मुनव्वर राना
अपने हकीम साहब मरहूम भी क्या चीज़ थे, अल्लाह उनकी मग़फिरत करे. इस अदा से झूठ बोलते थे कि सच्चाई बगलें झांकने लगती थी. हर जुमले में तहदारी और इतनी परतें होती थीं कि प्याज की खेती करने वाले भी पैदावार बढ़ाने के लिए उनसे मशविरा करते थे हर चंद कि मैंने किसी भी प्याज के काश्तकार को उन्हें मशविरा देते तो नहीं देखा लेकिन कोई भी होटल वाला उनसे सलाद के पैसे नहीं लेता था. जब भी मौसूफ़ से इस मेहरबानी की वजह पूछी जाती तो पहले हंस कर टाल जाते थे, लेकिन तफ़तीश की यलगार से उकता कर मुस्कुराते हुए कहते थे कि कूचए अरबाबे निशात में फ्रेंच लैटर के पैसे नहीं लिए जाते, सलासत के साथ बलागत और उसके साथ-साथ मानी आफ़रीनी उनके गुफ़्तगू का ख़ासा थी, मौसूफ इबहाम के जत्ररिए जदीदियत की तीसरी मंजिल माबाद जदीदियत का संगे बुनियाद रखते हुए भी शेर के मिसरों को कभी दोलख़्त नहीं होने देते थे. नफ़ासत पसंदी का ये आलम था कि इत्र भी ऐसा इस्तेमाल करते थे जो रुसवाई की तरह फैले, उनका कहना था कि ऐसे मुश्क से क्या फायदा कि गवाही के लिए हिरन ले कर घूमना पड़े. इत्र हमेशा एक मख़सूस दूकान से लेते थे. अक्सर फ़रमाते थे, कि इत्र फरोश और जिस्म फरोश अगर अपनी तब़ीयत से नवाज़ दे तो नवाजिश है वरना समझ लो साजि़श है. ज़ुमले को इबहाम की तंग गली से निकालने की कोशिश में ये भी फ़रमाते थे कि यूं तो इत्र की फुरेरी खोंस देना और हवा में बोसा उछाल कर गाहक तक पहुंचा देना, इत्र फ़रोशों के पेशे में शामिल है.
लेकिन बक़ौल बशीर ‘बद्र’-
कभी यूं भी आ मेरी आंख में कि मेरी नज़र को खबर न हो
मुझे एक रात नवाज दे मगर उसके बाद सहर न हो
हालांकि बशीर ‘बद्र’ के सिलसिले में जब भी गुफ्तगू होती थी तो हकीम साहब हमेशा यही फरमाते थे कि आदमी कलम के बग़ैर, औरत दुपट्टे के बग़ैर, सिपाही तलवार के बग़ैर और बशीर ‘बद्र’ मुनाफिक़त के बगैर नंगे सर मालूम होते है, साथ में ये भी फरमाते थे कि सर को यहां हशू-ओ-ज़ायद समझा जाए.किसी भी मौजू की तरफ़दारी और मुख़ालिफ़त पर एक साथ गुफ़्तगू कर सकते थे, सियासत को मच्छरदानी में मच्छर का शिकार कहते थे, मच्छरदानी को टट्टी की आड़ में शिकार कहते थे, जदीद शायरी के मसौदे को क़ारूरे की तरह देखते थे. साहिबे क़ारूरा के हाथ में क़ारूरा होता था और हाथ हक़ीम साहब के हाथ में.
