बुधवार, 30 जनवरी 2013

ग़ज़ल की हक़ीक़त


            -फिराक़ गोरखपुरी 


ग़ज़ल के मुतअतिलक इज़हारे ख्याल करते हुये एक मौ़के पर मैंने कहा था ग़ज़ल इन्तेहाओं का एक सिलसिला है. यानि हयात व क़ायनात के वो मरकज़ी हक़ायक जो इन्सानी जि़न्दगी केा ज्यादाह से ज्यादह मुतास्सिर करते हैं. तास्तुसरात की उन ही इन्तेहाओं में या मुन्तहाओ का मतरन्नुम ख्यालात में जाना और मुनासिब तरीन मौज़ू तरीन अल्फाज़ व अन्दाज़ बयान में उन का सूरत बिगाड़ लेना उसी का नाम ग़ज़ल है. इस तरह उन इन्तेहाओं को दवाम नसीब हो जाता है और ग़ज़ल का नग़मा, नग़मा-ए-सरमदी बन जाता है. शायरी के दूसरे इस्नाफ के कामयाब से कामयाब नमूने अपने मौज़ूआत की खारजी तफ़सीलों और जरमेयात निगारी से मोजय्यन होते हैं. ग़ज़ल के कामयाब तरीन नमूने कैफीयात महज की ख़बर देते हैं. ग़ज़ल में शऊर व वजदान का ऐसा एक इरतकाज़ होना चाहिए. मज़मून या मौज़ू अपनी माअनवियत में मुकम्मल तौर पर तहलील हो जाये. इस तरह के ग़ज़ल के नग़मों में एक वक्त हम अपनी इर्तेका-ए-हयात व तहज़ीब से हासिल शुदा कैफीयतों लताफतों और सलाहियतों की झनकार सुन सकें. हमारे शऊर और लाशऊर की यही तह-दर-तह झन्कारें नवा में ग़ज़ल में सुनायी देती हैं.
ख़्याल मौजू या मज़मून का अपनी मानवियत में तहलील हो जाना इस फि़करे में मानवियत का मफहूम क्या है? कुछ जुमलों का अमली मफहूम होता है. कुछ का ज़हनी मफहूम होता है. कुछ जुमलों का जहनी या मन्तक़ी मफहूम एक जमालियाती या विजदानी कैफियत या असर में तहलील हो जाता है. शोपंहार हिन्द कदीम के कुछ मुफक्किरों और वर्डस वर्थ ने उस अमल को वर्क महज़ या ऐन इटम या इल्म कामिल बताया है, लिहाजा किसी चीज़ को किसी वाकेया, किसी ख़्वाहिश ख़्याल या इरादे, किसी मुशाहिदे या किसी फिक्री शऊर या अमल का ऐसा एहसास जो उसके असबाब व अलल या उसकी अमली व कारबारी अफादियत, उसके सूद व ज़याँ, उसके महज़ मन्तक़ी पहलुओं की तनसीख व तरदीद किये बगैर उनसे मतसादुम व तरदीद किये बगैर उनसे मतसादुम हुए बगैर हमें वजद में लाये उसी का नाम मानवियत है. उसी का नाम हुस्न व जमाल है. यही खुसूसियत हर शै की मानवियत है. जिसके बिना पर हर चीज़ अपना वजूद हमसे मनवा लेती है तो मानवियत का मायने हुये वजद आफरीनी बकौल नतशे तखय्युली तौर पर एहसास जमाल हमें लामहदूद से दस्त व गरीबां कर देता है. जाॅन स्टुअर्ट ने अपनी खुद नविश्त सवानेह उमरी में लिखा है कि उसने ये फ़जऱ् कर लिया कि समाज की जि़न्दगी के अलावा वो आला से आला मकासिद अगर पूरे हो जाये जिनके पीछे वो जी जान से कोशा था तो क्या जि़न्दगी उसके लिये कबूल पज़ीर या जीने के क़ाबिल हो जायेगी. इस सवाल पर उसके शऊर की तहों से आवाज आयी कि ‘नहीं’ तब उसने खुदकुशी की ठान ली. ऐन उसी मौका पर वर्डस वर्थ की नज़मों का एक मुख्तसर मजमुआ उसके हाथ लगा जिसे पढ़ कर उसकी तमाम नाआसूदगी दूर हो गयी और हयात व कायनात की कबूलियत का बराहे रास्त एहसास हो गया. जि़न्दगी पर उसका ईमान फिर से जिन्दा हो गया. हर शै की असली कदरें उसी शै के वजूद या तसव्वुर में है. हयात व कायनात की वजदानी कबूलियत की तौफीक के हासिल ना होने की हालत को कारलायल ने एक अज़ीम ‘नहीं’ या ‘नाय’ अज़ीम कहा है.
