बुधवार, 9 जनवरी 2013

नए इक़दार और नई उर्दू ग़ज़ल


                                                                                 -प्रो0 अली अहमद फ़ातमी
उर्दू की नई ग़ज़ल के इमकानात को ग़ज़ल की सिन्फ़ी नज़ाकतों और जि़न्दगी की सफ़्फ़ाक सदाक़तों के दरमियान ही तलाश किया जा सकता है. उर्दू ग़ज़ल जहां अपनी लताफ़तों व नज़ाकतों की वजह से मक़बूल-ए-ख़ास-ओ-आम हुई, वहां उसकी महदूदियत और मशयतियत-से मुतल्लिक़ उस पर तंगदामनी और गर्दन ज़दनी के इलज़ामात भी लगाए गए, हालांकि उर्दू ग़ज़ल ने अपनी मन्जि़ल पर ही अपने आप को महज़ हुस्न-ओ-इश्क़ के दायरे से निकाल कर सूफि़याना व हकीमाना ख़यालात से मालामाल किया-मीर, सौदा, दर्द वगै़रह की शायरी इस तरह के ख़यालात से भरी पड़ी है. ग़ालिब ने आगे बढ़ा कर फ़लसफ़-ए-हयात और उसके मुख़तलिफ़ अफ़कार से उसका दामन लबरेज़ किया और ग़ज़ल में जि़न्दगी के वह रंग पेश किये कि ग़ज़ल के रवायती कारईन व शायक़ीन दंग रह गए-इतना सब कुछ कहने के बावजूद ग़ालिब को यह महसूस होता रहा-
बक़द्र-ए-शौक़ नहीं जर्फ़ तंगनाए-ग़ज़ल।
कुछ और चाहिये वुसअत मेरे बयाॅ के लिये।।

और फिर जब मुल्क और समाज पर एक ऐसा वक़्त आया जब गुलामी से बेज़ारी और जंग आज़ादी अपने उरूज पर पहुंची और पूरे समाज में क़ौमियत और सियासत को मर्कज़ीयत हासिल हो गई तो बातिनी एहसासात की बुनियाद पर परवरिश पाने वाली ग़ज़ल ख़ारजी दबाव, सियासी जब्र और समानी नशेबो-ओ-फ़राज़ की ताब न लाकर पसमंज़र में चली गई. इक़बाल-चकबस्त-अकबर-जोश वग़ैरह ने अगरचे ग़ज़ले भी कहीं लेकिन उनकी गरजती-चमकती नज़्मों के आगे ख़ुद उनकी ग़ज़लें ही नहीं बल्कि पूरी उर्दू ग़ज़ल लड़खड़ा गयी और ऐसा लगा कि ग़ज़ल का अहद ख़त्म हो गया और ग़ज़ल वाक़ई अपनी तंगदामनी का शिकार होकर रूपोश हो गयी. लेकिन तरक़्क़ी पसन्द शायरों का दौर आया और इस अहद के बाज़-शोअरा, बिलखुसूस फ़ैज़ और मजरूह ने ख़ारजी और सियासी मौज़ूआत को ग़ज़ल के नर्म-ओ-नाजु़क पैमाने में उतार कर बल्कि जज़्ब-ओ-पेवस्त किया और ग़ज़ल की ताज़ीम-ओ-तकरीम का पूरा ख़याल रखते हुए पहली बार बराह-ए-रास्त सियासत से उसका रिश्ता जोड़ दिया, तो ग़ज़ल की वुस्अत-ए-क़लबी, फ़राखदिली और वसीअदामनी को देख कर सभी दंग रह गए. जब मजरूह ने कहा.
सर पर हवा-ए-जु़ल्म चले सौ जतन के साथ।
अपनी कुलाह ख़म है उसी बांकपन के साथ।।

