब न कर दे। लाल सागर में हूती विद्रोहियों को रोकने के लिए अमेरिकन नेवी तैनात की है। ईस्टर्न मेरीटियन में हिज्बुल्ला और ईराकी मिलीशिया के आक्रमण को रोकने के लिए सेना लगाई गई है। इजराइल को प्रोटेक्ट करने के लिए प्रतिदिन बिलियन डालर का खर्च हो रहा है। इसका प्रभाव अमेरिकन अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। मिलेट्री इंडस्ट्रियल कांप्लेक्स अमेरिका में सबसे पावरफुल लाबी हैं। ये चुनाव में बड़ी-बड़ी फंडिंग भी करते हैं। इन सब कारणों से अमेरिकन हथियारों की बिक्री होते रहना चाहिए।

सवाल: क्या इन परिस्थितियों में बदलाव की कोई गुंजाइश नजर आती है?

जवाब: बदलाव को बड़ी ताकतें स्वीकार नहीं करती जब तक वो पिट न जाएं। इसके बावजूद  बदलाव वहां भी आ रहा है जो दो तरफ से है एक तो अमेरिकन यंग पब्लिक को लग रहा है कि गाज़ा और दूसरी जगहों पर गलत हो रहा है। इससे अमेरिका बदनाम हो रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। अमेरिका में भी राइटविंग बहुत मजबूत है। ट्रंप ग्रुप बहुत रेसिस्ट है, उनके दिल में थर्ड वर्ड के लिए कोई जगह ही नहीं है। वो चाहते हैं, कि सभी अश्वेत लोगों को अमेरिका से बाहर निकाल दिया जाएं।

सवाल:  दुनिया भर में तेल के भूमिगत स्रोतों में तेल की मात्रा में आती हुई लगातार कमी के कारण अरब देशों, विशेषकर सउदी अरब में आर्थिक सुधार संबंधित क्या बदलाव आ रहे हैं

जवाब: सऊदी अरब की आर्थिक नीति में बहुत बड़ा बदलवा आ रहा है। वो एक नई पालिसी, विजन 2030 ला रहे हैं। जिसमें अपनी आर्थिक निर्भरता को तेल से हटाकर, रेवन्यू जनरेट करने के अन्य क्षेत्रों में ले जा रहे हैं। रूस, चीन आदि देशों की मदद से टूरिस्ट हब, इंडस्ट्रियल टाऊन आदि विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। डिफेंस आइटम बनाने का भी प्लान है। एक नया बदलाव अरब देशों में आ रहा है। ये इसलिए कर रहे हैं कि अमेरिका और अन्य देशों से पढ़कर आए लोकल युवा लोगों को रोजगार भी मिले। 

सवाल:  भारत के हितों को देखते हुए  पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान,  श्रीलंका, मालदीव, बंगलादेश, भूटान एवं नेपाल पर चीन के प्रभाव का आप कैसे मूल्यांकन करते हैं?

जवाब: चाइना का प्रभाव इस क्षेत्र में तेजी से बढ़ रहा है। चीन के पास बहुत ज्यादा सरप्लस मनी है। चीन की नीति है कि भारत को चारों तरफ से घेर लो। इन देशों में इन्वेस्टमेंट के जरिए वहां के सत्ता वर्ग को प्रभावित करो। फिर इतने बड़े बड़े कर्जे दे दो जिसको ये सस्टेन ही, न कर पाएं। फिर जिन देशों को ये लोन देते हैं उन देशों से कहते हैं कि आप भारत का साथ छोड़कर हमारे साथ आ जाओ। इनकी विदेश नीति को भी प्रभावित करते हैं। मगर ये सारे क्षेत्र हजारों साल से भारत के साथ जुड़े हुए हैं और चीन की इसमें नई इन्ट्री है। इसलिए हम देखते हैं कि अगर प्रोचाइना सरकार किसी देश में आ भी जाती है तो अगले इलेक्शन में दुबारा भारत समर्थक सरकार हो जाती है। ये टसल इन देशों में भी बनी है। कुछ समय के लिए, चीन समर्थक नीति भले ही, अपना लें, लेकिन ये देश, भारत विरोधी नीति नहीं अपनाते। पाकिस्तान जरूर इस मामले में अपवाद है।

सवाल:  आप देश-विदेश के विभिन्न मंचो पर आपके व्याख्यान होते रहते हैं। अपने व्याख्यान के दौरान हुई किसी विशिष्ट/महत्वपूर्ण घटना के बारें में हमारे पाठकों को अवगत कराइए।

जवाब: मेरा अनुभव है कि पश्चिमी देशों के लोगों में अभी भी भारत के बारे में बहुत कम जानकारी है। भारत मे रहने वाले डिप्लोमैट्स के अलावा, बहुत बड़े बड़े डिप्लोमैट्स भी भारत के बारे में बहुत नहीं जानते हैं। वो अभी भी समझते हैं कि भारत में गुरबत बहुत है। स्नेक चार्मर आदि का देश है। परंतु अब स्थिति धीरे धीरे बदल रही है। बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग आईटी सेक्टर और अन्य क्षेत्रों में अच्छा काम कर रहे हैं। जिनकी वजह से भारत की इमेज भी बदल रही है। भारत की छवि में बहुत बड़ा पॉजिटिव बदलाव आया है।

सवाल: बंद होती पत्रिकाओं एवं अखबारों तथा समस्याओं से घिरी पत्रकारिता को पेशे के रूप में अपनाने वाले, नये पत्रकारों के लिए आपका क्या संदेश है ?

जवाब:  इस समय, प्रिंट मीडिया का सर्वाइवल, बहुत मुश्किल हो गया है। पाठक घटते जा रहे हैं। लोग पत्र, पत्रिकाएं खरीद नहीं रहे हैं। इंटरनेट पर ही अख़बार पढ़ रहे हैं। छोटी-मोटी पत्रिकाएं तो बहुत ही मुश्किल में है। बड़े समाचारपत्रों का भी हाल खस्ता है। वर्नाक्यूलर न्यूजपेपर और स्थानीय भाषाओं में छपने वाले अखबारों की बहुत बुरी हालत है। सबसे बड़ी बात है कि लोग खरीद कर नहीं पढ़ रहे हैं। जागरूकता नहीं है। यह बदलाव यहीं नहीं, वैश्विक स्तर पर है। गार्डियन जैसा अख़बार में अगर एक ख़बर खोलिए तो नीचे लिखा हुआ नजर आएगा कि हमें आपसे आर्थिक सहयोग की ज़रूरत है। यह समस्या अब वैश्विक स्तर पर है। जर्नलिस्ट लोगों के लिए भी, बड़े मुश्किल का समय है। ये युवक सोचते हैं कि समाज में बदलाव लाएंगे। 12 घंटे-14 घंटे, कड़ी धूप-बरसात में, काम कर रहे हैं। सैलरी-सुविधाएं बहुत कम है। मीडिया हाउस सोचते हैं कि नौकरी देकर एहसान कर दिया है। हालांकि, इनमें सीखने की प्रवत्ति भी धीरे-धीरे कम हो रही है। आजकल के जर्नलिस्टों को उनके कार्य में उपयोगी नई नई तकनीकों को सीखने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। उम्मीद है कि समय के साथ, इस स्थिति में भी बदलाव आएगा।


(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में प्रकाशित)


गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2024 अंक में



4.संपादकीय (वास्तविक साहित्य कहां है ? )