एक था राजा जिसकी तीन रानियां थी. छोटी रानियां से उसने वादा किया था कि उसकी कोई बात नहीं टालेगा.’ राजा ने बड़े लड़को को जो पहली रानी से था राज देना चाहा. छोटी रानी ने कहा बड़े लड़के को घर से निकाल दो. राज वो लड़का पायेगा जो मुझसे है. बड़ा लड़का, उसकी बीबी और उसका छोटा भाई जंगलों में निकल गये. राजा सदमा से मर गया. जंगल में एक जाबर राजा ने उसकी बीबी को अगवा कर लिया. उसका जाबर राजा से जंग करके जिलावतन राजा अपनी बीबी को वापस लाया और छोटी रानी के लड़के ने बड़े भाई को राज वापस कर दिया. यह भी कोई अफसाने में अफसाना हुआ. उनसे मिलते-जुलते वाकेयात आये दिन अदालतों में पेश हेाते रहते हैं लेकिन यही मामूली वाकेया वाल्मिकी और तुलसी उसके जादू भरे कलम से आफाकी अदब की तखलीकों की शान नजूल बन जाता है. यही हाल यूनान के मशहूर नाटको या शेक्सपियर के मशहूर नाटकों का है जिनके प्लाट सूखी ठेठरियों से ज्यादा अहमियत नहीं रखते लेकिन जो फन के मस से इन्तेहाई माअनवियत के हामिल बन जाते है. जो कुछ पिछले दो पारों में कहा गया है वो नफ़्से शायरी या नफ़्से फन या अदब व दीगर फनून लतीफा की माहियत पर रोशनी डालने के लिये कहा गया है सिर्फ ग़ज़ल की माहियत पर नहीं ग़ज़ल अदब से इस लिहाज से मुतमायाज़ है कि उस के हर शेर का मौज़ू या खारजी माद्दा कम से कम होता है. इस ‘कम से कम’ को वजदानी-ए जमालियाती, तखय्युली का माअनवी लिहाज़ से ‘ज्यादा से ज्यादा’ बल्कि लामहदूद बना देना और इस तरह दर्द या राहत, ग़म या निशात मानूसियत या हैरत दरके महज़ या इस्तेजाब ग़रज़कि तमाम नफसियाती कैफियात व तजुर्बात का शऊर खालिस पैदा करके हमें एक नाकाबिल फरामोश इन्बेसात व तमानियत की दौलत अता करना ग़ज़ल का असल मकसद व मनसब है. इंग्लिस्तान के शायर कीट्स ने कहा है कि शायरी लतीफ इन्तेहाओं से हमें मोताहय्यरो मोतअज्जिब करती है. ग़ज़ल को उन लतीफ तरीन इन्तेहाओं को हासिल करने और दूसरों तक पहुंचाने के लिये कम से कम खारजी असलियत या ख़ारजी सरमाया या दर की मवाद की ज़रूरत होती है. अगर तमाम फनून लतीफ़ा इहसासे हयात व कायनात का अतर है तो ग़ज़ल इस अतर का अतर है. ग़ज़ल की माहियत तहज़ीक व इन्सानियत के मरकज़ी जमालियाती व वजदानी तजुर्बात़ की इस माहियत व असलियत में पोशीदा है. जहां अक्ली एख़लाकी और जमालियाती हक़ीक़तों का एक मावराई आलम में या ला महदूद के मरकज़ पर संगम होता है. ग़ज़ल का हर शेर एक रूहानी दौरे कामिल एक मुकम्मल रूहानी अमल या रद्दे अमल होता है. ग़ज़ल में ‘कम से कम’ का ज़्यादा से ज़्यादा बन जाता. इस फिकरे पर गौर करने से ये नुक्ता समझ में आने लगता है कि जिसे हम रूहे ग़ज़ल कहते हैं वह छोटी से छोटी बहरों में कामयाब तरीन ग़ज़लों में हमें नज़र आती है. जहां एहसास की तनहाई शिद्दत नर्म से नर्म हो जाती है और एक इरतआशे खफी बनकर रह जाती है. जहां अब्दी बेकरां सकूत और कम से कम आवाज़ मिलकर नवाये सरमदी बन जाते हैं.
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले।