तो ग़ज़ल में यह सियासी कजकुलाही वाक़ई पूरे बांकपन के साथ समा गयी और आम फ़रसूदा रवायती इल्ज़ामात पर पानी फेर गयी. हरचन्द कि यह एक मुश्किल मरहला था और ग़ज़ल के लिये बड़ा नाजुक दौर, लेकिन फ़ैज़, मजरूह, जज़्बी, मजाज़, सरदार जाफ़री वगैरह की गेरां कद्र, ग़ज़लिया शायरी से यह मुश्किल मरहला बआसानी तय हुआ और ग़ज़ल का एक नया दौर शुरू हुआ, जहां से उर्दू ग़ज़ल के मुख़तलिफ़ रंग देखे जा सकते हैं.
अंग्रेज़ रूख़सत हुए, मुल्क आज़ाद हुआ तो हिन्दुस्तानी अवाम ने पैर फैला दिये. एक बेमक़सद और ग़ैर मुनज़्ज़म जि़न्दगी सामने आयी, मआशरा लड़खड़ाया तो ग़ज़ल भी बहक गयी, अलामती ग़ज़ल, आज़ाद ग़ज़ल और कुल मिलाकर जदीद ग़ज़ल और अब तो इबहाम से भरा यह दौर भी रूख़सत हुआ, लेकिन जो दौर आया वह अपने साबिक़ा दौर से ज़्यादा पेचीदा और सफ़्फ़ाक निकला, यह तो होना ही था. बेमक़सद और बेलगाम हिर्स-ओ-हवस की जि़न्दगी का जो अंजाम होना था वह हुआ. तरक़्क़ी व तबदीली के नाम पर हम इस दुनिया में पहुंच गए, जहां बेबाकाना जराएम, बेहेजाबाना सियासत के गुलाम है-बेरहम फि़रक़ावारियत, मज़हबी तक़द्दुस की बेडि़यों में कैद, दफ़्तरों में बदउनवानी और रिश्वत सतानी इल्म-ओ-इन्साफ़ के इदारों पर बेएअतेमादी, झूठ, धोखा, मक्र-ओ-फ़रेब और पूरे समाज में लाक़ानूनियत और उन सब पर हावी तशद्दुद और तशद्दुर के इस बारूदी माहौल में इन्सानियत रूपोश-इन्सानी कदरें पारा पारा हो गयी. शराफ़त, ऐख़लाक़, वफ़ादारी किस्स-ए-पारीना. उसूल, आदर्श दासतानवी ख़यालात और भी बहुत कुछ जिसकी तफ़सील में जाने की ज़रूरत नहीं कि हम आप सिर्फ़ वाकि़फ़ ही हीं बल्कि बराह-ए-रास्त झेल रहे हैं, भोग रहे हैं. इन सबके दरमियान जिन चीज़ों ने सबसे ज़्यादा अहमियत खोई है वह है इन्सान की इन्सानियत और उसका सबसे बड़ा हथियार क़लम और लफ़्ज़ की अज़मत-ओ-हुरमत. माज़ी में भी उथल पुथल हुई और इन्सानों की सफ़ की सफ़ साफ़ कर दी गयी, क़त्ल-ओ-ग़ारेतगरी के बाज़ार गर्म हुए-लेकिन उस बदली में सूरज चमका-इन्के़लाबी व इहतेजाजी-शायरी हुई, अल्फ़ाज की हुरमत और शायरी की अज़मत ने अपना असर दिखाया. आज़ादी, तक़सीम-ए-हिन्द, फि़रकावारियत के ऐन दरमियान आला अदब तखलीक़ हुआ और उसका जादू भी चला जिस पर आज भी लोग सर धुनते हैं और यह अजीब बात भी है कि अच्छा अदब आम तौर पर मुश्किलात में ही पैदा होता है. ऐसी मुश्किलात कि जिसको हल करने और जिससे टकराने का एक बड़ा मिशन नज़रों के सामने हो-फि़क्र  की सालमीयत और क़लम की ख़ल्लाकि़यत और मक़सद की इन्फ़ेरादीयत ग़मज़दा माहोल में जोश-ओ-जज़्बा भर देती है, जिस से बड़े अदब की तख़लीक़ हुआ करती है-लेकिन जहां ऐसा न हो, जि़न्दगी को कोई मकसद न हो, फिक्र साकित-ओ-जामिद हो, समाज में इन्तेशार हो और पूरा मूल्क एक मकरूह सियासत का नंगा खेल खेल रहा हो, आदर्शो पर ज़रगरी का क़ब्ज़ा, क़लम रक़म की गिरफ़्त में हो, तख़लीक़ अपनी नस्रो-ओ-इशाअत, इज़हार-ओ-इबलाग़ के लिये सरमायादारो का मुंह तक रही हो, लफ़्ज़ों का कारोबार हो रहा हो, धर्म के नाम पर इन्सानों का क़त्ल किया जा रहा हो, ज़बान-ओ-तहज़ीब के हवाले से नफ़रतों की दीवारें खड़ी की जा रही हों तो मिशन, विज़न, ज़ेहन, क़लम वगै़रह का गुमराह हो जाना या मुन्ताशिर हो जाना कोई गै़र फि़तरी या हैरत अंगेज़ नहीं. लेकिन शायरी तो फिर भी हो रही है और अदब फिर भी तख़लीक किया जा रहा है. आदतन या शायद ज़रूरतन भी. कुछ कहा नहीं जा सकता, कुछ जियाले तो हैं जो इस आंधी में चराग़ जलाए हुए हैं-आईये
इन चराग़ो की कपकपाहट और थरथराहट का सरसरी जायज़ा लें-शायद कोई उम्मीद की लौ हमारे हाथ आ जाए-लेकिन पहले मशहूर तरक़्क़ी पसन्द शायर अली सरदार जाफ़री की ताज़ा ग़ज़ल का एक शेर पेश करते हैं
जब से इन्सान की अज़मत पे ज़बाल आया है।
है हर इक बुत को ये दावा कि खुदा हो जैसे।।

