शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी उर्दू आलोचना की दुनिया में उस मुकाम पर हैं जहां पहुंचने का ख़्वाब तक़रीबन हर साहित्यकार देखता है। उनकी कारगुज़ारियों की वजह से अब तक उन्हें पद्मश्री से लेकर सरस्वती सम्मान तक से नवाजा जा चुका है। ये न सिर्फ़ उर्दू के बड़े नक़्काद और शायर हैं बल्कि अंग्रेज़ी, अरबी और फारसी के भी अच्छे जानकार हैं। 30 सितंबर 1935 को जन्मे श्री फ़ारूक़ी ने शुरूआती तालीम आजमगढ़ में हासिल की, गोरखपुर विश्वविद्याल से स्नातक की डिगी हासिल करने के बाद उन्होंने ने 1955 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एम.ए किया। 1958 से 1994 तक भारतीय डाक सेवा में चीफ पोस्टमास्टर जनरल और पोस्टल सर्विस बोर्ड के सदस्य रहे हैं। वे पेन्सालानिया विश्वविद्यालय अमेरिका में एडजंट प्रोफेसर भी रहे। उन्होंने ‘शबखून’ नामक पत्रिका प्रकाशित और संपादित की, जो दुनियाभर के उर्दू अदीबों में ख़ासी मक़बूल रही है। मीर तक़ी मीर की शायरी पर उनकी लिखी पुस्तक ‘शेर शोर अंगेज’ पर उन्हें सरस्वती सम्मान से नवाजा जा चुका है। वर्ष 2009 में उन्हें पद्मश्री एवार्ड मिला। अब तक उनकी प्रकाशित पुस्तकों में- शेर ग़ैर शेर और नस्र (1973),द सिक्रेट मिरर ( अंग्रेज़ी में,1981), ग़ालिब अफ़साने की हिमायत में (1989), शेर शोर अंगेज़ (तीन भागों में, 1991-93), उर्दू का इब्तिदाई ज़माना (2001), गं़जे-ई-सोख्ता (शायरी), सावर और दूसरे अफ़साने (फिक्शन), कई चांद थे सर-ए-आसमां (नाॅवेल) और ज़दिदीयत कल और आज (2007) हैं। गुफ्तगू के उप संपादक डा. शैलेष गुप्त ‘वीर’ व सलाहउद्दीन ने उनसे बातचीत की।
सवालः आलोचना के क्षेत्र से आप कैसे जुडे ?
जवाब: शुरू में मैं कहानियां और उपन्यास लिखता था। मैंने अंग्रेज़ी में भी लिखा, लेकिन बाद में यह समझ आयी कि अंग्रेज़ी में जो भी लिखेंगे कम ही होगा, हमें हिन्दुस्तानी में लिखना चाहिए। 19वीं सदी में हमारे यहां अवधारणा थी कि साहित्य का उद्देश्य व्यक्ति सुधार एवं समाज सेवा होनी चाहिए। मैंने कहा, साहित्य का एजेण्डा आदमी को इम्प्रूव करना नहीं, बल्कि क्रिएटिविटी होना चाहिए, जीवन-अनुभव होना चाहिए और उससे आदमी में इम्प्रूवमेंट करने जैसी चीज़ें निकल ही आती हैं। साहित्य को किसी भी विशेष विचारधारा राजनैतिक, धार्मिक सिद्धांत का पालन नहीं करना चाहिए। लेखक को स्वतंत्र होना चाहिए, ताकि वह अपने मन की बात कह सके। पहले कहा जाता था कि वह राजाओं-नवाबों का नौकर था और विशेष विचारधाराओं का पोषण करे तो अब राजनैतिक दलों का नौकर है, तो फिर अब और तब में क्या फकऱ् रह गया, इन्हीं बातों को लेकर मैंने आलोचना के क्षेत्र में अपने कदम रखा।
सवाल: उर्दू आलोचना, हिन्दी आलोचना से किस प्रकार भिन्न है ?