            (मीर)
चारा-ए-ग़म सिवाये सब्र नहीं
सो तुम्हारे सिवा अब नहीं होता

            (मोमिन)
इन अशआर में रूह ग़ज़ल जिस तरह हलूल किये हुये है. इस तरह मुन्दराजा जेल अशआर में रूह ग़ज़ल कारफरमां नहीं है.
कत्ल किये पर गुस्सा किया है लाश मेरी उठवाने दो।
हम भी जान से जाते रहे हैं आओ तुम भी जाने दो।।

                    (मीर)
तू कहां जायेगी कुछ अपना ठिकाना कर ले।
हम तो कल ख्वाबे अदम में शबे हिजरां होगे।

                    (मोमिन)
सूफी सदी शरीअत में किसी क़द्र कमी हो जाना लाज़मी व नागुरेज़ है. जब उसे अल्फाज़ का जामा पहनाया जायेगा. यहां सूरत व माअनी में समझौता कराना पड़ता है. मुख़्तसर से मुख़्तसर अल्फाज़ में वसी से वसी और गहरे से गहरा मानी समोया जा सकता है. यही है दरया को कूज़े में भरना यही है हर क़तरा से बहर बेकरा का झांकना यही है महदूद लामहदूद की दायमी आंख मिचैली. यही वो खुसूसियत है जो ग़ज़ल को दूसरे इसनाफ़ सुखन से मुतमायज करती है. एक बार मजनू से दोैरान गुफ़्तगू में मैंने ग़ज़ल की शायरी को बताया था. यानि दरके खालिस या दरके महज़ हिस्से पिनहा हिस्स दरों की शायरी वजदान की इन्तहाई सादगी व पुरकारी से ग़ज़ल के उन अशआर की तखलीक  होती है, जिन्हें हम रूहे ग़ज़ल कहते हैं. ग़ज़ल कहने के लिये बहुत सयानी और बहुत मासूम तबीयत चाहिये. हक़ीक़ी ग़ज़ल, हकीकी ग़ज़ल के अशआर उन वक्फहाये शऊर का पता देते हैं जब बकौल जिगर ग़ज़ल गो येे महसूस करता है.
शायर फितरत हूं जिस दम फिक्र फरमाता हूं मैं
रूह बनकर ज़र्रा-ज़र्रा में समा जाता हूं मैं।।

