बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को चुका हुआ मानती है-नीरज


गोपाल दास ‘नीरज’ हिन्दी साहित्य से लेकर हिन्दी सिनेमा तक में बेहद चर्चित नाम है। नयी पीढ़ी के कवियों के लिए प्रेरणास्रोत हैं, उन्होंने अपनी लेखनी से जो इबारत रची है, वह मील के पत्थर सरीखा है। चार जनवरी 1924 को इटावा जिले के इकदिल में आपका जन्म हुआ। ‘नीरज की पाती’,‘बादलों से सलाम लेता हूं’,’गीत जो गाये नहीं’,‘बादर बरस गये’,‘लहर पुकारे’, और ‘कारावां गुजर गया’ नामक उनके काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। बाॅलीवुड में उन्होंने ‘कन्यादान’,‘मेरा नाम जोकर’,‘छुपा रुस्तम’,‘गैम्बलर’,‘तेरे मेरे सपने’,‘शरमिली’,‘प्रेम पुजारी’,‘नई उम्र की नई फसल’ और ‘गुनाह’ नामक फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं। वर्ष 2007 में उन्हें पद्मविभूषण सम्मान से नवाजा जा चुका है, इस समय वे उत्तर भाषा संस्थान के अध्यक्ष हैं। गुफ्तगू के उपसंपादक डाॅ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ ने उनसे कई मुद्दों पर बात की-

सवाल- गीत और ग़ज़ल की संवेदना में किस प्रकार की भिन्नता होती है?

जवाब- जिस प्रकार अच्छी ग़ज़लें दिल को छूती हैं, उसी प्रकार अच्छे गीत भी दिल को छूते हैं लेकिन शब्दों की जो जादूगरी ग़ज़ल के पास है वो अभी हिन्दी के पास नहीं है। ग़ज़ल में क्या है कि ग़ज़ल गद्य की ज़ुबान है लेकिन संकेत के माध्यम से वो ग़ज़ल बन जाती है, जैसे-आप तो रात सो लिये साहब/हमने तकिये पे सो लिये साहब। उनके दामन को छूके आयें हैं/हम तो फूलों से सो लिये साहब।

........तो ग़ज़ल संकेत की ज़ुबान है, मुशायरों की जु़बान है। गीत में भी वही सनसनी है। आजकल गीतकार बहुत समझदारी के साथ गीत नहीं लिख पा रहें हैं। वे यह समझते ही नहीं हैं कि गीत भी संकेत की भाषा है। काश यह बात हिन्दी वाले भी समझते।


सवाल- भाषा के नाम पर ग़ज़ल को ‘हिन्दी ग़ज़ल’ और ‘उर्दू ग़ज़ल’, दो अलग-अलग नाम दिया जा रहे हंै, इसे आप कहां तक सही मानते हैं?

जवाब- ग़ज़ल, ग़ज़ल होती है। वे चाहे हिन्दी में लिखी जाये या उर्दू में।‘हम तेरी चाह में ऐ यार वहाँ तक पहुँचे/होश यह भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे।सदियों न पहुँचेगी दुनियाँ वहाँ सारी/एक ही घँूट में मस्ताना जहाँ तक पहुँचे’

......तो ग़ज़ल में तरन्नुम होना चाहिये, गम्भीरता होनी चाहिये। यदि ये बातें नहीं हैं तो ग़ज़ल चाहे हिन्दी में हो या उर्दू में, वह बेकार है। ग़ज़ल, ग़ज़ल होती है। वह न तो हिन्दी होती है, न उर्दू।


सवाल- वर्तमान में ग़ज़ल विधा हिन्दी में बहुत लोकप्रिय हो रही है, लेखकीय एवं पाठकीय दृष्टिकोण दोनों से, किन्तु एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि हिन्दी के बहुत से ग़ज़ल लेखक अधूरे छन्द ज्ञान के साथ प्रचुर मात्रा में ग़ज़लें लिख रहें हैं, छप रहे हैं। यह प्रवृत्ति कहाँ तक उचित है?

जवाब- यह प्रवृत्ति ग़लत है। आपको बह्र का ज्ञान न हो, छन्दों का ज्ञान न हो तो ग़ज़ल लिखें या गीत; ग़लत है।

सवाल- आज का फि़ल्मी लेखन साहित्य से अपने सम्बन्ध पूरी तरह से पृथक कर चुका है, कैसा महसूस करते हैं आप?