और एक बिल्कुल नए शायर ने अपने अन्दाज़ में यू कहां.
घर से चलो तो चारों तरफ़ देखते हुए।
क्या जाने कौन पीठ में खंजर उतार दे।।
                (असलम इलाहाबादी)
ऐसी नाज़ुक पेचीदा और संगीन सूरत-ए-हाल में और ऐसी शिकस्ता और बिखरी हुई सूरतों में सबसे पहले इन्सान को अपने वजूद का एहसास और अपने तहफ़्फ़ुज का जज़्बा बेदार हुआ और यही वजह है कि उर्दू की नई ग़ज़ल में अक्सर-ओ-बेेश्तर अपनी ज़ात की फि़क्र, अपने बजूद और उसके बक़ा-ओ-फ़ना के सिलसिले कहीं फि़तरी, कहीं मनतिकी और कहीं फ़लसाफि़याना अन्दाज़ में बिखरे हुए हैं-कहीं कहीं यह ख़याल अपनी ज़ात के अन्दुरून में डूब जाने पर मजबूर कर देता है और कहीं कहीं अहबाब के धोखे-इन्सानियत के फ़रेब अपनों की बेगानगी, ग़रजकि इन्सानी रिश्तों की शिकस्ताहाली और उसके इर्दगिर्द शायर को पहुंचा देती है. चन्द अशआर देखिये.
वो मेरा होके भी शामिल है क़ातिलों में मेरे।
इस इन्केशाफ़ ने तक़सीम कर दिया है मुझे।
               
इश्रत ज़फ़र
न दोस्तों की तरह है न दुश्मनों की तरह।
ये कौन लोग सफ़-ए-दोस्तों में आने लगे।
               
अकबर हमीदी
ये किन अजीब ज़मानों में जी रहा हूं मैं।
कहां गई मेरी आंखों की रोशनी सारी।
               