इसी दाखिली तजुर्बा या हिस्स दरूं की बिना पर शीले ने कहा था शायरी बयक वक्त तमाम उलूम का मरकज़ व मुहीत है. दूसरे इसनाफे सुखन दूसरे फनून लतीफ में भी ये खुसूसियत लाजमन होती है. ग़ज़ल में ये खुसूसियत बदर्जा-ए-अतम पायी जाती है. हर कामयाब ग़ज़ल नतायज का सिलसिला होती है. हम ये हैसियत इन्सान के न कि बहैसियत आलिम. फलसफी, सूफी, मसलह मुदब्बिर या सियासत दां ऐहसासात की जिन इन्तेहाओं तक पहुंचते हैं उन्हें मुकामात की खबरें ग़ज़ल के बेहतरीन अशआर हमें देने हैं. ग़ज़ल को प्रोफेसर कलीमउद्दीन अहमद ने नीम बहशी सिन्फे सुखन बताया है. दौरे वहशत की जेबिल्लतें अगर यकलख्त तर्क कर दी जायें तो मजहबों व फनून लतीफ की मौत हो जाये. इमर्सन ने दीवान हाफिज़ का अंग्रेजी तर्जुमा पढ़कर फारसी शायरी के उनवान से जो मक़ाला लिखा है या गेटे ने फारसी ग़ज़ल गो शायर को खेराजे तहसीन दिया है. वह उस अम्र का सबूत है कि दौरे वहशत या दौरे बर्बरियत की जेबिल्लतें शऊर इन्सानी या इन्सानी हिस्से दरूं को कहां से कहां ले जाती है. बकौल असगर गोन्डवी
मुकामें जहल़ को पाया ना इल्म इरफां ने
मैं बेखबर हूं बअन्दाज़-ए-फरेब व शहूद
जि़न्दगी के मर्कज़ी और अहम हकायक व मसायल ग़ज़ल के मौजू होते हैं. उन हक़ायक़ में वारदाते इश्क़ को अव्वलियत हासिल है. क्योंकि इन्सानी तहज़ीब के इरतेक़ा में जिन्सियत और उससे पैदा होने वाली कैफियतों का बहुत बड़ा हाथ रहा है. जिनसियत ने अन्धे तूफान को तवाज़न बख्शा यानि तहज़ीब जिनसियत तारीख़ का बहुत बड़ा कारनामा रहा है. हम महबूब से मुहब्बत करके और मुहब्बत को रचा संवार के अपनी जि़न्दगी को रचाते और संवारते है. हयात व कायनात से मुहब्बत करना सीखते हैं और जि़न्दगी की धार को कुन्द करने से बचाते हैं. ग़ज़ल हमें जिनसियत की अहमियत का एहसास कराती है और जिनसियत जब दाखिली व गै़बी तहरीकों से इश्क बन जाती है. तो इश्क़ के लामहदूद इमकानात की तरफ और उस इश्क़ के ज़रीये से तामीरे इन्सानियत की तरफ ग़ज़ल इशारा करती है. इश्क़ का पहला महर्रिक महबूब की शख्सियत है फिर यही इश्क़ हयात व कायनात से एक ऐसा वालेहाना लगाव पैदा कर देता है कि जिनासियत के हदूद से निकलकर इश्क़ एक हमागीर हकीकत बन जाता है.
इश्क़ मजनूं निस्बते ईं कारे मन अस्त
हुस्न लैला अक्स रूखसारे मन अस्त
तो मुसलसल इश्कि़या नज़्मों और ग़ज़ल के इश्कि़या अशआर बहिसाबें खुद एक कायनात एक मुकम्मल इकाई होते हैं जिनकी कैफियत ख़्याल, मज़मून या खारजी मवाद का कम से कम सहारा लेकर कम से कम अल्फाज़ लेकर खालिस जज़्बात या जज़्बात महज़ से दो चार कर देती है. हर शेर की कैफियत अपनी बेकरानी का एहसास कराती है. ऐसी महवियत नज़्मों के इश्कि़या अशआर से पैदा नहीं होती. उनमें इतनी दाखलियत इतनी इशारियत, ऐसी ख्वावबनाकी, ऐसी बेदारिये-क़ल्ब, इतनी मानवियत, ऐसी अकमलियत, ऐसा इरतकाज़, ऐसी सादगी व पुरकारी, बेखुदी व शयारी हम नहीं पाते जो ग़ज़ल के इश्किया अशआर में हम पाते हैं. वो शोरियत व नशरियत व रज़ायियत जो ग़ज़ल के इश्किया अशआर में हमें मिलती है. इश्कि़यां नज़्मों में नहीं मिलती है. बुलन्द पाया इश्कि़यां नज़्मों में ये तहदारी न होते हुये भी और बहुत सी क़दरे अव्वल की खूबियां होती हैं जो तहज़ीबे इन्सानियत में मदद देती है. तफसीलात व जुज़यात की सहर कारियां बुलन्द पाया इश्कियां नज़्मों में हमें मिलती है. शायराना इस्तदलाल के कारनामे इश्किया नज़्मों में नज़र आते हैं. हुस्न बयान की रंगा रंगी एक तख्लीक़ी निज़ाम या एक कायनाते हुस्न व इश्क़ की बू कलमूनी मुख़्तलिफ बाहम मुताल्लिक ख्यालात के रिश्ताहाये पिनहा उन सब का नज़ारा या एहसास बुलन्द पाया मुसलसल इश्कि़या नज़्मों में होता है. इसके बरअक्स ग़ज़ल में एक नुकीली यकसुई होती है जो खारजी अजज़ा की हदूद शिकनी करती हुयी हमंे एक नाकाबिल बयान मावराई आलम में ले जाती है. दरमियानी मनाजिल पर अशआर ग़ज़ल का कयाम नहीं होता. ग़ज़ल के कुछ अशआर की याद ताज़ा कीजिये-
असर गरीब में जब तक कि जान बाकी है।
तेरी वही रविश इम्तेहान बाकी है।