जवाब- आज समाज भ्रष्ट हो चुका है, चूँकि फि़ल्मी लेखन व्यवसायिक लेखन है तो उनको सन्तुष्ट करने के लिये कभी-कभी रचनाकार को नीचे उतरना पड़ता है। पहले मज़रूह थे, इन्दीवर थे, प्रदीप थे..........लेकिन अब क्या है कि कबूतरबाज़्ाी होने लगी है। यह कालचक्र है; कभी ऊँचे जाता है, कभी नीचे। सारा समाज दूषित-प्रदूषित हो गया है, उसको हीरे नहीं पत्थर चाहिये तो पत्थर मिलेंगे। इसमें रचनाकार का कोई दोष नहीं हैं। जो समाज की माँग है, वे वही लिख रहे हैं।

सवाल- नई कविता के नाम पर लिखा जा रहा तमाम कूड़ा-करकट और गीतों के नाम पर महज तुकबंदी को साहित्यिक कचरा कह देना कितना उचित होगा?

जवाब- बिलकुल सही है। यह ज़रूरी नहीं है कि जो कविता छप जाये वह कविता ही हो। आज के दौर में बहुत कम अच्छे रचनाकार हैं, जो वाकई अच्छा लिख रहे हैं।

सवाल- आपके दो पसंदीदा रचनाकार कौन हैं और क्यों?

जवाब- कुंअर बेचैन और सूर्यभानु गुप्त। इनके अतिरिक्त राजेन्द्र राही भी बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं, उनका एक शेर है-

‘मेरे दिल के किसी कोने में एक मासूम-सा बच्चा/बड़ों की देखकर दुनियाँ बड़ा होने से डरता है।’


फि़ल्मी लेखन से जुड़े लोगों में गुलज़ार और जावेद अख़्तर पसंद हैं। नये लड़कों में प्रसून जोशी अच्छा लिख रहे हैं।


सवाल- वर्तमान पीढ़ी साहित्य में भी शार्टकट फार्मूले ढँूढ़ रही है। टेक्नोलाॅजी के बढ़ते प्रभाव ने उन्हें मौका दिया है कि वे अपना कच्चा-पक्का सबकुछ सबके सामने परोस दें; न कोई रियाज़, न कोई पठन-पाठन, बस नेट में सबकुछ शेयर कर दो। इस तरह से आपको साहित्य का भविष्य कैसा दिखता है?

जवाब- साहित्य एक साधना है, कविता लिखना एक साधना है। शार्टकट से कुछ नहीं होने वाला; दो-चार पंक्तियाँ लिखकर कोई हमेशा के लिये लोकप्रिय नहीं हो सकता। समय सबको सूप की तरह छाँट देता है। जहाँ तक साहित्य के भविष्य की बात है तो साहित्य का भविष्य अच्छा ही है। साहित्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता। जब तक आदमी के अन्दर सुख-दुःख की पीड़ा रहेगी तब तक साहित्य रहेगा। हाँ, विज्ञान के बढ़ते प्रभाव के चलते साहित्य का प्रभाव थोड़ा कम अवश्य हो गया है, किन्तु यह कभी ख़त्म नहीं हो सकता, कविता कभी ख़त्म नहीं हो सकती।

सवाल- कवि सम्मेलन और मुशायरों में आजकल बहुत से नकली शायर आ रहे हैं। वे लोग दूसरों की, उधार की रचनायें पढ़ते हैं और अपने सुन्दर कण्ठ की वजह से मंच पर छा जाते हैं........
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जवाब- हाँ, यह हिन्दी में भी चल रहा है और उर्दू में भी चल रहा है, क्या किया जाये! यह सब पैसों का मामला है और पैसे में बहुत ताक़त है। आजकल हर काम पैसों के लिये हो रहा है और यही यहाँ भी हुआ है।

सवाल- पुरानी पीढ़ी के अधिकांश रचनाकार नयी पीढ़ी के रचनाकारों को सहज होने का अवसर नहीं देते और अपनी जि़म्मेदारी से भी मुँह चुराते हैं, ऐसा क्यों?