असद बदायूंनी
ये तजरबा भी अजब है कि अपने आप से मैं।
कोई सवाल करूं और उदास हो जाऊं।
                रईस मंज़र
मैं आदमी हूं मुझे आदमी ने घाव दिये।
किसी चटान में कैसे शिगाफ़ होता है।।
वो कि़स्स-ए-ख़वाब हूं हासिल नहीं कोई मेरा
ऐसा मक़तूल कि क़ातिल नहीं कोई मेरा।।
            ऐन ताबिश
जीने को जी रहा हूं मगर सोचता हूं मैं।
क्यों जि़न्दगी के नाम से डरने लगा हूं मैं।
               
अहमद महफ़ूज
इन तमाम सूरतो और बदहालियों से समाज की जो ऊपर-ऊपर फ़ेज़ा बन रही है उसने समाजी माहौल, उसूल-ओ-ज़वाबित, नज़्म-ओ-ज़ब्त सब कुछ उलट पलट कर दिया है. ख़ैर पर शर, हक़ पर बातिल का क़ब्ज़ा होता चला जा रहा है-धोखा, फ़रेब आज की जि़न्दगी का अटूट हिस्सा बन चुका है-सच्चाई, सादगी, ईमानदारी, हक़ीक़त पसन्दी सब दम तोड़ रही हैं. इस पर इक़तेसादी बदहाली, एख़लाक़ी पामाली मुस्तक़ाबिल की फि़क्रमन्दी, क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी, अलाहेदगी पसन्दी, और दीगर समाजी उथल पुथल मसलन सिनअती रेल पेल, नई तबक़ाती कशमकश या तबक़ो की नई तक़सीम उस पर पूरे समाज का काम सिलाईजेशन. इन सबने मिलकर नए समाज की जो तस्वीर उभारी है वह बड़ी ही अजीब-ओ-ग़रीब है-जिस में बस यह तो साफ़ है कि सेहत मन्द और स्वालेह क़द्रो का ज़वाल हो चुका है. इन्सानियत मर रही है इन्सानी क़द्रों की पामाली इस दौर का मुक़द्दर बन चुकी है, बाक़ी सब धुंधला है इस वाजे़ह और गै़र वाज़ेह समाज की मिली जुली तस्वीरों का अक्स उर्दू की नई ग़ज़ल में साफ़ झलकता दिखाई देगा चन्द अशआर इस कि़स्म के भी देखिये।
हमारे अह्द का हर शख़्स बे तदबीर है शायद।
नज़र में धुंध है पैरों में भी ज़न्जीर है शायद।
            शाहिद कलीम
जो तेरे शहर में मुझसे मिली है बे पर्दा।
वो दोस्ती है मगर कारोबार करती है।
            निज़ाम उद्दीन निज़ाम
अब तो इस शह्र में जीने का मज़ा ही न रहा।
अब तो क़ातिल भी किराए के हैं साजि़श ही नहीं।।
कौन निकले घर से बाहर कौन देखे क्या हुआ।
मेरा हमसाया है ख़ुद मेरी तरह सहमा हुआ।।
            रईस मंज़र
घेरे हुए हैं हमको मसाइल ज़मीन के।
हम से तो आसमां की दुआ ली न जाएगी।।
           
अताउर्रहमान तारिक़
ज़मी के और तक़ाजे़ फ़लक कुछ और कहें।
क़लम भी चुप है कि अब मोड़ ले कहानी क्या।।
                अज़रा परवीन
लहू की आग में जलती है हसरते क्या क्या
हमारे साथ लगी हैं ज़रूरते क्या क्या।।
               
शब्बीर आसिफ़
हर वफ़ा अतवार अबके बे वफ़ा होने को है।
शह्र में थे कैसा हंगामा बपा होने को है।।
           
ऐन ताबिश
शाकी, बदज़न आज़ुरदा है मुझसे मेरे भाई यार।
जाने किस जा भूल आया हूं, रख कर मैं गोयाई यार।।
            शमीम अब्बास
जे़हानतों को कहां वक़्त खूं बहाने का।
हमारे शह्र में किरदार क़त्ल होते हैं।।
           
अज़हर इनायती
रातों के गह्रे सन्नाटे अब शामों से छा जाते हैं।
हू का आलम है बस्ती में बातें करता कोई नहीं।।
           