5-6. मीडिया हाउस: 1942 में झांसी से शुरू हुआ दैनिक जागरण- डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

7-10. हिन्दी ग़ज़लों में अंग्रेज़ी के तत्व: डॉ. जियाउर-रहमान ज़ाफ़री

11-13 दास्तान-ए-अदीब:  नई कविता के प्रवर्तक डॉ. जगदीश गुप्त -डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

14-20. ग़ज़लें  अशोक कुमार नीरद, तलब जौनपुरी, अशोक अंजुम, डॉ. राकेश तूफ़ान, डॉ. इम्तियाज़ समर, सचिन आज़ाद, डॉ. माणिक विश्वकर्मा नवरंग, नवीन माथुर पांचोली, अनिल मानव, रचना सक्सेना, सोमनाथ शुक्ला, अब्दुर्रहमान फैसल, राज जौनपुरी, साबिर उस्मानी

21-26. कविताएं अमर राग, यश मालवीय, डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी, विजय लक्ष्मी विभा, डॉ. मधुबाला सिन्हा, अर्चना त्यागी, शबाना रफ़ीक़, डॉ. सरोज राय, शैलेंद्र जय, डॉ.अरूणिमा बहादुर ‘वैदेही’

27-32 इंटरव्यू  क़मर आग़ा

33-36. चौपाल  साहित्यकारों की भागीदारी राजनीति में होनी चाहिए ?

37-41. तब्सेरा  21वीं सदी के इलाहाबादी, भाग-2, चंचल चुनमुन, रसा, ‘झंझावात में चिड़िया, उम्मीद

42-44. उर्दू अदब  दर्द-ए-सहरा, उर्दू फिक्शन ताबीर-ओ-तफहीम, तीर-ए-नश्तर

45-46. ग़ाज़ीपुर के वीर: सिद्धेश्वर प्रसाद सिंह

47-50. अदबी ख़बरें


51-82. परिशिष्ट-! गोविंद पाल

51. गोविंद पाल का परिचय

52-54.  महज वायरस नहीं हैं गोविंद पाल - डॉ. मधुबाला सिन्हा

55-57. वक़्त की बात करती कविताएं - डॉ. अब्दुर्रहमान फैसल

58-59.  हिन्दी के सतत विकास में सघर्षशील कवि - जयचंद प्रजापति

60.-82. गोविंद पाल की कविताएं


83-113. परिशिष्ट-2 : ओमप्रकाश कादयान

83. ओम प्रकाश कादयान का परिचय

84-86. प्रकृति का चितेरा कवि ओम प्रकाश कादयान- डॉ. अनिल गौड़

87-90. हरियाली के प्रहरी कलमकार कादयान- डॉ. भूपेंद्र सिंह

91-92. बहुआयामी व्यक्त्वि के धनी कादयान- रचना सक्सेना

93-113. ओम प्रकाश कादयान की कविताएं


114. परिशिष्ट-3: मंजू लता नागेश

114. मंजु लता नागेश का  परिचय

115-116. कविता उपवन में खुश्बू बिखेरती मंजू लता- शिवाशंकर पांडेय

117-118. काव्य की कई विधाएं रचने वाली कवयित्री-जयचंद प्रजापति

119-120. समाज की बुराइयों पर प्रहार करती कविताएं- अरुणिम बहादुर वैदेही

121-144. मंजु लता नागेश की कविताएं 


शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

लेखकों, पत्रकारों तथा शोधार्थियों के लिए बेहद उपयोगी

                                                                        - अजीत शर्मा ‘आकाश’

 


                                          

 इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी लगभग 20 वर्षों से पत्रकारिता जगत में सक्रिय हैं। पत्रकार होने के साथ ही वह एक शायर, लेखक एवं साहित्यकार भी हैं। इस कारण पत्रकारिता के अतिरिक्त वह सृजनात्मक साहित्यिक लेखन का कार्य भी करते रहते हैं। इसी सृजनात्मक लेखन के फलस्वरूप उनकी पुस्तक ‘यादों का गुलदस्ता’ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुई है। ‘यादों का गुलदस्ता’ नामक इस पुस्तक में 20 वर्षाे के पत्रकारिता कैरियर के दौरान हिन्दी-उर्दू के साहित्यकारों और अन्य विविध क्षेत्रों के प्रमुख व्यक्तियों एवं कलाकारों पर लिखे गये तथा विभिन्न समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेखों एवं संस्मरणात्मक आलेखों को संकलित किया गया है। इन महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय व्यक्तियों ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट उपलब्धियों के माध्यम से ख्याति प्राप्त की है। इनमें से अधिकतर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत तथा राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हस्तियां सम्मिलित हैं। कवियों में महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, कैलाश गौतम, नीलकान्त, डॉ. जगदीश गुप्त, यश मालवीय, अरूण अर्णव आदि सम्मिलित हैं तथा शायरों में फ़िराक़ गोरखपुरी, अकबर इलाहाबादी, मुनव्वर राना, कैफ़ी आ़ज़मी, सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी, इब्राहीम अश्क, अनवर जलालपुरी, कमलेश भट्ट,, डॉ. श्यामसखा श्याम, हरेराम समीप, विज्ञान व्रत आदि सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह जैसे कहानीकार रवीन्द्र कालिया, जैसे पत्रकारों तथा कॉमरेड ज़ियाउल हक्र आदि पर भी लेखनी चली है। 

 पुस्तक के कुछ लेखों तथा आलेखों में टिप्पणियां की गयी हैं, जो वर्तमान समय का सटीक चित्रण करती-सी प्रतीत होती हैं। ये टिप्पणियाँ नव लेखकों तथा कवि-शायरों के मार्गदर्शन हेतु अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होती हैं। यथा-‘कविता की अराजकता के बीच यह देखना ज़रूरी लगता है कि आज कविता के नाम पर क्या-क्या खेल हो रहे हैं, जिन्हें ‘कविता’ का सही अर्थ तक नहीं पता वो भी स्वघोषित महाकवि हो चुके हैं।“......  “आजकल नई कविता के नाम पर छोटी-बड़ी लाइनें लिखी जा रही हैं।“......  “आज मुशायरे में शामिल होने, लोगों के नाम जुड़वाने-कटवाने और मठाधीशी क़ायम रखने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। लोग एक दूसरे की बखि़या उधेड़ने में लगे रहते हैं।“ आदि आदि।

 लेखन-शैली रोचक एवं प्रवाहयुक्त है। लेखों की भाषा साहित्यिक है, जिसमें सामान्य एवं प्रचलित शब्दों तथा वाक्यांशों का प्रयोग भी किया गया है। कुछ लेखों तथा आलेखों के शीर्षक अत्यन्त रोचकता लिए हुए हैं, यथा- निराला के बहाने हो रही कविता की दुर्गति, मुनव्वर राना से जुड़ा तो जुड़ता चला गया, बग़ावती तेवर के शायर साहिर लुधियानवी, कैलाश गौतम जैसा कौन है यहां, कई मायनों में रवीन्द्र कालिया का जोड़ नहीं, इंसानियत के पैकर में ढले अमरकांत,, कौन है अनवर जलालपुरी जैसा नाज़िम आदि। ‘यादों का गुलदस्ता’’ पुस्तक के अतिरिक्त इस प्रकार की जानकारी एवं सामग्री एक ही स्थान पर उपलब्ध हो पाना असम्भव है, इस कारण से भी यह पुस्तक, लेखकों पत्रकारों तथा शोधार्थियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी सि़द्ध हो सकती है। कहा जा सकता है कि यह पठनीय, सराहनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक है। इसे पुस्तकालयों में रखा जा सकता है, जिससे जन सामान्य को भी इस प्रकार की जानकारी प्राप्त हो सके। पुस्तक का मुद्रण एवं गेट अप उत्तम कोटि का है तथा सम्पूर्ण कवर पृष्ठ पर संकलन में सम्मिलित विभिन्न व्यक्तित्वों की फ़ोटो हैं। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि पुस्तक पठनीय, सराहनीय एवं संग्रहणीय कोटि की बन पड़ी है। 160 पृष्ठों की पुस्तक इस सजिल्द पुस्तक को पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत मूल्य 300 रूपये है।