जवाब: कोई भिन्नता नहीं है, दोनों उसी प्रकार हैं। जिन चीज़ों में उर्दू आलोचना फंसी हुई थी, उन्हीं चीजों में हिन्दी आलोचना (प्रगतिशीलता में और सोशल चेंज का नौकर बनाने में)। हम दोनों के यहां अंग्रेज़ी का प्रभाव बहुत अधिक था, दोनों भाषाओं में आधुनिकवाद भी एक ही समय शुरू हुआ। एक अंतर यह अवश्य है कि आधुनिक हिन्दी की परंपरा उतनी प्राचीन नहीं जितनी उर्दू की।
सवाल: क्या कारण है कि आज की तारीख़ में मीर, ग़ालिब, दाग़ और इक़बाल जैसे शायरों का अभाव है ?
जवाब: (हंसते हुए) इसका कोई फार्मूला तो नहीं। कब, कौन, कहां कितना बड़ा शायर पैदा हो जाये, इसका पहले से कोई पता नहीं। साहित्य के क्षेत्र में किसी बटन से तो काम होता नहीं, बटन दबा दिया गया और ऐसा हो गया। कुछ लोग कहते हैं कि इसके लिए सोशल इवेन्ट्स चेजेन्ज एवं पालटिकल सोशल चेजेन्ज़ एवं पालीटिकल चेंजेज होते हैं जबकि ऐसा नहीं होता। जब केंद्र में एनडीए सरकार बनी तो उस समय का सारा साहित्य एनडीए के रंग में रंग जाना चाहिए, जबकि ऐसा नहीं हुआ।
सवाल: एक आलोचक और एक साहित्यकार की भूमिका में क्या fark
है ?
जवाब: आलोचक तो एक बछड़े की तरह है। गाय दूध देगी तो पीयेगा, नही ंतो भूखे मर जायेगा। आलोचक एक मीडियेट है जो बताता है कि साहित्य कैसे बनता है और उसमें क्या है। चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ अपनी एक कहानी पर अमर हो गये, और भी कवि लेखक हैं जो अपने एक शेर या गीत की बदौलत ख़्यातिलब्ध हो गये। आप किसी एक आलोचक नाम बताएइये जो अपने एक लेख के बदौलत अमर हो गया हो, यहां पूरी किताब लिखने के बाद भी यह स्थिति नहीं बनती।
सवाल: कहा जाता है कि एक बड़ा आलोचक एक नये रचनाकार के सर पर हाथ रख दे तो उसकी आगे की राह बहुत असान हो जाती है ?
जवाब: मैं इससे सहमत नहीं हूं। यह चंद दिनों के लिए हो सकता है, हमेशा के लिए नहीं। वर्ना आप खुद सोचिये क्या किसी आलोचक ने इक़बाल, मंटो या प्रेमचंद को प्रमोट किया है। उस समय नकारे जाने के बावजूद आज (अब) ये बस बड़े रचनाकार हैं। हां, आलोचक की ड्यूटी यह ज़रूर है कि नये लोगों को समझे, प्रोत्साहित करे और लोगों तक उसे पहुंचाये। इतिहास के पन्नों पर अमर होने के लिए बड़े से बड़ा आलोचक भी आपके लिए कुछ नहीं कर सकता।
सवाल: आप पर इल्जाम है कि आपने अंग्रेज़ी आलोचना की चीज़े उर्दू में अनुवाद कर शोहरत हासिल की ?