असद बदायूनी
बे सर-ओ-सामां निकलना घर से अच्छा ही रहा।
राह में ग़ारतगरों का सामना होना ही था।
           
अहमद महफू़ज़
बेबिसाती, बेकसी, बेसाज़-ओ-सामानी भी है।
फिर भी जीते हैं कि हर मुश्किल को आसानी भी है।
           
नसीम सिद्दीक़ी
हाल की बदहाली, बेचैनी, अफ़रा तफ़री और मुस्तक़बिल का शदीद एहसास, तमाम इक़दार-ओ-रवायात की शिकस्तगी और मौजूदा दौर का बेहंगम शोर कुल मिलाकर हाल की बेचैनी का इस्तेआरा बन कर रह गयी, चुनांचे ऐसे में माज़ी की याद और उसकी बाज़याफ़्त अहम जुज़ बन कर उभरी और उर्दू की नई शायरी की रग-ओ-रेशे में सरायत कर गयी. माज़ी की यह याद कहीं ख़यालात का सरचश्मा बनती है तो अक्सर ग़ज़लों की नई तशकील की जि़म्मेदार भी ठहराई जा सकती है. कहीं ये वाक़या-ए-कर्बला की तरफ़ ले जाती है तो कहीं इसराफ़ील-सुलेमान-आदमज़ाद-सुराब और अन्धे कुएं ही तरफ़ ले जाती है. वाक़य-ए-कर्बला से मुताल्लिक़ प्रोफेसर सैय्यद मुहम्मद अक़ील अपनी किताब ग़ज़ल के नए जेहात में लिखते हैं-‘एक जे़हनी इन्तेशार-ओ-बे यकीनी और दरबदरी के एहसास के साथ मालूम नहीं कहां से वाकय-ए-कर्बला की इशारियत और मज़लूमियत भी तेज़ी से दाखि़ल हो रही है. मेरे लिये यह बताना मुश्किल है कि नई ग़ज़ल में यह कैफि़यत कहां से दबे पांव दाखि़ल हूई-बज़ाहिर तो कोई बैरूनी दबाव नहीं मालूम होता न इस कैफि़यत में तफ़ाटवर है न ऐलान न तरक्क़ी पसन्दों की ललकार. हालात में पिसते हुए इन लोगों में जो कर्बला की इशारित-फ़रात-नोक-ए-सेना पर सर और जूए खूं की बातें मिलती है, उनमें एक तरह की खुदकलामी है. बस अपने दिल से बातें करने या सलाह करने की सूरत है-मज़लूमियत उभरती है और न किसी मुख़ालिफ़ के जु़ल्म का एलान न इन्साफ़ न मिलने की शिकायत बस जो कुछ महशरसतां शायर के जे़हन में मौजूद है उसका इज़हार अपने अशआर में कर दिया है.
उर्दू की नई ग़ज़ल में वाकए-ए-कर्बला की इशारियत या बतौर-इस्तेआरा इसका इस्तेमाल इन दिनों कसरत से हो रहा है, ऐसा क्यों है? यह एक लम्बी बहस हो सकती है जिसकी तफ़सील की यहां गुंजाईश नहीं-मुख़तसरन इसे यूं समझते चलें कि वाकय-ए-कर्बला की इशारियत में अगर एक तरफ़ आज की लाचारी और मज़लूमियत से रिश्ता जोड़ने की कोशिश है तो दूसरी तरफ़ इन्सानी व इख़लाक़ी कद्रों के हवाले से शर पर ग़ालिब आने वाली एक मौहूम सी सूरत या फिर सीधी सी यह बात हो सकती है कि वह आज के रंज-ओ-ग़म को ग़म-ए-इमाम हुसैन से वाबस्ता करके क़द्रे राहत व तसल्ली की तलाश, या फिर कुछ नयापन बस इससे ज़्यादा बात बनती नज़र नहीं आती. लेकिन यह ज़रूर है कि नई ग़ज़ल में कहीं कहीं यह एक अच्छा और नया पहलू उभर कर आया है, जिसने कैफि़यत और मानवीयत की एक नई दुनिया तलाश की है.
तमाम वुसअत-ए-सहरा-ए-तिश्नगी मेरी।
तमाम सिलसिल-ए-दजला-ओ-फुरात मेरा।
          