            (असर देहलवी)
वली इस गौहर काने हया का वाह क्या कहना
मेरे घर इस तरह आवे है जूं सीने में राज़ आवे।

            (वली दकनी)
खोली थी आंख ख्वाबे अदम से तेरे लिये
आखिर को जाग-जाग के नाचार सो गये।

            (दर्द)
जमाने के हाथों से चारा नहीं है।
ज़माना हमारा तुम्हारा नहीं है।

        (वालिद मरहूम इबरत गोरखपुरी)
तुम्हें सच-सच बताओ कौन था शीरी के पैकर में
कि मुश्ते ख़ाक़ की हसरत में कोई कोह कन क्यों हो।

            (आसी ग़ाज़ीपुरी)
चश्म हो तो आईना खाना है दहर
मुंह नज़र आये तो दीवारों की बीच।

        (मीर)
तू और आराइश खम का कुल
मैं और अन्देशा-हा-ऐ दूर दराज़

        (गालिब)
मैंने फानी डूबते देखी हैं नब्जे़ कायनात
जब मिज़ाज यार कुछ बरहम नज़र आया मुझे।

            (फानी)
हमारी तरफ अब वो कम देखते हैं
वह नज़रे नहीं जिनको हम देखते हैं।

            (दाग़)
मान लेता हूं तेरे वादे को
भूल जाता हूं मैं कि तू है वही

        (जलील मानिकपुरी)
नसीमे सुबह से मुरझाया जाता हूं वह गुन्चा हूं
वो गुल हूं मैं जिसे शबनम बलाऐे आसमानी है।

            (आतिश)
ज़ख्म की तरह जमाने में तू काट अपनी उमर
हंस ले या रो ले पर इतना हो कि टुक दर्द के साथ।

            (नसीम नखनवी)
वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुंह दिखाऊंगा

            (मीर)
गर यही है बागे आलम़ की हवा
शाखे गुल एक रोज़ झांेका खाएगी।

            (नसीम नखनवी)
मेरे निदाये दर्द पै कोई सदा नहीं
बिखरा दिये हैं कुछ मह व अन्जुम जवाब में

            (असगर गोन्डवी)
ज़माने की हवा बदली निगाह आशना बदली
उठे महफिल से सब बेगाना ए-शम्मो सहर हो कर

            (यगाना)
सुबह तक वो भी न छोड़ी तू ने ऐ वादे सबा
यादगारे रौनकेमहफिल थी परवाने की खाक

            (आसी गाज़ीपुरी)
मेरे तगय्यरे हाल पर मत जा
इत्तेफाकात है ज़माने के।

            (मीर)
तजस्सुस हो तो मिल जाता है सब कुछ दारे इम्कां मंे
कोई लम्हा खुशी का आओ ढूंढे उमरे इन्सान में

            (मानी जायसी)
वस्ल होता है जिनको दुनिया मेंया रब ऐसे भी लोग होते है।
            (मीर हसन)
यूं जि़न्दगी गुज़ार रहा हूं तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूं।