जवाब: (जोर से हंसते हुए) मैं तो बहुत पहले से यह कहता आ रहा हूं कि अंग्रेज़ी साहित्य को उर्दू क्या, पूरे हिन्दुस्तानी सािहत्य में अप्लाई ही नहीं किया जा सकता। उनकी संस्कृति और इतिहास पृथक है, उनसे कुछ उपयोगी चीज़े अवश्य ली जा सकती हैं। ऐसा तो बहुत लोगों ने किया था, मैंने तो बहुत कम चीज़ें, जो अर्थपूर्ण थीं, उन्हें ही उठाई थीं। ग़ज़ल उनके यहां नहीं है तो फिर उनकी कौन सी क्रिटिक हमारे यहां लागू होगी और यह तो संभव ही नहीं है कि कोई अनुवाद काम आ जाये। आप यह बताइये शेक्सपीयर, हार्डी या टी एस इलियट की आलोचना ग़ालिब, मीर या प्रेमचंद की आलोचना में किस प्रकार अनुदित की जा सकती है। कुछ अर्थपूर्ण चीजें़ ही मोडीफाई करके ली जा सकती हैं, अनावश्यक चीज़े नहीं।
सवाल: आजकल ‘हिन्दी ग़ज़ल’ शब्द बहुत प्रचलित है, क्या ऐसी कोई चीज़ है भी, और अगर है तो वह उर्दू ग़ज़ल से किस प्रकार भिन्न है ?
जवाब: ठीक है, आजकल हिन्दी में भी अच्छी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं, इसके अतिरिक्त गुजराती, मराठी और अन्य कई भाषाओं में भी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं। लेकिन प्रत्येक भाषा की कुछ अपनी साहित्यिक परम्पराएं होती हैं, जो उसी भाषा में फिट बैठती है। आप किसी चीज़ का उपरी आकार ही ले सकते हैं, दुष्यंत कुमार ने हिन्दी में अच्छी ग़ज़लें लिखी लेकिन उर्दू ग़ज़लों जैसी नहीं।
सवाल: क्या ‘हिन्दी ग़ज़ल’ यह शब्द उपयुक्त है ?
जवाब: हां, बिल्कुल ठीक है, वो तो खुद बता रहे हैं यह ग़ज़ल है, लेकिन हिन्दी की।
सवाल: साहित्य में नये लोगों को आने से पहले किस बात पर ज़्यादा ज़ोर देना चाहिए ?
जवाब: पहले तो उन्हें पढ़ना खूब चाहिए। साहित्य नहीं नहीं इतिहास, भूगोल और सामान्य विज्ञान की भी जानकारी होनी चाहिए।
सवाल: क्या कारण है कि अपने समय में क्रांतिकारी लोगों को वह महत्व नहीं दिया गया, जिसके वे हक़दार होते हैं, जैसे उर्दू साहित्य में सआदत हसन मंटो, हिन्दी कविता में निराला जी या दर्शन के क्षेत्र में फ्रेडरिक नीत्शे ?
जबाव: हां, यह होता भी है और नहीं भी। यह कोई सिद्धांत नहीं है। वली और मीर ने अपने समय में भी वह शोहरत और महत्व हासिल किया जो आज भी है। यह बात ठीक है कि मंटो साहब को जितना सम्मान आज दिया जाता है, तब नहीं मिला। निराला जी आज होते तो लाखों करोड़ों में खेलते।
सवाल: आज नये-नये रिसालों की बाढ़ सी आ गयी है। इन रिसालों में ऐसी कौन सी मूलभूत बातें हैं, जिनका अभाव खटकता है ?
जवाब: यह खुशी की बात है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि रिसाले निकालने वाले ज़्यादातर लोग अपने आस-पास के ही लोगों का सम्मान करना चाहते हैं। आज से पचास साल पहले जिस तरह के लोग प्रिंट में नहीं आ सकते थे, वे प्रिंट में आ रहे हैं, उन पर लिखने वाले लोग भी पैदा हो गये हैं।
सवाल: क्या आप यह मानते हैं कि उर्दू को उर्दू लिपी में ही लिखा जाये या देवनागरी और उर्दू दोनों में लिखा जाना चाहिए ?