  इशरत ज़फ़र
ये जो बिकने के लिये रक्खे हैं बाज़ारो में।
इन्हीं कासों में किसी दिन मेरा सर भी होगा।
         
   अख़्तर लखनवी
मुझको लाखों की नहीं चाह बहत्तर चाहिये।
जो ख़ुदा की राह में कट जाए वो सर चाहिये।।
           
अतीक इलाहाबादी
उर्दू की नई ग़ज़ल में माज़ी का ताल्लुक़ एक याद की शक्ल में भी ज़ाहिर होता है और बड़े कसक भरे अन्दाज़ में अच्छे और गुज़रे हुए लम्हात की याद-सेहतमन्द क़द्रों की याद-रिश्तों और वफ़ाओं की याद-ग़ज़ल में यह सब कुछ कहीं कहीं बड़े पुरकशिश अन्दाज़ में ज़ाहिर होता है.
रास्तो क्या हुए वह लोग जो आते जाते।
मेरे आदाब पे कहते थे कि जीते रहिये।।
            अज़हर इनायती
चराग़ रौशनी लेते थे जिनकी सूरत से।
वो लोग ख़ाक हुए दर्द की निहायत से।।
            तौसीफ़ तबस्सुम
रहते थे दास्तानों के माहोल में मगर
क्या लोग थे कि झूठ कभी बोलते न थे।
           
अज़हर इनायती
गुज़र गए हैं जो मौसम कभी न आएगें।
तमाम दरिया किसी रोज़ डूब जाएगें।।
            आशुफ़्ता चंगेज़ी
माज़ी की यह कसक शायरी का एक हिस्सा तो है लेकिन बड़ा हिस्सा बन कर नहीं उभरता, अगरचे इन नई ग़ज़लों में हालिया समाज की एक से एक दिलखराश तस्वीरें है. अगर एक तरफ़ ख़ौफ़ और धुंए का हब्स है तो दूसरी तरफ़ रिवायती तौर पर सही हुस्न-ओ-जमाल की शबनमी ठंडक है. हुस्न-ओ-जमाल के रवायती अज़कार, लेकिन मुख़तलिफ़ पैराय-ए-इज़हार के साथ, इसलिये, नए दौर की तमाम अशया के साथ साथ इश्क़ भी नया और उसके अन्दाज़ भी नए कि जमालयात का तसव्वुर बहरहाल इक़्तेसादयात और मआशियात से बराह-ए-रास्त वाबस्ता रहता है और साथ साथ तारीख़ और जुग़राफि़या से भी ऐसी हंगामियत में क़ल्ब और वारदात-ए-क़ल्ब का जि़क्र तरह तरह से किया गया है. लेकिन तमाम जि़क्र बस रूके रूके और डरे डरे से हैं. चन्द अशआर इस रंग के भी देखिये।
धूप इतनी है कि जलते हैं गुलाबों के बदन।
क़हर इतना है कि होटों पे लगे हैं कांटे।।
           
नियाज़ हुसैन
हवा के हाथ भी पैग़ाम वह अगर भेजे।
ख़याल बन के भी उसके नगर न जाऊंगा।।
            अनवर महमूद
हिज्र के सहरा में तेरी याद का कितना गु़बार।
इक मुसाफि़र बे सर-ओ-सामान-ओ-तन्हा मेरा दिल।।
           
शहबाज़ नक़वी
अक्सर तेरी यादें ही अपना सरमाया होती हैं।
अक्सर तेरी यादों से हम कतराया करते हैं।।
          
  शुऐब निज़ाम
अब किसी पांव की आहट भी नहीं आती है।
छुप गए मेरे ग़ज़ालान-ए-सुबुक गाम कहां।।
           