जिस हाथ से मैंने तेरी जुल्फों को छुआ था
छुप छुप के उसी हाथ को मैं चूम रहा हूं
(मुशीर झिंझानवी)
तरन्नुम से पढ़ने वालों को सरअत अंज़ाल (नज़ले की जमा) का शिकार कहते थे बहुत जूदगो शायर को भी सरअत अंज़ाल (यहां नज़ले की जमा नहीं है) का नतीजा कहते थे, दवा दोनों को एक ही देते थे, फ़ीस मुशायरे के रेट के मुताबिक़ लेते थे. मुशायरे से वापसी पर हमेशा गुस्ल करते थे, कभी वजह नहीं बताते थे, लेकिन शर्मिदा शर्मिदा से रहते थे, मुशायरे में शायरात की कसरत से कन्वीनर को खानदानी पसमंज़र समझ लेते थे. कई ऐसे ही मुशायरों को कन्वीनर को ख़ानदानी पसमंज़र समझ लेते थे. कई ऐसे ही मुशायरों को कन्वीनरों ने महफि़ले मुशायरा में हकीम साहब को देख कर मुशायरे से तौबा कर ली थी, क्योंकि हक़ीम साहब से उनकी दैरीना शनासाई निकली. उनमें से कई हज़रात ने कूचए अरबाबे निशात की आखि़री मंजि़ल तक सिर्फ़ उनकी रहबरी ही नहीं की थी बल्कि चिराग़े राह भी बन चुके थे. कई शायरात के डी.एन.ए. टेस्ट पर ज़ोर देते थे. लेकिन चंूकि दिल के अच्छे थे लिहाज़ा हर शायरा अच्छी लगती थी. रूमानी शायर को अपना रक़ीबे-रुसिया समझते थे. कभी कभी मूड मंे होते तो ये भी कहते थे कि उल्लू, तवाईफ और शायर, रात में ही अच्छे लगते हैं. दिन में तो ये सब एक जैसे दिखाई देते हैं. मुशायरे को मुजरे और नौटंकी का क्रास ब्रीड कहते थे. अक्सर अपनी शे’री सलाहीयत मनवाने के लिए जुमले में जदीदियत का चूना तेज करते हुए उस पर तोप चाची का कत्था भी उंड़ेल देते थे, ज़ायके को मज़ीद मौअतबर बनाने के लिए गुलकन्द का इस्तेमाल भी करते थे. मतला को अंधे ज़रगर के हाथों का बना हुआ झुमका कहते थे. बकि़या शे’रों को मेले की मिठाई और तख़ल्लुस को नाक की कील कहते थे. मुशायरे की शायरी को चरसी चाय और ख़ूबसूरत शायरत को जर्सी गाय कहते थे. ज़्यादा दाद मांगने वाले शायरों को फ़क़ीरों का नुतफ़ा और ना शायरों को रद्दी फ़रोश कहते थे. रिसाले के मुदीर को बैसाखी, सफ़हात को करंसी, तारीफ़ी ख़ूतूत को गीव एण्ड टेक और एकेडमियों को नक़ली कारतूस का कारख़ाना कहते थे.
शायरों के मोबाइल रखने पर सख़्त ऐतराज़ करते थे. ऐसे शायरों की अलग फ़हरिस्त बना रखी थी जो पाख़ाने में भी मोबाइल ले कर जाते हैं लेकिन अक्सर जल्दी बाज़ी में पानी ले जाना भूल जाते थे और ये बात भी मुशायरे से लौटने के बाद याद आती थी. कई ऐसे शायरों से भी बाख़बर थे जिन्होंने नमाज़ पढ़ना सिर्फ इसलिए छोड़ रखी थी कि वहां मोबाइल बंद करना पड़ता था. स्टेज पर मोबाइल से बातें करने को सिगरेट पीकर दूसरों के मुंह पर धुआं छोड़ना कहते थे. ऐसे बेक़रार शायरों से भी बख़ूबी वाकि़फ़ थे जो मन्दिर की घन्टी बजने पर भी मोबाइल कान में लगा लेते हैं-
‘कैस’ तस्वीर पर्दे में भी उरियां निक़ला
इश्क़ को जज़्बात की आबरू कहते थे. झाडि़यों की लुका छिपी से शदीद नफ़रत करते थे, उनका कहना था कि सच्चा इश्क़ तो वही है कि चाहे आदमी टूट जाए लेकिन सारी जवानी वजू ने टूटे, इश्क़ को ख़ुश रंग चिडि़यों का शिकार समझने वालों से शदीद नफ़रत करते थे. बीड़ी से ज़्यादा जब खुद सुलग उठते तो कहते थे कि फ्रेंच लैदर जेब में रख कर घूमने वाली क़ौमें क्या जानें कि गुलाब की शाख से उलझ कर रह जाने वाले आंचल का एक टुकड़ा आशिक़ के लिए कायनात के बराबर होता है. इश्क़ तो वह पाक़ीज़ा जज़्बा है जो एक बाज़ारी औरत के आंचल के बोसे के इंतिज़ार में भी सारी उम्र गुज़ार देता है. इश्क़ की ये दीवानगी अगर बाज़ार में मिलने वाली चीज़ होती तो लैला की पीठ पर मजनूं के ज़ख़्मों के निशान न होते, और अगर हुस्न की मंजि़ल भी दौलत होती तो फ़रहाद दूध की नहर निकालने के बजाए मुल्कों पर क़ब़्ज़ा करने के लिए तलवार लिए क़त्लों-ग़ारत गिरी कर रहा होता.क्लासीकल शायरी के रसिया थे, लेकिन रंगीन शायरी से अज़ली बैर था, फ़रमाते थे कि रंगीन ग़ज़ल महबूब के जिस्म का इश्तहार होती है. पराई बहू बेटियों का तज़किरा ग़ज़ल में करना लफ़्ज़ों से ब्लू फिल्म बनाने के मुतरादिफ़ है, अक्सर समझाते थे कि रंगीन ग़ज़ल महबूब की रुसवाई का सबब है, शहवत को भड़काने का मसाला है, जे़हनी अय्याशी का सामान है. मुशायरे और मुजरे को एक निगाह से देखते थे, मुशायरे को अदब की राम लीला कहते हैं. शायरों की टीम को नाटक मंडली और नकीबे मुशायरा को चोबदार कहते थे, ये कहते हुए इतना बुरा मंुह बनाते थे कि तनक़ीद गाली जैसे मालूम होती थी.