सवालः ये उर्दू के लिये ही क्यों कहा जाता है। आप हिन्दी, तमिल और बंग्ला को उर्दू लिपी में लिखने के लिए क्यों नहीं कहते हैं? हर भाषा की एक लिपि होती है। यह मुमकिन है कि आप किसी भी भाषा को किसी भी लिपि में लिख दें भले ही उसे पढ़ने में दिक्कत हो लेकिन लिख तो सकते ही हैं। यहां दिक्कत यह है कि हिन्दी और उर्दू बोलने के स्तर पर लगभग एक जैसी है। ऐसे में तो हिन्दी और उर्दू का अंतर ही मिट जायेगा औंर उर्दू की सात सौ वर्ष पुरानी परंपरा समाप्त हो जायेगी। लिपी तो भाषा और जीवन के साथ जुड़ी हुई है। उसे फिर क्यों अलग किया जाए।(गफ्तगू के जून 2009 अंक में प्रकाशित)
जवाब: आलोचक तो एक बछड़े की तरह है। गाय दूध देगी तो पीयेगा, नही ंतो भूखे मर जायेगा। आलोचक एक मीडियेट है जो बताता है कि साहित्य कैसे बनता है और उसमें क्या है। चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ अपनी एक कहानी पर अमर हो गये, और भी कवि लेखक हैं जो अपने एक शेर या गीत की बदौलत ख़्यातिलब्ध हो गये। आप किसी एक आलोचक नाम बताएइये जो अपने एक लेख के बदौलत अमर हो गया हो, यहां पूरी किताब लिखने के बाद भी यह स्थिति नहीं बनती।
सवाल: कहा जाता है कि एक बड़ा आलोचक एक नये रचनाकार के सर पर हाथ रख दे तो उसकी आगे की राह बहुत असान हो जाती है ?
जवाब: मैं इससे सहमत नहीं हूं। यह चंद दिनों के लिए हो सकता है, हमेशा के लिए नहीं। वर्ना आप खुद सोचिये क्या किसी आलोचक ने इक़बाल, मंटो या प्रेमचंद को प्रमोट किया है। उस समय नकारे जाने के बावजूद आज (अब) ये बस बड़े रचनाकार हैं। हां, आलोचक की ड्यूटी यह ज़रूर है कि नये लोगों को समझे, प्रोत्साहित करे और लोगों तक उसे पहुंचाये। इतिहास के पन्नों पर अमर होने के लिए बड़े से बड़ा आलोचक भी आपके लिए कुछ नहीं कर सकता।
सवाल: आप पर इल्जाम है कि आपने अंग्रेज़ी आलोचना की चीज़े उर्दू में अनुवाद कर शोहरत हासिल की ?
जवाब: (जोर से हंसते हुए) मैं तो बहुत पहले से यह कहता आ रहा हूं कि अंग्रेज़ी साहित्य को उर्दू क्या, पूरे हिन्दुस्तानी सािहत्य में अप्लाई ही नहीं किया जा सकता। उनकी संस्कृति और इतिहास पृथक है, उनसे कुछ उपयोगी चीज़े अवश्य ली जा सकती हैं। ऐसा तो बहुत लोगों ने किया था, मैंने तो बहुत कम चीज़ें, जो अर्थपूर्ण थीं, उन्हें ही उठाई थीं। ग़ज़ल उनके यहां नहीं है तो फिर उनकी कौन सी क्रिटिक हमारे यहां लागू होगी और यह तो संभव ही नहीं है कि कोई अनुवाद काम आ जाये। आप यह बताइये शेक्सपीयर, हार्डी या टी एस इलियट की आलोचना ग़ालिब, मीर या प्रेमचंद की आलोचना में किस प्रकार अनुदित की जा सकती है। कुछ अर्थपूर्ण चीजें़ ही मोडीफाई करके ली जा सकती हैं, अनावश्यक चीज़े नहीं।
सवाल: आजकल ‘हिन्दी ग़ज़ल’ शब्द बहुत प्रचलित है, क्या ऐसी कोई चीज़ है भी, और अगर है तो वह उर्दू ग़ज़ल से किस प्रकार भिन्न है ?