गीता का देवनागरी लिपि में उर्दू काव्यानुवाद


महाभारत के युद्ध के समय मोहग्रस्त अर्जुन द्वारा युद्ध करने से मना किये जाने के कारण भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कर्म व धर्म का ज्ञान प्रदान करने हेतु उपदेश दिये, जिन्हें ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता” नामक ग्रंथ में वर्णित किया गया है। यह अमर ग्रन्थ पुरातन काल से ही भारतीय चिन्तन व अध्यात्म का महत्त्वपूर्ण प्रेरणा-स्रोत रहा है। यह धार्मिक ही नहीं, अपितु एक दार्शनिक ग्रन्थ भी है। इसका अपना अनूठा दर्शन है, जो आज के भौतिकतापरायण, मानसिक तनावों से ग्रस्त तथा जीवन के वास्तविक अर्थ की खोज में भटकते मनुष्य के लिए उतना ही प्रासंगिक है, जितना वह सहस्रों वर्षों से रहा है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ को संक्षेप में ‘गीता’ कहा जाता है। अर्जुन को दिये गये गीता के ये उपदेश मानव का मनोबल बढ़ाते हैं तथा विषमतम परिस्थितियों में भी जीवन-पथ को आलोकित करते हैं।

      गीता में कुल 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। यह अद्भुत् ग्रन्थ मूल रूप से संस्कृत भाषा में रचित होने के कारण इस भाषा का ज्ञान न रखनेवाले व्यक्ति इसके अर्थ तथा मर्म को नहीं समझ पाते हैं। अतः इस प्रकार के व्यक्ति भी इस ग्रन्थ की अमर शिक्षाओं से परिचित होकर लाभान्वित हो सकें, इस उद्देश्य से हिंदी भाषा सहित विश्व की लगभग सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में श्रीमद्भगवद्गीता के अनुवाद किए जा चुके हैं, जिनमें पद्यात्मक अनुवाद भी सम्मिलित हैं। लेखक एवं शायर राम चन्द्र वर्मा ‘साहिल’ ने श्रीमद्भगवद्गीता के संस्कृत श्लोकों के भावों तथा विचारों को उर्दू शायरी के माध्यम से व्यक्त करते हुए इसका मन्ज़ूम तर्जुमा (काव्यानुवाद) प्रस्तुत किया है, जो देवनागरी लिपि में है। इस तर्जुमे के प्रकाश में आने से धर्म और अध्यात्म की में रूचि रखनेवाले उर्दूभाषियों क्रे लिए भी गीता का ज्ञान सुलभ हो गया है। इसके अन्तर्गत गीता के दुरूह श्लोकों का सरल एवं बोधगम्य काव्यानुवाद करने का प्रयास किया गया है। इस तर्जुमे के माध्यम से श्रीमद्भगवद्गीता को हिन्दी और उर्दू के दृष्टिकोण से देखने-समझने का प्रयास भी किया जा सकता है। पुस्तक के अन्तर्गत गीता के कुछ प्रमुख श्लोकों के उर्दू शायरी तर्जुमे के कुछ अंश इस प्रकार से हैं -‘न इसे कोई काट सकता, न जला सकती है आग/न सुखा सकती हवा और न भिगो सकता है आब/ टुकड़े इसके हो न सकते, न ही घुल सकता है यह/ दाइमी है, हर जगह है और है बेऐब भी।’ (बाब-2 श्लोक 23-24), ‘अमल करने का ही अर्जुन हक़ मिला सबको फ़क़त/ अमल का फल पाने का लेकिन नहीं कोई हक़ मिला/ अमल के फल को भी तुम समझो नहीं ख़ुद को वज्ह/ और ना ही अमल करना तुम कभी भी छोड़ना।’ (बाब-2 श्लोक 47)

 आशा की जा सकती है कि गीता का यह मन्ज़ूम तर्जुमा संस्कृत न जाननेवाले या उसका कम ज्ञान रखनेवाले गीताप्रेमी उर्दूभाषियों को मूल संस्कृत पाठ को पढ़ने जैसा ही आनन्द प्रदान कर सकेगा। गीता का यह उर्दू शायरी तर्जुमा पठनीय एवं सराहनीय है। 112 पेज की इस सजिल्द पुस्तक को गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।


काफ़ी आश्वस्त करती हैं शमा की ग़ज़लें 

 


                                     

पुस्तक ‘शम’अ-ए-फ़रोज़ाँ’ शमा फ़िरोज की ग़ज़लों का संग्रह है। लेखिका ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि फ़ेसबुक के साहित्यिक समूहों ने उन्हें ग़ज़ल-लेखन हेतु प्रेरित किया और फ़िलबदीह कार्यक्रम में उन्होंने अशआर लिखना शुरू किया। इन कार्यक्रमों के अन्तर्गत सीखने के इच्छुक रचनाकार को किसी ग़ज़ल की एक पंक्ति दे दी जाती है और उन्हें उसके ’क़ाफ़िया’ और ’रदीफ़’ तथा बह्र के अनुसार अश्आर कहने होते हैं। दी हुई पंक्ति को पूर्ण करने के लिए रचनाकार अपनी पंक्ति उसमें जोड़ता है। इस शे‘र को ‘गिरह का शे‘र’ कहा जाता है। इस प्रकार की ग़ज़ल-रचना करने वाले अधिकतर शायर उस ग़ज़ल में से ‘गिरह के शे‘र’ को हटा देते हैं। इस संग्रह की लगभग सभी ग़ज़लों में शाइरा ने गिरह के शे‘र भी सम्मिलित किये हैं। 

 शायरा ने भूमिका के अन्तर्गत बताया है कि लगभग तीन वर्ष तक ग़ज़ल के विषय में सीखने के उपरान्त उन्होंने ग़ज़लें लिखी हैं। इतनी कम अवधि शायरी की परिपक्वता के लिए कम मानी जाती है, किन्तु संग्रह की ग़ज़लें पढ़ने के पश्चात् ज्ञात होता है कि ग़ज़ल व्याकरण के अनुसार वे लगभग दुरूस्त हैं। हालांकि, ग़ज़लों के ऐब के विषय में रचनाकार को अधिक जानकारी न होने के कारण अनेक ग़ज़लों में देखो, सुनो, दोस्तो, यारो, जानेमन, जानम, सनम, देखिए, जैसे भर्ती के शब्दों की भरमार है। इसके अतिरिक्त ख़ूब बिकती, मत तकब्बुर, फिर रूत, ख़त तुम्हारे, प्यार रहमत, क़यामत तक, गुज़र रहे आदि के प्रयोग के कारण ग़ज़लों में ऐबे तनाफ़ुर (मिसरे में किसी शब्द के अंतिम अक्षर की उसके बाद वाले शब्द के पहले अक्षर से समानता) आ गया है। 