ग़रज़ ये कि हकीम साहब की शख़्सीयत ‘छुटती नहीं है मुंह से ये काफि़र लगी हुई’ जैसी थी. उनकी जली कटी सुनकर कभी-कभी तो जी चाहता था कि आइंदा उनकी सूरत भी ने देखने की सूरत निकाली जाए. लेकिन हक़ीम साहब तो इक़तिदार के नशे की तरह मेरे जे़हनो दिल से क्या मोटर साईकिल तक से नहीं उतरते थे. नाराज़ होते थे तो ‘हम अपना मुंह इधर कर लें तुम अपना मुंह उधर कर लो.’ के पेशेनज़र मोटर साईकिल पर इस तरह बैठते थे सड़क पर बेहिजाबाना इज़हारे इश्क़ करने वाले कई जानवर भी शर्मिदा हो जाते थे. हमेशा समझाते थे कि ऐसे हर एक घर से दूर रहा करो जहां बीवेयर आॅफ डाग लिखा हो. क्यांेकि ज़रूरी नहीं कि उस घर में कुत्ता भी मौजूद हो. यूं भी इस बोर्ड के लिए कई घरों में कुत्ते की ज़रूरत ही नहीं होती. वफ़ादारी की वजह से कुत्तों का बहुत एहतराम करते थे, कभी आदमी को कुत्ता नहीं कहते थे उनका ख़याल था कि इससे वफ़ादारी के आबगीने को ठेस पहुंचती है. सियासी लीडरों की तरफ तो निगाह भी नहीं उठाते थे. कहते थे कि ये इतने नंगे होते हैं कि वजू टूट सकता है, ज़्यादा पढ़े लिखे लोगों से ऐसे बिदकते थे जैसे घोड़ा सांप से. नक़्क़ादों को हमेशा दूकान कहते थे, और तनक़ीद को लाल पेड़ा.... जब कोई इस तरकीबो-तलमीह के बारे मे पूछता तो कहते कि हफ़्ते भर की बची हुई मिठाई को फिर से फेंट लपेट कर लाल पेड़ा तैयार किया जाता है और तनक़ीद भी झूठी सच्ची लफ़जि़यात से तैयार की जाती है. कभी कभी तो उनका फ़लसफ़ा आईने की तरह सच बोलता हुआ लगता था. एक दिन बहुत ही अच्छे मूड में थे मेरे लिए अपने पास से चाय मंगवाई, दो अदद सिगरेट भी, नौकर से बचे हुए पैसे भी नहीं लिए, पहले तो नमकीन चने के कुछ दाने मेरे मुंह में रखवा कर अपना नमक ख़्वार बनाया फिर अपनी माचिस से मेरी सिगरेट ऐसे जलाई, जैसे गुजरात में बस्तियां जलाई जाती है. कम्प्यूटर से निकले फोटो की तरह मुस्कुराए फिर कहने लगे कि एक नुक्ता समझ लो, अगर किसी की बुराई जुबानी की जाए तो ग़ीबत है और उसे तहरीर के जे़वरात से आरास्ता कर के क़ाग़ज के राज सिंहासन पर बिठा दो तो तनक़ीद कहलाती है. दिल्ली में इसकी कई दुकानेें हैं, हालांकि उन दूकानों पर कोई साईन बोर्ड नहीं होता लेकिन तलाश करने में बिल्कुल दुशवारी नहीं होती. क्योंकि जिस्म फ़रोशी का भी काई साईन बोर्ड नहीं होता. जिस्म तो खुद ही ऐसा साईन बोर्ड होता है जिस पर तहरीर तो कुछ नहीं होता लेकिन सब कुछ पढ़ लिया जाता है.