जवाब: ठीक है, आजकल हिन्दी में भी अच्छी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं, इसके अतिरिक्त गुजराती, मराठी और अन्य कई भाषाओं में भी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं। लेकिन प्रत्येक भाषा की कुछ अपनी साहित्यिक परम्पराएं होती हैं, जो उसी भाषा में फिट बैठती है। आप किसी चीज़ का उपरी आकार ही ले सकते हैं, दुष्यंत कुमार ने हिन्दी में अच्छी ग़ज़लें लिखी लेकिन उर्दू ग़ज़लों जैसी नहीं।
सवाल: क्या ‘हिन्दी ग़ज़ल’ यह शब्द उपयुक्त है ?
जवाब: हां, बिल्कुल ठीक है, वो तो खुद बता रहे हैं यह ग़ज़ल है, लेकिन हिन्दी की।
सवाल: साहित्य में नये लोगों को आने से पहले किस बात पर ज़्यादा ज़ोर देना चाहिए ?
जवाब: पहले तो उन्हें पढ़ना खूब चाहिए। साहित्य नहीं नहीं इतिहास, भूगोल और सामान्य विज्ञान की भी जानकारी होनी चाहिए।
सवाल: क्या कारण है कि अपने समय में क्रांतिकारी लोगों को वह महत्व नहीं दिया गया, जिसके वे हक़दार होते हैं, जैसे उर्दू साहित्य में सआदत हसन मंटो, हिन्दी कविता में निराला जी या दर्शन के क्षेत्र में फ्रेडरिक नीत्शे ?
जबाव: हां, यह होता भी है और नहीं भी। यह कोई सिद्धांत नहीं है। वली और मीर ने अपने समय में भी वह शोहरत और महत्व हासिल किया जो आज भी है। यह बात ठीक है कि मंटो साहब को जितना सम्मान आज दिया जाता है, तब नहीं मिला। निराला जी आज होते तो लाखों करोड़ों में खेलते।
सवाल: आज नये-नये रिसालों की बाढ़ सी आ गयी है। इन रिसालों में ऐसी कौन सी मूलभूत बातें हैं, जिनका अभाव खटकता है ?
जवाब: यह खुशी की बात है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि रिसाले निकालने वाले ज़्यादातर लोग अपने आस-पास के ही लोगों का सम्मान करना चाहते हैं। आज से पचास साल पहले जिस तरह के लोग प्रिंट में नहीं आ सकते थे, वे प्रिंट में आ रहे हैं, उन पर लिखने वाले लोग भी पैदा हो गये हैं।
सवाल: क्या आप यह मानते हैं कि उर्दू को उर्दू लिपी में ही लिखा जाये या देवनागरी और उर्दू दोनों में लिखा जाना चाहिए ?
सवालः ये उर्दू के लिये ही क्यों कहा जाता है। आप हिन्दी, तमिल और बंग्ला को उर्दू लिपी में लिखने के लिए क्यों नहीं कहते हैं? हर भाषा की एक लिपि होती है। यह मुमकिन है कि आप किसी भी भाषा को किसी भी लिपि में लिख दें भले ही उसे पढ़ने में दिक्कत हो लेकिन लिख तो सकते ही हैं। यहां दिक्कत यह है कि हिन्दी और उर्दू बोलने के स्तर पर लगभग एक जैसी है। ऐसे में तो हिन्दी और उर्दू का अंतर ही मिट जायेगा औंर उर्दू की सात सौ वर्ष पुरानी परंपरा समाप्त हो जायेगी। लिपी तो भाषा और जीवन के साथ जुड़ी हुई है। उसे फिर क्यों अलग किया जाए।(गफ्तगू के जून 2009 अंक में प्रकाशित)
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