असग़र मेंहदी होश
वस्ल के मौसम हो या हों हिज्र की रातें।
अब हमें लगने लगे हैं सारे मन्ज़र एक से।।
           
महताब हैदर नक़वी
दो अलग लफ़्ज नहीं हिज्र-ओ-विसाल।
एक में एक की गोयाई है।।
           
फ़रहत एहसास
हुस्न-ओ-इश्क़, दर्द-ओ-कर्ब के दरमियान से निकतली हुई यह राह नई शायरी का कौन सा जमालयाती तसव्वुर व तग़ज़्जुल पेश करेगी, अभी से कुछ कहा नहीं जा सकता. प्रोफ़ेसर अक़ील साहब ने यहां तक कह दिया ‘शायद नई नस्ल के पास तग़ज़्जुल’ कुछ है ही नहीं वह सिर्फ़ माशूक के हवालों से अपनी बात और अपनी जि़न्दगी लोगों तक पहुंचाना चाहता है.’
मैंने अपने इस मुख़तसर से मज़मून को सिर्फ़ हिन्दुस्तान की शायरी तक महदूद रक्खा है. पाकिस्तान में होने वाली शायरी, इसके अलावा अमरीका, कनाडा, लन्दन वगै़रह की उर्दू ग़ज़ल का जि़क्र नहीं किया है. यही वजह है कि मैंने दरबदरी, बेघरी, हिजरत, जैसे मौज़ूआत को हाथ नहीं लगाया और न ही ग़ज़ल की ज़बान और डिक्शन के बारे में बहस उठायी है हालांकि जदीद दौर की नई नई इस्तेलाहातें, लफि़्ज़यात, मुहावरात, हिन्दी अंग्रेजीं के अलफ़ाज जिस तरह उर्दू ग़ज़ल में शामिल व दाखि़ल हो चुके हैं उसको देखते हुए नई ग़ज़ल का लिसानी व उसलूबियाती मुतालेआ एक अच्छा रुख़ तलाश किया जा सकता है. बहरहाल मुतजि़क्करा बाला सिम्तों में रवां दवां उर्दू की नई ग़ज़ल जैसाकि अजऱ् किया गया. किसी मख़सूस सिम्त का तअय्युन नहीं करती. ग़ज़ल में वैसे भी प्रोजेक्शन के इमकानात कम होते हैं, बस एक इशारिया ही तैयार किया जा सकता है और न ही उसके अन्देशों और इमकानात पर हतमी बातें की जा सकती हैं.
आखि़र में एक सवाल ज़रूर उठाना चाहता हूं वह यह कि आखिर क्या वजह है कि जदीद दौर में अपने कर्ब-ओ-अलम, दर्द-ओ-सितम, तन्हाई व वीरानी, लाचारी व वेबसी हब्स और घुटन के बावजूद नई ग़ज़ल में बेचैनी व बेकैफ़ी की लहर तो है लेकिन इहतेजाज की गूंज नहीं. इहतेजाज तो दर किनार मज़ाहेमत भी नहीं है और हद यह है कि माशूक़ के जौर-ओ-सितम की शिकायत, शैख़-ओ-नासेंह की शिकायत-आसमान की चश्म-ए-बद और फ़रेब-ए-तक़दीर की शिकायत, नई ग़ज़ल से रिवायती शिकायत का चलन क्या रूठा, मज़ाहेमत का लहजा ही रूठ गया, जबकि ऐसे हालात में नई ग़ज़ल का मज़ाहेमती लहजा उसका एक अहम लहजा होना चाहिये, जैसा कि पाकिस्तान की ग़ज़लिया शायरी का है. लेकिन शायद ऐसा न होने में वहां सरकारी निज़ाम और यहां की जमहूरियत काम करती दिखाई देती है.
गुफ्तगू के दिसंबर 2012 अंक में प्रकाशित 


-229ए,लूकरगंज, इलाहाबाद, मोबाइल नंबर: 9415306239

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