            (जिगर मुरादाबादी)
आ मेरी आरजू-ए-दिल मेरी बहारे जि़न्दगी
आ कि मैं ये न कह सकूं मुझकों खुदा न मिल सका।

            (बहज़ाद लखनवी)
चल ऐ हमदम ज़रा साज़ तर्ब की छेड़ भी सुन लें।
अगर दिल बैठ जायेगा तो उठ आएगें महफिल से।।

            (साकिब लखनवी)
कहिये कि अब मैं अपनी हकीकत को क्या कहूं
जो सांस ली वो आपकी तसवीर हो गयी।

            (अज़ीज़ लखनवी)
इन अशआर से बा जौक़ आदमी को पूरा पूरा अन्दाज़ा हो जायेगा कि जितनी तासीर और जिस उन्वान का ऊपर जिक्र हुआ है। इन अशार में वह तमाम खुसूसियतें मौजूद हैं
तारा टूटते सबने देखा ये नहीं देखा एक ने भी
किस की आंख से आंसू टपका किसका सहारा टूट गया।
            (आरज़ू)
दिखाना पड़ेगा उसे ज़ख्मे दिल
अगर तीर उसका खता हो गया।

            (हाली)
ऐ इश्क़ की गुस्ताख़ी क्या तूने कहा उन से
जिस पर उन्हें गुस्सा है इन्कार भी हैरत भी।

            (हसरत मुहानी)
बहारें हमको भूलें याद इतना है कि गुलशन में
गरीबां चाक करने का भी एक हन्गाम आया था।

            (साकिब लखनवी)
मार डालेगा ये ज़माल मुझे
आईना फेंककर संभाल मुझे।।

            (बेखुद देहलवी)
दाग फिराक़ सोहबत शब की जली हुयी
एक शमा रह गयी थी सो वो भी खामोश है।

            (ग़ालिब)
चार झोंके जब चले सहने चमन याद आ गया
सर्द आहें जब किसी ने लीं वतन याद आ गया

            (अमीर मिनाई)
गयी थी कह के कि लाती हूं जुल्फे यार की बू
फिरी तो बादे सबा का दिमाग भी ना मिला।

            (जलाल)
जो भी शै है हमा तन राज़ हुयी जाती है
जिन्दगी दूर की आवाज़ हुयी जाती है।।

        (जोश मलीहाबादी)
खुदा जाने ये कैसी रहगुज़र है किसकी तुरबत है
वो जब गुज़रे उधर से गिर पड़े कुछ फूल दामन से।

            (नामालूम)
कैफियत चश्म उसकी मुझे याद है सौदा
साग़र को मेरे हाथ से लेना कि चला मैं।

            (सौदा)
जि़न्दगी यूं भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राह गुज़र याद आया।।

            (गालिब)
मेरा पयाम सबा कहियो मेरे युसुफ से
निकल चली है बहुत पैरहन से बू तेरी

            (आतिश)
हम तौरे इश्क़ से वाकिफ तो नहीं है लेकिन
सीने में कोई जैसे दिल को मला करे है।

