शनिवार, 5 जनवरी 2013

‘अलविदा-2012’ पर हुआ मुशायरे का आयोजन

अमर उजाला के संपादक अरुण आदित्य को गुफ्तगू ने किया सम्मानित
इलाहाबाद।साहित्यिक पत्रिका गुफ्तगू के तत्वावधान में 30 दिसंबर को सम्मान समारोह और मुशायरे का आयोजन  इलाहाबाद स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय के शाखा परिसर में किया गया। अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार अजामिल ने की जबकि मुख्य अतिथि सीनियर डीओएम जी के बंसल थे। संचालन इम्तियाज अहमद गाजी ने किया। इस अवसर पर कवि व संपादक अरुण आदित्य को सम्मानित किया गया। सबसे पहले शिवपूजन सिंह ने 2012 में हुए गुफ्तगू की गतिविधयों के सालभर का चिट्ठा सुनाया और बताया कि हमने इस वर्ष बारह साहित्यिक आयोजन किए हैं, नई प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए विशेष कार्य किये गए हैं। दसवें वर्ष में प्रवेश करने के अवसर पर हम अप्रैल महीने में एक बड़ा आयोजन करने जा रहे हैं। अजमेर से आए विशिष्ट अतिथि नईम सिद्दीक़ी ने कहा कि गुफ्तगू उर्दू और हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रही है, हमें ऐसे प्रयासों की सराहना करनी चाहिए। वरिष्ठ मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि गुफ्तगू टीम लगातार साहित्यिक गतिविधियों में तत्लीनता से लगी हुई है, जिसके वजह से इलाहाबाद की साहित्यिक सरगर्मी बनी हुई है। रविनंदन सिंह ने कहा कि अरुण आदित्य ने साहित्य के साथ ही पत्रकारिता में भी खासी अच्छा योगदान किया है, इनके इलाहाबाद आने से साहित्यिक खबरों को अधिक स्थान मिल रहा है। अजामिल ने भी गुफ्तगू की प्रशंसा करते हुए कहा कि इस टीम कार्य ही असली साहित्य की सेवा है, हम ऐसे प्रयासों की प्रशंसा करनी चाहिए।दूसरे सत्र में मुशायरे का आयोजन किया गया !

                                                                                                               

अजामिल का स्वागत करते वीनस केसरी
गौरव कृष्ण बंसल का स्वागत करते नरेश कुमार ‘महरानी’

अरुण आदित्य का स्वागत करते वीनस केसरी
नईम सिद्दीक़ी का स्वागत करते सौरभ पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र का स्वागत करते शिवपूजन सिंह
कार्यक्रम के दौरान मौजूद साहित्यप्रेमी
अमर उजाला के इलाहाबाद यूनिट के संपादक अरुण आदित्य को सम्मानित किया।
बायें से-इम्तियाज़ अहमद ग़ाजी़, नईम सिद्दीक़ी, नरेश कुमार महरानी, अरुण आदित्य, गौरव कृष्ण
बंसल और अजामिल
 
कार्यक्रम के दौरान विचार व्यक्त करते नईम सिद्दीक़ी

अजामिल-
इस सर्कस में
उस एक बित्ते के आदमी को
सौंपी गयी है जिम्मेदारी
दुनिया को हंसाने की
इस तरह पेश होगी
एक बार फिर
सबके हंसने की चीज़



गौरव  कृष्ण बंसल-
कोई बदलेगा नहीं ख़ुद को बदलना होगा,
आग बरसेगा मगर घर से निकलना होगा।
कल इसी राख पे फूलों की कतारें होंगी,
आज लकड़ी को मगर आग में जलना होगा।


अरुण आदित्य-
हर दिल में उतर जाएगी जज़्बात की तरह,
हो जाए अगर शायरी भी बात की तरह।
इस शहर के पत्थर भी होते हैं तर-बतर,
बरसो तो जरा टूट के बरसात की तरह।


अशोक कुमार स्नेही-
कहना महल दुमहले सूने सूनी जीवन तरी हो गई,
प्रिया तुम्हारे बिना मिलन की सूनी बारादरी हो गई।


यश मालवीय-
कैसी ये बारीकियां, कैसे तंज महीन,
हम बोले मर जाएंगे, वो बोले आमीन।


                                                       इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी-
इश्क़ की राह पर आप चलिए मगर,
शह्र
है हादसों का ज़रा देखकर।
नाज़ करते थे जो अपनी अंगड़ाई पर,
 
आज रोने लगे आईना देखकर।



सागर होशियापुरी-
अलविदा आप कहिये अब इस साल को
सुनिये दस्तक नए साल की ध्यान से
कह रहा है वो शायद कि ग़म भूलकर,
मांग ले हर खुशी अपने भगवान से।



तलब जौनपुरी-
ज़माना नेक राहों पर मुझे चलने नहीं देता,
ज़मीर अपना रहे ईमां से भी हटने नहीं देता।
      विजय लक्ष्मी विभा-
राख के ढेर में जलता हुआ अंगारा है
कोई धोखे में न रहना कि वो बेचारा है।


रविनंदन सिंह-
कांपते हाथों की खंडित धार लेकर क्या करूंगा
जि़न्दगी में रेत सा आधार लेकर क्या करूंगा।
संवेदना की सुक्ष्मतम अभिव्यक्ति काफी है,
मैं कोरे शब्द का आभार लेकर क्या करूंगा।

मंजूर बाकराबादी-
मां के ममता की कोई कीमत चुका सकता नहीं,
मां का रुतबा क्या है कोई बता सकता नहीं।
जिसने करली मां की सिदमत जन्नती वह हो गया,
उम्रभर तकलीफ़ वह दुनिया की पा सकता नहीं।

रमेश नाचीज़-
शिकवे-गिले भुला के मेरे प्यारे दोस्तो,
कुछ करिये बातचीत, नया साल आ गया।
दीवार ज़ात धर्म की ‘नाचीज़’ तोड़कर,
लीजे दिलों को जीत, नया साल आ गया।
 अजीत शर्मा ‘आकाश’-
चूल्हे चैके से जो पाये थोड़ी फुर्सत औरत
तब करें औरत के हक़ की भी हिमायत औरत।

 सौरभ पांडेय-
जो न मरती है, न जीती है, सुनो वो औरत
बेहया काठ सी बस उम्र गुज़र करती है
ज़र्द आंखों की जुबां और कहो क्या सुनता

शर्म वो चीज़ है, ऐसे में असर करती है।



वीनस केसरी-
मेरी मां आजकल खुश है इसी में,
अदब वालों में बेटा बोलता है।


विमल वर्मा-
चिरागे रूह काफ़ी है, रौशने राह की खातिर,
कहां तक साथ रे पायेंगी ये रंगीनियां आखिर।

नरेश कुमार ‘महरानी’-
गज-गज भर की रोशनी, गले अटकती जाये,

मैं दौड़ा में बांस को, सागर नाव चलाये।


अजय कुमार- 

नाज़ था मुझको अपनी प्रबल बुद्धि पर
वार संवाद के भी मैं सह ना सका।


धन्यवाद ज्ञापित करते शिवपूजन सिंह

1 टिप्पणियाँ:

प्रदीप कांत ने कहा…

सभी अच्छे अच्छे शेर पढ रहे हैं भाई

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