 संग्रह की ग़ज़लें सामान्य प्रकार की हैं, जिनमें सपाटबयानी-सी परिलक्षित होती है। फिर भी रचनाकार शमा फ़िरोज की ग़ज़लें काफ़ी आश्वस्त करती हैं। कथ्य की दृष्टि से देखा जाए, तो ग़ज़लों का वर्ण्य विषय महंगाई, बेरोज़गारी, क्षुद्रता की राजनीति, स्वार्थपरता, सामाजिक विसंगतियाँ आदि है। इसके अतिरिक्त रोमानी शेर भी कहे गये हैं। कुछ शे‘र अच्छे बन पड़े हैं, जिनकी झलक प्रस्तुत है-‘शहरों में जा के देखो गलियों का हाल बदतर/कचरा पड़ा हुआ है और गंदी नालियाँ हैं।’, ‘रूत बहारों की चमन में आ गयी है जानेमन/साथ तेरा है नहीं फिर रूत सुहानी किसलिए।’, ‘तभी तो कोशिशें करते हैं हम दुनिया सजाने की/तमन्ना है हमारी इक नया सूरज उगाने की।’, ‘इधर ग़ुरबत ज़दों पर मुफ़लिसी का भार देखा है/उधर इन लीडरों का दोग़ला किरदार देखा है।’, ‘जो सीख हमने मानी न अपने बुज़ुर्गाे की/उससे ही घर हमारा दरारों में बँट गया।’, ‘खु़शबू में बसे हैं हम महकेंगे फ़िज़ाओं में/खो जाएँगे फिर हम तुम कुदरत के नज़ारों में।’, ‘‘शम‘अ’’ जानी जाती है अब शायरा के नाम से/शायरी ने ही बनाई उसकी यह पहचान है।’ इस पहचान को और अधिक विस्तृत बनाने के लिए इस क्षेत्र में ‘शाइरा’ को अभी और बहुत कुछ सीखना आवश्यक है। आशा की जा सकती है कि अगला संकलन और बेहतर ग़ज़लें लेकर पाठकों के समक्ष आयेगा। पुस्तक का मुद्रण एवं अन्य तकनीकी पक्ष अच्छा है। 112 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक को गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रूपये है।


सामाजिक विसंगतियों के चित्रण की कहानियां



   पुरस्कृत कहानी संग्रह ‘गिरगिट’ के पश्चात् रचनाकार अखिलेश निगम ‘अखिल’ की पुस्तक ‘मेरा हक’ उनका दूसरा कहानी संग्रह है, जिसमें चौदह कहानियाँ संग्रहीत की गयी हैं। संग्रहीत कहानियों में वस्तु एवं शिल्प की विविधता दृष्टिगोचर होती है। साधारण रूप से कहानी के छः तत्व या घटक माने गए हैं- कथावस्तु अथवा कथानक, कथोपकथन अथवा संवाद, चरित्र चित्रण अथवा पात्र, देश-काल-वातावरण, भाषा-शैली और शिल्प तथा उद्देश्य। संग्रह की कथा-रचनाओं में इन समस्त तत्वों को समुचित विकास प्रदान किया गया है। पुस्तक में संग्रहीत कहानियों की भाषा एवं शैली सधी हुई, सरल, सहज तथां बोधगम्य है जिनमें पात्रों के अनुरूप भाषा का प्रयोग किया गया है। सहज एवं स्पष्ट संवाद तथा घटनाओं का सजीव चित्रण की विशिष्टताएँ इन कहानियों में मुख्य रूप से परिलक्षित होती हैं।

    कथावस्तु के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों तथा को भली-भाँति चित्रित करने का प्रयास किया गया है। पुस्तक की पहली कहानी ‘मेरा हक’ किन्नर विमर्श की चर्चा-परिचर्चा पर आधारित है। जिसमें रचनाकार ने समाज की सोच पर एक प्रश्नचिह्न-सा अंकित किया है। ‘सात फेरे’ तथा ‘विवाह की शर्त’ कहानियाँ नशे की समस्या को आधार बनाकर रची गयी हैं। कुछ कहानियाँ अत्यन्त मार्मिक बन पड़ी हैं। कहानियों के पात्र जटिल परिस्थितियों का सामना करते हुए मन में सदैव आशावादी दृष्टिकोण रखते हुए उन्हें पराजित करने का पूर्ण प्रयास करते हैं। कहानीकार ने परिस्थितियों का गहन अवलोकन करते हुए एवं समाधान की दिशा बताते हुए अपनी रचनात्मकता को उच्च आयाम प्रदान किये हैं। इस कारण कोई कहानी मनगढ़न्त किस्सा प्रतीत नहीं होती है।

      चौदह कहानियों में अलग-अलग प्रकार के शिल्प एवं शैलियों का प्रयोग किया गया है। संवाद शैली एवं पत्र शैली कहानीकार के अपने मौलिक शिल्प है, जो ‘आओ चलें’ तथा ‘बिखर गई जिन्दगी’ कहानियों में स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं। ‘रेत के रिश्ते’, ‘मासूम भिखारी’ जैसी मार्मिक कहानियों में पात्रों की चिन्ता, बेबसी, एवं जटिल मनःस्थिति का भलीभाँति चित्रण किया गया है। ‘काल खण्ड’ नामक कहानी संस्मरणात्मक यात्रा वृत्त पर आधारित है, जिसके अन्तर्गत उत्तराखंड के केदारनाथ में आई प्रकृति-प्रलय एवं विध्वंस को दर्शाया गया है। वर्णन की चित्रात्मकता इस कहानी का वैशिष्ट्य है। रचनाकार स्वयं पुलिस विभाग में उच्च पदस्थ अधिकारी हैं, अतः समाज के विभिन्न घटकों और वर्गों के साथ गहरे स्तर पर जुड़े होने के करण समाज के कटु यथार्थ से वे सुपरिचित हैं। अतः कहानियों में अनुभवजन्य यथार्थ की अभिव्यक्ति दृष्टिगोचर होती है। पुलिस अधिकारी के साथ-साथ समाज सुधार की भावना से युक्त संवेदनशील एवं मानवतावादी सोच होने के कारण समस्त कहानियाँ जीवन्त सी प्रतीत होती हैं। यह अवश्य है कि संक्षिप्तता कहानी का अनिवार्य गुण माना गया है। इस दृष्टि से ‘मासूम भिखारी’ कहानी कुछ अधिक लम्बी हो गयी है। ‘सात फेरे’ कहानी में विवाह बन्धन तोड़ने के लिए रामदुलारी द्वारा अग्नि के उलटे फेरे लिए जाना हमारे समाज में अव्यावहारिक तथा अतिशयोक्तिपूर्ण स्थिति उत्पन्न करता है। समाज को सकारात्मक भाव तथा सन्देश प्रदान करने वाली कहानियों का यह संग्रह पठनीय एवं सराहनीय है। 136 पृष्ठों के इस कहानी संग्रह को अमर प्रकाशन, कानपुर ने प्रकाशित किया है, जिसका मूल्य 325 रूपये है।


(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित)


मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

उल्लेखनीय लोगों को अवार्ड देना शहर की पहचान: तिग्मांशु  धूलिया

‘गुफ़्तगू साहित्य समारोह-2024’ में ख़ास लोगों का हुआ सम्मान

अलग-अलग विधाओं की छह किताबों को किया गया विमोचन



प्रयागराज। प्रयागराज की संस्कृति पूरे देश में अपनी अलग पहचान रखती है। साहित्य के बड़े-बड़े मनीषी यहां पैदा हुए हैं, जिनका मूल्यांकन सदिया तक किया जाता रहेगा। ‘गुफ़्तगू साहित्य समारोह-2024’ के अंतर्गत देशभर के साहित्यकारों, पत्रकारों, खिलाड़ियों और अधिवक्ताओं को सम्मानित किया जाना विेशेष मायने रखते हैं। डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी के नेतृत्व में टीम गुफ़्तगू का यह कार्य बहुत ही उल्लेखनीय है। यह काम हमेशा रेखांकित किया जाता रहेेगा। यह बात 17 दिसंबर को साहित्यिक संस्था ‘गुफ़्तगू’ की तरफ़ से सिविल लाइंस बाल भारती स्कूल आयोजित कार्यक्र के दौरान फिल्म निर्माता-निर्देशक और अभिनेता तिग्मांशु धूलिया ने कही। श्री धूलिया ने कार्यक्रम में मौजूद लोगों को अपने हाथों से अवार्ड प्रदान किया।

मुनव्वर राना को ‘अकबर इलाहाबादी’ अवार्ड प्रदान किया गया। इसे अवार्ड को उनके बेटे तबरेज़ राना का ग्रहण किया।


डॉ. गणेश शंकर श्रीवास्तव को ‘कैलाश गौतम अवार्ड’ प्रदान किया गया।

पूर्व पुलिस महानिरीक्षक कवीन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि वर्ष में एक गुफ़्तगू अवार्ड कार्यक्रम का आयोजन किया जाना, बहुत ही महत्वपूर्ण ख़ास है। प्रयागराज की यह ख़ास पहचान है  िकवह लोगों को चुन-चुनकर उनको अवार्ड देता है। गुफ़्तगू टीम मिलकर बहुत ही अच्छा कार्य कर रही है।


फ़रहत ख़ान को ’कुलदीप नैयर अवार्ड’ प्रदान किया गया।


मिल्खा सिंह अवार्ड’ हासिल करते मयंक श्रीवास्तव।

गुफ़्तगू के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि अवार्ड के लिए चयनित करने लोगों से आवेदन मंगाए जाते हैं, उनमें लोगोें चयन पूरी टीम गुफ़्तगू करती है। हमारी कोशिश होती है कि अपने क्षे़त्र में उल्लेखनीय कार्य करने वालों को सम्मानित किया जाए। 


कुलदीप नैयर अवार्ड हासिल करते डॉ. मोहम्मद ज़फ़रउल्लाह।

डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी ने कहा कि आज का आयोजन ऐतिहासिक है। विभन्न प्रदेश के लोगों को बुलाकर उनका सम्मान किया जान ख़ास मायने रखता है।

‘गुफ़्तगू अर्वाउ’ प्राप्त करतीं सम्पदा मिश्रा।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे मशहूर गीतकार यश मालवीय ने कहा कि से सम्मानित होेना रचनाकारों के लिए ख़ास मायने रखता है। यह निराला, महादेवी, फ़िराक़, अकबर, कैलाश गौतम आदि का शहर हैं। आज कार्यक्रम यहां के इतिहास में दर्ज़ हो गया है। ऐसे आयोजन ही शहर की पहचान बनते हैं और आगे चलकर इतिहास में दर्ज़ कर लिए जाते हैं। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ेन किया। हकीम रेशादुल इस्लाम की किताब मरकज़े-नूर, संतोष कुमार श्रीवास्तव की किताब संवदेना, नीना मोहन श्रीवास्तव की किताब मैं कविता हूं, मंजू लता नागेश की किताब अस्तित्व की पहचान, मासूम रज़ा राशदी के सौ शेर और अनिल मानव के चुनिन्दा अशआर का विमोचन किया गया।


इन्हें मिला अवार्ड

अकबर इलाहाबादी अवार्ड 

मुनव्वर राना (मरणोपरान्त)


सुभद्रा कुमारी चौहान अवार्ड 

डॉ. प्रमिला वर्मा (सोलापुर, महाराष्ट्र), रेणु अग्रवाल (उड़ीसा), वेणु अग्रहरि ढींगरा (देहरादून), मंजु शर्मा जांडिग ‘मनु’ (जोधपुर) और डॉ. अन्नपूर्णा वाजपेयी ‘आर्या’ (कानपुर)


कैलाश गौतम अवार्ड 

अखिलेश निगम ‘अखिल’ (लखनऊ), सुभाष पाठक ‘ज़िया’ (शिवपुरी, मध्य प्रदेश), डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा (रायपुर), गणेश शंकर श्रीवास्तव (नई दिल्ली) और अभिनव अरुण (वाराणसी) 


कुलदीप नैयर अवार्ड 

देव प्रकाश चौधरी (अमर उजाला-नोएडा), फ़रहत ख़ान (दैनिक भास्कर), अमरीश कुमार शुक्ला (वरिष्ठ पत्रकार), डॉ. मोहम्मद ज़फ़रउल्लाह (पत्रकारिता विभाग-जामिया मिल्लिया, नई दिल्ली) और गौरव अवस्थी (वरिष्ठ पत्रकार-रायबरेली)


सीमा अपराजिता अवार्ड 

ऋतिका रश्मि (मेहसना, गुजरात), मीना सिंह ‘मीन’ (नई दिल्ली), प्रियंका गहलौत (अमरोहा), सुनीता श्रीवास्तव (सुल्तानपुर) और महिमा त्रिपाठी (प्रयागराज)  


सुधाकर पांडेय अवार्ड 

मोहन राठौर (मशहूर भोजपुरी गायक, मुंबई), बंश नारायण सिंह बनज (दिलदारनगर), सानंद सिंह (ग़ाज़ीपुर), सूरज दीवाकर ( नई दिल्ली) और कमलेश पाण्डेय ‘पुष्प’ (नई दिल्ली)


उमेश नारायण शर्मा अवार्ड

एडवोकेट नितिन शर्मा,  एडवोकेट देवीशंकर शुक्ला, एडवोकेट रविशंकर प्रसाद, एडवोकेट मोहम्मद अहमद अंसारी और एडवोकेट शिवाजी यादव 


मिल्खा सिंह अवार्ड

सोमनाथ चन्दा (फुटबाल), विमला सिंह (एथलेटिक्स), शशि प्रकाश यादव (एथलेटिक्स), नरेन्द्र सिंह बिष्ट (बॉक्सिंग) और मयंक श्रीवास्तव (जिमनास्टिक) 


‘गुफ़्तगू अवार्ड

अवार्ड निहाल चंद्र शिवहरे (झांसी), शिवनंदन सिंह सहयोगी (वाराणसी), डॉ. इम्तियाज़ समर (कुशीनगर), मधुकर वनमाली (मुजफ्फरपुर) और सम्पदा मिश्रा (प्रयागराज) 


शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

                                                    

अदबी बारीकियों का ज़खीरा तनकीदी औराक

                                                                                 - डॉ..वारिस अंसारी 

   


                                      