            (मीर)
दूसरे होेते हैं वो जिऩ्दगी भर के बोस व किनार व मुबाशरत के लिये काफी हैं लेकिन जज़्बा-ए-इश्क व तसव्वुर यहीं नहीं कि जिन्दगी भर के मामले हैं बल्कि रूह इरातिका और तारीख तहजीब के ज़मीर का हुक्म रखते हैं ये जज़्बा और तसव्वुर मौत पर फतह पाने की जमानत और खिलाफत कायनात का मनसब नामा अपने हाथों में लिये हुए हैं. ग़ज़ल के उन अशआर के अलावा जो महबूब के जिस्मानी हुस्न या अदाओं की मुसव्वरी करते हैं वो अशआर जो आशिक व माशूक के बाहमी ताल्लुकात की मुसव्वरी या तरजुमानी करते हैं. महबूबा की शख्सियत तो उन ताल्लुकात का महज़ नुक्त-ए-आग़ाज होता है. यही वजह है कि आशिक व माशूक के बाहमी ताल्लुकात की तरजुमानी जिन अशआर में होती है वो हर ऐसे मौका महल पर आयद हो जाते हैं. जहां तरफैन के दरम्यान वही सूरते हाल पैदा हो गयी है. जो इस शेर की शाने नजू़ल रही है. यही राज़ है अशआरे ग़ज़ल की हमागीरी और आफाकियत का तसव्वुर जमाल जज्बा इश्के जमाल, इन्सानियत और इन्सान दोस्ती के तसव्वुर और जज़्बे में मुन्तकिल हो जाते है. और फिर जमाले कायनात और इश्के कायनात का तसव्वुर व ज़ज़्वा बन जाते हैं. फिर अशआरे ग़ज़ल हयात व कायनात के तमाम मौजूआत पर तमाम पहलुओं पर मुहीत हो जाते हैं. बराहेरास्त या बिलावास्ता एखलाक फलसफा यानि जिन्दगी से मुताल्लिक तमाम मरकजी व हमागीर उसूल व खयालात ग़ज़ल के दायरे में आ जाते हैं. बशर्ते कि शायर उनमें सोज व गुदाज़ तासीर बराहे रास्त दाखिली हिस, वजद आफरीनी, कैफ अन्गेजी, महावियत, मानवियत एहसासे जमाल और ठेठ इन्सानियत का लहजा. ऐसा रद्दे अमल ला सके जो वयक वक्त इरतकाए तहज़ीब व इन्सानी जबाहल जबल्लियत की देन हो. ग़ज़ल के लिये कोई मौज़ू या मज़मून समर ममनून नहीं है. अल्बत्ता हर समर खाम ग़ज़ल के लिये समर ममनून है. जिन्सी मुहब्बत के अलावा दूसरे मौजूआत भी ग़ज़ल के अशआर में लाये जा सकते हैं. बशर्ते कि शायर के सोज़े दरुं की आंच उन्हें पुख्ता कर चुकी है और हयात व कायनात के अजमाली एहसास व तसव्वुर का लब व लहजा हम ऐसे अशआर को अता कर सके, जिन अशआर में हंगामियत, तसव्वुर की असबियत, अकीदहज़दगी, सतहियत, खुश्की, दानिस्ता, दलायल का गोरखधंधा कोई ‘अज्म़’ कट्टर फिक्रयात मौजूं नस्ररियात किसी मखसूस या महदूद व वक्ती प्रोग्राम या मन्सूबे की तकमील के लिये ‘पैगामें अमल’ मिल्ली तसादुमात, नाराबाजी, नीम पुख्ता या नीम बरश्ता जज़्बात, पार्टी बाज़ी, शोर व शग़फ़ नुमा खिताबत या सहाफत, एहसास बरती या तकवा फरोशी की तासीर जैसा सोज़ व गुदाज़ जो दूररसी पारसाई जैसी कैफीयत महवियत उन अशआर में है व बुलन्द इश्क्यिा नज़्मों के अशआर में हमें नहीं मिलेगी. गो अच्छी नज़्मों के अशआर भी फ़न व जि़न्दगी की बहुत कीमती कदरें मिलती है जिनसे हमारे वजदान है और हमारी तहज़ीब को जला मिलती है. ग़ज़ल का वाकई अच्छा शेर होता है. ऐसे शेर में शेरिअत की इन्तेहा या आखिरी तहें हमें मिलती है. हमारे वजदान और एहसास जम़ाल के सबसे कीमती वक्फ़े ऐसे अशआर में दवाम हासिल कर लेते है. इन्सानियत ऐसे अशआर में अपने आपको पाती है कि नज़र आती है. तहज़ीब उन अशआर के आईना में अपनी सही तस्वीर देख लेती है. हम उन अशआर में अपने आप को छू लेते हैं जो उस ख़मसा अपनी रूह से ऐसे अशआर में दो चार हेाते है. मिजाज़ अपनी उलूहियत का एहसास करता है और जहां गुजरां अपनी अहदियत का ख्वाब और ताबीरे ख्वाब देख लेता है. जिन्दगी पर जिन्दगी की नयी चोटें पड़ने लगती है, नक्श व निगार आलिम खुतूत तक़दीस मालूम होने लगते हैं, जन्नत का ब्याह करहे अजऱ् से हम होते हुये देखते हैं. जिन्दगी की देवी अपने सोज़दरों के गिर्द काटती है. कायनात अपने दाखिली तरीन महवर पर रक़्स करती हुयी नज़र आती है जो जमाल मअ़ने वजूद बन जाता है. जमाल अपनी वाजिब अलवजूदी को हम से मनवा लेता है हम मौजूदात आलम के उन आंसुओं में नहा उठते हैं जिनकी तहारत मौजे कौसर को नसीब नहीं और जिनकी हयात आवरी आब हैवां में भी नहीं पायी जाती.
जिन्सियत और जिन्सी जेबिल्लते खैर व शर की आमाजगाह है. इस तख़लीक़ी कूवत के लिये अहरमन यजदां की मुसलसल जंग जारी रहती है. जिन्सियत की माद्दी बुनियाद व लमसियात में पिनहा फिर लम्सियात से उभर कर जिन्सियत तसव्वुर व जमाल और जज़्ब-ए-इश्क बनता है. फिर ये तसव्वुर और ये जज़्बा आशिक की शख्यित में जारी व सारी हो जाता है. इश्क व माशूक के बाहमी इरतबाह व इखतेलाल के बेशुमार रिश्ताहाये पिनहा, किरदारे हुस्न व इश्क हज़ारहा पहलु, तसव्वुर जमाल व जज़्बा-ए-इश्क से पैदा शुदह, हज़ारहा कवायफ व निकात बहुत सी नफसानी हालतें खनुमा होती है और उनके जमाल का एहसास होता है.
बाग़वा बुलबुले कुश्ता को कफ़न क्या देता
पैरहन गुल का ना बदला कभी मैला होकर