हकीम साहब, किसी भी तनक़ीद निगार को अच्छी नज़र से नहीं देखते थे. तनक़ीद ने भी हकीम साहब को कभी नज़र भर के नहीं देखा. नाक़दीन का कहना था कि तनक़ीद उसी जगह अपनी कुटिया बनाती है जहां तख़्लीक़ हो और हकीम साहब तख़्लीक़ी ऐतबार से बिल्कुल ही कल्लाशं है. लेकिन उन बातों को हकीम साहब निसवानी गीबत कहते थे. जबकि हकीम साहब तो यहां तक कहते थे कि मुझ पर नज़र पड़ते ही तनक़ीद निगार अपनी चश्मे बसीरत से यूं महरूम हो जाते है, जैसे हामला औरत को देख कर सांप. किसी ने हकीम साहब से अज़ राहे मज़ाक पूछ लिया कि क्या आप कभी हामला भी हो चुके है, ज़ाहिर है कि हकीम साहब से ये पूछना सांप की दुम पर पंाव रखने के बराबर है. लेकिन हकीम साहब की इसी अदा पर तो हम लोग मरते थे कि वह इस जुमले को ऐसे पी गए जैसे चिराग़ तेल पी जाता है. जैसे मज़दूर सरमाए दारों की गाली पी जाते हैं, जैसे घरेलू उलझनें चेहरे का आब पी जाती है, जैसे मग़रिबी औरतें हंसते हुए शराब पी जाती हैं. थोड़ी देर तक इधर उधर देखते रहे फिर बोले कि उर्दू तनक़ीद निगारों का यही तो फूहड़पन है कि ज़बानों बयान, मुहावरे बंदी, तलमीहात, इबहाम और इशारियत से कतई नावाकिफ होते है और उर्दू तनक़ीद में अंग्रेजी के कुछ गढ़े हुए जुमले और झूठे सच्चे फार्मी अण्डे जैसे अंग्रेजों का नाम लिख कर उर्दू शायरी को कीट्स, वुड्ज वर्थ की शायरी के बदन का मैल साबित करने की कोशिश करते हैं. बल्कि भी-कभी तो ‘शिबली’ की तहरीर को एक नुक़्ते की मदद से ‘शैली’ की तहरीर साबित कर देते हैं. ऐसे नाक़दीने-अदब को टूडी बच्चे कहते है जो अंग्रेजी के पहिए की मदद से अपनी अदबी गाड़ी खींचते हैं.
एक दिन किसी ने इत्तिफ़ाक़न पूछ लिया कि हकीम साहब अदब में अब बड़े लोग क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं, ये सवाल सुनते ही बच्चों की तरह खिलखिला कर हंस दिए फिर फरमाया कि अदब में बड़े लोग इसलिए पैदा नहीं हो रहे हैं कि हमारी तनक़ीद छोटे लोगों पर लिख रही है, हर शायर अपने साथ खुद साख़्ता कि़स्म के नक़्क़ाद लेकर चलता है. जैसे माफि़या अपने साथ दबंगो को लेकर चलते है या ज़्यादातर ये ख़ुद साख़्ता नाक़दीन अब उन लोगों पर लिखना पसंद करते थे जो उनकी सब्ज़ी के झोले में फ़ार्मी मुर्गे रख कर लाते हैं. बल्कि बवक्त़े ज़रूरत फ़ार्मी अण्डे तक देने को तैयार रहते है. ज़ाहिर है कि जब अदब फ़ार्मी अण्डे और मुगऱ्ी में उलझ जाएगा तो क़लम भी पेशेवर मौलवी की तकरीर होकर रह जाएगा. ऐसे घटिया अदबी बाजार में अच्छा अदब तलाश करना, ज़नख़ों के मेले में निरोध बेचना है. हकीम साहब तक़रीबन बेक़ाबू हो चुके थे. मगर बातें पते की कह रहे थे. कहने लगे उर्दू अदम में तनक़ीद उस नील गाय की तरह है जिसे भोले भाले शायर व अदीब उस पर उम्मीद पाल लेते हैं कि आगे चल कर ये दूध देगी. लेकिन ये तनक़ीदी नील गाएं अदब के लहलहाते खेत को चर जाती हैं. सांस लेने को रूके और फिर गोया हुए कि तनक़ीद की बेलगाम घोड़ी सिर्फ़ दौलत, अदबी इक़तिदार और गै़र मुल्की करंसी के कोड़ो से ही काबू में आ सकती है. फिर सबसे अफ़सोस की बात ये है कि हम ने उर्दू के हर तनक़ीद निगार को कई चीजे़ बेचते और बहुत सी ज़रूरी ओैर गैर जरूरी चीजें़ खरीदते देखा है लेकिन आज तक यानी 68 बरस की उम्र होने को आ गई, उसे कोई उर्दू रिसाला, कोई शेरी मजमूआ, कोई कहानियों की किताब यहां तक कि उर्दू का अख़बार भी ख़रीदते नहीं देखा और जिस ज़बान के अदीब व दानिशवर उर्दू ज़बान की बक़ा के लिए सौ पचास रुपये नहीं ख़र्च कर सकते, उस ज़बान की हिफ़ाज़त की गारंटी कौन ले सकता है. लिहाज़ा ये समझ लिया जाए कि उर्दू मर चुकी है.-
कुछ रोज़ से हम सिर्फ़ यही सोच रहे हैं
हम लाश हैं और गिद्ध हमें नोच रहे हैं।।
(मुनव्वर राना)(गुफ्तगू के सितंबर 2012 अंक में प्रकाशित)
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