 तनकीद का शाब्दिक अर्थ आलोचना होता है, लेकिन अदब में तनकीद के माने किसी की बुराई करना नहीं बल्कि उसकी अदबी सलाहियतों की बारीकियों पर नज़र डालना है। तनकीद अदब की वह खूबसूरत छेनी है जो तखलीक या मज़मून को तराश कर और भी खूबसूरत बना देती है। प्रो. शबनम हमीद की किताब ‘तनकीदी औराक़’ में ऐसे ही तमाम शायरों, अदीबों की अदबी खिदमात का जायज़ा लिया गया है, जिसमें फन की बारीकियों, खूबियों और खामियों पर बात की गई है। इस किताब में 16 मज़ामीन हैं,ं जिसमें शायरी, तहकीक, ड्रामा और नावेल वगैरा पर मजमून शामिल हैं। किताब में पहला मजमून ‘हाली बहैसियत मोहक्किक ग़ालिब’ के उनवान (शीर्षक) पर है जिसमें मौलाना हाली की तनकीद निगारी पर जबरदस्त तरीके से बात की गई है। किताब में शामिल दूसरा मजमून नई नज़्म पर है, जिसमें नई नज़्म के हवाले से बात की गई है। अहदे हाज़िर में ‘दास्तान की अहमियत’ पढ़ने लायक मजमून है, जिसमें मोसन्निफह शबनम हमीद ने दास्तान को लेकर बड़ी बात कही कि ‘अदब की हर शाख किसी न किसी सूरत में हर ज़माने में मुफीद ही साबित होती हैं। ड्रामा पर चार मजमून हैं जबकि एक मजमून ड्रामा निगार पर भी पढ़ने को मिला। इनके अलावा एक मजमून दो ज़बानों की तारीख़ से ताल्लुक रखता है।’ 

   मुसन्निफह प्रो. शबनम हमीद ने बड़ी ही मेहनत से ‘तनकीदी अैराक’ को किताब की शक्ल दी है। उन्होंने तामामी मज़ामीन में इतने खूबसूरत और आसान लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया है की कारी (पाठक) रवानी से पढ़ता चला जाता है और अपने दिलो दिमाग पर कोई बोझ महसूस नहीं करता। खूबसूरत हार्ड कवर के साथ 188 पेज के किताब की कीमत सिर्फ 300 रूपए है, जो कि सन 2022 में रोशन प्रिंटर्स देहली से कंपोज हो कर एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस डी 1/ 16अंसारी रोड दरिया गंज, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। इतनी खूबसूरत और कारामद किताब के लिए मोहतरमा प्रो. शबनम हमीद को दिली मुबारकबाद।


 निस्वनियत से आगे की बात करती गजलें


    शायरी में जहां शोअरा हज़रात की मज़ीद तादाद बढ़ती जा रह है, वहीं शायरात भी पीछे नहीं। एक से बढ़ कर एक शायरा हैं, जिनकी शायरी में सिर्फ निस्वनियत ही नहीं बल्कि वह दौर-ए-हाज़िर के तमाम मनाज़िर अपनी आगोश में समेट कर अवाम को रु-ब-रु कराती हैं। इनमें एक शायरा तलअत जहां सरोहा का भी नाम है। इस वक़्त उनकी किताब ‘काविश-ए-तलअत’ मेरे हाथ में है, जिसको मैंने भरपूर पढ़ा और समझा। वह एक आला तालीम याफ्ता घराने से हैं और खुद भी आला तालीम याफ्ता हैं जो कि उर्दू टीचर की शक्ल में अपनी खिदमात अंजाम दे रही हैं। तलअत का ये पहला शेरी-मजमूआ है, लेकिन उनके ख़्यालात में बड़ी पुख्तगी है। वह निस्वानियत की रहनुमाई के साथ-साथ अपनी शायरी में समाज का दर्द, जिंदगी के ज़रूरी मसाइल और हालात-ए-हाज़रा पर भी अपनी गिरफ्त रखती हैं। उनकी शायरी पढ़ कर ऐसा महसूस होता है जैसे उन्होंने जिंदगी को बहुत करीब से देखा और समझा है। उनकी शायरी में कौमी यकजहती भी झलकती है, जिससे ये बार साफ हो जाती है की वह कट्टरता के खिलाफ हैं। आइए एक मतला और एक शे’र मुलाहिजा करते चलें-‘ईरान के लिए न तो तूरान के लिए/है मेरा प्यार अपने गुलिस्तान के लिए/ तलअत हमारा मुल्क है ये गुलशन ए जम्हूर/हिंदू के लिए है न मुसलमान के लिए।’ हालात पर नज़र डालते हुए वह कहती हैं-‘मयकदा भी है गम का घर बाबा/इस लिए लग रहा है डर बाबा/एक सैयाद की तरह गम ने/नोच डाले हैं बालोदृपर बाबा।’ उनकी शायरी में आसान लफ़्ज़ों के साथ साथ शाइस्तगी है और सलासत भी। वह फिक्र की ऊंचाइयों पर जा कर शायरी करती हैं। उनके लहजे में लताफत है जो उन्हें सबसे अलग बनाती है। उनकी ग़ज़ल का एक मतला एक शे’र और देखते चलते हैं जो कि सादा और आसान होते हुए भी अपने अंदर बला की गहराई वा गिराई समेटे है। 

‘ये कैद व कफस का ही सुकूं बख्श असर है/अब बर्क का खतरा है न सैयाद का डर है/जो तोड़े है अब दैरो हरम के भी तिलिस्मात/ऐ जाने वफा तेरे सिवा किसकी नज़र है।’ मजमुआ में ऐसे बहुत से खूबसूरत अश्आर, खूबसूरत गज़लें देखने को मिलेंगी लेकिन उनको अभी मज़ीद मश्क सुखन की ज़़रूरत भी है, जिससे आगे की राह आसान होगी और अदब में एक नुमाया मुकाम भी हासिल होगा। किताब हार्ड जिल्द में है जिसके ऊपर उनकी तस्वीर के साथ बहुत ही खूबसूरत कवर भी है। 150 पेज की इस किताब ‘काविश-ए-तलअत’ को सिटी प्रिंटर्स मालेगांव से किताबत करा कर जावेद ख़ान सरोहा एंड ब्रदर्स 12/944 दाऊद सराय स्ट्रीट, सहनपुर उत्तर प्रदेश से प्रकाशित किया है। इस किताब की कीमत मात्र 200 रुपए है। 