                (सबा)
सारी दुनिया ये समझती है सौदाई है
अब मेरा होश में आना तेरी रूसवाई है।

                (मो. अली जौहर)
ये शबाब में फसाने जो मैं दिल से सुन रहा हूं
अगर और कोई कहता तो ना ऐतबार होता।

                (साकिब लखनवी)
जुनू पसन्द भी क्या छांव है बबूलों की
अजब बहार है उन ज़र्द व ज़र्द फूलों की

                (नासिख)
रंगे गुल व बुए गुल होते हैं हवा दोनों
क्या काफिला जाता है तू भी जो चला चाहे।

                (मीर)
जि़क्र जब छिड़ गया कयामत का
बात पहुंची तेरी जवानी तक।

                (फ़ानी)
जुल्फ़ में फंस के फंसू अब है ये वहशत कैसी
सांप जब काट चुका सीखने जन्तर बैठे।

            (फंसू)
उफतादह रहने दी थी ज़मी दिल की इसलिये
उम्मीद थीं कि आप यहां घर बनाएगें।

            (ताअश्शुक़)
बड़ी एहतियात तलब है ये जो शराब साग़रे दिल में है
जो छलक गयी तो छलक गयी जो भरी रही तो भरी रही

 वो तेरी गली की कयामतें कि लहद से मुर्दे निकल गये
वो तेरी जबीने नियाज़ थी कि वहीं धरी की धरी रही।।

                (शाह नैरंग)
ऐ दिल मुद्दआ तलब वक्ते सवाल भी तो हो
मुझको भी नाम याद है अपने गदा नवाज़ का।

            (शाद अज़ीम आबादी)
खराब मिट्टी न हो किसी की कोई ना मरदूद दोस्ता हो
जुदा हुआ शाख़ से जो पत्ता गुबार ख़ातिर हुआ चमन का।

                    (आतिश)
सौदा जो तेरा हाल है इतना तो नहीं वो।
क्या जानियेे तूने उसे किस हाल में देखा।।

            (सौदा)
 

गुफ्तगू के दिसंबर-2012 अंक में प्रकाशित

2 टिप्पणियाँ:

Darshan Darvesh ने कहा…

Bahuat hi umda aur mehnat ke saat likha aur kaha gaya hai.....

Shakuntla ने कहा…

बहुत ही उम्दा

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