जवाब- वे जि़म्मेदारी से मुँह नहीं चुराते, बल्कि वे करें भी क्या......! (हँसते हुये) नयी पीढ़ी वाले पुरानी पीढ़ी के लोगों को चुका हुआ मानती है। वे उनसे कुछ प्रेरणा ही नहीं लेना चाहते, उनसे कुछ सीखना ही नहीं चाहते-‘आसमां के सौन्दर्य  का शब्दरूप है काव्य/मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।’

सवाल- समय के बदलाव के साथ क्या साहित्य और अदब में भी कुछ बदलाव की आवश्यकता है?

जवाब- परिवर्तन तो संसार का धर्म है। परिवर्तन हर चीज में होता है; साहित्य में भी होता है, कविता में भी होता है, भाषा में भी होता है। ये सब अपने आप हो जाता है। आज कुछ अच्छा लगता है, कल कुछ और।

सवाल- हिन्दी और उर्दू का पाठक साहित्य से कट रहा है। वे साहित्य पढ़ना ही नहीं चाहते हैं। साहित्य जनमानस में पहले की तरह लोकप्रिय हो, इसके लिये आप क्या सुझाव देंगे?


जवाब- सही बात है। देखिये समय बड़ा बलवान होता है और बड़ों-बड़ों को उठाकर पीछे फेंक देता है। इसलिये चिन्ता की बात नहीं है। अच्छा समय भी आ सकता है, ख़राब समय भी आ सकता है...........वैसे अच्छा समय फिर आने वाला है।

सवाल- आपने हिन्दी सिनेमा और भारतीय जनमानस को बहुत ही सुन्दर गीत दिया है- ‘कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे........’ ऐसे आपने और भी कई गीत दिये हैं। आज जब आप अपने गीत खुद सुनते हैं तो कैसा महसूस करते हैं?

जवाब- अच्छा ही लगेगा भाई! ये सब तो अब जनता के हो गये हैं। मैं दुनिया के जिस हिस्से में गया, लोगों ने मुझे मेरे गीत सुनाये। मैं आस्ट्रेलिया गया, मुझे मेरे गीत सुनाने वाले मिले। अमरीका गया, कनाडा गया, इंग्लैण्ड गया, जहाँ-जहाँ भी गया, मुझे मेरे गीत सुनाने वाले मिले। इससे अच्छा सौभाग्य क्या होगा मेरा! .......आगे भविष्य में वही कवि जीवित रहेगा, जो जनता की गोद में बैठेगा, उनका दुःख-दर्द उनकी भाषा में व्यक्त करेेगा।

सवाल- आपने ढेरों गीत लिखे हैं, कई बहुत लोकप्रिय हुये। आपको अपनी कौन-सी कविता बहुत अच्छी लगती है, जिसे आप अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मानते हैं?

जवाब- मैंने माँ को सम्बोधित करते हुये चार कवितायें लिखी थीं, वे मेरे जीवन की सर्वश्रेष्ठ कवितायें हैं।

सवाल- नयी पीढ़ी के रचनाकारों के लिये आपका क्या संदेश है?


जवाब- मेरा संदेश यह है कि ‘लेखनी अश्रु की स्याही में डुबाकर लिखो/दर्द को प्यार से सिरहाने बिठाकर लिखो।जि़न्दगी कमरों किताबों में नहीं मिलती है/धूप में जाओ, पसीने में नहाकर लिखो।’

गुफ्तगू के सितंबर 2012 अंक में प्रकाशित


3 टिप्पणियाँ:

प्रवीण कुमार श्रीवास्तव ने कहा…

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' जी द्वारा लिया गया नीरज जी का यह इंटरव्यू बहुत ही प्रेरणादायक है.नए रचनाकारों के लिए के लिए अच्छी बात कही है नीरज साहब ने-"जि़न्दगी कमरों किताबों में नहीं मिलती है/धूप में जाओ, पसीने में नहाकर लिखो।’".डॉ.शैलेष गुप्त 'वीर' और 'गुफ्तगू प्रकाशन' बधाई के पात्र हैं.

सुनीता अग्रवाल "नेह" ने कहा…

sach hai privartan sansaar ka niyam hai . shailesh je badhayi :)

dr o p vyas ने कहा…

बहुत ही अच्छा प्रयास है बधाई .... डॉ.ओ.पी.व्यास गुना म.प्र.भारत

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