ज़िंदगी से आशना कराती सुहैल की ग़ज़लें


   सहारनपुर अदब का वह मस्कन रहा जहां बड़े नामवर शायर, अदीब और सहाफी हुए जिनमें फिरोज़ जावेद, रोशन सिद्दीकी, रज़ी अख्तर शौक़, आमिर उस्मानी जैसे लोगों ने इस सर ज़मीन की ज़ीनत बढ़ाई और मौजूदा दौर में नवाज़ देवबंदी, रहमान मुसव्विर, आसिम पीर ज़ादा, आएशा फरहीन जैसी तमाम शख्सियात को इसी सर ज़मीन ने जनम दिया और आज इनकी अदबी सरगर्मी बैनल अकवामी प्लेटफार्म पर भी देखने को मिलती है। इन्हीं लोगों के बीच से एक नाम बहुत तेज़ी से उभर कर मंजरे आम पर आया जिसे दुनिया-ए-अदब सुहैल इकबाल के नाम से जानती पहचानती है। सुहैल इकबाल पेशे से इंजीनियर हैं और लगभग ढाई दशक से सऊदी अरब में अपनी खिदमात अंजाम दे रहे हैं। इंजीनियरिंग के साथ साथ उन्हें लफ्जों के तराशने का हुनर भी अपनाया और एक खूबसूरत मजमुआ ‘सहरा में शाम’ अवाम के सुपुर्द कर दिया। उनकी शायरी में रवानगी है, मोहब्बत का रंग है और जिंदगी की सच्चाई भी। जैसा कि वह खुद बताते हैं कि ‘मुझे उरूज़ का इल्म नहीं है धुन पर ही शायरी की तखलीक करता हूं।’ लेकिन उनके पूरे मजमुआ में उरूज़ की कोई कमी नज़र नहीं आती। वह आसान लफ़्ज़ों में सलासात के साथ शायरी करते हैं जिससे कारी (पाठक) उनकी शायरी में डूबता चला जाता है और अपने ऊपर बार भी नहीं महसूस करता। आइए उनके चांद अशआर पर नज़र करते चलें-‘मज़ीद मुझमें मुसाफत की जब न ताब रही/तो थक के सो गया मैं भी वहीं ज़मीन के साथ।’, ‘मरने की अपने अपने दुआ मांगने लगे/घबरा के सब चराग हवा मांगने लगे/घर लौटने में मुझको ज़रा देर क्या हुई/सब मेरी जिंदगी की दुआ मांगने लगे।’ एक मतला और एक शे’र और मुलाहिजा करते चलें-‘दौरान-ए-सफर तेज़ हवा सबको मिलेगी/घर छोड़ के जाने की सज़ा सबको मिलेगी/सहरा हो समुंदर हो बियाबां हो कि गुलशन/खुर्शीद उगेगा तो ज़िया सबको मिलेगी।’ 

   पूरा मजमुआ (संग्रह) ऐसे तमाम खूबसूरत अशआर से भरा हुआ है जिनको पढ़ने के बाद कारी (पाठक) बहुत देर तक सोचता है और जिंदगी की सच्चाई को महसूस भी करता है। मजमुआ की शुरुआत हम्द बारी तआला से की गई है जिसके बाद नअत और मनकबत भी हैं। पूरे मजमुआ में 82 ग़ज़लें हैं और कुछ फुटकर अशआर भी।बेहतरीन हार्ड जिल्द के साथ 182 पेज की इस किताब को वासिफ कंप्यूटर सेंटर, छत्ता मस्जिद, दारुल उलूम देवबंद से किताबत करा कर होराइजन एकेडमी सहारनपुर से सितंबर 2018 में प्रकाशित किया गया । किताब की कीमत मात्र 200 रुपए है।

( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित )


गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

 ‘बाघ’ के बहाने नावलियात पर गुफ्तगू 


                                                                        - डॉ. अब्दुर्रहमान फ़ैसल

 अब्दुल्लाह हुसैन का नावेल ‘बाघ’ का बयानिया बज़ाहिर नावेल के मर्कज़ी किरदार असद और यासमीन की दास्तान-ए-इश्क़ है। जैसा कि नावेल के उनवान बाघ के साथ ही ये भी तहरीर है कि ‘एक मुहब्बत की दास्तान’। लेकिन बयानिया में दीगर मौज़ूआत को भी शामिल किया गया है। सिर्फ ये कह देना कि नावेल आज़ाद कश्मीर, और इस के गिर्द-ओ-नवाह के मसाइल पर मबनी है, काफ़ी नहीं है। कश्मीर के मसाइल का ज़िक्र यक़ीनन इस नावेल में किया गया है, लेकिन ये इस नावेल का मौज़ू नहीं है बल्कि ये एक मकानी अरसा  है जो अबदुल्लाह हुसैन ने अपने नावेल की तामीर के लिए खींचा है। नावेल की इब्तिदा-ए-सीग़-ए-माज़ी बईद के इस जुमले ‘रात को असदी, यासमीन ने कहा था’ से होती है। इस के बाद वाहिद ग़ायब रावी , रुएदाद/ सूरत-ए-हाल  के ज़रिये नावेल के बयानिये को आगे बढ़ाता है। नावेल के चौथे पैराग्राफ़ से ही नावेल निगार किरदार असद के इस ख़्याल की वज़ाहत करता है जो बचपन से ही उस के दिल में मौजूद रहता है-‘असद की सांस की मुश्किल, उस की रोज़मर्रा की मशक़्क़त, यासमीन का मुतबस्सिम चेहरा- इन सब चीज़ों के अक़ब में, दूर दूर तक एक शेर का इलाक़ा था, और अरसा-ए-दराज़ से रहा था। इस जानवर की ख़ाहिश असद के दिल में जैसे नसब थी, और इस वक़्त से थी जिस वक़्त की याद भी अब महव हो चुकी थी।’ 




नावेल में शेर का इस्तिआरा मर्कज़ी किरदार  की तशकील के साथ ही क़ायम होता है। शेर की शबीह का जो पहला बयान किया गया है वो किरदार के लड़कपन की ज़िंदगी से मुताल्लिक़ है। तेरह साल की उम्र में जब असद के वालिद का इंतिक़ाल हो गया और असद अपना घर छोड़कर अपने चच्चा के साथ उनके घर रहने जा रहा था, उस वक़्त घर के दरवाज़ों और कुंडियों के बंद होने से उसने आसमान पर एक सितारे को नमूदार होते हुए देखा और सितारे से जो ख़्याल उस के दिल में पैदा हुआ कि वो थोड़े ही फ़ासले पर तो जा रहा है जब चाहेगा चला आएगा । लेकिन वो फिर दुबारा वापिस ना आसका। उसके फ़ौरन बाद रावी बयान करता है।

तीसरी बार जब असद सरहद के इस पार से लौट रहा होता है तो वो रास्ता भटक जाता है। यहां पर भी इस के ज़हन में तरह तरह के ख़्याल आते हैं-“असद का ज़हन भटके लगा था। उल्टी सीधी बातों से घबरा कर आख़िर उस का ख़्याल एक साफ़ सुथरी सिम्त की तलाश में निकल पड़ा। उस जगह पर धुली हुई धूप की फ़िज़ा में हर चीज़ शीशे की सी शफ़्फ़ाफ़ और ठोस अपनी जगह पर मौजूद थी और इस में तवील चौकड़िया भरते हुए एक धारीदार जानवर की शबीह तेज़ी से हरकत करती थी। पहली बार शेर उस को एक जानवर के रूप में नज़र आया।’ और आखि़री मरतबा किरदार को शेर की शबीह उस वक़्त नज़र आती है। जब वो सरहद से तीन चार दिन के फ़ासले पर भूक प्यास की सख्ती और जिस्म की तकलीफ़ से निढाल होता है-‘अजीब पुरानी अन्जानी चीज़ों के और जगहों के ख़्वाब-ए-मुसलसल आते रहते । सारा दिन उसे थोड़ी थोड़ी देर के बाद एक एक करके पिछली रात के ख्वाब याद आते रहते थे। उसे महसूस होता कि वो एक लम्हा भी ऐसी नींद नहीं सोया जब उसने ख्वाब ना देखा हो। जैसे जैसे उस के ख्वाब बढ़ते जा रहे थे। वैसे वैसे उस का जागता हुआ ज़हन यासमीन और गुमशुद के शेर के ऊपर तकिया करता जा रहा था। जैसे कि ये दो सूरतों कोई ऐसे औज़ार हूँ जिनसे उस के अंदर की उधड़ी हुई जगहें साथ साथ रफ़ू होती चली जातीं थीं। वो जिस चीज़ के बारे में भी सोच रहा होता ये दो मुस्तक़िल शक्लें उस के ज़हन के पस-ए-मंज़र में मडलाती फिरतीं। इस अनोखी सूरत-ए-हाल में जिससे उस का साबिक़ा था कम-अज़-कम ये दो शक्लें उस के हाथ में ऐसी आई थीं जो एक मुस्तक़िल रास्ते की तदबीर थीं। उनसे असद को एक सिम्त का इशारा मिलता, आराम हासिल होता। आराम की ज़रूरत अब उसे भूक से भी ज़्यादा होने लगी थी।’ 

नावेल ‘बाघ’ मैं अबदुल्लाह हुसैन ने इन्सानी ज़िंदगी के इसरार-ओ-रमूज़ पर से पर्दा उठाने के साथ ही साथ ख़ुद नावेल निगारी के असरार-ओ-रमूज़ की भी वज़ाहत की है। नावेल के इब्तेदाई सफ़हात में ही रावी, किरदार असद के क़ुव्वत-ए-तख़य्युल की वज़ाहत करते हुए बयान करता है। गोया नावेल नस्री तख़लीक़ी मुतून में तह दर तह असरार की एक दुनिया ख़ल्क़ होनी चाहिए जो क़ारी (त्मंकमत) को इस के ख़ारिजी  दुनिया से खींच कर अपनी ख़लक़ करदा दुनिया में ले आए और क़ारी इसी अफ़सानवी दुनिया को हक़ीक़त समझने लगे। ये उसी वक़्त मुम्किन है जब फ़िक्शन निगार वाक़ियात की तशकील-ओ-तर्तीब और किरदारों की तशकील इस मंतक़ी अंदाज़ से करे कि उनमें तजस्सुस दर तजस्सुस पैदा होता चला जाये और इन्सानी ज़िंदगी की तरह नावेल /फ़िक्शन के बयानिया में भी एक पुर-असरार दुनिया ख़ल्क़ (निर्माण) हो जाये।

नावेल की तामीर (निर्माण) का ये तरीका-ए-कार(शैली), तख़लीक़ी ज़बान की तशकील (रचनात्मक भाषा) और फ़न-ए-नावेल निगारी (उपन्यास लेखन की कला) पर नावेल निगार अबदुल्लाह हुसैन के इंतिहाई क़ुदरत का पता देता है।

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित)

सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

   निरंतर संघर्ष करते रहे गुलाम रब्बानी 

                                                                 -  सरवत महमूद खान 

  आज़ादी की आंदोलन के दौरान जब मुस्लिम लीग ग़ाज़ीपुर में अपने पूरे वर्चस्व में था, तब गुलाम रब्बानी अब्बासी ने कशंग्रेस का दामन थामा और आंजादी के आंदोलन में सक्रिय हो गए। गांधी टोपी पहनने के कारण ही वर्ष 1938 में इन्हें जेल भेज दिया गया। इसके बाद 1940 में गोंडा जेल में और 1941-42 में लखनऊ जेल में बन्द किए गए थे। जब वह लखनऊ जेल में बन्द थे, तभी मुस्लिम लीगी कार्यकर्ताओं ने यह अफवाह उड़ा दी कि रब्बानी साहब को गोली मार दी गई है। यह सदमा उनकी मां बर्दाश्त न कर सकीं और उनका इंतिकाल हो गया। मां के मरने के बाद मुस्लिम लीग के लोग जनाजे में शामिल नहीं हुए। मुस्लिम लीग ं के कट्टर विरोध के कारण कभी-कभी इनको आर्थिक एवं शारीरिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था। एक बार लीग के लोगों द्वारा इन्हे ट्रेन से बाहर फेंकने की साजिश की गई थी। लेकिन गुलाम रब्बानी अपने रास्ते पर अडिग रहकर देश की आज़ादी के लिए लड़ते रहे।


गुलाम रब्बानी 


 गुलाम रब्बानी अब्बासी का जन्म 31 मई 1914 को गाजीपुर के मुहम्माबाद युसुफपुर के साधारण परिवार में हुआ था। तब देश अंग्रेज़ों की गुलामी में जकड़ा हुआ था, इसे लेकर इनके गुलाम जिलानी अब्बासी आंदोलनरत थे। गुलाम जब बहुत छोटे थे, उसी वक़्त इनके पिता का देहांत हो गया। मां ने बड़े संयम और संघर्षपूर्ण हालात में इनका भरण-पोषण किया। तंगहाली की वजह से ही इनकी पढ़ाई कक्षा आठ तक ही पूरी हो पाई थी। कक्षा आठ  तक की पढ़ाइ मदरसा अंसारीया में हुई जहां आपके उस्ताद मौलाना मुहम्मद वकीअ ने इन्होंने तालीम हासिल की। इन्हीं की प्रेरणा से गुलाम रब्बानी मुस्लिम लीग के विरोध में उतरे और कांग्रेस के पक्के समर्थक हो गए। इस समय ग़ाज़ीपुर जिले में मुस्लिम लीग का वर्चस्व था।  रब्बानी साहब गांधी टोपी धारण करते थे, मुस्लिम लीगी कभी उनकी टोपी उछाल देते कभी कुर्ता फाड़ देते इसके अलावा भी उन्हे तरह-तरह के यातनाये लीग के द्वारा दी जाती, लेकिन रब्बानी साहब कभी भी वतन परस्ती से विचलित नही हुए और स्वतंत्रता आन्दोलन के मशाल को जलाये रखा।

 आर्थिक तंगी के कारण गुलाम रब्बानी अब्बासी को बीड़ी की दुकान खोलनी पड़ी। मुस्लिम लीग के लोगों नें इनकी बीड़ी की दुकान का ही बहिष्कार कर दिया। कई बार प्राण घातक हमले किए गए हुए। इनकी तंगी की ख़बर जब मौलाना हुसैन अहमद मदनी को मिली तो उन्होंने उनके घर छह रूपया प्रति माह मनीआर्डर भेजने लगे। आपका घनिष्ठतम संबंध फरीदुल हक अंसारी से था। उनके विचारों से प्रभावित होकर समाजवादी विचारधारा के करीब हो गये थे। जब भी राष्ट्रीय स्तर का कोई नेता युसुफपुर मुहम्माबाद आता उसके स्वागत में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे। सन् 1928 में ड़ॉ. मुख्तार अहमद अंसारी के निमंत्रण पर पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरोजनी नाइडू और मौलाना हुसैन अहमद मदनी मुहम्माबाद आये तो जनसभा के आयोजन की जिम्मेवारी फरीदुल हक अंसारी के साथ-साथ आपने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सुभाष चंद्र बोस से आपकी अच्छी जान पहचान थी। फारवर्ड ब्लाक से भी संपर्क रहा।

स्वतंत्रता के बाद आपको दो बार मुहम्माबाद म्युनिसिपलीटी बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया था। अपने जीवन के अन्तिम समय में अक्सर यह शेर पढा करते थे। 18 अगस्त 1990 को गुलाम रब्बानी अब्बासी का निधन हो गया।


( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2024 अंक में प्रकाशित )